खामोश लम्हे / भाग 7 / विक्रम शेखावत

Gadya Kosh से
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वक़्त उसको चोट देता और फिर खुद ही मलहम लगता। भानु इन दु:ख तकलीफ़ों को झेल कर पत्थर बन गया था। उसकी आंखो मे अब आँसू नहीं आते थे बल्कि एक मुर्दानगी सी छाई रहती थी। सीमा की मौत के चार साल बाद वो अपने बहू और बेटे को कहकर अपने गाँव आ गया। उसने उनको कहा की काफी दिन हो गए गाँव में गए, घर की हालत भी पता नहीं कैसी होगी। में कुछ दिन वहाँ रुककर वापिस आ जाऊंगा।

रंजीत और सविता के लाख मना करने पर भी भानु अपने गाँव आ गया, जहां उसका बचपन बिता था। आज बहुत कुछ बदल चुका था गाँव में। घर पहुँचकर उसने घर का कोना कोना देखा। अपने अतीत की एक एक याद ताज़ा करने लगा। अपने पिता के कमरे मे देखा उनका हुक्का आज भी वहीं रखा था जहां बैठकर वो उसे गुड़गुड़ाया करते थे।

वक़्त ने उसे फिर वहीं लाकर पटक दिया था जहां से उसने जीवन की शुरुआत की थी। आज जिम्मेदारियों से मुक्त होने पर उसका अतीत उसे दूर तक उन गहरे अँधेरों के उस पर ले जा रहा था जहां वो किसी को इंतजार करते छोड़कर आ गया था, सदा के लिए...।

भौर की पहली किरण के साथ त्रिवेणी एक्सप्रेस अनुपगढ़ पहुँच चुकी थी। सभी यात्री अपनी बर्थ छोड़ अपने सामान के साथ उतरने की तैयारी कर रहे थे, मगर एक शख्स अभी भी निश्चिंतता के साथ सोया हुआ था। धीरे धीरे पूरी ट्रेन खाली हो गई। किसी ने स्टेशन मास्टर को सूचना दी की एक कोई पचास पचपन साल का शख्स कोच नंबर एस-7 मे अभी तक लेटा हुआ है। काफी हिलाने पर भी उसके शरीर मे कोई हरकत नहीं हो रही है।

अनहोनी की आशंका से स्टेशन मास्टर शुश्री कपूर ने एम्बुलेंस को फोन कर दिया। आनन-फानन मे उस शख्स को अस्पताल पहुंचा दिया। कुछ देर बाद सूचना मिली की वो शख्स मर चुका था। अस्पताल ने पुलिस और रेलवे के कहने पर लाश का पोस्टमार्ट्म किया और लाश को मुरदाघर मे भेज दिया। रिपोर्ट पुलिस स्टेशन और रेलवे स्टेशन मास्टर को भेज दी थी।

रिपोर्ट में मौत का कारण हार्ट-अटैक बताया गया था, लेकिन बॉडी मार्क को पढ़कर स्टेशन मास्टर कपूर सन्न रह गई। उसका शरीर कांपने लगा, उसके हाथ पैर सुन्न पड़ने लगे। उसने अपना मोटा चश्मा ठीक से लगाया और फिर से पढ़ने लगी। पढ़ने के बाद उसने रिपोर्ट को सामने रखा और अपना सिर पीछे कर कुर्सी पे टीका कहीं शून्य मे खो गई। कुछ देर बार उसके चेहरे पर, वक़्त से बनी रेखाओं से होकर आँसू गुजरने लगे। वो जिस अतीत को भूलने के कगार पे थी वो आज फिर उसके सामने आकर खड़ा हो गया था। बीते वक़्त के खामोश लम्हे फिर से आंखो के सामने चलचित्र की भांति घूमने लगे थे। बिता वक़्त आज फिर सब कुछ लूटकर जा रहा था।

मृतक के पास मिली एक डायरी से कुछ नंबर मिले, जिसकी मदद से उसके परिचितों को सूचना देकर स्टेशन मास्टर से मिलने को कहा गया।

दूसरे दिन स्टेशन मास्टर शुश्री कपूर अपने ऑफिस मे मिलने आए एक युवक को देखकर चौक पड़ी।

“भ...भानु.... !”

