खिड़की से झाँकते ही/ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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सुखद सौन्दर्यबोध की कविताएँ

शब्द अपने आप में तब तक अधिक सार्थक नहीं है, जब तक वह शब्दकोश की शोभा बढ़ाता है। कोश के द्वार से बाहर निकलकर वह जब तक पूरी भाव-भंगिमा के साथ वाक्य में प्रवेश नहीं करता, तब तक उसकी अर्थवत्ता संदिग्ध है। शब्द का अस्तित्व उसके अर्थ में है, अर्थ का प्रभाव शब्द की जड़ों में बरसों से रच-बस गया है। समाज के प्रयोग से, समय के प्रभाव की मार से शब्दों के अर्थ उत्कर्ष या अपकर्ष को प्राप्त करते हैं। आज़ादी के बाद नेता शब्द का अपकर्ष हमारे सामने है। कविता का सत्य भी यही है। केवल छन्द कविता नहीं; लय, गति, यति के सन्तुलन के बिना मुक्तछन्द भी काव्य नहीं बन सकता। शतरंज के खिलाड़ी की तरह तुकबन्दी के खिलाड़ी शब्दजाल को कविता समझ बैठे हैं, तो दूसरी ओर अनर्गल अभिव्यक्ति को कविता मानने वालों की भी भीड़ है। वे कविता के लिए दरवाज़ों का प्रयोग कर रहे हैं, कुछ भी आ जाए, कोई भी आ जाए, कभी भी आ जाए, आँधी-तूफ़ान बनकर। खिड़की तो इसलिए होती है कि दूर तक देखा जा सके, खुली हवा आ सके, खुशबू का झोंका आ सके, चाँद और सूरज की किरणें कुछ समय के लिए आकर थपथपा सकें। अब वे खिड़कियाँ बन्द होने लगी हैं, बाहर झाँकने की फ़ुरसत नहीं।

आज के शहर की इन खिड़कियों पर कोई गौरैया आकर नहीं बैठती। झोंका भी आता है तो शहर की प्रदूषित हवा का। मन की खिड़की तो बहुत पहले से बन्द हो गई. भीतर झाँकने की न हिम्मत बची और न ही आवश्यकता रही। समय ही नहीं खुद से भी संवाद करने का। जो भीतर से संवादहीन हो जाएगा, वह बाहर से क्या संवाद करेगा, जो बाहर की तरफ़ नहीं झाँकता उसका अन्तस् भी मृतप्राय हो जाएगा। डॉ।शील कौशिक का काव्य-संग्रह 'खिड़की से झाँकते ही' कुछ ऐसी ही कविताएँ लेकर आया है, जिनका सम्बन्ध हमारी उस सृष्टि से है, जो हमारे भीतरी संसार का एक अपरिहार्य अंग है। सभी कविताएँ इन्हीं प्रकृत शीर्षकों में विभाजित हैं, जैसे-पहाड़ से मुलाकात, भीगी मुस्कानें लिए बादल, आमन्त्रण पेड़ का, प्रकृति करे पुकार, जादूगर चाँद, चिड़िया का गीत, फूलों की बारात, नज़ारा बारिश का, रोता है समुद्र, हवा से गुफ़्तगू और अन्य। इस प्रकार 10 खण्डों में 156 कविताएँ हैं।

इन कविताओं से गुज़रते हुए सबसे बड़ा यह एहसास होता है कि कवयित्री ने ये कविताएँ खिड़कियाँ बन्द करके नहीं लिखीं, बल्कि प्रकृति के सजग संसार की ऊँची-नीची पगडण्डियों, नदी, झील झरनों, घाटी और पहाड़ियों, बादल और हवाओं से बतियाते हुए रची है। जब सृष्टि के कण-कण में ईश्वर के अस्तित्व की बात की जाती है, तो वह यों ही नहीं की जाती। मानव-शरीर से, मन से पूरी सृष्टि का, प्रत्यक्ष प्रकृति का अटूट हिस्सा है, माँ के गर्भनाल से शिशु की तरह। उद्वेगरहित मन के बिना बाह्य प्रकृति का सौन्दर्य नज़र नहीं आएगा। इसके लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण की दृष्टि चाहिए. पहाड़, बादल, चाँद आदि केवल वस्तु नहीं; बल्कि सजीव साथी और सगे हैं। तभी तो 'मेज़बानी पहाड़ की' कविता का अपनापन देखिए-

