खुदग़र्ज प्यार / प्रियंका ओम

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"कैसी हो मीता?"

तुमने पूछा तो चौंक-सी गई थी मैं। आज चार साल बाद फिर से मीता सुना था मैंने।

"बहुत खुश हूँ!"

चेहरा दूसरी ओर मोड़े हुए ही कहा था मैंने, क्योंकि मन के अंदर शिकायत का स्रोत खुल चुका था और उसमें उलाहनों का संचार शुरू हो गया था।

तुम्हारे लिए मेरा प्यार मंदिर में बजने वाली घंटियों-सा था। त्वरित भी और स्वरित भी। लेकिन तुम मंदिर में स्थापित मूर्तियों से मौन जो मुझे छोड़ आते थे मेरे ही बियावान में।

उस दिन भी तो तुम मौन थे और मैं हमेशा की तरह तुम्हारे मन की कायरता को समझ गई थी।

तुम मुझे छोड़ देना चाहते थे किसी पहाड़ी के ऊँचे टीले से फेंके गए पत्थर की तरह या एक बड़े से पेड़ के उस आखिरी पत्ते की तरह जिसे छोड़ दिया था बेरहम पतझड़ ने अकेलेपन का श्राप देकर या फिर अनगिनत तारों के समूह में तन्हा अकेले चाँद सा।

मैं कुछ पूछना भी नहीं चाहती थी क्योंकि मैं जानती थी सिवा तुम्हारी ख़ामोशी के कुछ न मिलेगा। इसलिए तुम्हारी तरफ से अलविदा भी मैंने ही कहा, बिना आंसुओं के सैलाब के जो कब से आतुर थे बह जाने को। बेचैन थे पलकों का बांध तोड़ जाने को। किन्तु हँसते मुस्कुराते जोड़ों को देखकर मैं भी मुस्कुराई थी तुम्हारे लिए आखिरी बार और चल पड़ी थी पीछे पैरों के निशान छोड़कर जबकि जानती थी तुम मेरे पीछे नहीं आओगे।

आज जब तुम सामने हो तो कोस रही हूँ अपने उन्हीं निशानों को। अभी-अभी तो खुशियों की छोटी-छोटी कश्तियाँ मैंने जीवन के समंदर में उतारी हैं और तुम "हाई टाइड" की तरह डरावने सपने लेकर आ गए हो।

बंद पड़ी किताब में पड़े पीपल के पत्ते की तरह जब तुम्हारी यादें सूख कर जालीनुमा हो गई हैं तो तुम मयूर पंख के भ्रम में अपनी उपस्थिति की चाक खिलाना चाहते हो। शायद तुम नहीं जानते अब मैंने किताबें पढ़नी बंद कर दी है।

तुम तो अनाहूत थे ना। न लौट के आने वाले। फिर क्यों आज आये हो? देखो न हृदय का वह अवांछित हिस्सा जो पड़ा हुआ था लावारिस लाश की तरह अब भी निर्जीव है।

तुम पहले भी निष्ठुर थे और आज भी हो। क्या ज़रूरत थी तुम्हें आने की। क्या तुम देख नहीं रहे कि किस तरह खुश होकर मैं तितली-सी इतराती हूँ। बादल-सी बरसती हूँ और फूलों-सी महकती हूँ।

तुम्हारे चेहरे पर सुखद आश्चर्य की लकीरें देखकर मैं विषाद से भर गई. पल भर की ख़ुशी से ही तुम्हें सुकून मिलता है। जबकि ये खुशियाँ तुम्हारी ही थीं सदैव तुम्हारे लिए अपना दामन फैलाये तुम्हारे दरवाजे पर खड़ी थीं। लेकिन तब तुमने अपना मुँह फेर लिया और मैं तुम्हारे चौखट से बिना शिकायत के लौट आई थी ये सोचकर कि कदाचित किस्मत में नहीं। किसी भी दिमागी युद्ध के शुरू होने से पहले ही मैंने पराजय स्वीकार ली थी क्योंकि मैं और तुम मानसिक स्तर पर निश्चित रूप से एक दूसरे से अलग थे।

"कुछ कहोगी नहीं?" सुनकर किसी निर्दोष अपराधी-सी फिर से चौंक गई थी मैं।

"नहीं!"

