खुदा ने गंजों को नाखून दिये होते? / गोपालप्रसाद व्यास

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कहावत अवश्य सुनी है कि गंजों के अगर नाखून होते तो खुजाते-खुजाते मर जाते, पर ऐसा कभी देखा नहीं गया। हमने इसी जन्म में अपनी आंखों से दो-चार नहीं, सैकड़ों गंजे देखे होंगे और उन सबके नाखून भी थे, यदा-कदा अपनी खोपड़ी भी खुजलाते हैं, मगर आपको जानकर खुशी होगी कि सब-के-सब अभी तक भारत की जनसंख्या में वृद्धि ही कर रहे हैं। इसके मतलब क्या हुए ? या तो कहावत झूठी है या गंजे गंजे नहीं हैं अथवा उनके नाखून नाखून नहीं कहे जा सकते। हमें इन तीनों बातों की तह में वैसी ही सावधानी से उतरना पड़ेगा जैसे अमरीकी लोग रूसी बातों की छानबीन में गहरे गोते लगाया करते हैं। हमें इन तथ्यों का विस्तार से वैसे ही सर्वेक्षण करना पड़ेगा जैसे भारत सरकार ग़लती करने के बाद उस पर जांच कमेटी बिठाकर बड़ी मुस्तैदी से काम किया करती है। यह लेख आज से शुरू होकर भले ही साल-भर बाद समाप्त हो, मगर हमें राष्ट्रपति के राजभाषा आयोग की तरह इसकी पूरी-पूरी तफ्तीश में जाना ही पड़ेगा, परिणाम जो भी हो। हमें तो कर्म करने की छूट है, शेष तो भगवान कृष्ण गीता में कह ही गए हैं- मा फलेषु कदाचनः।

इस शुभ कर्म में प्रवृत्त होने से पूर्व पहले हमें गंजों की व्याख्या करनी पड़ेगी। 'हिन्दी शब्द सागर' में लिखा है कि गंजा वह है, जिसके सिर के बाल उड़ गए हों, मगर यह नहीं लिखा गया कि सिर के बाल कैसे उड़े हों ? सिर के बाल तो कई-कई तरह से उड़ते हैं जी ! कुछ के बाल तो मां-बाप के मरने पर नाई उड़ा देता है, कुछ कर्म ऐसे करते हैं कि लोग-बाग नाई को यह कष्ट नहीं उठाने देते और स्वयं यह शुभ कार्य कर दिया करते हैं। जैसे कुछ के बाल धूप मे सफेद होते हैं, उसी प्रकार कुछ के बाल तेज लू में झुलसकर उड़ भी जाते होंगे। गंज एक तरह का रोग भी होता है। कहते हैं उससे सिर के बाल उड़ जाया करते हैं। पर रोग-दोष से हमें आपको क्या लेना। हमारे अनुसंधान का विषय तो वह गंजा है,जो उत्तर भारत में, विशेषकर पढ़े-लिखे वर्ग में अधिक पाया जाता है, जिसे संस्कृत में खल्वाट कहते हैं और इस 'खल्वाट' के संबंध में बड़ी धूमधाम से यह घोषणा की गई है- 'क्वचित खल्वाट निर्धनः'। खल्वाट का संबंध खल से कितना है, यह तो भाषाशास्त्री ही बता सकता है। मगर भारतीय रजतपट पर हमने ऐसे कई खेल देख हैं जिनमें खलनायक की खोपड़ी शीशे की तरह चमकदार दिखाई देती है। खल्वाट का संबंध धन से कितना है, इसकी सही-सही जानकारी तो आयकर विभाग वाले ही दे सकते हैं या उनकी पूंजी का तो बैंकों के खातों, डाकखाने की किताबों और राष्ट्रीय बचत-योजना के दफ्तरों से मालूम किया जा सकता है। लेकिन इतना हम अवश्य जानते हैं कि गंजों का धन से चाहे जितना हो, निर्धनता से कोई संबंध नहीं। अपना न हो, पराया हो, कमाया न हो, पाया हो, उठाया हो, चुराया हो, गर्ज़ यह है कि धन खल्वाटों के पास रहता अवश्य आया है। वे नोटों को खर्च कर सकें या न कर सकें, गिनते अवश्य रहते हैं। आपने देखा होगा कि सेठों के अधिकतर मुनीम गंजे होते हैं। बैंकों के खजांची छांटकर गंजे रखे जाते हैं। अगर ग़लती से बाल वाले रख भी लिए जाएं तो या तो वे ग़बन के अपराध में जेल चले जाते हैं अथवा गिनते-गिनते फिर वे ही हो जाते हैं जिन पर हम यह लेख लिख रहे हैं। कुछ लोगों का तो कहना है कि सिर के बाल तो सोचते-सोचते उड़ जाते हैं, यानी बालों के उड़ने का संबंध सोच-विचार से है। तात्पर्य यह है कि मूर्ख नहीं, विचारवान पुरुष ही गंजा होता है।

