क्षितिज तक फैला काव्य:‘ओस नहाई भोर’/ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जल का धारा होना ही उसकी मुक्ति है। बन्धन जल नहीं होता , प्रेम नहीं होता , ईश्वर भी नहीं होता । फिर भी चिन्तन और अभिव्यक्ति किसी अनदेखे अनबूझे बन्धन में बँधे होते हैं । यह बन्धन सर्जक का स्वयं के लिए बनाया गया भाव-कल्पना आदि का स्रोत होता है , जिसकी सीमाएँ उसके अनुभव –जगत् से उपजी हैं । यही अनुभव-जगत् एक रचनाकार को दूसरे से अलग करता है । रशियन कवि, उपन्यासकार, नाटककार , अभिनेता , फ़िल्म निर्देशक येवगेनी येवतुशेंको (Yevgeny Yevtushenko)के अनुसार - Poetry is like a bird, it ignores all frontiers. सच्चा काव्य वही है, जो किसी देशकाल के बन्धन में नहीं बँधता ।विधाओं का क्षेत्रीय आधार पर विरोध करने वाले वे व्यक्ति हैं , जिनका चिन्तन अभी तक अँधेरों में भटक रहा है । काव्य-सर्जना सायास नहीं होती । कलिका का फूल के रूप में प्रस्फुटन एक सहज प्रक्रिया है , सायास नहीं। तदनुरूप भाषा स्वत: ही अनुगामिनी बन जाती है ।सायास लिखने वाले भाषा का कान भेड़ समझकर पकड़ लेते हैं और उसे विधा के बाड़े में बलात् ढकेल देते हैं।इस तरह की रचनाओं का कोई भविष्य नहीं। यदि व्यक्ति निजी जीवन में ईमानदार नहीं है, तो उससे सर्जना के स्तर पर ईमानदारी की आशा नहीं की जा सकती । नारेबाजी करके कोई कवि नहीं बन सकता , क्योंकि कविता किसी पार्टी का घोषणापत्र नहीं, यह तो शान्तमना कवि के एकान्त क्षणों की सहज स्वीकृति है । इसके लिए एलेन गिन्सबर्ग Allen Ginsberg ने कहा है-“Poetry is not an expression of the party line. It’s that time of night, lying in bed, thinking what you really think, making the private world public, that’s what the poet does.”

हिन्दी हाइकु के सहज काव्य-रूप से जुड़कर लिखने वाले डॉ सुधा गुप्ता , डॉ भगवतशरण अग्रवाल, नलिनीकान्त, नीलमेन्दुसागर, डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव, जैसे कतिपय समर्थ रचनाकारों के बाद एक युवावर्ग का पदार्पण हुआ; जिन्होंने हाइकु की आत्मा को पहचाना और उसे उदात्त काव्य की गरिमा प्रदान की । ऐसे रचनाकारों में डॉ भावना कुँअर, डॉ हरदीप सन्धु, डॉ कुँवर दिनेश, रचना श्रीवास्तव,कमला निखुर्पा, प्रियंका गुप्ता, डॉ जेन्नी शबनम, ज्योत्स्ना प्रदीप , सुशीला शिवराण, कृष्णा वर्मा , डॉ ज्योत्स्ना शर्मा , अनिता ललित,सुनीता अग्रवाल, गुंजन अग्रवाल ने अपने गुणात्मक सर्जन से हाइकु को नया स्वरूप प्रदान किया ।कुछ पुराने साहित्यकार जैसे डॉ उर्मिला अग्रवाल, डॉ सतीशराज पुष्करणा , सुदर्शन रत्नाकर , पुष्पा मेहरा , हरेराम समीप भी इस विधा को समुन्नत करने में कटिबद्ध हैं। इन सबके बीच दोहा , ग़ज़ल , नवगीत , कुण्डलिया आदि छन्दोबद्ध रचनाएँ रचने वाली डॉ ज्योत्स्ना शर्मा एक उल्लेखनीय नाम है । यही कारण है कि हाइकु में लय का निर्वाह इनके लिए सहज साध्य रहा है।इनका ओस नहाई धूप 496 हाइकु का-संग्रह अपनी सहज प्रस्तुति के कारण बरबस ही ध्यानाकर्षित करता है । यह संग्रह सात अनुभाग में विभाजित है -1-करूँ नमन !,2-प्रकृति-सखि !,3-कैसा कुचक्र ?,4-सुधियों की वीथिका,5-बिखरा दूँ कलियाँ,6-नवल किरण ,7-विविध रस-रंग ।

