ख़्वाबों की खुशबू: संस्कृति का दस्तावेज / सुधा गुप्ता

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डॉ.हरदीप कौर सन्धु हिन्दी और पंजाबी काव्य-जगत् में एक सुपरिचित नाम है, आप हिन्दी में बढ़िया हाइकु लिखती हैं, किन्तु अपनी मातृ भाषा के लिए भी आपका समर्पण-भाव उल्लेखनीय है। हिन्दी हाइकु का पंजाबी में अविकल अनुवाद जो मूल के अति निकट नहीं, लगभग मूल जैसा ही है, आपकी विशेष उपलब्धि है। आपने दोनों भाषाओं के हाइकुकारों को निकट लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया है। अन्तर्जाल पर 'हिन्दी हाइकु' और त्रिवेणी'वे दो नियमित ब्लॉग हैं, जिनका सम्पादन आप रामेश्वर काम्बोज' हिमांशु' के साथ संयुक्त रूप से पिछले वर्षों से करती आ रही हैं। परिणामतः देश-विदेश के हजारों पाठक आपकी रचनाधर्मिता एवं आपके सम्पादन-कौशल से भली भाँति परिचित हो चुके हैं। इसी भाँति पंजाबी भाषा कि समृद्धि के लिए आपने अनेक जालघर प्रारम्भ किए हैं।

विश्व स्तर पर प्रसिद्ध अनेक जालघरों पर डॉ.सन्धु की रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है, और पाठकगण की सराहना प्राप्त करती हैं। साहित्य के प्रति आपका अनुराग और लगन अत्यंत सराहनीय हैं। एक अति व्यस्त जीवन जीते हुए (डॉ.हरदीप सन्धु सिडनी ऑस्ट्रेलिया में अध्यापनरत है) , कार्यकारी महिला और गृहस्थी का सारा उत्तरदायित्व वहन करते हुए अपनी रचनाधर्मिता के प्रति कटिबद्ध प्रतिबद्धता के साथ-साथ अन्तर्जाल पर सक्रियता के कारण निश्चय ही उनकी जितनी प्रशंसा कि जाए, कम ही होगी।

इस सन्दर्भ में यह लिखना और जानकारी देना आवश्यक लगता है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 'हिन्दी हाइकु' ब्लॉग पर 220 हाइकुकार अपने हाइकु द्वारा सम्बद्ध हो चुके हैं और 8000 हाइकु का विशाल संग्रह 'हिन्दी हाइकु' के कोष की निधि बन चुके हैं। डॉ.हरदीप द्वारा संचालित / सम्पादित पंजाबी भाषा के ब्लॉग भी अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त कर चुके है, जिनमें 'हाइकुलोक' ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। निःसन्देह 'हिन्दी हाइकु' एवं 'त्रिवेणी' ब्लॉग पर आपका और रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का पारस्परिक सहयोग, मिश्रित परिश्रम, समय और ऊर्जा का सम्मिलित सुफल ही परिणाम रूप में सामने आया है।

डॉ.हरदीप के हाइकु, निरन्तर दर्जनों पत्रिकाओं, सहयोगी, संकलनों तथा अन्य अनेक रूपों में प्रकाशित होते रहे हैं। उनका व्यक्तिगत ताँका-चोका संग्रह (मिले किनारे) 2011 में काम्बोज जी के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशित हो चुका है। सेदोका'अलसाई चाँदनी' संकलन में आए जिसकी सम्पादन त्रयी में वह स्वयं भी हैं। 'चन्दनमन' और'यादों के पाखी' में हाइकु, 'भावकलश' में आपके ताँका से भी पाठक परिचित हो चुके हैं। अभिप्राय यह है कि डॉ.हरदीप ने जापानी काव्य-विधाओं में गहरी दिलचस्पी रखते हुए विविध रूपों में अपना योगादान किया है। कदाचित् अति व्यस्तता के कारण ही उनका ध्यान कभी अपने निजी एकल हाइकु संकलन निकालने की ओर नहीं गया होगा! अब 'ख़्वाबों कि ख़ुशबू' नाम से एक हाइकु-संकलन आया है, जिसमें 584 हाइकु का विशाल भण्डार है। संग्रह को नौ उपखण्डों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन उनके विस्तृत काव्य फलक का परिचय देने में समर्थ है।

