खिड़की खुली है / शेफ़ालिका कुमार

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आज मिस्टर पॉल और उस आसमानी टुकडे के बीच कुछ नहीं था. कुछ भी नहीं .कई सालों से, एक मढ़े हुए चौकोर चित्र की तरह वह आसमानी टुकड़ा मिस्टर ऐंड मिसेज़ पॉल के यहाँ टंगा हुआ था पर उसे ढँक दिया जाता था, जैसे उस चित्र का चित्रकार उन्हे नापसंद हो, पर उस चित्र के साथ रहना उनकी मजबूरी हो.

धीरे-धीरे वह खिड़की की ओर बढे और उसके निचले हिस्से पर अपनी सिकुड़ी हथेलियों को रखकर, नीचे देखने लगे.

वह अपना अपार्टमेंट देख रहे थे. एक साथ कई खिड़कियाँ अपने-अपने हिस्से की हवा और धूप बाँट- बाँट कर घरों को देने में लगी हुई थी न. कुछ खिडकियों के धुंधले पेंट पर सीमेंट की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरे थीं, जहां दरारों की मरम्मत हुई थी . अच्छा हुआ कि मरम्मत हो गयी . सोसाईटी के पीछे पड़ना पड़ा था, पर काम हो गया .

अरे,उन्होने इस पेड़ की डालों को छोटा नहीं करवाया? विवादों से बेखबर उस पेड़ की डालें एक-दो छज्जों और कुछ खिडकियों के आगे फ़ैली हुई थीं . कितनी बार बोला था ए ब्लाक के लोगों ने, कि डाल का सहारा लेकर कोई भी आराम से हमारे अपार्टमेंट्स में आ सकता है .....

अभी मोटर- गाड़ी के शोर को मिस्टर पॉल ने सुना नहीं; क्योंकि आजकल उनका मन कहीं और रहता था, तरह-तरह की बातें सोचता था . फटफटाती औटो एक पगली मधुमखी की तरह सूं से गुज़र गयी। मिस्टर पॉल उससे बेखबर थे . उन्होने बालकनी के दरवाजे को भी खोल डाला . ठंडी हवा आने लगी . न ज्यादा ठंडी न गर्म . यही तो खासियत थी बैंगलोर की , चेन्नई से कितनी अलग जहाँ उनका बचपन और जवानी गुजरी थी .

वह टेबल पर बैठकर चावल-सांभर और फ्रेंच बीन की सब्जी खाने लगे. टेढ़ी-मेढ़ी कटी हुई बीन्स ने सांभर में डूबकर कर अपना भद्दापन खो दिया . खाने वाले की आँखें थाली पर नहीं, बार-बार खुली हुई खिड़की और दरवाजे पर चली जाती थीं .

इधर कुछ दिनों से दोपहर में नींद ज्यादा हो जाती थी, सो वे रात को कम सोते थे . ऐसे ही इस उम्र में नींद कमआती है ,आजकल उनके कान कुछ बेचैन होकर रात को सोते समय आहटों का इंतज़ार करते थे। ज़बरदस्ती लेटकर वह सोने की कोशिश करने लगे .

रात की आवाजे कितनी विचित्र होती है जैसे मानो अंधेरे में सबकुछ करीब आ गया हो। धरती उजाले से विहीनहोकर सिमट गयी हो .ऊपर की मंजिल पर, ठीक उनके बेडरूम के ऊपर एक बच्चे के दौडने और खेलने की वाजें आती थीं . करीब बारह बजे तक उछल-कूद चलती रहती। पहले कभी सरोजा और उन्होने इन आवाजों कोनहीं सुना था; क्योंकि नौ बजे तक वह सो जाते थे, उस समय ट्राफिक का शोर रहता था . बडे शोर में छोटे शर दब जाते थे जैसे बड़ी चिंताओं के बीच छोटे संघर्षों के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता है . रोज़ पता नही किस चीज़ से वह बच्चा खेलता था . डगर कर वह खिलौना कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक जाता औरटगरररररर ...... टगरररररर ....... सी आवाज़ देर तक आती . ऐसा लगता मानो छत समतल नहीं स्लोपिंग हो गयी हो जिससे वह खिलौना इतनी आसानी से इधर-उधर जा रहा है . उस आवाज़ से अपने आप को चीरकर उनके कान दूसरी आवाजों को सुनने की कोशिश करते थे .

