क्या हो रहा है विद्यालयों में / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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गुरूजी का नाम मस्तराम रखा हुआ है। वैसे उनका अच्छा खासा नाम है। पर विद्यालय में छात्र भी उन्हें पीठ पीछे मस्तराम ही कहते हैं। वे भी कह जाते हैं, ‘छोड़िए, नाम में क्या रखा है।’ मस्तराम जीवविज्ञानी हैं। उनका अनुभव भी मस्त हैं। उनके प्राणियों के बारे में अपने तर्क हैं। मसलन,वे अक्सर कहते हैं,‘जीवों में आदमी ही सबसे कुरूप है। अन्य जीवों में मादा से ज्यादा नर सुन्दर होता है। शेर, मुर्गा, मोर, कुत्ता, तोता, को देख लो। ये सब शेरनी, मुर्गी, मोरनी, कुतिया और तोती से ज्यादा सुन्दर दीखते हैं। पर आदमी औरत के सामने कुछ भी नहीं। क्यों?’

यह सुनकर हर कोई निरूत्तर हो जाता है। मस्तराम की अभी एक दशक की नौकरी बाकी है। लेकिन वे पूरी नौकरी का चिकित्सा अवकाश ले चुके हैं। सत्र के शुरूआती दो महीनों में वे सालाना आकस्मिक अवकाश खा जाते हैं। उन्होंने सालाना मिलने वाला एक अर्जित अवकाश भी बचा कर नहीं रखा है। जबकि अर्जित अवकाश सेवानिवृत्ति के समय मिलने वाले वेतन के दिनों के बराबर अतिरिक्त वेतन दिलाता है। वैसे मस्तराम कभी बीमार नहीं पड़े। वे उम्र का अर्द्ध शतक लगा चुके हैं। पर दीखते हैं तीस के। बड़ी-बड़ी गोल आंखें। घंुघराले काले बाल। क्लीन शेव। अक्सर सफेद कमीज पहनते हैं। जो सुबह-सवेरे तो चमकती है, लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता है, वो कमीज मैली होती जाती है। वे हर मौसम में चमड़े के जूते ही पहनते हैं। जो हमेशा काले रंग के ही होते हैं। अगर कोई कारण पूछता है तो दायां पैर हवा में लहराते हुए एक ही जुमला कहते हैं, ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला।’ रविवार हो या विद्यालय का अवकाश। कमीज की जेब में एक नीला और लाल पेन हमेशा चमकता हुआ दीख जाएगा।

वैसे तो सब ठीक है। लेकिन जरा सी कमी है मस्तराम में। बस विद्यालय पंहुचते ही, हाजिरी रजिस्टर में चिड़िया बिठाते ही वे अपना रंग दिखाने लगते हैं। दांयी आँख दबाते हुए कह पड़ते हैं,‘आज की दिहाड़ी पक्की।’ सर्दी,गर्मी और बरसात। मौसम कोई भी हो। उनके विद्यालय में हरफनमौला टाईप के कुछ चेले हैं। जो न जाने कहां से जुगाड़ कर देते हैं। यह भी नहीं पता चल पाता कि जुगाड़ से लाई हुई दवा (उनके शब्दों में दारू दवा ही है) की कितनी खुराक कब,कहां और किसके सामने ली गई है। बस। फिर क्या होना है। उनका अंदर का जीव विज्ञानी जाग उठता है।