जब समझदारी ज़रूरत से ज्य़ादा बढ़ जाती है तो वह खोपड़ी फोड़कर निकलने लगती है और उसकी राह में आए बाल तबाह हो जाते हैं। बात कुछ जमती तो है कि बालहीनता बुद्धिमानी की निशानी है। भगवान बुद्ध ने शायद इसीलिए अपने शिष्यों को अपने साथ सदैव एक उस्तरा रखने का आदेश दिया था। इसके विपरीत शास्त्रों में स्त्री को पुरुष के मुकाबले शायद इसीलिए कम भक्त ठहराया गया है कि उसके सिर पर बड़े-बड़े बाल होते हैं। नारियां ही क्यों, सिर पर बड़े-बड़े बाल रखने वाले आदमियों को कम लोग ही बुद्धिमान कहते हैं। बच्चों का मुंडन संस्कार, यज्ञोपवीत से पहले खोपड़ी की घुटाई, श्राद्ध-तर्पण के समय भद्र-क्रिया और योगियों का सदैव खल्वाट रहना आदि प्रथाएं या तो गंजे ऋषियों या मां-बापों ने चलाई हैं। अथवा यह मानना पड़ेगा कि बालों का और अक्ल का बैर है। ऐसा न होता तो लोग रोजाना दाढ़ी सफाचट करने का सिलसिला आरंभ करते ? गंजों के सिर पर बाल भले ही न हों, लेकिन धड़ के नीचे कुर्सी अवश्य होती है। भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत की सबसे बड़ी कुर्सी को दसियों साल दबाए रखा। एक बार हमने पता लगवाया था तो मालुम हुआ सिर्फ जवाहरलाल ही नहीं, केन्द्र और प्रदेशों के बीसियों मंत्री और राज्यपाल ऐसे हैं जिनकी खोपड़ी के बाल गंगा-स्नान करने गए हुए हैं। भारत सरकार के तीन-चौथाई आई.सी.एस. गंजे हैं। सेक्रेटरियों और डायरेक्टरों में तो कोई बिरला ही ऐसा होगा जिसकी खोपड़ी के बाल सही सलामत हों। 'सफल संपादक' तो होते ही गंजे हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी जीवन में इसीलिए असफल रहे कि उनकी खोपड़ी पर बालों की खेती बिना आब-पानी के लहराती रही है। मगर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी जगत में इसीलिए सफल होगए कि विधाता ने न केवल उनके दुश्मनों को, बल्कि बालों को भी उनके सिर पर नहीं जमने दिया। श्री अंबिकाप्रसाद वाजपेयी के संपादकाचार्य बनने का रहस्य कलम नहीं, खल्वाट खोपड़ी ही थी। हिन्दी पत्रकारिता में विद्यालंकारों ने बड़ी घुसपैठ की मगर गंजे न होने के कारण उनमें से एक भी चोटी का पत्रकार नहीं बन सका। इसके मुकाबले सिर्फ अपनी इसी विशेषता के कारण ही जयचन्द्र विद्यालंकार हिन्दी जगत में नाम कर गए। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई ऐसी महत्वपूर्ण कुर्सी नहीं, जिस पर गंजा न जमा बैठा हो, चाहे ख्रुश्चेव हों, चाहे आइज़नहावर, चाहे चर्चिल हों चाहे डी गॉल, खुदा के फज़ल से सबकी खोपड़ी सफाचट है और सभी के नाखून हैं, पर भगवान की कृपा से सभी बरकरार हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कसूर खोपड़ी का नहीं, नाखून का है। खोपड़ी तो खुजने के लिए प्रस्तुत है मगर नाखून नहीं मिलते- "गुन न हिरानौ, गुन गाहक हिरानौ है"। आजकल जब अच्छे आदमी ढूंढे नहीं मिलते तो नाखूनों की क्या चलाई। भारत के हथियारों पर ही जब धार नहीं रही तो नाखून बिचारे किस लेख में हैं। नाखून तो तब चलेंगे, जब अंगुलियां चलेंगी, अंगुलियां तब चलेंगी जब कलाई मज़बूत होगी। कलाई को तो कलम उठाने में मोच आती है, अंगुलियों को नाखून धारण करने में बोझ लगता है। जब नाखून रहेंगे नहीं, तो वे चलेंगे क्या खाक ? पहले ज़माने में औरतें हर रोज़ अपने नाखून कुतरा करती थीं, अब मर्दों ने यह बात सीख ली है। नाखून तो बेचारे तरस कर रह जाते हैं, पर उन्हें जौहर दिखाने का अवसर नहीं मिलता। एक बार हमने उनसे इंटरव्यू लिया था तो उन्होंने कहा था-आप हमें बुज़दिल न समझिए, खल्वाट खोपड़ी पर रेखाचित्र बनाने में हमें बड़ा मज़ा आता है, पर हाय, वैसा अवसर ही नहीं मिलता कि हम रेखाचित्रों से बढ़कर वहां भाखड़ा की नहरें खोद के और योगीजन जिस मुक्ति के लिए तरसते हैं, वह ब्रह्‌मरंध्र खोलकर गंजों का जीवन सार्थक कर सकें। तनिक कल्पना कीजिए कि खुदा ने अगर गंजों को नाखून दिए होते तो क्या होता ? होता यह कि गंजे तब खुली खोपड़ी घूमना छोड़ देते। और उनकी देखा-देखी हिंदुस्तान में नंगे सिर फिरने का रिवाज़ न चलता। ये भांति-भांति की पगड़ियां, साफे, टोपियां और टोप हिंदुस्तान से देखते-देखते यों विदा हो जाते। बिना बालों वाले सोचते हैं कि हमारे अपने नहीं, पराए नाखून भी इस सफाचट मैदान में खेती करने के लिए कहीं अपने हल-बैल न जोत दें। कभी आपने किसी गंजे की खोपड़ी को बहुत निकट से देखा है ? उस पर कभी हाथ फेरने का सुअवसर प्राप्त किया है ? नाखून की बात छोड़िए, अगर कभी उस पर आपको उलटी या सीधी अंगुली चलाने का मौका मिला है तो पता चला होगा कि वह स्थान कितना कोमल, कितना सरस, कितना सुचिक्कण है कि देव कवि के इस छंद को उस पर आसानी से चस्पां किया जा सकता है-