"क्यों नहीं मीता?" तुम्हारा अपराधी हूँ। कोई सजा ही सुना दो।

"मैंने तो शरद से शादी के बाद ही तुम्हें माफ़ कर दिया था।" कहकर भूतकाल के उस घटनाक्रम को लयबद्ध करने लगी जिसमें मैं क्षत-विक्षत हो गई थी।

तुमसे मेरी पहली मुलाक़ात भी कितनी अप्रत्याशित थी। जैसे जून की तपती दोपहर में अचानक से बारिश का होना। तुम्हें पता है न बारिश मुझे कितनी भाती है। मैं धूप में सूखी हुई मिट्टी की तरह, बारिश में भीग कर सोंधी-सोंधी महक जाना चाहती थी। मन मयूर हो गया था, तन सपनों के घुँघरू पैरों में बांध थिरकने लगा था।

सुना था पत्थरों में भी एक अजीब किस्म का आकर्षण होता है। मेरी बेशरम नज़रें जोंक की तरह तुमसे चिपक गई थीं। मैं जानती हूँ मेरी निर्लज्जता से तुम लिज़लिज़ा महसूस कर रहे थे। तुमने दो चार औपचारिक प्रश्न ही पूछे जिनके उत्तर मैंने यंत्रवत बिना पलवेंâ झपकाये दे दिए.

इससे पहले भी तुम बहुत बार यूँ ही मेरे ख्वाबों में आकर मुझे बेचैन किया करते थे, जो सुबह होते ही हरसिंगार के फूलों की तरह टूट जाते थे।

हाँ तुम वही तो थे जिसकी आकृति मेरे जेहन में पिछले जनम की याद जैसे बनी थी और मानो तुम्हें पाने के लिये ही फिर से मेरा जनम हुआ हो।

शायद मेरे ख्वाब तुम्हारी आँखों में भी चुभते थे जो सुबह होते ही टूट कर मेरी पलकों पर ही ठहर जाते हैं!

तुमने मेरा चयन कर लिया था।

वो एक लम्हा होता है या एक पल। जब आंखों को सब कुछ बहुत अच्छा लगता है और उसी पल तुम्हारा मुझसे साक्षात्कार हुआ था। मेरी नजरों की पहरेदारी में तुम स्वेच्छा से कैद हो गए थे।

मेरी रातों की नींद की भी तुम्हारे ख्वाब से दोस्ती हो गई थी। हाँ मेरे रतजगे को भी तुमसे मुहब्बत हो गई थी।

जानते हो उसके बाद अक्सर तुम्हें निहारने के बहाने से आईने में अपनी सपनीली आँखें देखा करती थी।

नदी की तरह तुम्हें छू लेने की चाह भर से नज़रें संयम के सारे बांध तोड़ देती थीं। ऐसा नहीं था कि तुम्हारे अस्तित्व से मेरी आँखों का दिल भर गया था। ऐसा भी नहीं था कि मेरी बेशर्मी को अब लाज आने लगी थी। बल्कि मैं तुम्हें यूँ सरेआम रुस्वा नहीं करना चाहती थी। कई बार तुमसे टकराकर जब मेरी नज़रें पुन: मेरे पास लौट आती थी, तब यही नज़रें चुगली करती थीं तुम्हारे मन की। कह जाती थी कितनी ही मौन बातें तुम्हारे खामोश होंठों की। नजरें इत्र में भीगी, नायाब हर्फों से सजी छोटी-छोटी गुलाबी लिफाफे वाली चिट्ठियों में तब्दील हो गई थीं।

कितने मादक होते थे वह पल जब मुझे देख कर तुम सिर्फ़ मुस्कुरा दिया करते थे। जानते हो तुम्हारे नशे में मैं सारी रात बहका करती थी और वह बहकना भी बहने जैसा होता था जिसमे मैं बहुत दूर निकल जाती थी इतनी दूर कि वापस आना भी तुमसे बिछड़ने जैसा लगता था!

जब लंच में सब पैंट्री चले जाते थे तब रह जाते थे मैं और मेरी किताब। फरफराते पन्नों से निकलकर जब बिखर जाते थे शब्द मेरे आस-पास तब मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर निकल पड़ती थी उस सपनीले गुलशन में जहाँ मेरी और तुम्हारी हँसी के गुलाब खिलते थे ऐसे में एक दिन अचानक ही तुमने पूछा था "चाय पियेंगी आप?" यह इतना आकस्मिक और अप्रत्याशित था कि मैं चौंक गई थी। यकीनन बुत भी बोला करते हैं।

"जी, पी लूंगी।"

इतना सुनते ही तुम लगभग दौड़ते हुए गए थे।

और अगले ही मिनट चाय के दो मग लेकर तुम मेरे सामने वाली चेयर पर मुझपे नज़रें गड़ाए मुस्कुरा रहे थे।