• अपनी बाहें फैलाकर / आगोश में ले / बहारों का गुलदस्ता /

हाथों में थमा। कमाल की मेज़बानी करता है पहाड़ (16)

प्रेमभाव से आतिथ्य करने वाले पहाड़ के प्रति मानव का व्यवहार घोर स्वार्थ से भरा है। स्वागत करने वाले को वह बदले में देता नहीं; बल्कि अपने क्षणिक लाभ के लिए उसका दोहन और शोषण करता है-

• कमाल की / शातिर नज़रें है आदमी की /

ख़ुदा की नियामत / पहाड़ को भी नहीं बख़्शा

बना लिया है उसे भी / अपने व्यापार का हिस्सा। (17)

जिन प्राकृतिक संसाधनों को हम अहर्निश नष्ट कर रहे हैं, उनकी पीड़ा हम नहीं समझ रहे हैं। उनका सौन्दर्य नष्ट करके हम बहुत सारे कुरूप निर्माण कर रहे हैं। 'छोटा लगेगा अपना दु: ख' कविता की ये पंक्तियाँ देखिए-

• फ़ुर्सत में कभी / पत्थरों की कहानी / उनकी जुबानी सुनना

बहुत छोटा लगेगा / अपना दु: ख तुम्हें। (18)

यह पहाड़ भला क्या देखेगा सुनेगा? न इसके आँखें हैं, न कान; लेकिन यह फिर भी संवेदनशील है, क्योंकि-

• पर जब तुम आते हो / इसके पास

तो यह तुम्हारी आँखों से देखता / और तुम्हारे कानों से सुनता है। (21)

डॉ। शील कौशिक की कविता में पहाड़ केवल पत्थर नहीं, उनका भी सुख-दुख है, उनकी भी संवेदना है; इसीलिए कहा है-

• रोया करते हैं / पत्थर दिल पहाड़ भी / एक दो आँसू ढुलकाकर नहीं /

जब वह रोते हैं / तो झरने के झरने / लगते हैं बहने। (24)

वही पहाड़ किसी को अनाथ होने का अहसास नहीं होने देता। उससे मिलो तो उस बूढ़े पिता का आशीर्वाद ज़रूर मिल जाएगा। 'आपस में बतियाते' कविता की इन पंक्तियों में मानवीकरण तो है ही, साथ ही 'कल-कल' , 'साँय-साँय' में सार्थक ध्वनि-बिम्ब भी है-

• मौन खड़े पहाड़ / तुम्हें नहीं पता / आपस में कितना बतियाते /

कभी बहते झरने की / कल-कल में / तो कभी पेड़ों की / साँय-साँय की आवाज़ में। (27)

प्रकृति और समाज से हमें भरा-पूरा जीवन मिलता है। सब कुछ लेकर भी हम इनके प्रति कितने अनुदार हैं! कितने आघात पहुँचाते इनको! 'जो मौन हैं' की वेदना बहुत गहनता से मुखर हुई है-

• मेरे दादा और पहाड़ / कभी-कभी मुझे / एक जैसे लगते हैं / जो मौन हैं।

अनगिनत चोटों के बावजूद (30)

प्रकृति के प्रति अनुराग हो, तभी उसकी धड़कन को समझा जा सकता है। यह तभी सम्भव है, जब शब्द और उसका अर्थ एकमेक हो जाएँ, सम्पृक्त हो जाएँ। 'लुका-छिपी का खेल' इनकी ऐसी ही उत्तम कविता है, जिसे दादा के सार्थक लौकिक बिम्ब के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस कविता का भाव-रूप विस्तार सचमुच मनमोहक है। शील जी ने इस कविता में शब्द-चयन नहीं किया, बल्कि नटखट नाती की तरह वे खुद चले आए हैं-

• दादा की मूँछें मरोड़ते / नन्हे बच्चे की तरह / ये बादल के टुकड़े /

सूरज दादा से / करते हैं छेड़छाड़ / उसका मुँह ढककर (38)

कभी घने बादलों के बीच कुछ हिस्से से झाँकते निरभ्र आकाश की अनोखी छवि कुछ इस प्रकार मन मोह लेती है-

• ज्यूँ बरसों बाद / पुराने मित्र का खिला चेहरा / यकायक सामने आया। (41)

'यकायक' शब्द का अपना अद्भुत सौन्दर्य है। मित्र वह भी पुराना, उदास नहीं, खिले चेहरे वाला है। कोई चिट्ठी या सन्देश नहीं दे, बस अकस्मात् सामने आ जाए!

