क्रांतिबीज / ओशो

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प्रवचनमाला

अमावस उतर रही है। पक्षी नीड़ों पर लौट आये हैं और घिरते अंधेरे में वृक्षों पर रात्रि-विश्राम के पूर्व चहल-पहल है। नगर में दीप जलने लगे हैं। थोड़ी ही देर बाद आकाश में तारे और नीचे दीप ही दीप हो जाने को हैं।

पूर्वीय आकाश में दो छोटी काली बदलियां तैर रही हैं। कोई साथी नहीं है- एकदम अकेला हूं। कोई विचार नहीं, बस बैठा हूं। और कितना आनंदप्रद है। आकाश और आकाश-गंगा अपने में समा गयी मालूम होती है।

विचार नहीं होते हैं, तो व्यक्ति-सत्ता, विश्व-सत्ता से मिल जाती है। एक छोटा-सा परदा है, अन्यथा प्रत्येक प्रभु है। आंख पर तिनका है और तिनके ने प्रभु को छिपा लिया है। यह छोटा-सा ही तिनका संसार बन गया है। इस छोटे-से तिनके के हटते ही अनंत आनंद-राज्य के द्वार खुल जाते हैं।

जीसस क्राइस्ट ने कहा है, 'जरा-सा झांकों भर, द्वार खुले ही हैं।'

एक व्यक्ति सूर्यास्त की दिशा में भागा जा रहा था। उसने किसी से पूछा, 'पूर्व कहां है?' उत्तर मिला,

'पीठ भर फेर लो, पूर्व तो आंख के सामने ही मिल जायेगा।' सब उपस्थित है। ठीक दिशा में आंख भर फेरने की आवश्यकता है।

यह बात सारे जगत में कह देनी है। इसे ठीक से सुन भी लेना, बहुत-कुछ पा लेना है। स्व-दिव्यता की आस्था आधी उपलब्धि है। मैंने आज ही मिलने आये एक मित्र से कहा है : संपत्ति पास है, केवल स्मरण नहीं रहा है। सम्यक स्मृति जगाओ- अपनी दिव्यता को स्मरण करो- कौन हो तुम?

अपने को पूछो- पूछो- और इतना पूछो कि समस्त मन-प्राण पर वह अकेला स्वर गूंजता रह जाये। फिर अचेतन में उसका तीर उतर जाता है और वह अलौकिक उत्तर अपने आप सामने आ खड़ा होता है, जिसे जान लेना, सब-कुछ जान लेना है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)