खिलौने / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 4

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पिछला भाग >> एक रेलगाड़ी ला कर दी तो उसने उठा कर फेंक दी। इसी बात पर बाप को गुस्सा आ गया, पीट दिया। रोते रोते सो गया। अब बीबी जी, सुबह का गया गया दिन भर मेहनत कर शाम को आता है। उस दिन सीधा बाज़ार होता हुआ उसके लिये रेलगाड़ी ले कर आया। पर इसके मिजाज मिलें तब न! बीबी जी, मँहगी चीज़ें हम कहाँ से खरीदें? उसकी समझ में कुछ नहीं आता। बाप झींक जाता है।

परसों तो बाप ने मारे पीटा। हम ग़रीब आदमी कहाँ से लायें ऐसे मँहगे खिलौने।’

सुधा क्या कहे। सुनती रही, अपना काम करती रही।


और फिर एक दिन पटरी पर दौड़नेवाली रेलगाड़ी गायब हो गई।

घर मे से कहाँ चली जायेगी? उसके सिवा और कौन घर में आता है?

विमल का गुस्सा सत्ते पर है, ’पहले ही कहता था उसे सर मत चढ़ाओ। पर तुम लोग मानो तब न! '

‘देखो, जब से रेलगाड़ी ग़ायब हुई है उसने शकल भी नहीं दिखाई है।’

‘कनु के दोस्त? नहीं। वो ऐसा नहीं कर सकते! और इत्ती बड़ी रेलगाड़ी छिपा कर कैसे ले जायेंगे!

वही ले गया है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ। उसकी निगाहें लगी थीं गाड़ी पर।’

चंदो से पूछा गया।

‘अभी तक तो कभी चोरी की नहीं। बीबी जी, घर जाकर पता लगाऊँगी। हाँ, और कोई तो आया भी नहीं दो दिनों से। फिर गई कहाँ? इस लड़के के लच्छन आजकल समझ में नहीं आते, पर लाता तो घर में ही लाता। उसका कसूर होगा तो बाप जान से मार देगा। मिलनी चाहिये रेलगाड़ी कहीं तो। आप चिन्ता मत करो। जायेगी कहाँ घऱ में से?

परेशान सी चन्दो चली गई।

सुना रात में बाप ने खूब मारा, बदन में नील पड़ गये पर सत्ते साफ़ मना करता रहा।

दो दिन से सत्ते बाहर नहीं निकला।


तीसरे दिन चन्दो दोपहर में आई।

छिपा कर लाई हुई रेलगाड़ी निकाली और मेज़ पर रख दी।

‘अरे ये कहाँ मिली?

चन्दो रोने लगी।

'माफ़ करना बीबी जी, हमें पता नहीं था। घर में लाने की हिम्मत तो थी नहीं सो उसने बाहर भूसे के ढेर में छिपा कर रखी थी। आज कंडे लेने गई तो दिखाई दे गई। उसके बाप ने चमड़ी उधेड़ दी, उस दिन से खाना भी नहीं दिया है। वहीं भूसे की कोठरी में पड़ा है। सारा बदन नीला पड़ा है।’

सुधा सिहर उठी।

चन्दो कह रही है, ’कहीं सिर उठाने लायक नहीं रखा। इससे तो मर ही जाता अभागा!

अब आपको भी जो सजा देना हो दे दो। उसे भी और हमें माँ-बाप को भी!'

सुधा सुन रही है।

सुधा सुन रही है, कानों में जैसे कोई लावा उँडेल रहा है। कान मूँद कर भाग जाना चाहती है, पर सब सुनना पड़ रहा है।

'जो जो कुछ खराब हुआ है सबके पैसे काट लो। मैं क्या करूँ, मैं तो हार गई।’


कितने प्रयास से मुँह से बोल फूटे, ’बस, बस चन्दो, बहुत हो गया।’

पल्ले से मुँह दबाये चंन्दो सिसक रही है।

‘रो मत चन्दो, गलती तेरी नहीं है। बड़ों-बड़ों को अपने पर काबू नहीं रहता। वह तो बच्चा है। जैसा तेरा, वैसा मेरा। ...मैं भी दुखी हूँ चन्दो!'

‘अब मारना-पीटना नहीं, ऐसे तो लड़के बिगड़ जाते है। जाकर खाना खिलाओ उसे।’

बड़ी मुश्किल से समझा कर चन्दो को भेजा।

सुधा का मन खराब हो रहा है। दिमाग में क्या-क्या खयाल आ रहे हैं - कभी कनु को तरसना पड़े तो? तो क्या गुज़रेगी उस पर.? क्या गुज़रेगी हम पर?

जो नहीं खरीद सकता वह क्या करे? और फिर बच्चे? उन्हे कैसे समझाया जाय?

कितने सवाल उठ रहे हैं, खूब पिटा है भूखा पड़ा है सत्ते?

ऐसा तो नहीं था! क्या हो गया उसे?

