खामोश लम्हे / भाग 5 / विक्रम शेखावत

Gadya Kosh से
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अपने मकान पर पहुँच भानु ने कॉलेज जाने की तैयारी की, आज उसका आखिरी पेपर था। और शाम की गाड़ी से उसे अपने गाँव के लिए भी निकलना था। परीक्षा से कुछ दिन पहले उसके घर से खत आया था। इम्तहानों के तुरंत बाद उसे उसके पिताजी ने गाँव आने को लिखा था। रंजना से बात नहीं होने का मलाल लिए वो भारी कदमों से कॉलेज के लिए निकल पड़ा।

शाम को घर पहुँच भानु ने अपना समान बैग मे ठुँसा और जल्दी से स्टेशन के लिए निकल गया। ट्रेन आने मे बहुत कम समय बचा था। एक बार उसने रंजना के घर की तरफ जाने का सोचा मगर वक़्त की कमी से दिल मसोस कर रह गया। रह रहकर वो पीछे मुड़कर उस रास्ते को देखता रहा जहां से रंजना गुजरती थी। आज वो अपने दिल की बात कहें से चूक गया था। उसका संकोची स्वभाव आज फिर उसके आड़े आ गया था। लेकिन गाँव से आने के बाद वो इस अधूरे काम को जरूर अंजाम तक पहुंचाकर रहेगा। वो रंजना से अपने प्यार का इज़हार जरूर करेगा। इसी कशमकश मे स्टेशन पहुँच गया। उसने जल्दी से टिकिट खरीदा और भारी कदमों से ट्रेन की तरफ बढ़ गया। उसे अपने भीतर कुछ खाली खाली सा लग रहा था। उसका गला रुँधा हुआ था। वो अपने भीतर एक तड़प सी महसूस कर रहा था। उसे रंजना से जुदाई सहन नहीं होती थी, मगर वो जल्दी वापिस आएगा ये सोचकर उसने अपने दिल को समझाने की व्यर्थ सी कोशिश की। ट्रेन पटरियों पे रेंगने लगी थी और उसके साथ ही भानु के चेहरे पे उदासी और गहरी होने लगी। वो ट्रेन की खिड़की से बाहर का दृश्य देख अपने दिल मे उढ़ते भावों को भटकाने की कोशिश करने लगा। रात धीरे धीरे गहराने लगी थी। क्षितिज का पर्दा चीरते हुये चाँद भी निकल आया था और अब धीरे धीरे खुले आसमान मे विचरण करने लगा था। उसकी चाँदनी उसके गलबहियाँ डाल उसे अपने आगोश मे लेने लगी, चाँद इस प्रेमपाश मे बंध कर मंद मंद मुस्कराने लगा। भानु का गला रुँध गया और उसकी आंखो मे पानी भर आया था। पटरियों पे दौड़ती ट्रेन पल पल किसी को किसी की अमानत से दूर बहुत दूर ले जा रही थी।

अगली सुबह भानु अपने गाँव पहुंचा। भानु के पिता खेती बाड़ी करते थे। भानु जब गाँव के स्कूल मे पड़ता था तो वो अपने पिता के काम मे हाथ बँटाता था। उसका छोटा सा परिवार था, जिसमे वो, उसका बड़ा भाई विजय और उनके माता पिता थे। विजय अपने बीवी-बच्चे साथ रखता था। घर पहुँचने के कुछ देर बाद भानु गाँव मे अपने दोस्तों से मिलने निकल गया। दिन मे कई बार उसे रंजना की याद आई। उसको याद करते करते वो शून्य मे कहीं ताकने लगता,कभी मुस्कराने लगता तो कभी मन ही मन कुछ बुदबुदाने लगता। दीवानगी सिर चढ़कर बोल रही थी दिनभर बाहर रहने के बाद वो शाम को घर आया तो खाना खाने के बाद उसे पिता से उसे बाहर वाले कमरे में अपने पास बुलाया। कमरे मे हल्का अंधेरा था, मगर सामने के मकान मे जलती लालटेन की हल्की रोशनी कुछ हद तक अंधेरे पे काबू पाने की कोशिश कर रही थी। कमरे मे घुसते ही सामने पलंग पर भानु के पिता बैठे हुक्का गुडगुड़ा रहे थे।

