क्या सुख? क्या दु:ख? / एक्वेरियम / ममता व्यास

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कौन जाने सुख के पांव में बंधी थी समय की झांझर या समय के पैर में थी सुख की पायल। ज़िन्दगी की थाप पर जब नाचे ये दोनों...टूट कर बिखर-बिखर गयी झांझर, पायल सब।

टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरा सुख। हमने-तुमने खूब संभाले बिखरे हुए सुख के घुंघरू। ज़िन्दगी के कच्चे आंगन में ढुलकते फिरे थे। ये ...शायद टुकड़ों में ही सुख मिलना तय था। टूटी पायल फिर कभी जुड़ी नहीं, झांझर भी फिर पहले जैसी बजी नहीं।

हाँ, बातों के टुकड़े समेटने में उम्र गुजरी जो बीच की खाली जगह थी न हम उसे भर सकते थे सांसों से। लेकिन हमने तो सांस ही घोंट दी रिश्ते की। हमने संवाद की जगह चुप्पी चिपकाई.

काश...कोई हौले से छूकर अपने स्पर्श से इतिहास बदलने का हुनर जानता।

जीने के बहाने चाहिए थे न, इसलिए खुद से ही मान लिया हमने कि जो जी रहे हैं यही जीवन है। लेकिन ऐसा था नहीं...पिंजरे से टकरा कर कोई कैसे कह दे वह आजाद है? हवा गुजरती है इस पार से उस पार, लेकिन मन के भीतर ठहरा वक्त नहीं गुजर पाता। कोई जाकर भी नहीं जाता, फिर कैसे मान ले कोई चला गया। मान लेने और जान लेने में फर्क है न...चलो आज मान भी लें कि जो मिला है वही जीवन है। या जीवन जैसा कुछ...लेकिन सुनो...ये जीवन नहीं है...सच्ची ये जीवन नहीं है।