अचानक आधी-अधूरी नींद में उनको लगा जैसे खिड़की या दरवाजे के पास कुछ आवाज़ हो रहीं हैं . धीरे- धीरे संतोष पॉल उठे . अब जवानो की तरह वह दौड़ नहीं सकते थे और हडबडाने से उन्हे डर लग रहा था . वह कुछ आवाज़ नहीं करना चाहते थे. इतना अन्धेरा नहीं था . बीच लिविंग रूम में खडे होकर उन्हे लगा की आवाज़ तो मेन डोर से आ रही है . पास गए। फिर एक निराशा का फीका रंग उनके चेहरे पर आ गया , दीवार पर टंगी हुई घड़ी ने इस रंग को और गहरा कर दिया .

साढ़े पांच . दूध वाला दूध का पैकेट रखने आया होगा .

कब आँख लग गयी और साढ़े पांच बज गए ?

संस्कृति सिल्क्स के सुन्दर झोले से दूध का एक पैकेट निकालते हुए उन्होंने सोचा - " आज भी नहीं ?"

हार कर दिन हफ़्तों में और हफ्ते महीनो में बदल गए थे. अब तो सरोजा के अमरीका से वापस आने में कुछ ही दिन बचे थे . उसके आने पर वह खिड़की खुली नहीं रह पायेगी .

आजकल वह कॉफ़ी पाउडर से नहीं बनाते थे . हालाकी इंस्टेंट कॉफ़ी उन्हे पसंद नहीं थी . आजकल वही बनती थी .

छोटा स्टील का गिलास लिये वह लकड़ी के सोफे की और बढ़े और अपनी जगह पर जाने लगे . उस जगह पर वह कई सालों से बैठ रहे थे और इस बात का प्रमाण था वहां पर गोलाकार धंसा हुआ कुशन , जिसके ऊपर लाल पर छोटी काली अम्बियों वाला कपड़ा, उतनी दूर में , टेंट की तरह, धँसी हुई जगह पर तन जाता था . कड़क कॉफ़ी भी बोझिल मन को हल्का नहीं कर पा रही थी .

आखिर क्या चाहता है उनका मन? क्या आशा करना ठीक होगा? आजकल उनके सामने प्रश्न बिखरे रहते थे . जब प्रश्न का जवाब ही प्रश्न हो तो एक शून्यता दिमाग को घेर लेती है . बैठ कर वह सोचने लगे उस रात के बारे में .

न्यूज़ चैनेल पर दिल्ली की ठण्ड की चर्चा ख़तम ही नहीं हो रही थी . कितना लंबा कर देते है न्यूज़ चैनेल वाले किसी खबर को। पता नहीं क्यों उसी खबर को, अलग-अलग चैनेल्स पर मिस्टर पॉल देखे जा रहे थे. रिटायर्मेंट का असर है, उन्होने सोचा . फिर अकेले घर में क्या करना?

इधर तीन साल से, जब से वह रिटायर हुए थे , उन्हे ऐसा लगता था जैसे वह किसी और का जीवन जी रहे हैं. जीवन में कितना-कुछ है, देखने को, समझने को, इस बात पर वह अक्सर हैरान होते थे. इस बात पर भी हैरान होते थे कि सरोजा ने अकेले ही बच्चों और घर से जुडी सारी जिम्मेदारियों को सम्हाल लिया . सारा शायद सही ही कहती थी कि औरतों के लिए मल्टीटास्किंग आसान होती है, पर मर्दों के लिए नहीं . अब तक उन्होने भी तो अपने आप को पूरी तरह से अपनी नौकरी के लिए समर्पित कर दिया था. बच्चे हंसते थे जब उत्सुक होकर वह कहत थे कि अब नौकरी से उबरने के बाद उनके पास नए सिरे से सोचने और नयी चीजे सीखने के लिए बहुत समय है.

हँसकर इस बात पर सारा ने अच्छा जवाब दिया था . दीवाल पर लगी पेंटिंग - अ रिटायरर्मेंट गिफ्ट। किसी ठंडी जगह का हरा भरा जंगल था और नीचे रॉबर्ट फ्रॉस्ट की लाइन लिखी थी - ...माइल्स टू गो बीफोर आइ स्लीप .

बहुत कुछ था जो वह सारा और अब्राहम से शेयर करना चाहते थे, लेसन्स ऑफ़ लाइफ़ . पर बच्चे कितने व्यस्त थे !

