खिचाव / विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समाजसेवी मित्र के साथ एक दिन मुझे वृद्धाश्रम जाना हुआ जैसे ही हमारी कार उस परिसर में जाकर ठहरी, सभी वृद्धाएं एक साथ अपने-अपने कमरों से बाहर आकर, हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। मुझे, ये अच्छा नहीं लगा। मैंने एक वृद्धा के पास जाकर, नमस्कार करके कहा-माँ, हमें हाथ मत जोड़ों! हमसब तो आपके बेटों जैसे हैं। ये सुनकर एक वृद्धा ने कहा-अरे, आप अपने को बेटों जैसा मत कहो, आपसब तो अच्छे इंसान हैं। आप सबने हमें कम से कम आश्रय तो दे रखा है हम सब पर बहुत बड़ा उपकार है आप सभी का। बताओ, बताओ फिर आप हमारे बेटों जैसे कैसे हो सकते हैं?

अचानक उस बूढ़ी अम्मा ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपने कमरे में ले गई फिर अपने तख्ते पर बिठाकर, कुछ चावल के फूलें खाने को देने लगी। वह मेरे चेहरे, मेरी आँखों में कुछ ढूँढ़ने का प्रयास कर रही थी पर मैं समझ नहीं पा रहा था। जब हम वापस चलने को हुए तो ना जाने क्यों मेरा मन पीछे मुड़-मुड़कर उसे देखना चाह रहा था और मैं एक खिंचाव-सा अनुभव कर रहा था...