उसके शब्द उसके गले मे अटककर रह गए। और फटी आंखो से युवक के चेहरे को देखने लगी।

“मेरा नाम रंजीत है, आपसे फोन पे बात हुई थी”, युवक ने गमगीन होकर अपना परिचय दिया। में उस लाश की शिनाख्त के लिए आया हूँ।

“अं...हाँ “,शुश्री कपूर ने अपने चेहरे पे उभर आई पसीने की बुँदे पोंछते हुये कहा।

वो रंजीत को लेकर हॉस्पिटल गई। रंजीत ने पिता का शव पहचान लिया। वो फफक कर रो पड़ा। स्टेशन मास्टर उसके कंधे पे हाथ रख उसे ढाढ़स बधाने लगी। शाम को भानु ने फोन पर सविता तथा अपने बाकी परिजनो को ये दुखद सूचना दे दी और कल तक पिता के शव को लेकर आने की बात कहीं।

शव को लेकर जाने की कागज कार्यवाही में एक दिन का समय लगना था सो स्टेशन मास्टर शुश्री कपूर तब तक रंजीत को अपने घर ले आई थी। वो रंजना थी, रंजना कपूर। उसने रंजीत से हमदर्दी के साथ साथ काफी जानकारी हासिल की। उसे भानु के माता पिता और सीमा की मौत से बहुत दुख हुआ।

“आपके पापा अनुपगढ़ किसलिए आए थे बेटे ?” रंजना ने पूछा।

“पता नहीं आंटी,इस शहर मे तो हमारा कोई परिचित भी नहीं है। मगर न जाने फिर भी पापा किसलिए और किससे मिलने इतनी दूर अनुपगढ़ आए। हमे भी आने से पहले कुछ बताया नहीं। भानु ने उदास होते हुये कहा।

“हाँ, सुना था बहुत साल पहले पापा इधर पढ़ने के लिए आए थे।“ रंजीत ने दिमाग पर ज़ोर देते हुये कहा। मगर पढ़ाई खत्म किए बिना ही दादाजी ने उन्हे वापिस बुला लिया था। उनके बड़े भाई यानी मेरे ताऊजी परिवार से अलग हो गए थे, इसिलिय दादाजी ने पापा को घर के काम मे हाथ बटाने के लिए गाँव मे रहकर पढ़ाई पूरी करने को कहा।“

रंजना बूत बनी सब सुन रही थी, उसकी आंखे बार बार गीली हो रही थी, मगर आँसओं को अपने अंदर ही पीती रही। उसका दिल कर रहा था की वो ज़ोर ज़ोर दहाड़े मार मार के रोये। चिल्ला चिल्ला के पूछे विधाता से की ये कैसा मज़ाक किया उसके साथ। किस बात की उसे ऐसी सजा दी की वो दर्द के मारे रो भी नहीं सकती। आखिर उन दोनों का कसूर क्या था ?

रंजना बीच बीच मे रंजीत से कुछ न कुछ पूछ रही थी। वो जानना चाहती थी की क्या भानु ने मुझे भुला दिया था? नहीं ! वो इतना निर्मोही नहीं था। वो भी मुझे जीवन के आखिरी पल तक नहीं भुला होगा। मे जरूर कहीं न कहीं उसकी ज़िंदगी मे शामिल थी। मैंने देखा था उसकी आंखो मे अपने लिए बेहद प्यार, जिसे वो पागल जाहिर नहीं कर पाया...उम्र भर...।

रंजीत से बात करने से रंजना को काफी जानकारी मिली लेकिन उसे अपनी खबर नहीं मिली। क्या भानु मुझेसे मिलने आ रहा था ? उसने सोचा। रंजीत ने बताया इधर उनका कोई परिचित नहीं रहता। अगर नहीं तो फिर इधर आने का क्या सबब हो सकता है।

“क्या पैंतीस सालों का इतना लंबा वक़्त भी मेरी याद नहीं भुला पाया वो अपने जेहन से ?” अगर ऐसा था तो क्यों नहीं आया एक बार भी पलटकर ? ऐसी क्या मजबूरी रही होगी की इतना वक़्त भी नहीं मिला? अगर वो भूल गया था, उसने अपना परिवार बसा लिया था तो फिर अनुपगढ़ किस लिए और किस से मिलने आया था? क्या मेरी कुछ याद बची थी उसके दिल के किसी कोने मे। नहीं ! वो बे-वफा था। उसने मुझे भुला दिया था, तभी तो अपने परिवार के साथ इतने सालों तक मुझसे इतनी दूर रहा। में ही पागल थी जो उस बे-वफा के लिए अपनी ज़िंदगी उसकी याद मे गुजारने की जिद्द कर बैठी। निष्ठुर !