"माखन सो मन, दूध सो जोबन,

है दधि सो अधिक उर-ईठी।

जा छवि आगे छपा कर छाछ,

लगे है सुधा-वसुधा सब सीठी।

ऐसी रसीली-सुरीली सी टांट,

सु क्यों न लगे मनमोहन मीठी।"

निश्चय ही इस टांट से बड़े मीठे बोल निकलते हैं। जरा चांटी चलाकर कभी देखिए तो सही इससे धा भी साफ निकलता है और धिन भी। किट भी साफ निकलता है और गिध भी।

एक बार एक मित्र ने हमें ध्रुपद के प्रयोग के लिए सेवाभाव से यूं ही अपनी टांट सुलभ कर दी थी। तो हमने उस दिन बिना सीखे ही "धा-धा-धिन-ता किट धा-धिन्ना, किट-किट-गिद-गिन धा-धा-धिन-ता के बोलों पर वह समां बांधा था कि मथुरा के मक्खन पखावजी स्वर्ग से उतरकर वाह-वाह करने लगे थे।

गंजों को अगर नाखून मिल गए होते तो उन्हें अपनी खोपड़ी पर ही उनके प्रयोग करने की नहीं, वैसे भी नाखून मारने की आदत पड़ जाती और तब केवल कामशास्त्र में ही नहीं, व्यवहारशास्त्र में भी नाखूनों पर बड़े-बड़े रोचक, सरस और रोमांचक छंद-प्रबंध लिखे जाते। फिर केवल कामिनियों के उन्नत उरोज ही नख-चिह्‌न-चिन्हित होते, गंजे लोग अपने मित्रों के कपड़ों और शत्रुओं के मुखड़ों पर भी उनकी स्थायी छाप छोड़ते और साहित्यशास्त्र में नई प्रकार की खंडिताओं और कलहान्तरिताओं का समावेश हो जाता। केवल नायिका ही नहीं, खंडित और कलहान्तरित नायक भी जन्म लेने लगते।

अगर गंजों को सचमुच नाखून मिल गए होते तो यह कहावत कैसे बनती ? सारे अपात्र तब पात्रता न पा गए होते। हमने कलम से ही अपने दुश्मनों का सिर न काट लिया होता। और अगर सचमुच कहीं आप खल्वाट होते तो अपनी छोड़कर आपकी खोपड़ी पर हमने अपने नाखूनों की धार तेज न कर ली होती।वह तो अच्छा ही हुआ कि खुदा ने गंजों को नाखून नहीं दिए।