खिचड़ी-विप्लव घर में देखा (रामप्रकाश त्रिपाठी) / नागार्जुन

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बाबा, बाबा औरैर बाबावाद: यों तो वे बाक़ायदा बौद्ध भिक्खु रहे हैं। नागार्जुन संज्ञा बौद्ध धर्म का दीक्षानाम है। सांसारिक राग में नहीं रमे तो संन्यास में चले गये। मगर वहां भी वीतरागी नहीं रह सके। नतीजतन कविता-क्रांति-कम्युनिज़्म में वापिस चले आये। जैसे वे सिद्ध साधु नहीं रहे वैसे ही सिद्ध मार्क्सवादी भी नहीं रहे, अलबत्ता मार्क्सवाद से उनका मोहभंग कभी नहीं हुआ। उस दौर में बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद के बीच बहुतों ने काम किया। इनमें राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन के साथ नागार्जुन का नाम भी लिया जाता है। हमारे बाबा नागार्जुन का ‘बाबा’ बाबावादी नहीं है। पहली बार ग्वालियरी शैली में मैंने उन्हें आदरणीय कह कर संबोधित किया तो उन्होंने मुझे घूर कर देखा। बोले, ‘लउए हम तुम्हारे आदरणीय नहीं फादरणीय हैं।’ यह कह कर उन्होंने सभ्यता के नक़ली संबोधन, उम्रगत फ़ासले, आत्मगत दूरियों और अंग्रेज़ी कहन की एक साथ धज्जियां बिखेर दीं। बराबरी का बर्ताव करते हुए भी उन्होंने परम पितृत्व की भूमिका कभी नहीं छोड़ी और वस्तुतः ग्रेण्ड फादरणीय बने रहे। बाबा वे बने ज़रूर थे, मगर बाबावाद को कबीर की चदरिया की तरह वहीं छोड़ आये थे। बाबा स्वभाव अलबत्ता वे साथ लेते आये थे। बाबा के स्वभाव को तब तक नहीं जाना जा सकता जब तक कि हिंदी प्रदेश के बुजुर्गों के स्वभाव और बाबा बने सधुक्कड़ों के स्वभाव को मिला कर नहीं देखा जाये। मैंने अपने गांव के बुजुर्गों के साथ भी वक़्त बिताया है और ‘नर्मदा यात्रा’ सीरियल करते वक़्त 22 दिन नर्मदा के बाबाओं के साथ भी बिताये हैं। कम उम्र के बाबाओं का स्वभाव भी उम्रदराज़ ग्रामीणों जैसा हो जाता है। शायद ऐसा ‘परमपद की प्राप्ति’ और सम्माननीय होने के भाव से हो जाता है। बहरहाल नागार्जुन में सारी चीज़ों के प्रति एक तरह का जो विराग-भाव परिलक्षित था, उनके एटीट्यूड में जो खिलंदड़ापन था वह मुझे नारदीय बाबाओं में खूब देखने को मिला। गो बाबा बिहार से थे। राजस्थान की मीराबाई ने यों ही नहीं कह दिया था, संतन ढिग बैठ-बैठ लोकलाज खोयी। बाबा नागार्जुन की फक्कड़ी में लोक-लाज के बजाय फ़र्रुख़ाबादी खुला खेल ज्य़ादा नज़र आता था। हाजत औरैर कमोडेड की सैद्धैद्धांंितिकी: एक बार नागार्जुन से संवाद के लिए हमें विदिशा से डॉ. विजय बहादुर सिंह ने न्यौता भेजा। भोपाल से राजेश जोशी, शशांक और मैं गये। शलभ श्रीराम सिंह, नरेंद्र जैन, 90 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 वग़ैरह वहां थे ही। बहुत सवाल-जबाव हुए। बातचीत में बाबा देर तक औपचारिक नहीं रह पाते थे। वे बार-बार टेप रिकार्डर बंद करने को कहते। डाक्टर साब बंद कर देते और फिर बाबा लोकलाज छोड़कर भदेस हो