1-करूँ नमन ! में इनकी कामना , इनकी आराधना है केवल साधिका बनना । एक अच्छे कवि की इससे बड़ी पहचान और क्या ओ सकती है-

मैं आराधिका । वर दें पद्मासना / रहूँ साधिका !

वहीं आर्त्त पुकार अपने कान्हा से भी की है । संसार दु:ख की नदी है , तो कान्हा का नाम –स्मरण ही पार कराने में सहायक हो सकता है-

जीवन नैया / दुःख की नदी पड़े / तारो न कान्हा ।

जीवन का मार्ग तभी निष्कण्टक रह सकता है ; जब मार्ग दिखाने वाला सद्गुरु मिल जाए । सच्चे गुरु की संगति माटी को भी चन्दन बना देती है । माता भी उसी सच्चे गुरु की श्रेणी में आती हैं , जो सारी पीर सहकर भी अधीर नहीं होती , जिसका स्पर्शमात्र सारी पीड़ा को हर लेता है-

करूँ नमन / माटी को भी सद्गुरु / करें चन्दन ।

स्पर्श तुम्हारा / पीड़ा के सवालों का / हल है प्यारा ।

2-प्रकृति-सखि !-हाइकु की शोभा है प्रकृति और यह बाह्य प्रकृति अन्त:प्रकृति का ही प्रतिबिम्ब है । प्रकृति का सौन्दर्य अनादिकाल से मानव- मन को लुभाता रहा है हिन्दी काव्य में हाइकु ने प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का दिग्दर्शन कराया है । आलम्बन , उद्दीपन , प्रतीक आदि अनेक रूपों में ज्योत्स्ना शर्मा ने अपने हाइकु-काव्य में जीवन्त किया है । इसका कारण है , प्रकृति से आत्मीय जुड़ाव । ‘प्रकृति सखि !’ में यह सौन्दर्य अभिभूत करने वाला है ।

नीली चादर / टाँक दिए किसने / तारे इतने ?

भोर किरन धरती का अभिवादन चरण छूकर करती है । शुद्ध भारतीय शिष्टाचार में ढला यह हाइकु भारतीय संस्कृति का अग्रदूत प्रतीत होता है-

भोर किरन / उतरी है धरा के / छूने चरन ।

जीवन के शाश्वत सत्य को प्रकृति के माध्यम से प्रस्तुत किया है । उधर सूरज की बाल सुलभता देखिए –जैसे छोटा बच्चा एक –एक वस्तु को छूकर गिनता है , उसी तरह सूरज भी अपनी किरणों से फूल और कलियों को गिनता है । भारतीय –काव्य परम्परा के अनुसार कवयित्री ने रूपक का भी सहजता से निर्वाह किया है-

रवि मुस्काया / डूबा कल ,क्या हुआ ? / मैं लौट आया ।

सूरज गिने / किरन-कर से छू / फूल, कलियाँ ।

प्रकृति के मानवीकरण ने हाइकु को और भी अधिक गरिमामय बना दिया है । संझा का जोगन-रूप, बैराग लिये हुए फिर भी किसी की प्रतीक्षा करना ! अपने आपमें चित्ताकर्षक है। थके सूरज का अस्ताचलगामी होने पर सागर में डूब-डूब नहाना , थकान दूर करने का कितना अच्छा उपाय है ! रात का , चाँदनी में डूबोकर भोर के लिए सन्देसे लिखना कितनी गहरी अर्थ-व्यंजना समेटे हुए है -