डॉ.हरदीप कौर सन्धु एक ऐसी कवयित्री हैं, जिनमें भावयित्री एवं कारयित्री प्रतिभा का अनूठा संगम है। इनकी भावनाओं की सहजता, सादगी, विश्वसनीयता हृदय से उमड़कर आती है और बहुत शीघ्र उतनी ही सादगी, सहजता-बिना किसी शब्दाडम्बर के कविता के रूप में फूट पड़ती है। यही कवयित्री की सबसे बड़ी सफलता है, विशेषता है। हाइकु-संग्रह का प्रथम खण्ड 'गाँव वह मेरा' इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। एक ऐसी उच्च शिक्षित महिला जो वर्षों से विदेश में रहकर वहाँ रच बस गई है, इतनी शिद्दत से अपने शैशव, कैशोर्य काल में गाँव में बिताए ग्राम्य जीवन के उन 'मीठे' पलों को याद करती है कि उस जीवन के रहन-सहन, खान-पान, बाल क्रीड़ाएँ, बचपन के साथी, संयुक्त परिवार के सदस्य-दादी, ताई आदि समेत सारा क्रिया-व्यापार प्रत्यक्ष हो उठता हैः

गाँव से आया / ख़त में / गुँथकर / रँगीला प्यार।

चिड़िया तोते / ओटे छपी मूरतें / चहकी यादें।

पीपल नीचे / खींच चक्र खेलते / वे डण्डा डुक।

हम उमर / रेतीले टिब्बे खेलें / नूण-निहाणी।

गाँव जाते / आठ-आने का सौदा / रूँगा भी खाते।

सावन-झड़ी / गुलगुले-मठरी / माँ की रसोई।

ठण्डी हवाएँ / नाच किकली डालें / अल्हड़ जवाँ।

कली करने / पीतल के बर्तन / आए ठठेरा।

कैमरा क्लिक / मुँह छुपाए अम्मा / ताई कहे न!

दादी बनाती / जोड़-जोड़ उपले / बड़ा गुहारा।

नानी के बाल / तेल सरसो / लगा, / सोने के तार।

दादी न रुके / सुन घन-गर्जन / चूल्हे को ढके।

तोड़ उपले / दादी हारे में डाले / आग सुलगे!

ये कुछ हाइकु बतौर बानगी प्रस्तुत किए गए हैं। सहृदय और उस समय के परिवेश का जानकार पाठक निश्चय ही रसाप्लावित हो उठता है।

दूसरे खण्ड 'बिखरी यादें' भी गुजरे जीवन का दर्पण हैं और 'याद' के लिए भाँति-भाँति के इतने उपमान एकत्र हो गए हैं कि उनकी गणना भी मुश्किल है:

याद किशोरी / मन खिड़की खोल / करे कलोल।

मिसरी-डली / बचपन-सहेली / यादों में मिली।

यादों की भट्टी / जलता दुःखी मन / तपे बदन।

पगती रही / यूँ रूह की खुराक / यादों के चूल्हे।

तिरती रही / बैठ यादों की नाव / तुम्हारे संग।

तीसरे खण्ड 'रिश्ते जीवन के' में घर-परिवार के 65 हाइकु और दोस्ती के 12 हाइकु हैं। घर-परिवार में प्रथम 30 'बिटिया' के जन्म सम्बन्धी उल्लास तथा उससे प्राप्त होने वाली खुशियों का नवीन उद्भावनाओं द्वारा अंकन किया गया है। कुछ हाइकु द्रष्टव्य हैंः

खुशबू बन / महके है बिटिया / घर आँगन।

नन्ही-सी परी / वो घुँघरू की मीठी / रुनझुन-सी।

सूर्य-उजाला / सुबह की आरती / लाडो बिटिया।

माँ के आँगन / गुड़िया पटोले से / बिटिया खेले।

बेटियों से तो / घर है गुलशन / खिला आँगन

इसी खण्ड में 35 हाइकु माँ के महिमामय प्यार, दुआओं, माँ की रसोई की मीठी खुशबू और बिटिया के बड़े हो जाने पर माँ का उसे 'दूसरे घर' विदा करते समय के करुण क्रन्दन को समर्पित हैं:

सबसे बड़ा / है इस दुनिया का / तीर्थ मेरी माँ।

एक रब है / बैठा दूर गगन, / दूजा रब माँ।

माँ की रसोई / पकवान बनते / ममता-पगे।

माँ की दुआएँ / मेरे सिर पर छाँव / करती रहें।

विदा कि घड़ी / द्वार भी घबराए / बिटिया चली।

रोटी को चूर / प्यार का मीठा डाल / बनाई चूरी।

विदा कि घड़ी / कूंज बिछुड़ गई / आज डार से।

बेटी को मिले / हर साँस में सुख / माँ करे दुआ।

बिदाई हुई / गुड़िया व पटोले / नीर बहाएँ।

डॉ.हरदीप के मन में माँ का रचा-बसा प्यार, माँ के प्रति उनका गहरा लगाव प्रभावशाली रूप में उनके रचित हाइकु में अभिव्यक्त हुआ है। यह आत्मीयता और मार्मिकता पाठक को तन्मय करने में पूर्णतः समर्थ है।

दोस्ती के हाइकु में कवयित्री ने एक सच्चे दोस्त की विशेषताओं को रेखांकित किया हैः

दिल जोड़ती / बिन माँगे कुर्बान / हो जाए दोस्ती।

फूल-पंखुरी / तितली से पंख-सी / नाजुक दोस्ती।

सर्द माथे पर / है गर्म हथेली की / छुअन दोस्ती।

कवयित्री के भावपूर्ण और सादगी-भरे कथन सीधे दिल में उतर जाते हैं।

चौथे खण्ड 'जिन्दगी के सप़फ़र में' अपने आपको पूरी तरह सार्थक कर रहा है। यहाँ क्लिष्ट उक्तियों से दूर डॉ.हरदीप का एक चिन्तक और दार्शनिक का रूप मुखरित हुआ हैः

ये जीवन है / सुख और दुःख का / जमा-निकासी।

दुःख जो आता / जीवन को माँजता / आगे बढ़ाता।

चप्पू न कोई / उमर की नदिया / बहती गई।

जैसे हाइकु पढ़कर प्रतीत होता है कि अपेक्षाकृत छोटी उम्र में ही ज़िन्दगी के 'धूपछाँही' निष्कर्ष कवयित्री के हाथ लग गए हैं और उन्होंने धूप और चाँदनी दोनों को स्वीकार कर, उनसे समझौता भी कर लिया है।

खण्ड-5 'एक अनोखा सच' में डॉ.हरदीप अति यथार्थवादी जमीन पर उतरकर अपने चारों ओर के संसार को खुली नजर से देखती-आँकती हैं और इस 'अनोखे सच' की अभिव्यक्ति बड़ी ही ईमानदारी से करती हैं:

खाने वालों की / उठा रहे जूठन / ये भूखे बच्चे।

तेरा ये मेरा / घर का बँटवारा / आँगन छोटा।

अर्थी उठाएँ / दुःख व मातम के / लगा मुखौटे।

कवयित्री की दृष्टि से कुछ भी नहीं छिपा हैः

किया उजाला / काजल भी उगला / दीप जो जला।

पूजा के बाद / अगरबत्ती-राख / थी मेरे हाथ।

जैसे लक्षणा-शक्ति से आपूरित खूबसूरत हाइकु एक समर्थ हाइकुकार की लेखनी का कौशल प्रकट करते हैं।

खण्ड-6 'प्रकृति' है, जिसके अन्तर्गत 87 हाइकु हैं। डॉ.हरदीप की कविता मुझे अक्सर मोहती है, उसका एक विशिष्ट कारण यह भी हो सकता है कि मेरी रुचियाँ उनकी रुचियों के बहुत अनुकूल और निकट जा पड़ती हैं। 'प्रकृति' शीर्षक के अन्तर्गत जो हाइकु हैं, उनमें दो विशेषताएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती हैंः एक ओर यह प्रकृति उनके बचपन के परिवेश से ऐसी जुड़ी कि अपनी चित्रशाला में वे सभी चित्र सँजो लाई, जिन्हें 'संस्कृति की धरोहर' कहा जा सकता है, कुछ उदाहरण:

गर्मी की रात / करके छिड़काव / बिछाई खाट।

खुले आँगन / जोड़कर बिछाते / खाट से खाट।

गर्मी थी आई / पंखी घुँघरू वाली / माँ ने बनाई।

गर्मी जो आई / मीठी मलाई-लस्सी / माँ ने बनाई।

आँखों में भर / वो तारो भरी रात / आती निंदिया।

गर्मी यूँ झेलें / पुदीना-जलजीरा / बिकता ठेले।

महिलाओं का गृहस्थी, रसोई से सहज-सुलभ आकर्षण कभी कम नहीं होता। ः

गर्मी थी जारी / सब्जी मंडी में देखे / आम अचारी।

प्रकृति वर्णन का दूसरा रूप वह है, जहाँ प्रकृति की सम्पदाओं का आलम्बनगत वर्णन किया गया है। अनेक रूपों में आकर्षक प्रकृति-सुन्दरी अपना सम्मोहन लिये उपस्थित हैः

सुबह होते / पत्तों-हाथ मेहँदी / ओस रचाती।

घटा घूमती / यूँ घाघरा उठाए / ज़मीं चूमती।

ऊँचा पर्वत / नीली अँखियों वाली / झील निहारे।

रेशमी धूप / बहे उप़फ़क पार / शफक शाम।

फूल मनाएँ / वेलिनटाइन डे / कलियों संग।

ऐसी मौलिक ताजा अछूती (और प्रतीकात्मक भी) उद्भावनाएँ प्रकृति के नवीन सौन्दर्य का द्वार खोलने में पूर्णतः सक्षम हैं।

प्रकृति वर्णन में अन्तिम 16 हाइकु आज की वैश्विक चिन्ता 'पर्यावरण क्षति' से जुड़े हैं, जो कवयित्री की सहज अभिव्यक्ति का उद्घोष करते हैं:

गूँगे जंगल / जार-जार रो रहे / जख़्मी आँचल।

मैला शृंगार / प्रकृति है लाचार / चन्दा बीमार।

ओजोन छाता / धरा लिये है खड़ी / बची चमड़ी।

निगलें धुआँ / पहने धुआँ-धुआँ / जीवन धुआँ।

गंदला पानी / रो रही मछलियाँ / वे जाएँ कहाँ!

करे सवाल / बोए क्यूँ रे ज़हर / माटी घायल।

ज़हर-घुले / गंगा-जमुना मैली / पाप न धुले।

ऊपर दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट है कि हाइकुकार जल प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, आकाशीय प्रदूषण (ओजोन-पर्त का नाश) आदि सभी स्तरों पर सचेत है और चिन्ताग्रस्त भी।

सातवें खण्ड 'पावन अहसास' में 125 हाइकु हैं, जो स्वयं में एक हाइकु-संग्रह बनने की सामर्थ्य लिये हुए। खण्ड-आठ 'संसार-सरिता' और खण्ड-4'ज़िन्दगी के सप़फ़र में' विषय की दृष्टि से (कथ्य की समानता) एक होने से क्रमशः 62, 66=128 हाइकु का एक पृथक् स्वतन्त्र हाइकु-संग्रह बन सकता है।

वास्तव में इस अकेले हाइकु-संग्रह 'ख़्वाबों की खुशबू' की सामग्री से यदि हाइकु-संग्रहों की गिनती में विश्वास करने वाला कोई अन्य हाइकुकार होता, तो कम से कम तीन-चार संग्रह बना डालता। अन्तिम खण्ड 9 में पंजाब की समृद्ध संस्कृति के प्रतीक 'त्रिंजण' का प्रयोग ऐसा बहु आयामी एवं अनन्त अर्थ-विस्तारक है कि अलग से उस पर पृष्ठ के पृष्ठ लिखे जा सकते हैं।

अन्ततः मैं यही कहना चाहूँगी कि डॉ.हरदीप कौर सन्धु के इस हाइकु-संग्रह 'ख़्वाबों की खुशबू' में भारतीय संस्कृति के ऐसे विमुग्धकारी चित्र हैं, जिनसे यह एक महत्त्वपूर्ण 'दस्तावेज़' बन गया है। आने वाले समय में इसका उचित मूल्यांकन होगा, यह सुनिश्चित है। डॉ.सन्धु के इस सत्प्रयास को पाठकों का अतुलित स्नेह मिले, यही शुभकामना है।

12 जुलाई, 2013