जाते। हल्की-फुल्की मज़ा मौज की बातें करते। हंसी ठठ्ठा होता। कभी-कभी डाक्टर साहब चोरी से टेप चालू कर देते और वह सब भी रिकार्ड हो जाता जो बाबा नहीं चाहते थे। इस चर्चा आलूद दिनचर्या की एक शाम हम बाबा के साथ एक लड़के के मेहमान थे। दूसरी मंज़िल पर ठहरे थे। हम वहां से निकल रहे थे कि बाबा ने कहा यह लट्टू-वट्टू बुझा दो। हम सोयेंगे। बाबा की तबियत थोड़ी खराब थी। बोले पेट में गड़बड़ है। हमने पूछा, दवा-अबा लायें? डॉक्टर को बुलायें? वे भड़क गये। हमें क्या अपनी तबियत ठीक करनी नहीं आती? हमारा पेट, हमारे मरोड़, हम ठीक कर लेंगे। तुम लोग जाओ। हम निकल आये। घूम फिर कर, खाना-वाना खाने का प्रोग्राम था। लिहाज़ा बाहर से ताला डालकर, बाबा को अंधेरे घर में अकेला छोड़ आये। इसके बाद बाबा के मरोड़ों ने करतब दिखाया। उन्हें हाजत हुई। लाइट बंद। नयी जगह। बाथरूम का ठीक ठीक अंदाज़ा नहीं। बाहर बालकनी में दूर के बिजली के खम्बे की रोशनी कुछ इनायत कर रही थी। बाबा बालकनी में आये। साज संभाल के अभाव में कुछ गमले सूख गये थे। कुछेक हरे थे। बाबा ने एक सूखे गमले की आधी मिट्टी बाहर निकाली और कमोड के सुखासन में बैठ कर हलके हो लिये। बाद में मिट्टी फिर गमले में भर दी। साफ़-सफ़ाई का काम भी मिट्टी से लिया। बाद में हरे गमले की नमी से रगड़-रगड़ कर हाथ साफ़ कर लिये। नर्मदा यात्रा के दौरान एक ढाबे पर खाना खाते हुए मैंने बाबा को एक खुरपी और लोटा लेकर दिशा-मैदान को जाते हुए देखा। लोटा तो समझ में आया पर खुरपी का तर्क समझ में नहीं आया। श्रीराज बोले, यार खेत में से कुछ गाजर-मूली भी उखाड़ता लायेगा। हम हंसे और बात ख़त्म। खाना ख़त्म होते न होते बाबा लौट आये। उनके हाथ में मिट्टी से मंजा हुआ लोटा था। खुरपी थी और कुछ नहीं था। मैने सोचा बाबाओं से लोकलाज क्या? पूछ लिया, खुरपी क्यों ले गये थे? तुझे कोई तकलीफ़ है क्या? बाबा तुनक कर बोले। नहीं तकलीफ़ नहीं, पर बात कुछ समझ में नहीं आयी। मैंने आजिज़ी से कहा। तुम शहरी बाबुओं को कुछ समझ में आता भी है? अरे खुरपी से गड्ढा खोदा। शौच किया। वापिस मिट्टी ऊपर डाल दी। इससे एक तो गाय-सुअर विष्टा खाने से बच गये। दूसरे खेत को थोड़ी खाद की खुराक मिल गयी। बाबा ने भरपूर भाषण दिया। पारिस्थितिकी-संतुलन के कुछ देशी गुर समझाये और बतौर ट्यूशन-फ़ीस अपने खाने का बिल हम से जमा करवा दिया। मौज में आते थे तो बाबा नागार्जुन भी ठीक इसी तरह का बर्ताव करते थे। क़िस्सा-कमोड-विदिशा हमने खुद बाबा के मुंह से सुना। इस अंदाज़ से उन्होंने सुनाया कि उनके पेट के मरोड़ हंसते-हंसते हमारे पेट में प्रवेश कर गये। बाबा बेलौस: ऐसे ही नागार्जुन प्रसंग में एक संगोष्ठी का संचालन हरदा वाले मौर्य कर रहे थे। सरापा रस रंजित और गंध-मागंध। इस सूरते हाल में जैसा संभव था, वैसा संचालन हो रहा था। किसी क़ायदे के वक्ता को वे बुला नहीं रहे थे। इंतज़ाम अली बने डॉ. विजय