दो दिन से भूखे बच्चे का बार-बार ध्यान आ रहा है। रह-रह कर तिलमिला उठता है मन।

भूखे शरीर पर क्रोध से पागल बाप की लगातार पड़ती मार- सुधा झेल नहीं पा रही।

**

क्या हो गया?

सब समझ रही है सुधा!

अब तक सिर्फ सोचती थी। अब समझ में आ रहा है।

यह कैसा खेल हैं? दूसरों के मनो में असंतोष बढ़ता रहे, सब अलग-अलग पड़ते जायें, संवेदना -सहानुभूति रहित? कनु जब खेलने बैठता है तो औरों को कैसे देखता है जैसे कह रहा हो -जो मेरे पास है तेरे पास कहाँ! तू कहाँ से लायेगा! और बच्चों पर जैसे कृपा कर रहा हो अपने साथ खिला कर। कैसा खेल है यह?


जहाँ की है वहीं रहें ऐसी चीज़ें। वहाँ सबके पास होंगी, दूसरों के बच्चों को तरसना नहीं पड़ता होगा! यहाँ ये खेलने के लिये थोड़े ही, हम कुछ खास है ये दिखाने के लिये आये हैं?

या फिर सबके साथ खेले, मिल बाँट-कर। सो नहीं।

सुनने को मिलता है, ’हरेक के सामने मत निकाला करो। खराब हो जायेंगे।’

हरेक? माने साधारण लोग!

और कनु तो खास बन गया है।

खिलौने? बच्चों के खेलने की निर्दोष चीज़ें। मन को आनन्द देने के साधन! और ये मँहगी-मँहगी मशीनों जैसी चीजें सिर्फ अपना बड़प्पन के दिखावे के लिये! औरों को दिखा कर उनके मन में तृष्णा जगाने के लिये! चार जनों के साथ मिल कर खेलने के बजाय अलग पड़ते जाने के लिये! इसीसे का पता लगेगा। इसीसे संतुष्टि होगी?

तो रख लो सम्हाल कर सहेज कर! सबसे हटा कर। संदूक में बंद कर दो।


एक झोला हाथ में पकड़े सुधा चन्दो के घर जा रही है।

‘अरे बीबी जी, आप?मुझे बुला लेतीं।’

‘क्यों? मैं नहीं आ सकती?'

‘आइये, कहीं जा रही हैं क्या?'

‘नहीं। सत्ते कहाँ है?'

‘फिर कुछ किया क्या उसने?'

‘नहीं। उसने कुछ नहीं किया। बुलाओ तो।’

सत्ते कहीं से आ रहा है- चेहरा दुर्बल, सूखा-सा ठीक से चल नहीं पा रहा है, हाथों पर नीले निशान।

सुधा को देखा, चौंक गया। चाल थम-सी गई।

‘बीबी जी तुम्हें बुला रही हैं।’

‘रुक क्यों गये सत्ते? आओ, मैं तुम्हीं से मिलने आई हूँ।’

कहीं शिकायत का स्वर नहीं, आवाज़ सहज स्नेहमय ।

सुधा खुद बढ़ी उदास खड़े सत्ते का कंधा पकड़ अपने से सटा लिया।

साथ लाये झोले से खिलौने निकालने लगी -वही पटरीवाली रेलगाड़ी! दो-तीन-और चीजें हैं।

‘ये, तुम्हारे लिये!'

चन्दो चौंक गई है।

‘बीबी जी, ये क्या कर रही हो? हम कहाँ इन खिलौनों के लायक। कनु भइया के हैं। ले जाइये।’

सत्ते अवाक् खड़ा है।

‘नहीं। अब सत्ते के हैं। कनु के पास और भी हैं। इन से खेलना होगा तो सत्ते के साथ खेल लेगा।’

सत्ते ने सिर झुका लिया है।

किसी की समझ में नहीं आ रहा क्या बोले।

'क्यों, मैं सत्ते को कुछ नही दे सकती ?'

सत्ते विमूढ़! क्या कहे, क्या करे! अंदर से गले-गले तक कुछ उमड़ा आ रहा है। बड़ी मुश्किल से बोल निकले -

‘माफ़ कर दीजिये - गलती हो गई।’

आवाज़ बिल्कुल रुँधी है।

‘पागल है क्या? खुशी से खेल।’

चन्दो की आँखों में द्विविधा है, ’और बाबूजी?'

‘मैं चुरा कर नहीं दे रही हूँ। बाबूजी की चिन्ता मत कर। मैं हूँ न?'

सत्ते फूट-फूट कर रो उठा है। आँखों से धाराधार आँसू बह रहे हैं।

उसने आगे बढ़ कर सिर पर हाथ रखा -हथेली से गालें पर बहते आँसू पोंछ दिये।

‘अब कभी नहीं आंटी जी।’

'मुझे मालूम है अब कभी नहीं! गलती किससे नहीं होती? '

'चन्दा, तुम लोग उससे कुछ मत कहना।’

विमल को वह समझा लेगी।

अब ये चन्दो क्यों रो रही है?

उद्वेलित लहरों को सहज होने में थोड़ा समय तो लगेगा ही। अगला भाग >>