बादलों के माध्यम से आजकल के स्वार्थी और अकूत सम्पत्ति पर काबिज होने वाले नेताओं का सन्दर्भ कितना सटीक है, अर्थ की कितनी व्यंजना है, 'कभी-कभी बादल' की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-

• बादल कभी-कभी / राजनेता की भाँति आते हैं / भरमाते हैं /

वायदे किसी से करते हैं / और बरस कहीं और जाते हैं। (44)

'पुरवा माँ' कविता में माँ का पूरा चित्र खींच दिया है। यह कविता कैनवास पर उतारा गया बहुत खूबसूरत चित्र बनकर उभरती है-

• कुरंग-शावकों से। चौकड़ियाँ भरते नन्हे बादलों को

अपने आँचल में छुपा / ले गई पुरवा माँ / प्यार-भरे स्पर्श से / वह भी / बरस पड़े। (49)

इस सारे दृश्य का आनन्द तभी मिल पाता है, जब-

• खिड़की से झाँकते ही / नज़रें हरे-भरे लॉन से फिसली /

ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को लाँघती / पहुँच जाती हैं / बादलों के घर आसमान में (52)

प्रकृति को लेकर शील जी के मन में बहुत गहन संवेदना है। पेड़ का दर्द, पेड़ की ज़िद, वृक्ष के गिरने से, दूर पेड़ की शाख पर, गुरुवर पेड़, बुज़ुर्ग पेड़ कविताओं में प्रकट हुई है। वह इनकी छटपटाहट, जिजीविषा, खालीपन, दुश्चिन्ता, पावन सन्देश, अकेलापन आदि का चित्रण बहुत ही सजीव रूप से करती हैं। पेड़ का कटना या पेड़ की उपेक्षा कवयित्री को भीतर तक साल जाती है। बुज़ुर्ग पेड़ घर के बुज़ुर्ग की तरह निपट अकेला छोड़ दिया जाता है। यहाँ यह सोचना ज़रूरी है कि सर्जना की ऊँचाई तब आ पाती है, जब रचनाकार शब्दों से और आगे जाकर अर्थ की अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोलता है-

• बसी है पेड़ों की आत्मा / इन काग़ज़ों में /

इसलिए काग़ज़ के छूने मात्र से / करती हूँ महसूस छटपटाहट /

पेड़ कटने की / काग़ज़ एक बचाने की ख़ातिर / लिखती हूँ /

विज्ञापन की पीठ पर / दिल का हाल / और पेड़ के हालात। (55)

• उस काटे गए पेड़ के / ठूँठ की ज़िद है / कि वह लहराएगा फिर से /

बनेगा फिर से सहारा / किसी कमज़ोर बेल का। (56)

• एक वृक्ष के गिरने से / सूना-सा दिखता है आसमान (57)

• कटते पेड़ का रुदन देखकर / दूर पेड़ की शाख पर / एक दूसरे से बतियाती / चिड़ियों की चहचाहट / थम गई / फिर कौ बनेगा हमारा सहारा। (58)

• पेड़ सुनाता है / घण्टे-दो घण्टे तक / सूर्यास्त के किस्से / दोपहर के प्रसंग / सूर्योदय की महिमा / रात के रहस्य / ज्ञानी-ध्यानी गुरु की नाईं (61)

• बूढ़े पेड़ ने अपनी उम्र में / देखे सुख-दुख के / बहुत-से मंज़र—

छोड़ दिया गया वह अकेला अब / घर के बुज़ुर्ग की तरह (63)

शील जी मानव की उस हठधर्मिता पर चोट करती हैं, जो मानवता के विनाश के भागीदार हैं, नदियों को बाँझ बनाते हैं, झीलों को निष्प्राण करते हैं। उनको भी सचेत करती हैं, जो केवल प्रकृति के दोहन में लगे हैं, जो पक्षियों का आशियाना छीन रहे हैं। प्रकृति करे पुकार, लिया जो तुमने, शापग्रस्त कविताएँ इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं-

• गोलियाँ दनदनाता है / नित नए वृक्ष काट गिराता है /

नदियों को बाँझ बनाता है / झीलों का रस चुराता है (67)

• ली जो तुमने / स्नेह दीक्षा आकाश से / प्रकाश पुंज सूर्य से—

पूरा का पूरा उधार नहीं तो / कुछ तो लौटाना चाहिए / लिया जो तुमने इनसे। (68)