तुम्हारी मुस्कराहट ने मेरे चेहरे पर सुर्ख रंग उड़ेल दिया था। तुमने अपनी नज़रें हटा ली थी।

"इतनी जल्दी?" मैंने फिर से रुकी हुई बातों का सिलसिला शुरू किया था।

"नहीं तो ख़त्म हो जाती। अब तो सब दीवाने हो गए है बहुत लम्बी लाइन होती है।"

मैंने चाय पी और शुक्रिया में "बहुत अच्छी है" कहा।

तुमने थोड़ा खुश होते हुए कहा "स्पेशल होती है, खास मेरे कहने पर लंच में बनती है। अब तुम्हारे लिए भी बनेगी" आप से तुम तक का सफ़र चाय के साथ ही ख़त्म हो गया था।

फिर तो रोज ही लंच में हमारा चाय और बातों का सिलसिला शुरू हो गया था और अगर कभी तुम न होते तो मैं अपनी किताब निकाल लिया करती और एक अलग-सी रूमानी दुनिया में खो जाती।

तुमने चाय के बारे में कहा था चाय और बातों का गहरा रिश्ता है। इलाइची वाली चाय पीते हुए मनपसंद विषय पर बातें करना तुम्हें बहुत पसंद है लेकिन मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया कि उस दिन मैंने पहली बार चाय पी थी।

तुम्हारी बातें तुम्हारी तो होतीं लेकिन अक्सर तुम्हारी नहीं होती। उनमें कुछ अलग-सा होता। लेकिन मैं उस अलग से जुड़े "तुम" को ढूँढ़ लिया करती जो मेरे लिए वस्ताविक रूप से अपरिचित था।

तुमने अकेलेपन के बारे में कहा, ये एक खास किस्म के नशे जैसा है और तुम्हें इसकी लत लग गई है। "नशा" मेरे लिए एक नकारात्मक भाव था जबकि अकेलापन तपती हुई जून की सूनसान दोपहर जैसी.

एक दिन तुमने मुझसे पूछा था "जब मैं नहीं होता तब तुम ये क्या पढ़ती रहती हो?"

"मुझे किताबें पढ़ने की आदत है।"

"कैसी किताबें?"

"रूमानी साहित्य।"

तुम्हारे चेहरे पर आश्चर्य की कई लकीरें एक साथ उभर गई थीं!

"मैं कवितायें भी लिखती हूँ। पढ़ोगे?"

"नहीं मुझे समझ नहीं आएगा।" फिर कुछ रुक कर कहा था "तुममें कुछ अलग-सा मुझे तुम्हारी ओर खींचता है। लंच के खाली टाइम में जब दूसरी लड़कियाँ नेल पेंट और लिपस्टिक की बातें करती हैं तुम अपनी पसंद की कोई किताब पढ़ती हो। एक ओर बिज़नेस हैंडल करती हो और दूसरी ओर कवितायें लिखती हो। तुम एक कम्पलीट कंट्रास्ट पैकेज हो। आर्ट और बिज़नेस का।"

मुझे दुख हुआ था तुमने मेरी कविताएँ पढ़ने से मना कर दिया था। क्या तुम सिर्फ़ मेरा मन रखने के लिए नहीं पढ़ सकते थे। कितना खुश हो जाती मैं। सिर्फ़ मेरी ख़ुशी के लिए ही सही लेकिन तुम निष्ठुर जो ठहरे।

मेरे मन में चल रहे द्वन्द्व से अनभिज्ञ तुमने कहा था "वाकई तुम कमाल हो!"

इतना सुनते ही ख़ुशी से सराबोर हो गई थी। औरत का मन ऐसा ही होता है। थोड़ी-सी तारीफ सुनकर पुलकित हो जाता है। बिल्कुल ओस की बूँद-सा होता है। हमारा दर्द, प्यार की किरणें पड़ते ही गायब हो जाता है और मन गुलाब की पंखुड़ियों-सा खिल जाता है।

मैंने खुश होकर कहा था, "मैं वर्गो हूँ, मुझे ईश्वर ने ऐसा बनाया है आधा व्यवसायिक और आधा रूमानी।"

उस दिन हम पहली बार अकेले मिले थे।

मैंने कहा था "जानते हो ऑफिस की आधी से अधिक लड़कियाँ तुमपे फ़िदा है।"

"अच्छा?" तुम्हें आश्चर्य हुआ था।

"क्यों तुम्हें पता नहीं?"