बहादुर सिंह बीच बीच में आते और नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 91 ख़ास वक्ताओं को ठूंस जाते और उनका भारी भरकम परिचय दे जाते। आचार्य विष्णुकांत शास्त्राी को भी उन्होंने इसी अंदाज़ में प्रस्तुत किया। कहा कि वे जनसंघर्षों और ज़मीन और विचारधारा से जुड़े विद्वान हैं। कुछ असहमतियों के बावजूद वे नागार्जुन के प्रशंसक हैं, यह उनकी उदारता है। जनवाद के प्रति उस ज़माने में डॉ. सिंह इतने आग्रही थे कि वे उसे कहीं भी फ़िट कर देते थे। इसके बाद शास्त्राीजी का ‘विद्वत्तापूर्ण’ भाषण हुआ। मैं पक गया। नरेंद्र बोला, यार तुम बोलो, यह तो अति है। हमने एक पर्ची लिखी, एप्लीकेशन टु द मंच! डियर संचालक, बहुत देर से तरस रहे हैं। रामप्रकाश त्रिपाठी को भी बुला लें। कृपा होगी तो वे भी कुछ पार्टीसिपेट कर पायेंगे। एप्लीकेंट, नरेंद्र जैन, विदिशा! मौर्य जी ने उपहासात्मक ढंग से उस पर्ची को ज्यों का त्यों पढ़ दिया। मैं गया और संचालक का शुक्रिया अदा किया। आयोजक डॉ. सिंह का शुक्रिया अदा किया जिन्होंने वैचारिक जड़ता को विचारधारात्मकता कहा था और संचालक की अराजकता पर तीखी टिप्पणियां कीं। बाबा धर्मशाला के उस हॉल में पीछे अधलेटे होकर कार्रवाई सुन रहे थे। उन्होंने पास बुलाया और कहा, ‘बडे गरज-तरज रहे थे लउए!’ मैंने कहा, ‘कुछ अनुचित किया क्या?’ ‘बिलकुल नहीं’, वे बोले, ‘बुढऊ (शास्त्राी जी) की विचारधारा की तुमने अच्छी व्याख्या की।’ बिना इस बात की परवाह किये कि इन बातों को पास ही बैठे शास्त्राीजी भी सुन रहे हैं, उन्होंने मेरी पीठ ज़ोर-ज़ोर से ठोकी। ऐसे थे बाबा। हड़बौैंंगंग-चौकैकन्नापन औरैर दूरूर दृृिष्टि: इसी तरह उनको एक बार भोपाल आना था। प्रसंग था, मैथिली शरण गुप्त के नाम से स्थापित शासकीय सम्मान का। हम भी बाबा का एकल काव्य-पाठ चाह रहे थे। इसके लिए हमने उनसे जनवादी लेखक संघ के बनारस में हुए दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में ही वचन ले लिया था। लेकिन बाबा तो ठहरे बाबा। वे बार बार टाल देते। इस बार उन्होंने सोमदत्त (सुख्यात कवि और तत्कालीन सचिव मध्यप्रदेश साहित्य परिषद) से कहा कि काव्यपाठ तो हम जनवादी लेखक संघ में ही करेंगे। रामप्रकसवा बहुत दिनों से जिद्द किये है। सम्मान समारोह के दो दिन बाद की तारीख उसे दे दो। काव्यपाठ तय हो गया। उन्हें संपर्क किया तो उन्होंने इसकी पुष्टि भी की और तब हमने यह भी कहा, ठीक है, आपकी एक ‘मीट विद द् प्रेस’ भी करवा देंगे। बस, यहीं से बाबा का माथा ठनक गया। आये तो वे तीन-चार दिन पहले ही पर किसी को ख़बर नहीं की। दिन भर प्लेटफ़ार्म पर गुज़ार कर शाम की गाड़ी से परसाई जी से मिलने जबलपुर चले गये। सोमदत्त और हम सब परेशान रहे लेकिन उन्होंने जबलपुर जाकर ही ख़बर की। वे ऐन सम्मान समारोह के दिन ही भोपाल पहुंचे। सम्मान समारोह के बाद वे अपने बेटे श्यामाकांत को होटल में छोड़कर