जोगन -सँझा / बैठी बैराग लिये / पंथ निहारे ।

सूरज थका / डूब –डूब नहाए / गहरे नीर ।

संदेशे लिखे / चाँदनी में डुबोके / निशा भोर के ।

इधर –उधर भटकती रजनीबाला को अपने तन-मन की सुध-बुध तो है ही नहीं । कुछ भी , कहीं भी खो आए , क्या ठिकाना । ऐसी बेखबर रजनीबाला का ‘बाला’ कहाँ गुम हो गया , उसे कुछ पता नहीं। प्रकृति के बेजोड़ सौन्दर्य का बिम्ब हाइकु की इन पंक्तियों में निखर उठा है-

यूँ ही भटकी / कहाँ खो आई बाला / रजनी बाला ?

रजनी बाला / कहाँ खोया है बाला / हँसिया वाला ।

पर्वत पर सुस्ताती काली घटा और घास के नर्म बिछौने पर सोई सर्दी की धूप का मानवीकरण और भी सहज हो उठा है-

अद्भुत छटा / पर्वत पे सुस्ताएँ / काली घटाएँ ।

नर्म घास- से / बिछाकर बिछौने / सोई है धूप ।

हरसिंगार अपनी प्रेयसी धरा का शृंगार स्वयं को समर्पित करके किस भावविभोरता और समर्पण के साथ करता है , दर्शनीय है। साथ ही हरसिंगार और झर सिंगार की लयात्मकता , फूलों –भरी बगिया का काँटों का हार पहनना भी देखिए-

हरसिंगार / धरा प्रिया का करें / झर सिंगार ।

पहने खड़ी / फूलों-भरी बगिया / काँटों के हार ।

गर्मी का ताण्डव और उसके बाद माटी में मिलकर नन्ही बूँदों द्वारा सोंधी खुशबू बिखेरना । शीत की अतिशयता में धूप का कहीं जा छिपना, दाँतों का बात करना, दाँत किटकिटाने को व्यंजित करता है -

रवि-अंगार / सूख चलीं नदियाँ / प्यासे तड़ाग ।

माटी से मिलें / जब नन्ही बुंदियाँ / उड़े सुगंध ।

शीत की मारी / कहाँ जा छुपी है ये / धूप बिचारी ।

सर्दी की रात / बतियाँ करें दाँत / काँपे है गात ।

ॠतुओं का यह परिवर्तन जीवन में नित्य –प्रति होने वाला शाश्वत परिवर्तन ही तो है, जिसे प्रकृति मुस्कराकर स्वीकार करती है । जाने वाला इसलिए जा रहा है कि उसे कल फिर वापस आना है । मुस्कराकर झरते हुए पत्ते के माध्यम से पतझर को ज्योत्स्ना शर्मा ने इस प्रकार स्वीकार किया है-

पत्ता जो गिरा / मुस्कुरा कर कहे / फिर आऊँगा ।

बीता है कल / आज को भी जाना है / फिर आना है ।

यही प्रकृति का सख्य भाव है । फूल का , तितली का , पूरी वनस्पति का सौन्दर्य इसलिए है कि हम समझें कि इस सौन्दर्य में हम मानव कहाँ ठहरते हैं ! शायद बहुत नीचे के सोपान पर । जो इनके सौन्दर्य का सम्मान नहीं करेगा , वह मानव-मन की खूबसूरती का आकलन नहीं कर सकता ।

3-कैसा कुचक्र – में मानव के लोभजनित कृत्यों की ओर ध्यान दिलाया गया है । विकास के नाम पर प्रकृति –विनाश ही अधिक हुआ है । भोगवादी वृत्ति नि:सर्ग के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है-अनावृष्टि , अतिवृष्टि ,जीव-जन्तुओं के अस्तित्व को निगलने वाला पर्यावरण - विनाश धरा और गगन सबको कुपित कर रहा है । वन –विनाश के कारण जीव-जन्तु , नदी सब आहत हो रहे हैं । प्रकृति का कोप भी मानव को दण्डित करने को बाध्य है । अट्टालिकाओं ने पंछियों का ठौर ठिकाना भी छीन लिया है। धुआँ –धुआँ आकाश में सबका दम घुटने लगा है -

किसने तोड़ा / बदरा का जियरा /मन है अवाक्

नाचेगा मोर ? / बचा ही न जंगल / ये कैसी भोर ?