उधर दिल्ली में ठण्ड और इधर बंगलोर में २६ डिग्री ! रात को खिड़की और दरवाजे से अच्छी हवा भी आ रही थी . तभी उन्हे ध्यान आया कि देर हो गयी है और खिड़की और बालकनी का दरवाज़ा भी खुला है. आज शाम को कैसे बंद करना भूल गए? सोने के पहले ज़रूर बंद कर देंगे, पहले ज़रा टीवी पर इस प्रोग्राम को देख ले . एक विचित्र और दिलचस्प सिद्धांत 'एन्शेंट आस्ट्रोनॉट थीयरी' पर बना यह प्रोग्राम, इस बात की चर्चा कर रहा था कि क्या हमारे भगवान् एलियन थे ?

विचित्र है हमारी दुनिया. हमारी है और हमसे ही कितना-कुछ छिपा कर रखती है. टी .वी . देखते उनकी आँखें चित्रों को देख रही थीं तो उनका दिमाग बहुत सालों पहले हुई घटनाओं के रहस्य को तेज़ी से टटोलने की कोशिश कर रहा था. हमारी दुनिया की तरह, हमारा शरीर भी तो विचित्र है. उतना ही पराया है जितना अपना है .क्यों एक वहमी , मनमौजी प्रेमिका की तरह इतनी सारे राज़ इसमे उफनते रहते है? तन से मन तक? ज्याद लाड प्यार दो तो बिगड़ जाएगी , ध्यान न दो, तो बिगड़ जाएगी . जाने क्या चलता रहता है इसके अन्दर . इसीलिए भारी क़दमों से आते हुए दर्द को मिस्टर पॉल ने देखा नहीं .

अचानक उनके सीने में जकडन-सी होने लगी। छाती और पेट में बेचैनी हो रही थी . इसलिए उन्होने गैस की दवा ले ली, पर कुछ क्षणों में ही सांस फूलने लगी . इसके पहले कि वह कुछ सोच पाएँ कुछ कर पाएँ, एक असहनीय दर्द उनकी छाती में उठा और वह ज़मीन पर गिर पड़े .

हिलने-डुलने, कुछ भी करने के लायक वह न थे . उस असहनीय पीड़ा ने जैसे उनकी सारी शक्ति को क्षीण कर सिर्फ महसूस करने के लिए जीवित छोड़ रखा था . और, फिर अचानक उन्होने उसको देखा . एक आदमी जो उनके लिविंग रूम में खिड़की के पास खड़ा था . क्यों, कहाँ, कैसे, इस तरह विचार करने की सामर्थ्य नहीं थी .

वह आदमी इधर-उधर नजरे घुमा रहा था . दो कदम आगे चला तो उसने ज़मीन पर पड़े हुए मिस्टर पॉल को देखा और घबराया . कुछ क्षण उन्हे और देख वह खिड़की की ओर लपका . उसपर बैठकर वह बाहर उतरने वाला था की उसने जल्दी से एक बार फिर ज़मीन पर पड़े आदमी की ओर देखा .

दर्द से जमा हुआ निर्जीव शरीर, उसमे जीवित दो आंखे और उनमे एक जानवर-सी बेबसी .

वह कूद गया . घर के अन्दर . मिस्टर पॉल को गोदी में उठा मेन डोर की तरफ भागा . दीवाल से उन्हे टिकाकर दरवाज़ा खोला और कुछ क्षणों तक लॉबी में इधर-उधर दौड़ता रहा. लिफ्ट मिली तो उसमें दोनों नीचे आये.

गार्ड को , दूर से ही, जोर से साहस-भरी आवाज़ में चिल्ला कर कन्नड़ में बोला . पास आकर देखा तो गार्ड आसामी था.

"ऑटो रोकना , अंकल बीमार हैं . "

थोड़ी देर में ऑटो आयी और वह उन्हें लेकर हस्पताल पहुचा जहां मिस्टर पॉल की हालत देखकर उन्हे इमरजेंसी में दाखिल कर दिया गया .

बस .

कौन? कहाँ? कैसे? यह प्रश्न आज भी उनके सामने टंगे हुए हैं . जब उनकी आँख खुली तो संजीव , उनका भाई उनके हॉस्पिटल बेड के पास बैठा था .

"अन्ना !"

दौड़ कर वह बाहर से और रिश्तदारों को बुला लाया . कोलाहल और ख़ुशी का माहौल जब शांत हुआ तो संतोष पॉल ने अकेले में संजीव पॉल से पूछा कि उसे कैसे पता चला . भाई ने बताया की आपके पड़ोसी ने नर्स को बोलकर मुझे कल रात को ही फोन करवा दिया था . भला हो उसका . आखिर आज कल के ज़माने किसी पराये से इतनी उम्मीद कैसे की जा सकती है भला ?