सोमदत्त के यहां रहने के लिए आ गये। औपचारिक माहौल में उनका मन रमता नहीं था। वे यात्राी ज़रूर थे, लेकिन मन उनका या तो सधुक्कड़ी-फक्कड़ी में रमता था या घरेलू माहौल में। सोमदत्त के घर का वातावरण उनके नाज़ उठाने के लिए बिलकुल उपयुक्त था। हमने वालिगा इंसटीट्यूट ऑफ़ रशियन स्टडीज़ के कन्वेंशन हॉल में काव्यपाठ का आयोजन किया। भोपाल के लोगों के लिए वह अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव था। यहां मैं उस काव्यपाठ के डिटेल्स में नहीं जाऊंगा। सिर्फ़ इतना कहूंगा कि बाबा बहुत खुश थे। मेरे घर उनका आना भी ओवरड्यू था और कई बार से टल रहा था। उचित वजहों से राजेश जोशी अक्सर मौक़ा मार ले जाते थे। इस बार उन्होंने अपने से कहा कि ‘लउए आज शाम तुम्हारे यहां खिचड़ी विप्लव होगा।’ कितने लोग होंगे बाबा? मैंने 92 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 सहज ही पूछ लिया। वे बोले , ‘तुम्हारे परिवार वालों के अलावा दो लोग और एक मैं, एक सोमदत्त, बस।’ मैं घर आया और रमा जी से मैंने कहा कि बीस लोगों की खिचड़ी बननी है। उन्होंने पूछा ‘इतनी खिचड़ी?’ मैंने उन्हें बताया, संदर्भ समझाया और कहा कि बाबा आयेंगे तो पीछे-पीछे पूरी टोली आयेगी। ऐसा तो हो नहीं सकता कि अकेले बाबा खायें और बाक़ी सब देखें। बहरहाल श्रीमती जी ने खिचड़ी के अलावा बाजरे के गुड़ वाले पुए, मलीदा और मुंगोड़ों की व्यवस्था की। बाबा ने तो चिखौना भर किया। मगर उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहा, सोमदत्त, विनोद तिवारी, राजेशी जोशी, सुदीप बनर्जी, संतोष चौबे, राजेंद्र शर्मा, जलेस-प्रलेस के तमाम साथी, प्राध्यापकीय परिवार के मित्रा आदि। जी 94/52, तुलसी नगर का बैठका ‘आंचल ही न समाये’ वाला हो गया। खिचड़ी विप्लव भी कुछ ऐसा हुआ कि हमें और पत्नी को बर्तन में बची ठुर्री और झाड़ पर गुज़ारा करना पड़ा। बहरहाल हमारे घर में उस दिन मेले जैसा माहौल था। कम से कम पड़ोसी तो यही महसूस कर रहे थे। उस दिन अगर बाबा की बात का भरोसा करके सिर्फ़ दो चार लोगों का इंतज़ाम किया होता तो क्या गत बनती, मुझे तो यह सोच कर ही झुरझुरी हो जाती है। ऐसे ‘बे-भरोसे के आदमी’ थे बाबा। इसके बावजूद जो लोग बाबा को ज़रा भी जानते हैं वे उनके बे-भरोसे में भरोसे की लय खोज लेते हैं। फुरसत पाकर हमने बाबा से शिकायत की कि आप तो तीन चार दिन ठहरने वाले थे, जबलपुर क्यों चले गये? पहले तो बाबा ने एक भावुक झटका दिया। बोले, परसाई की इतनी याद आ रही थी कि हम तड़पने लगे थे। ज़ाहिर है, बाबा की यह भावुकता ना-क़ाबिले-एतबार थी। हमने नहीं माना। उनकी दीगर टाल-मटोलों को भी नहीं माना। बाबा ने फिर हथियार डालने में ज्य़ादा देर नहीं लगायी। झल्ला कर बोले, वह मीट विद द प्रेस का चक्कर क्यों रखा तुमने? हमने कहा, इतना बड़ा सम्मान वह भी अशोक वाटिका में ! प्रेस आपसे सम्मान और आपकी रचनात्मकता पर बात