अट्टालिकाएँ / बेघर पंछी ढूँढें- / ठौर-ठिकाना ।

कराहें कभी / वन ,वृक्ष ,कलियाँ /रोती है धरा ।

न घोलो विष / जन ,जीव व्याकुल / है प्यासी धरा ।

काटें न वृक्ष / व्याकुल नदी-नद /धरा कम्पिता ।

पीर नदी की- / कैसे प्यास बुझाऊँ / तप्त सदी की  !

बादल धुआँ / घुटती-सी साँसें हैं / व्याकुल धरा ।

धरती भी आश्चर्य-चकित है कि मानव –मन इतने विनाश से भी नहीं भरा है-

चकित धरा / ध्वंस से मानव का / मन न भरा ?

4-सुधियों की वीथिका -जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए हुए बहुत सारे मधुर-तिक्त अनुभव होते हैं , सबको होते हैं । कवयित्री ने सुधियों के माध्यम से जीवन की विशद व्याख्या की है । बीते दिनों की सुधियाँ जीवन को ऊष्मा प्रदान करती हैं । कभी आँखों का काजल बहकर सारे दर्द बयान कर देता है बर्फ थे रिश्ते / यादों के ये अलाव / दे गए ताप ।

काजल बहे / दिल के दर्द सारे / सबसे कहे ।

निहारा तुम्हें , / जब भी याद आए / पुकारा तुम्हें ।

जीवन की धूप में मन के जो पनघट रीत गए , प्रेम का जल सूख गया , उनको फिर से भरने का प्रयास , जीवन को फिर से पूरी उत्कण्ठा के साथ जीना है । प्रेम के पवन की दिशा में नौका को ले जाना है । व्यथा को आँसुओं के साथ बह जाने का अवसर देना है, ताकि जी हल्का हो जाए । यादों की बस्ती है तो हर घर पर उसी एकनिष्ठ प्रेम की निशानी नज़र आ रही है , जिसके सहारे पूरा जीवन जिया जा सकता है- पनघट जो / धूप में रीत गए / भर दूँ नए ।

प्रेम-पवन / साँसों की पतवार / हो गए पार ।

कह जाने दो / व्यथा आँसुओं -संग /बह जाने दो ।

यादों की बस्ती / हर घर पे लिखा / तेरा ही नाम ।

वस्तुत: जीवन है भी तो क्या ? जीवन, आँसू और मुस्कान की जीवन स्थली है -

सुन रे मन ! / आँसू और मुस्कान / यही जीवन ।

हाइकु का माधुर्य इस अनुभाग की शक्ति है । काव्य का यही रूप इनको भीड़ से अलग करता है । जो लोग अच्छे रचनाकर्म से कोसो दूर हैं , वे इसकी पूर्त्ति प्राणहीन हाइकु ग़ज़ल, हाइकु दोहा , हाइकु नवगीत का साँचा बनाकर आत्म मुग्ध हो रहे हैं । इनमें प्राय: वे लोग अधिक हैं जो दोहा , नवगीत या ग़ज़ल में फुटपाथ पर भी जगह नहीं बना सके हैं।

5-बिखरा दूँ कलियाँ-में जीवन की मधुर आशा है । शुभकामनाएँ हैं, हृदय की उदात्त भावनाएँ हैं । साथी के पथ से काँटे चुनने और बहारें खिलाने का प्रयास है । उस प्यार को भी अधिमान दिया है ,जिसके कारण हर स्मृति जीवन का अन्तरंग बन गई है ।