“बैठो”, भानु के पिता ने उसको अंधेरे मे पहचानकर कहा।

भानु अपने पिता से थोड़ा डरता था, हालांकि उन्होने कभी भानु को तेज़ आवाज़ मे डांटा तक नहीं था। वह अपने पिता के पैरों की तरफ पलंग पर बैठ गया।

“पिछले महीने विजय छुट्टी आया था”, कुछ देर इधर उधर की बातें और फिर एक लंबी खामोशी के बाद भानु के पिता ने उससे कहा।

“हाँ, भैया बता रहे थे”, भानु ने जवाब दिया।

तब तक भानु की माँ भी लालटेन हाथ मे थामे वहीं आ गई। लालटेन को कोने मे पड़ी पुरानी सी मेज पर रख दिया और खुद कमरे के दरवाजे के बिचों बीच बैठ गई। कुछ देर खामोशी के बाद भानु के पिता ने आगे कहा; “विजय ने यहाँ से जाने के बाद तुम्हें कुछ कहा ?”

“नहीं, अभी भैया से मुलाक़ात नहीं हो पाई थी, मे सीधा गाँव आ गया था। ”, भानु ने कहा।

“हूँ”, भानु के पिता ने हुक्के का एक लंबा सा कश खींचा और उसे दूसरी तरफ घूमा कर छोड़ दिया।

भानु की माँ चुप चाप दोनों बाप बेटों की बाते सुन रही थी। उनकी खामोशी और हाव-भाव से लगता था की क्या बातें होने वाली हैं एसलिए वो चुप थी।

“तुम्हें पता है विजय ने हमसे अलग होने का फैसला कर लिया है। ?”, भानु के पिता कहा।

“न...नहीं तो “, भानु ने सवालिया नजरों से अपनी माँ की तरफ देखा।

“हाँ बेटे”, उसकी माँ ने धीरे से कहा, औरतें अक्सर अपनी घर की बातें धीमी आवाज मे कहती है की कहीं पड़ोसी न सुनले।

”विजय ने कह दिया की अब वो घर की और ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकता, उसके अपने भी ढेरों खर्चे हैं। तुम्हारी पढ़ाई के खर्चे तक को उसने देने से इंकार कर दिया।“ उसकी माँ ने लगभग फुसफुसाते हुये ये बात कही। उसके बाद गहरी खामोशी छा गई।

“उसने पिछले महीने साहूकार के कर्ज़ और बनिए की दुकान के पैसे भी नहीं दिये, बनिया रोज़ आ धमकता, इस बार खेती से भी कोई उम्मीद नहीं”, भानु के पिता पलंग पर थोड़ा लेटते हुये कहा।

“अब तुम भी बेटे अपने बापू के काम मे हाथ बटाओं, इधर ही पढ़ लेना”, उसकी माँ ने कहा।

भानु जैसे पत्थर हो गया था, उसके का दिमाग में सीटियाँ सी बजने लगी। उसे अपना वजूद मिटता सा महसूस हो रहा था। उसके सपनों का महल चूर चूर हो रहा था। वो अपने हसीन ख्वाबों को तार तार होकर बिखरते हुये देख रहा था। उसकी माँ अब भी कुछ कहे जा रही थी, लेकिन उसे कुछ भी सुनाई नई दे रहा था। उसका सब कुछ लूट चुका था। अंकुरित होने से पहले ही एक बीज, बंजर जमीन मे दम तोड़ रहा था। वो अंधेरे मे और गहराई तक डूब रहा था। उसे अपने आस पास किसी की मौजूदगी का कोई भी एहसास नहीं हो रहा था। उसके बाद उसके माँ-बाप ने उसे क्या कहा, उसे कुछ सुनाई नहीं दिया।