करना चाह रहा था। जैसे मैंने उनका बहाना नहीं माना था, उन्होंने भी मेरी सफ़ाई ख़ारिज कर दी। भड़क कर बोले, मैं तुम्हारा हरामीपन और पॉलिटिक्स ताड़ गया था। सोमदत्त की ओर मुड़कर बोले, क्यों हरामीपन और हर जगह है, है ना ! फिर सोम और वे हंसे। मैं किंचित तनावग्रस्त हो गया। बाबा रुके नहीं। उन्होंने कहा, तुम पुरस्कार से पहले मुझसे सरकार-वरकार, अशोक-वाटिका और जंगल पर कुछ उल्टा-सीधा कहलवाना चाहते थे। बाबा ने एक से एक झांसेबाज़ देखे हैं। तुम ससुरऊ हमें चलाने चले थे? अब बुलाओ ससुरी प्रेस को। हमने प्रेस को अलग से तो नहीं बुलाया। काव्यपाठ मंे मगर बाबा ने उन्हें इतना मसाला दे दिया कि दो दिन तक अख़बार रंगे रहे। उनकी फक्कड़ी-सधुक्कड़ी में हडबोंगीपन उतना नहीं था जितनी कि दूर दृष्टि। अपना यह उच्च विचार जब मैने उन्हें बताया तो उनका हाथ सीधे अपने डंडे पर गया और मैं भाग खड़ा हुआ। ऐसे तेवरधारी थे बाबा। पितृ ण से मुुिक्ति: उत्तराधिकार क े काननू आरै परपं रा क े हिसाब स े पिता की सपं त्ति पर सहज अधिकार पुत्रों का होता है। इस बार शोभाकांत साथ थे। सम्मान राशि का लखटकिया क्रास्ड चैक उन्हें मिला था। बाबा सोमदत्त जी से बोले हम खुद अपने पर चेक नहीं रख पाते, इस चेक को कहां रखेंगे। इसका खुल्ला करवा दो। सोमदत्त बोले, क्रॉस्ड तो सुरक्षा के लिए है। यहां-वहां गिर गया चैक, तो भी पैसे बचे रहेंगे। ‘हमें पट्टी न पढ़ाओ, इसका खुल्ला करवा दो’ ख़ैर क़िस्सा कोताह यह कि सोमजी ने क्रॉस कैंसिल करवाया और चैक की राशि बाबा को सौंप दी। बाबा ने हस्बमामूल नोटों की गड्डियां मैले कुचैले नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 93 योजन-गंधा थैले में ठूंस लीं। शोभाकांत को खटका कि बाबा कहीं भी मुंह उठा कर चल देते हैं। थैला कहीं भी रख देते हैं। ऐसे में रक़म इधर उधर हो गयी तो? श्यामकांत को खटका लगा रहा मगर वे कुछ कह न पाते। बस जब पास होते तो थैले पर नज़र गड़ाये रखते। बाबा ने नज़रें ताड़ लीं। तुरंत झोले में से पूरे एक लाख निकाले। एक गड्डी तोड़कर, पंद्रह हज़ार उससे निकाल, झोले में ढूंसे और 85 हज़ार शोभाकांत के हाथ में रखे और दोनों हाथ ज़ोर से इस तरह जोड़े कि गंभीर ताली की तरह आवाज़ हुई। बाबा बोले, ‘लो, मैं पितृण से मुक्त हुआ। मेरा पिंड छोड़ो।’ यह सरासर ज्य़ादती थी। शोभाकांत जी के जाने के बाद मैंने दबी ज़बान से एतराज जताया। वे तब तक प्रकृतिस्थ हो चुके थे। गुस्सा काफूर हो चुका था। कहने लगे, तुमने देखा नहीं वह कैसे थैले को देख रहा था। जब से रक़म आयी उसका ध्यान ही नहीं हट रहा था। मैंने कहा, रक़म और आपकी सुरक्षा के लिए उनको फ़िक्र हो रही होगी। इस बीच बाबा को लगा होगा कि ज्य़ादती हो गयी। सॉरी तो कहने से रहे। सो बोले कि उस की उपस्थिति से अपनी स्वतंत्राता में बाधा आ रही थी । अब अपन स्वतंत्रा हैं। कोई सेंसर बोर्ड नहीं अपने ऊपर। और बाबा अपने