"मेरा तो सारा ध्यान सिर्फ़ तुमपे रहता है मीता।" कहते हुए तुमने मेरी आंखों में देखा था और एक बार फिर शर्म की सुर्खियाँ मेरी रगों से निकल कर मेरे चेहरे पर बिखर गई थीं।

आज कल सब मुझे छेड़ते है कि "कल से मैं भी लंच नहीं लाऊँगी।"

"क्या सचमुच?" तुम्हें यकीन नहीं हुआ था।

"सचमुच" 

"उनसे कह दो अब मेरी रूह तक पर भी तुम्हारा अधिकार हो चुका है।" कहते हुए तुमने मेरा हाथ पकड़ लिया था और मैं सर से पांव तक सिहर गई थी।

मुझे ऐसा लगा था मानो तुम कोई देव हो जिसका इंतज़ार स्वर्ग की सारी परियाँ करती हैं। लेकिन तुम मेरे सपने में खोये थे।

लेकिन जब मैंने तुमसे तुमपे अपना अधिकार माँगा तो तुम्हारे पास सिवाय मौन के कुछ और न था!

तुम्हें मेरी आँखें बहुत खूबसूरत लगती थीं। मैंने कहा था "खूबसूरत सपनों से भरी।"

"सपनीली आँखों वाली सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली नमिता।" तुमने हँसते हुए कहा था।

सचमुच मेरी सपनों की एक अलग दुनिया है जहाँ तुम हो मैं हूँ और खुशियाँ हैं।

"सपनों की किस्मत में तो टूटना लिखा होता है। उसका खुशियों से क्या वास्ता क्योंकि वास्तविक जीवन में तो खुशियाँ होती ही नहीं मीता।" तुम्हारी आवाज़ बहुत दूर से आती हुई लग रही थी, तुम्हारा दिल डूबा हुआ था कहीं गहरे में।

"खुशियाँ हमारे अन्दर होती हैं वरुण, उसकी तलाश में हम इधर उधर बिल्कुल वैसे ही भटकते है जैसे मृग कस्तूरी की खोज में।"

तुम बात को अधूरा छोड़ उठ गए थे।

तुम्हें कनिका के साथ खुश देखकर मेरे अन्दर कुछ सुलग गया था आखिर औरत हूँ ना। ईश्वरीय विकृति से कहाँ अछूती हूँ। जलन तो तुम्हें भी होती थी मुझे जतिन के साथ देख कर। लेकिन तुम कहते नहीं थे, लेकिन मैं बहुरमुखी हूँ जब तक अपनी बात न कह लूँ मुझे चैन कहाँ आता है। उस दिन भी मैंने साफ़-साफ़ पूछ लिया था "क्या कनिका मेरी सौतन है?"

तुमने मुझे अपनी बाँहों में लेते हुए कहा था "तुम्हारे मेरे बीच हवा के लिए भी जगह नहीं है।"

हाँ उस दिन इतनी भी जगह नहीं थी की हवा भी आ जा सके लेकिन तुम्हें तुम्हारा मौन धीरे-धीरे मुझसे दूर ले जा जाने लगा था। जबकि मैं वहीं खड़ी रही। असल में हमारे दरम्यान तुम्हारी कायरता छद्म रूप में आकर विकराल हो चुकी थी। इतना विकराल कि वह तुम्हारे अहं का पर्याय लगने लगी थी।

कई बार तुम्हारे साथ होना एक जलती हुई चिता के साथ शमशान में अकेले होना जैसा होता था। तब मैं भी उसी चिता में बैठकर सती हो जाना चाहती थी।

कभी-कभी तो तुम मुझे धूनी रमाये शिव से प्रतीत होते थे। तब मैं गौरी-सा तप कर तुम्हें पाना चाहती थी और कभी अकबर की तरह अपने सियासी मुद्दों में उलझे लगते थे तब जोधा-सी कुढ़ती तुम्हें आकर्षित करने के बहाने ढूँढती थी। लेकिन अगर तुम शिव थे तो तुम्हें बंधन स्वीकार क्यों नहीं? आखिर अपने तन पर शमशान की राख मलने वाला। गले में नाग और तन पर बाघ की खाल पहनने वाला जोगी भी तो पार्वती के हठ से हार गया था और अगर अकबर थे तो तुम्हारे हृदय में हुंकार क्यों नहीं? स्वयं घोषित हृदयहीन शहंशाह जलालुद्दीन का हृदय भी तो जोधा के प्रेम में व्याकुल हुआ था!