आजकल वे बेहद मशहूर हो गए हैं। अति संकटापन्न जीव गरूड़ जिसे गिद्धराज कहते हैं। आरोप है कि उन्होंने प्राइवेट छात्रों के सहयोग से विद्यालय परिसर के अंदर ही गरूड़ के एक बच्चे को आग में भून कर खा डाला। बताया गया है कि उस दिन बोर्ड की परीक्षा के वे ही प्रभारी थे। उस दिन प्राईवेट छात्रों की दोनों पाली में परीक्षा थी। जीव विज्ञानी साहब की अच्छी दावत हो गई। कोई पास ही झाड़ी से गरूड़ का बच्चा पकड़ लाया। बताया गया कि वो जंगली मुर्गा है। मस्तराम जी ने अपना जीव विज्ञानी तर्क देते हुए पुष्टि कर दी थी कि इस जलवायु में गरूड़ पक्षी यहां नहीं आते, सो यह जंगली मुर्गा ही हो सकता है। बस। फिर क्या होना था। विज्ञान लाइब्रेरी से छुरा लाया गया। मस्तराम जी इन मामलों के विशेषज्ञ घोषित हैं ही। उन्होंने आव न देखा ताव, पतीला चढ़ा दिया गया। बात आई-गई हो गई। जंगल में मोर नाचा,किसने देखा। कहावत चरितार्थ हो गई। लेकिन प्राईवेट छात्र फेल हो गए। उन्होंने यह बात फैला दी। बात फैलते-फैलते वन्य जीव संरक्षण अधिकारी तक जा पंहुची। आजकल तो नई सरकार है। बात की खाल निकालती है। जांच बैठ गई। पूछताछ होने लगी। मस्तराम जी के लेखे-जोखे की पड़ताल की गई। पर्यावरणविद् बुलवाये गए। विद्यालय की भौगोलिक और मौसमीय जलवायु का अध्ययन करवाया गया।

पक्षी और जीव विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि विद्यालय क्षेत्र के आस-पास तक भी जंगली मुर्गों की कोई प्रजाति नहीं रह सकती। अलबत्ता गरूड़ के लिए क्षेत्र का मौसम अनुकूल है। इस बात की तो पुष्टि हो ही गई कि विद्यालय में जो पतीला चढ़ा था,उसमें जंगली मुर्गा नहीं था। बात की बात इतनी बढ़ी कि मस्तराम जी ने दवा की खुराक लेकर कह ही दिया कि जो भी खाया गया,उसे पचा लिया गया है। अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से कोई लाभ नहीं। बात प्रधानाचार्य जी के कान तक पंहुची। चार कानों से चार दिशाओं में फैली। जांच को नई हवा मिलनी ही थी। जांच सदस्यीय टीम उखड़ गई। उस दिन जिस दिन पतीला चढ़ा था, ड्यूटी में उपस्थित स्टाफ से लिखित में ले लिया गया कि अमुक दिन जंगली मांस पका था और एक-दो ठुंगार उन्हें भी मिली थी। बस मस्मराम जी की मस्ती हवा हो गई।

कानूनबाजों की राय में गरूड़ अति संकटापन्न जीव है। इसे मारना और अनाधिकृत रूप से रखना भी संज्ञेय अपराध है। गैर जमानती अपराध है। सात साल से अधिक का कारावास भी मिल सकता है। वगैरह-वगैरह। जांच पर जांच चल रही है। मस्तराम जी को निलंबन आदेश मिल चुका है। वह बड़ी फुर्ती में कहीं जा रहे हैं। किसी ने पूछा तो कहने लगे,‘उन प्राइवेट छात्रों को खोजने जा रहा हूं। जिन्होंने वह पक्षी लाया था। संभव है कि वे कहीं सुदूर जंगल से जंगली मुरगा ले आए हों। माना कि जंगली मुरगे यहां नहीं रहते। पर लाए तो जा सकते हैं। विलायती फल तो हिंदुस्तान में खूब मिल रहा है। तो इस क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र का जीव नहीं आ सकता। बोलो?’ बात तो मस्तराम जी की सही है। अब वे बचे या जाएं। लेकिन एक बात तो साफ है कि विद्यालय में दाल-भात पकने की जगह ये कथित क्या-क्या पकने लगा है। क्या यह शोध और खोज के विषय हो सकते हैं ? यदि हां, तो जरा सूची तो बनाईए। देखे कितनी लंबी बनती है।