बात तुम्हारी /कलिका पे थिरकी / ओस की बूँद ।

चुन लूँ काँटे / तेरे पथ से साथी / खिलें बहारें ।

हैं तो तुम्हारी / बस मुझको प्यारी /सुधियाँ सारी ।

अपार प्यार से सींचने पर बीज रूप से पल्लवित –पुष्पित होने की प्रक्रिया, नयनों में बस जाना उस प्रेममय रूप की पराकाष्ठा है

मैं बीज ही थी / सींच दिया तुमने / प्यार अपार ।

न आँसू तुम / कजरा भी नहीं हो / नैनों में बसे ।

वहीं वह बहन भी है जिसका भाई राखी के दिन पहुँच नहीं सका । बस आँसू से भिगोकर एक मोती उस प्रेम सूत्र में पिरो दिया –

राखी पे दूर / एक मोती पिरोया / आँसू-भिगोया ।

पावनता की वह शक्ति भी है , जिसे समय की आँधियाँ कुछ पल को झुका तो सकती हैं; लेकिन मिटा नहीं सकती-

पावन रही / बगिया की दूब-सी / मिटा न सको ।

डॉ सुधा गुप्ता , डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव,ने बच्चों पर केन्द्रित हाइकु रचे हैं ।‘नवल किरन’– में बच्चों के लिए रचे गए हाइकु हैं , जिनके भाव मधुर और भाषा सरल और सहज है । ज्योत्स्ना शर्मा के इन हाइकु की सरसता मन को मुग्ध करने वाली है-

दे दाना भैया / चुनमुन चिरैया / करे ता-थैया !

ओ मिठ्ठू मेरे / बोलो तो राम-राम / दूँगी ईनाम ।

पूँछ उठाए / यूँ मुँह धोए जाए / ये प्यारी गिल्लू ।

तीखी , ततैया / मिर्च हरी भाए है / हो मीठे भैया !

नाचे है कैसा पूँछ सजाए पैसा / मस्ती में मोर ।

भुने भट्टी-सी / सूरज है अंगारा / कैसे मैं खेलूँ ?

7-विविध रस-रंग . में जीवन के विविध रंग-रूप आकर्षित करते हैं। घर का दुखदायी बँटवारा , ग्रामीण परिवेश को उकेरता हारे में रखा उबलता दूध , बेटी की बिदाई से उदासी –भरा गाँव , तनिक –सी बात पर असहिष्णुता के कारण चलती गोलियाँ नए बदलाव का संकेत करती हैं-

रोया है नीम / बाँट दिए आँगन / माँ तकसीम ।

हारे में दूध / घर भर में मीठी / महक भरे ।

बिटिया विदा / जो घर की उजास / गाँव उदास ।

बँटा समाज / चलती हैं गोलियाँ / मेड़ों पे आज ।

दूसरी ओर निरीह व्यक्तियों का जीवन छीनकर जश्न मनाने की आतंकवाद की अमानवीयता विश्वभर में दिनों -दिन बढ़ती जा रही है-

देकर त्रास / छीनके ज़िंदगी ,क्यों / करें उल्लास !

जनहित के नाम पर कुर्सी हथियानेवाले नेता जनसेवक का छद्म वेश धारण करके आम आदमी को छल रहे हैं ।कानून और न्याय शक्तिशाली के पक्ष में खड़ा दिखाई दे तो चिन्तित होना ज़रूरी है-

है चिंता भारी / जनहित की ओट / कुर्सी है प्यारी ।

डॉ ज्योत्स्ना शर्मा का यह हाइकु –संसार आश्वस्त करता है कि जीवन –अनुभव की विभिन्न छवियों से ओतप्रोत ये नए हाइकुकार उत्तम काव्य का पथ प्रशस्त कर रहे हैं । सही अर्थों में हाइकु कविता विस्तार पा रही है । इन्हीं के शब्दों में-

बूँद हाइकु / अविरल कविता / सागर हुई ।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि ‘ओस नहाई भोर’ पाठकों को परितृप्त करेगा । निश्चित रूप से इस संग्रह की गणना उत्कृष्ट संग्रहों में की जाएगी ।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 16 नवम्बर , 2014

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