जानते हो जिस तरह शिव ने समुद्र मंथन से निकले विष को पी लिया था। उसी तरह मैं भी कभी लुका-छिपी के बहाने से ही तुम्हारे मन के भीतर जा मंथन कर दर्द के सारे विष पी लेना चाहती थी किन्तु तुमने अपने मन के गिर्द गहरी खाइयाँ बना रखी थीं।

और उस दिन सूर्य की लालिमा जब तारों की चाँदनी और चाँद की चूड़ी लेकर धीरे-धीरे धरती की मांग भरने पश्चिम की ओर जाने लगा था तुमने सपाट शब्दों में कहा था तुम वैवाहिक व्यवस्था में विश्वास नहीं करते, तुम्हारे लिए यह एक बंधन मात्र है।

तो फिर...मैं...तुम...हमारे बीच...रिश्ता...हम... यहाँ

गले के बीच ही मेरे शब्द दम तोड़ रहे थे। घुटे शब्द मुझे काँटों से चुभो रहे थे और जो शब्द होठों से टकरा के निकल रहे थे वह मेरी तरह ही टूट कर बिखर रहे थे।

समंदर अपनी जगह था, किनारों से लड़ झगड़ के लहरें शांत हो चुकी थीं, ऐसा लग रहा था मानो अब उसमें कोई उत्तेजना शेष नहीं बची थी। उसकी सारी ऊर्जा समाप्त हो चुकी थी। इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गई थीं। समंदर घट के आधा हो गया था!

तुमने मेरे हाथों पर अपना हाथ रखा था। बर्फ से ठन्डे हाथ, शरीर की सारी ऊष्मा भाप बनकर पलकों पर बिछ गई थी बरसने को ...लेकिन मैं तुम्हें अपने आँसू की बाढ़ में बहा कर नहीं पाना चाहती थी।

अपना चेहरा विपरीत दिशा में मोड़ कर मैंने धीरे से अपना हाथ खींचा था।

"मीता क्या एक दिशा में देखने के लिए शादी के बंधन में बंधना ज़रूरी है। क्या सिर्फ़ हमारे साथ की ऊष्मा काफी नहीं?" तुमने पूछा था।

मैंने तुम्हें ध्यान से देखा। तुम्हारा चेहरा भी तुम्हारे शब्दों-सा सपाट था, भाव-विहीन। हाँ तुम्हारी आँखों में प्रेम था बहुत ही ख़ुदगर्ज प्रेम। जिन आंखों में मैं कल के सपने देखना चाहती थी वहाँ मुझे मेरे सपनों के ध्वंसावशेष मिले फिर कुछ और देखने की इच्छा नहीं हुई.

प्रेम का अर्थ पाना नहीं सदैव देना ही होता है इसलिए मैंने भी दे दिया था। तुम्हें तुम्हारी आज़ादी और मुक्त कर दिया था तुम्हें तुम्हारे मन की नपुंसकता के साथ अपने उस बंधन से जिसमें कभी तुम बंधे ही नहीं थे।

गीली ठंढी रेत पर अपने पैरों के निशान छोड़ते हुए बस यही दुआ कर रही थी काश ये तुम्हारे मन की आग को भी शांत कर पाती।

♦♦ • ♦♦

"मैं नहीं जानता था कि शरद की पत्नी तुम हो।" तुमने कहा तो मैं फिर से वर्तमान में आई थी।

"अब तो जान गए हो कि मैं तुम्हारे दोस्त की पत्नी हूँ।" मेरी भाषा में स्पष्ट तीखेपन के साथ-साथ "दोस्त की पत्नी" पर अतिरिक्त दबाव था।

"मैंने तुम्हें बहुत ढूँढ़ा था मीता" वरुण ने मेरी बात अनसुनी कर दी थी।

"स्वयं को ही भूला हुआ इंसान किसी और को क्या तलाशेगा?" मैंने फिर से कटाक्ष किया था।

"हाँ तुम्हारे बिना मैं खुद भी भटक गया था। जानती हो सेक्टर 18 के उस पार्क में मैं अब भी फव्वारे के पास बैठता हूँ की शायद कहीं से तुम आ जाओ."

"मैंने शरद पा लिया है वरुण मुझे अब वाह्य शीतलता की चाह नहीं।"

इतने में शरद आ गये जो एक फ़ोन आने पर उठ कर चले गये थे। मुझे मेरे अतीत के साथ छोड़ कर।

वेटर दो कॉफ़ी का मग और एक चाय का कप लेकर आ गया। मैंने कॉफ़ी का मग उठा लिया था।