• इधर से उधर / वृक्ष कर रह हा-हा-कार / लगता है कोई दैत्य /

अँगड़ाई ले उठ खड़ा हुआ है (70)

कवयित्री के लिए सूरज केवल एक आग का गोला नहीं, बल्कि अपने आप में प्रकृति का एक मनोरम उत्सव है, जिसे प्रकृति ने अपनी अनुपम तूलिका से सजाया है। ध्वनि बिम्ब के साथ भाषायी सौन्दर्य भी देखिए-

समुद्र की गोद में उगता सूरज /

• क्षितिज में छपाक से गुम होता सूरज ( (74)

'कुछ नया घटता' में सूरज का ताँक-झाँक करने वाला रूप और भी मनोरम है=

• सुबह-सवेरे उगा सूरज / उचक-झाँककर देख रहा / वृक्ष के नए निकले पत्तों को /

छोटे-छोटे पगों से लड़खड़ाकर / चलती नन्ही मुनिया को (79)

एक चिड़िया, चिड़िया का गीत कविताएँ कुछ अलग-सी अभिव्यक्ति लिये हुए हैं। 'सिकर दुपहरी' का बहुत सुन्दर प्रयोग किया गया है। आंचलिक शब्दों का सहज प्रयोग कविता को और अधिक सशक्त बनाता है। शब्दों को घसीटकर कविता में ठेलने से उसकी सहजता नष्ट होती है। शील जी ने प्रयासपूर्वक शब्द-प्रयोग नहीं किया, उनको सहज भाव से आने दिया है-

• एक चिड़िया सिकर दुपहरी / लगातार एक स्वर में /

कोई राग अलाप रही है / लगता है / हरे पेड़ों की अदालत में

वह रख रही हो अपना पक्ष। (82)

• अलग-अलग वय में / अलग-अलग तरह का /

गीत अलापती है चिड़िया / बचपन में चुलबुला-सा कोई गीत /

सयानी होने पर / रुलाई फूटने जैसा विदाई गीत (82)

इस संग्रह में अधिकतर ऐसी कविताएँ हैं जो अपनी गहन अनुभूति और प्रभावशाली तथा नवीन अभिव्यक्ति के कारण ध्यान आकृष्ट करती हैं। इनमें वासन्ती हवा (मुहावरेदार प्रयोग) , नज़ारा बारिश का (स्पर्श बिम्ब) , बारिश का आना (उत्सवधर्मिता) , समाधि लगाए हुए (चित्रात्मकता) के साथ 'रोता है समुद्र' की लाचारी प्रमाता को रुला देती है-

• बेबस समुद्र रोता है ऐसे ही / जैसे रोता है लाचार पिता /

बेटों द्वारा घर में / अकेले छोड़ दिए जाने पर। (102)

एक अन्य कविता 'बिटिया-सी धूप' का उल्लेख करना ज़रूरी है। यह इस संग्रह की उत्कृष्ट कविताओं में से एक है। धूप के व्याज से शील जी ने बेटी के महत्त्व और अटूट सम्बन्ध को बहुत मार्मिकता से उकेरा है।

पर्यावरण की चिन्ता सब जगह व्याप्त है। 'कब समझोगे' में तो चेतावनी है। शहर में आकर नदी खो जाती है, उसका अल्हड़पन समाप्त हो जाता है। वह सिकुड़कर मैली हो जाती है। अन्तिम वाक्य बड़ा सवाल लिये हुए है-

• कब समझोगे तुम नदी की व्यथा! (110)

आजकल मुक्तछन्द के नाम पर जो खर-पतवार उग रहा है, उससे हटकर यह संग्रह पहाड़, नदी, बादल, चिड़िया, पेड़ सबसे रिश्ता बनाते हुए पाठक के मन में सुखद सौन्दर्यबोध जगाता है। बस मन की खिड़की से झाँकने की ज़रूरत है। इसकी गणना हिन्दी के अच्छे संग्रहों में की जाएगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। कविता से बिदकने वाला पाठक भी इन कविताओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

खिड़की से झाँकते ही (काव्य-संग्रह) : डॉ शील कौशिक; पृष्ठ: 112; मूल्य: मूल्य: 250; संस्करण: 2016; प्रकाशक: सुकीर्ति प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा) (24 जून, 17-12-15 बजे.)