मिस्टर पॉल ने सोचा कि जब से सारा और अब्राहिम विदेश गए थे तब से भाई का नंबर ही उनके फ़ोन के लिस्ट में सबसे फ्रीक्वेंटली डायल्ड था . शायद इसलिए उस अपरचित ने वह नंबर चुना होगा .

संजीव घर से कुछ ज़रूरी चीजे लाने गया था . मिस्टर पॉल लेटे -लेटे थक गए थे. तकिये पर आड़ लगा कर हॉस्पिटल के बिस्तर पर बैठ गये. खिड़की से देखा कि पास में खुली जगह थी , वहां कोई इमारत बनाई जा रही थी . बालू के ढेर के बगल में एक अफ्रीकन ट्यूलिप का पेड़ था .

वह पेड़ की गहरी हरी पत्तियों को देखने लगे जिसकी सख्त गहराई में उसके शोख़ लाल फूल अकड़ कर और सुन्दर दिखाई दे रहे थे. उसके बीज नीचे गिरे हुए थे जिन्हे एक मज़दूर का बच्चा दबा कर उनसे पानी निकाल रहा था. उन्हें याद आया कि बचपन में उनके बच्चे भी यही किया करते थे .

बहुत साल पहले जब वह यहाँ आये थे तो जगह-जगह, यह विशाल अफ्रिकन ट्यूलिप के पेड़ अपनी छाया की लाल फूलों वाली चादर फैलाए शहर की पहचान बने हुए थे . एक दिन अखबार में पढ़ कर अचरज हुआ कि जिन पेड़ों के बारे में कई लोग का मानना है कि वह बैंगलोर को परिभाषित करते हैं, और जिसकी छाया में कितने बच्चे खेलते-खेलते बड़े हुए , वह पेड़ यहाँ के नेटिव (देशीय) हैं ही नहीं . ये पेड़ तो अजनबी हैं - कई साल पहले अफ्रिका से लाये हुए कुछ अजनबी पेड़ .

इन पेड़ों की जड़ों ने कस कर प्रेम से धरती के दिल को पकड़ा, सो जहां से भी आया हो इस मिट्टी का ही हो गया . धरती तो एक है, हमारी सोच विभाजित है. अपने-पराये के बारे मे सोचते-सोचते हम बिखरते रहते है और इसके विपरीत धरती समय के साथ बदल कर जुडती रहती है .

संजीव वापस आ गया था . सूप, फल और बहुत कुछ लेकर . उसकी पत्नी भी साथ में थी . पूछने लगी कि कॉफ़ी भी है और सूप भी ...

संजीव झट से बोला, कॉफ़ी नहीं सूप देना चाहिए , वह हेलदी है . तभी मिस्टर पॉल के फ़ोन की घंटी बजी . संजीव ने उठाया .

ख़बर सुनकर सरोजा ने मिस्टर पॉल से बात करने के लिए फ़ोन किया था . वह रो रही थी . संजीव को बताने लगी की पूरी ज़िन्दगी में उन्हें एक बार भी सर्दी तक नहीं लगी यह कैसे हुआ ?

संजीव समझाने लगा की अब अन्ना की उम्र हो रही है ....और कई मिनटों तक समझाता रहा .

फिर सारा घबरायी हुई सी फ़ोन पर आई और फिर उसका पति . कई बार कहानी को दोहराया गया . अंत में मिस्टर पॉल से बात हुई . सरोजा फिर रोने लगी . कह रही थी की अब बस एक दो दिन में ही वह आ जाएगी .

मिस्टर पॉल घबराये , समझाया कि इतनी जल्दी टिकट लेने से तो टिकट बहुत मेहेंगी मिलेगी .

तुरंत सारा फोन पर आई . लगता था स्पीकर फ़ोन पर उस तरफ बात हो रही थी और उसने सब सुन लिया था .

रोते हुए कहने लगी कि पैसे की चिंता उनको नहीं करनी है , वह बस ...

इसके पहले की उसकी बात ख़तम हो, सरोजा बोल उठी , अब भला उसका मन लगेगा अमरीका में !

मिस्टर पॉल घबरा उठे . संजीव ने बात सम्हाल ली और सबको अश्वस्त करते हुए कहा कि किसी को प्लान बदलने की ज़रुरत नहीं है . वह है न . अन्ना उसके घर जायेगें और क्या ?