दूसरे दिन सुबह रंजीत अपने पिता के पार्थिव शरीर को लेकर अपने गाँव के लिए निकलने वाला था। शव को ताबूत मे रखवा दिया था। रंजना सामने पड़े ताबूत को देख रोये जा रही थी मगर कोई उसके आँसू नई देख पाया। ज़िंदगी भर आंखो से आँसू बहाती एक अधेड़ औरत आज दिल से आँसू बहा रही थी। जिसके इंतजार मे वो एक एक पल बिताकर उम्र के इस पड़ाव पे आ गई थी वही उसके पास आते आते दम तोड़ चुका था। वो उस ताबूत से लिपट कर रोना चाहती थी मगर लोकलाज और उसके रुतबे ने उसके हाथ पैर बांध दिये थे।

भानु का पार्थिव शरीर ट्रेन मे रखवा दिया था। पीछे रह गया उसका अतीत जो आज तक उसके इंतजार मे पलकें बिछाए बैठा था मगर आज उसने यकीन कर लिया की अब कोई नहीं आएगा। जाने वाले कभी लौट के नहीं आते। वो अपनी यादों के साथ पीछे वालों को रोता हुआ छोडकर चले जाते हैं।

रंजना ने जाते जाते रंजीत से उसके मोबाइल नंबर ले लिए थे। भानु की मौत को एक साल गुजर चुका था मगर रंजना का इंतजार आज भी वैसा ही था। उसे यकीन नहीं हो रहा था की भानु उसे सदा के लिए छोड़ कर जा चुका है। वो अब बहुत दूर निकल गया, जहां से उसके आने की कोई संभावना नहीं। उसके दिल में भानु की याद आज भी वैसी ही थी जैसी वर्षो पहले थी। उसने उसके इंतजार मे शादी नहीं की और भानु की यादों के सहारे की जीवन गुजरने का निर्णय ले लिया। मगर वो निर्मोही ! उसने क्या किया ? उसने तो मुझे भुला दिया था। उसने तो मुझे यहाँ से जाने के तुरंत बाद अपने दिल से निकाल फेंका होगा।

रंजना काफी देर अपने आपसे ही सवाल करती रही। और भानु की बेवफ़ाई पे आँसू बहाती रही। काफी देर बाद वो अतीत से निकल कर आई तो उसके चेहरे पे सूख चुके आँसुओ के निशान साफ दिख रहे थे।

मुँह धोकर उसने रंजीत का नंबर डायल किया।

“हैलो”, कौन बोल रहे हैं ?”

“रंजीत”, और आप ? “ उधर से आवाज आई।

“हाँ, बेटे में रंजना बोल रही हूँ अनुपगढ़ से, कैसे हो ?”, रंजना ने कहा।

“हाँ, आंटी में ठीक हूँ, आप कैसी हो।  ?”

“में तो ठीक हूँ बेटे, ..... और सीमा कैसी है ?”

“वो ठीक हैं आंटी....बेटी को स्कूल छोड़ने गई है”, रंजीत ने जवाब दिया।

“अरे हाँ ! में तो भूल ही गई, कैसी है तुम्हारी बेटी, क्या नाम क्या है उसका ?” रंजना ने भावुक होते हुये पूछा।

“आंटी उसका नाम भी “रंजना” है, पापा ने रखा था”, रंजीत ने खुश होते हुये कहा।

रंजीत के अंतिम शब्द सुनते ही उसके शरीर मे एक दर्द की एक लहर सी दौड़ गई जिसने उसके पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया। उसने फोन काट दिया और फफक कर रो पड़ी।

विक्रम शेखावत द्वारा लिखित उपन्यास "खामोश लम्हे" समाप्त