सहज सुभाव में आ गये। बाबा ऐसे दिलचस्प इंसान थे। पत्ते-पत्ते पर गुलाटें इस तरह खाते कि खुद को खरोंच लगे न पत्ते में कोई लचक आये। फटना मीठे से दूध्ूध का: इस के बाद लंबे समय तक उनसे मुलाक़ात नहीं हुई। विदिशा-भोपाल आना भी नहीं हुआ। एक दिन अचानक प्रगति मैदान के हॉल-3 में प्रवेश करते ही उनके दर्शन हो गये। मौक़ा विश्वपुस्तक मेले का था। वे अपने बेटे के ‘यात्राी प्रकाशन’ के स्टॉल पर बैठे थे। तबियत कुछ नर्म लग रही थी। मैंने सादर प्रणाम किया तो अचानक वाचाल हो उठे। तमाम बातें की। घर के बच्चों से लगाकर यार-दोस्तों, कला-संस्कृति, साहित्यिक हलचलों के बारे में तमाम सवाल किये। मैंने पूछा कि बाबा आप बहुत दिन से विदिशा भी नहीं आये। बस, वे तुनक गये। बोले, ‘मैं अब ज़िंदगी में कभी वहां नहीं जाऊंगा।’ ‘मगर क्यों, विदिशा तो आपको बहुत पसंद है।’ मैने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा। ‘हां ! मगर तुमने ‘नागार्जुन संवाद’ पढ़ी है?’ बाबा ने पूछा। ‘बिलकुल पढ़ी है। वह तो आपके साथ हुए संवादों की किताब है।’ ‘ख़ाक है’, बाबा बोले, ‘कितना अण्ड-बण्ड छापा है उसमें।’ ‘मगर वह तो आपकी बातचीत के टेप से लेकर छापा गया है।’ ‘छापा होगा, मगर इसमें बदमाशी है। हमने जो टेप पर कहा उसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है, जो ऑफ़ द रिकार्ड था। हमने मौजमस्ती में कहा। वह सब चोरी से टेप कर लिया गया। यह तो धोखा है, विश्वासघात।’ ‘लेकिन बाबा, उसमें अपनी तरफ़ से’ मेरे अधूरे वाक्य को रोककर बाबा फट पडे़, ‘इस बुढौती में मेरा कंधा आप अपने मज़े के लिए, पालिटिक्स के लिए इस्तेमाल करेंगे? किसी की छवि और चरित्रा का मटियामैट करने के लिए बाबा के मज़ाक़ों और बतकही को लाठी बनायेंगे? अरे बाबा ने विदिशा में बहुत सारा हगा भी था, उसे बाबा के व्यक्तित्व की तरह पेश करोगे?’ बाबा उत्तेजना में हांफने लगे थे। दम उखड़ आया था। मैंने पांव छूकर फूट लेने में ही ख़ैर समझी। 94 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 बाद में श्रीकांत ने बताया कि वे ‘नागार्जुन-संवाद’ पर बहुत भड़के हुए हैं। ख़ास कर सविता को लेकर उसमें जो छापा गया है। सविता को वे बहुत लाड़ करते हैं। गरज यह कि जहां बाबा के संबंध खीर-शकर जैसे थे, विवेक और सम्मान पर चोट पड़ने पर झिड़कने में वे देर नहीं लगाते थे। बाबा की बहुत यादें हैं। बहुत संस्मरण। बातें ऐसी तहदार कि उनकी परतें करमकले के पत्तों की तरह उघाड़ते जाओ। हर बार नयी रंगत, नये आकार में नज़र आये। यह सब कुछ बहुत शिष्ट, प्रांजल और ‘सभ्यभाषा’ में भी व्यक्त किया जा सकता था। लेकिन लगा कि बाबा भदेस थे, तो उसी तरह उन्हें याद किया जाये। फिर भी नक़ली भाषा में बरतने का अभ्यासी होने के कारण कहीं कही औपचारिक हो गया होऊं तो पढ़ने वाले मेरी सीमाओं को समझते हुए माफ़ कर ही देंगे, ऐसा मान कर चल रहा हूं। मो.: 09753425445