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फोन की घंटी बजी . संजीव था . बोल रहा था- अन्ना आज फ्राइडे है, चर्च आना मत भूलना . आजकल भूल जाते हो . और स्कूटर से नहीं आना , मै लेने आ जाऊं ?.

मिस्टर पॉल ने कह दिया कि वह ऑटो से आ जायेंगे . बड़ी मुश्किल से संजीव और उसके परिवार से पीछा छुडा कर आये थे . आजकल वह अकेले रहना चाहते थे पर अगर संजीव के घर हॉस्पिटल से नहीं जाते तो सरोजा अमरीका से दौड़ी हुई चली आती . संजीव के घर जाने के नाम से सब निश्चिन्त हो गए , पर दस दिन बाद वह अपने घर लौट आये. भाई को समझाया कि दवा ही खानी है और आराम करना है, वह तो कहीं भी हो सकता है.

क्यों इस खबर से वह खुश नहीं हुए कि सरोजा तीन हफ़्तों बाद घर वापस आ रही है ? कितने एकान्तप्रिय हो गए थे वह . . उस दिन के बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताना चाहते थे . अचानक एक रिश्ता उस अजनबी के साथ बन गया था जो उस रात आया था . और कुछ रिश्ते ऐसे होते है जो वफादारी में मांगते है आपकी चुप्पी .

हॉस्पिटल में जो दिन बिताये वह सिर्फ सोच में निकल गये. उनका भाई सोचता कि उन्हे सेहत की चिंता हो रही है और बहुत समझाने की कोशिश करता . पर उन्हे सेहत की चिंता नहीं थी . वह बार-बार उस रात के बारे में सोचते थे लेकिन ऐसा लगता था कि दिमाग जम गया है. कुछ ख़ास याद नहीं था- बस वह दर्द और यह बात कि एक आदमी अन्दर आया और वह लौटने को हुआ, पर वापास आकर उन्हे उठाया , गार्ड से बोलकर ऑटो रूकवायी और हॉस्पिटल ले आया . इसके आगे कुछ नहीं, पीछे कुछ नहीं .

फिर भी उनका दिल उसी बात को बार-बार याद करता था . अजीब बात है, कभी-कभी घटनाओं को बार-बार याद करो तो दिमाग की क्षमता का अनुभव होता है. ऐसा लगता है कि जो हमने देखा उससे ज्यादा देखा था , और जो महसूस किया उससे ज्यादा महसूस किया था, पर एक आलसी सरकारी अफसर की तरह पूछने पर शरीर अधपकी रिपोर्ट ही देता है. बार-बार खोजबीन करो तो कितना-कुछ पता चल जाता है .

अचानक एक दिन शाम को यूँ ही याद आया -

एक क्षण के लिए उनकी आँखें उस व्यक्ति से टकराई थीं . क्या था उसकी आँखों में ? अब जैसे बहुत साफ़-साफ़ उन्हे याद आ रहा था . वह जा रहा था, फिर उसने उनकी आँखों में देखा . थोडे असमंजस के बाद उसकी आँखें उसके कोफ़्त होने को बता रही थीं मानो उसपर कुछ थोपा जा रहा हो. क्या था वह आँखों में ? कुढ़न ?

अचानक अकेले ही संतोष पॉल ठहाका मार कर हंस पड़े और हँसते रहे. और आँखों से आंसूं गिरने लगे.

चर्च में जान-पहचान के लोग, सर्विस के बाद कुछ देर तक बाहर इक्कठा हो कर गप-शप करने लगे . औरतों को तरह-तरह की सिल्क और ज़री की साड़ियों में देखकर मिस्टर पॉल का दिल भर आया .

सरोजा ....सरोजा…. नहीं, नहीं, उसके आने का बहुत इंतज़ार था . कैसे नहीं होता?

अब उनका मन कर रहा था कि तेज़ क़दमों से वह यहाँ से निकल जाएँ . वैसे भी इनकी बाते सुनने का जी नहीं कर रहा था . वही बेकार की बाते - ऐनड्रियू ने अमरीका में घर खरीद लिया , तो क्यों सो एंड सो अपने बेटे के यहाँ ज्यादा दिन नहीं रह पाए , किसका बच्चा कितना कमा रहा है तो कौन बेरोज़गार है…. बेकार सब! जो उनके दिल में था वह इन बेवकूफों के हुजूम को वह क्या बताएं ? वह घर की ओर चल दिए .