उसके पिता ने जब उसके कंधे पे हाथ रखकर उसे हिलाया तो उसकी तंद्रा टूटी।

“जाओ बेटे सो जाओ, सफर से थके हुये हो, बाकी बातें कल फुर्सत से केरेंगे”, भानु के पिता से उससे कहा।

भानु भारी कदमों से कमरे से बाहर निकला और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। उसके पीछे पीछे उसकी माँ भी लालटेन हाथ मे लिए रसोई की तरफ चल पड़ी। उसके पिता ने हुक्के का आखिरी कश खींचा और पैर फैलाकर सोने का प्रयत्न करने लगे। उधर भानु रातभर करवटें बदलता रहा। नींद का नामोनिशान नहीं था। आज घर के तीनों सदस्य विषाद मे डूबे आने वाली सुबह का इंतजार कर रहे थे। भानु रातभर रोता रहा। रंजना का चेहरा रह रहकर उसकी आंखो मे सामने आ रहा था। वो रुआंसी सूरत लिए उससे पूछ रही थी,”क्यों छोड़ कर आगये मुझे?, क्यों नहीं बात की मुझसे?”। सुबह भानु के चेहरे से लगता था की उसकी रात कितनी वेदनाओं मे गुजरी थी।

वक़्त किसी के लिए कहाँ रुकता है, वह तो निर्बाध गति अपने अंदर छुपे सेंकड़ों लम्हों को अतीत के अँधेरों मे विलुप्त करता जा रहा था। बड़े से बड़े घावों को भरने की कूवत रखने वाला वक़्त भी कभी कभी घावों को नासूर बना देता है। भानु ने इसे अपनी तकदीर समझ रंजना की यादों को अपने दिल के किसी कोने में दफन करने का मन बना लिया था। मगर दिमाग भला दिल से कब जीता है, वो तो मनमौजी है।

आज भानु को रंजना से बिछड़े पूरे दो साल गुजर गए थे, लेकिन भानु एक पल को भी उसे भुला नई पाया था। एक दो बार भानु ने अपनी माँ से अनुपगढ़ अपने किसी दोस्त से मिलकर आने के बहाने से पूछा तो उसकी माँ ने कहा की नहीं बेटे, तुम्हारे पिताजी नहीं मानेंगे। भानु मे खुद मे इतनी हिम्मत नहीं थी की वो अपने पिता से अनुपगढ़ जाने की बात कर सके। वो मन मसोसकर रह गया।

भानु पत्राचार के माध्यम से अपनी स्नातक की पढ़ाई खत्म कर चुका था, और किसी रोजगार की तलाश मे इधर उधर हाथ पैर मार रहा था। उसके पिता ने उसे नौकरी खोजने के लिए कहा था। वो नहीं चाहते थे की पढ़ लिखकर भानु उनकी तरह खेती बाड़ी करे। भानु की मेहनत रंग लाई और उसे एक निजी फर्म मे क्लर्क की नौकरी मिल गई। एक महीने बाद उसे ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जाना था। इसी बीच भानु के लिए एक शादी का रिश्ता आगया जिसे उसके पिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। भानु की रायसूमारी की उन्होंने कोई जरूरत नहीं समझी। वो जानते थे की भानु कभी उनकी बात नहीं टालेगा। भानु ने हारे हुये जुआरी की तरह समर्पण कर दिया। उसने अपने अरमानों का गला घोंट दिया। उसने परिवार और समाज की मर्यादा को निभाते हुये अपने जज़्बात सीने मे ही दफन कर लिए। उसे रंजना की कोई खबर नहीं थी। उसे नहीं पता था जब रंजना को उसकी शादी का पता चलेगा तो उसकी क्या प्रीतिक्रिया होगी।