घर पर , रात के मुलायम अंधेरे में, जिसमे बल्ब की रोशनी की काट नहीं थी , औंधी आँखों से वह सोचने लगे-

मौत जब दस्तक देकर , बिना कुछ छीने निकल जाती है तो एक ख़ास एहसास को छोड़ जाती है. ज़िन्दगी के नाज़ुक होने का एहसास . क्या यह उनकी खुशकिस्मती थी कि वह आज ज़िंदा थे? फिर मिस्टर पॉल ने सोचा कि उनका अच्छा नसीब ही होगी कि उस रात को वह व्यक्ति आया . और अगर वह उस क्षण वापस आकर उनकी मदद करने का निर्णय नहीं लेता और भाग जाता, तो ....


एक सिहरन सी होने लगी, जब उस एक क्षण की एहमियत को उन्होंने समझा .

एक क्षण .

बस एक क्षण .....

उसमे कितना कुछ तय हो जाता है . ज़िन्दगी और मौत से लड़ता आदमी आगे अपनी नातिन कि शक्ल देख पायेगा की नहीं ...जाने से पहले उन हाथों को छू पायेगा क्या, जिसने उसे ज़िन्दगी के पिछले 35 सालों में थामा था, अपनी दिनचर्या का आनंद उठाएगा कि नहीं ......

और इन सब बातों को तय करने वाला होता है घटनास्थल पर खड़ा, पीड़ित को देखता एक मनुष्य .

एक पीड़ित, एक मनुष्य और उनके बीच बिछा एक क्षण . वह, जो दोनों के बीच एक रिश्ता बुनने की कोशिश करता है . अगर वह आदमी मुहँ मोडते हुए ऐलान कर देता है कि वे दोनों अपरिचित हैं तो उचाट मन लिए समय निकल जाता है .

कभी-कभी , अक्सर नहीं, एक आदमी सामने के गैर चेहरे में खोज लेता है अपना चेहरा और उस क्षण वह इंसान से देवता बन जाता है.

सोचने लगे कि उन्होने अपने परिवार को बहुत बचा कर रखा था . मिस्टर पॉल उन लोगों में से थे जो जवानी में भी ताले को बंद करने के _____ तीन चार बार जाँचते थे . यू कैन नेवर बी टू श्योर , सर हिला-हिला कर बच्चों को समझाते . और बच्चे इधर-उधर शर्म से देखने लगते थे कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा?

वह सोचते थे कि ज़माना कितना खराब है, दिल में सच्चाई, दया-माया रखना ही काफ़ी नहीं . दुनियाँ में फ़ायदा उठाने वाले और धोखा देने वाले लोग कितने थे. तो जहां उन्होने सारा और अब्राहिम को सच्चाई और भलाई सिखाई वहाँ समझदारी और सावधानी भी . उनकी तरह अक्सर सारा बड़ी बहिन का फ़र्ज़ अदा करते हुए अब्राहिम को समझाती , क्लासमेट की प्रौब्लम्स में क्यों घुसे रहते हो ....इट्स नोट योर प्रॉब्लम! बी प्रैक्टिकल .

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इधर कुछ समय से दिन होते ही वे शाम का इंतज़ार करने लगते . उनकी डूबती हुई उम्र, शाम के अंधेरे में कई सवाल पूछती थी . जीवन के जिस चरण में पूर्णविराम लगने चाहिए, उसमे अनेक प्रश्नचिन्ह लगने लगे थे .

क्या उनके और उस अजनबी के बीच की कहानी बस यहीं तक है ? यह सवाल उन्हें बेचैन कर देता था .

कैसे फ़ोन को नहीं सुना उन्होने? सारा बता रही थी की एक घंटे से फ़ोन कर रही है. माँ ठीक से प्लेन पर चढ़ गयी और उसने गिफ्ट भी भेजा है . हँसकर उन्होंने कहा की वह गिफ्ट का क्या करेंगे? बस जब बच्चा छह महीने का हो जाये तो इंडिया आ जाना एक महीने के लिए . बहुत मन था अपने नाती को देखने का .

अगले दिन देर रात को संजीव ने मिस्ड कॉल दिया . वह नीचे कार में इंतज़ार कर रहा था . सरोजा को लाने एयरपोर्ट जाना था . मिस्टर पॉल नीचे जाने को चले . खिड़की खुली थी एक अटपटी अपेक्षा लिये.