खुली खिड़कियां / मैत्रेयी पुष्पा

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पति की जाति का पट्टा

कुछ स्त्रियों के नाम हैं-सीमा अरोड़ा नी चढ्ढा, रति अग्रवाल नी खंडेलवाल, वंदना भारद्वाज नी वशिष्ठ। ये नाम यह मुनादी करते हुए मेरे सामने हैं कि सीमा चढ्ढा अब श्रीमती सीमा अरोड़ा हो गई हैं, तो रति खंडेलवाल अब श्रीमती रति अग्रवाल हैं। इसी तरह वंदना वशिष्ठ श्रीमती वंदना भारद्वाज हुईं। जाति ग्रोत्र बदलने का यह विधान असल में विवाह की शर्त हैं,

जो लड़की पर लागू होती है। यह परंपरा आज की नहीं, प्राचीनकाल के गोमुख से इस दिव्यता का सोता फूटा है, जो इसी रूपी में स्त्री सम्मान को सींच रहा है। वैसे धर्मगुरुओं ने स्त्री को धर्म समझने के काबिल नहीं माना। हां, धर्मदंड धारण करने का पात्र अगर माना है, तो उसी को माना है। यह स्थापित भी किया है कि उस धर्मचारिणी की तपस्या से स्वर्ग के देवताओं के आसन हिले हैं और जब आसान हिले हैं तो परम तेजस्वी पुरुषों ने भी धर्मगुरुओं से यह प्रार्थना की है कि उनके गृहस्थ की धुरी स्त्री है। उसको छोटी-मोटी पदवी दे दी जाए तो काम सुलभ हो जाए, और वह तप में पिघल-पिघलकर परिवार को जोड़ती रहे।

स्त्री-तप के सबूत में ‘सती’ का नाम सर्वोपरि है, जिसने अपने पिता द्वारा पति का अपमान किए जाने पर अग्नि में प्रवेश किया था। धर्मगुरु मन ही मन मुसकराए, ऐसी बेवकूफी तो स्त्री ही कर सकती है। लेकिन धर्मगुरुओं ने घोषणा यही की कि पुरुष प्रतिष्ठा में स्वयं को होम करने वाली स्त्री वंदनीय है। तब धर्मगुरुओं ने अनेक ऐसी कथाएं प्रचारित कीं जैसे शिवजी सती के मृत शरीर को लेकर जगह-जगह घूमे। जहां-जहां सती के अंग गिरते गए, वहां-वहां तीर्थ स्थल बने। स्त्री सम्मान का यह नुस्खा धड़ल्ले से चला। इसी दृष्टांत को सामने रखकर स्त्रियां अपने उस पितृकुल के विरुद्ध खड़ी हो गईं, जहां उन्हें प्रथम नागरिकता मिली थी। इसी दृष्टांत के बलपूते पर हिमालय पुत्री पार्वती ने निर्जल, अर्पण तपस्या की। तपस्या का फल मिला तो सती वाले फल से भिन्न तथा नितांत मौलिक था। शंकर का नाम गौरीशंकर हुआ। इसी तर्ज पर सीताराम, राधेश्याम जैसे नाम आए। बात आगे बढ़ी कुंती का पुत्र कौंतेय हुआ, राधा का राधेय और सुमित्रा का सौमित्र। स्त्री अपने सम्मान के भार से आपाद झुक गई। अहसान खून में घुलने लगा। यही संस्कार बनता गया।

अब वह उस हिंदू पर भी, जहां पिता कन्या को परायी अमानत के सिवा कुछ समझता न था और लड़की अपने परिवार से कटी बेल की तरह मुरझाने के अलावा कुछ कर नहीं सकती थी-भले शंकर महादेव के कंधे पर पड़ी रहे। ताज्जुब नहीं कि स्त्री का इतिहास सती-परंपरा की अमरबेल का चबाया हुआ है। वह पतिनाम-धारिणी सम्मान की कड़ियों से बनी सांकल में बंधती चली गई। हमारा अज्ञान भी तो देखो कि उन जंजीरों में बंधे हुए लगातार स्त्री-आजादी का शंख फूंक रहे हैं और ताज्जुब कर रहे हैं कि शंख की आवाज लौट-लौट कर क्यों आ रही है ?

मानसी मनोज, शगुफ्ता अनवर, मोनिका विलियम्स जैसे नाम साफ तौर पर बताते हैं कि स्त्री की मानसिक गुलामी हमसे छल कर रही है। नहीं तो शिक्षा-दीक्षा में, ज्ञान-विवेक में और पद-पदवी में बराबर की दावेदारी करने वाली स्त्री विवाह होते ही पैंतरा क्यों बदल देती है ? इंजीनियर, डॉक्टर राजनीतिज्ञ या व्यावसायी औरत पुरुष का वरण करते हुए पति का नाम या जाति-कुल-गोत्र राजनीतिज्ञ औरत पुरुष का वरण करते हुए पति का नाम या जाति कुल गोत्र धारण क्यों कर लेती है ? क्या इसलिए कि खुशामदपसंद पुरुष वर्ग औरत के इस समर्पण को उसका बेशकीमती गुण मानता है ?

इसी खुशी में सुरक्षा प्रदान करता है ? नहीं, याद तो उसको यह भी होगा-राम का नाम धारण करने के बावजूद सीता का क्रमशः अग्निपरीक्षा वनवास और भूमि प्रवेश मिला था। राधा को बिछोह के सिवा क्या मिला ? पार्वती शिव को पुत्र दे सकीं, दूसरी उपलब्धि क्या है ? क्या आज की स्त्री ने ऐसे दुःखों को औरत की नियति मान लिया है ? नहीं, तो दूसरे परिवार में प्रवेश करती हुई वह धर्म और संस्कृति की परंपरा से आक्रांत क्यों है ? आडंबर की आदत बजूद का हिस्सा बन जाती है और यहीं से उसका सारा जीवन पुरुष के लिए पूजाओं का उत्सव हो जाता है। भक्ति करते-करते कब अंध भक्ति के हवाले हो जाती है, पता ही नहीं चलता। यदि होश में रहती तो जरूर सोचती के साथ फेरे के साथ सात वचन भरने वाले जोड़े में से पुरुष ने उसके लिए अपना क्या त्यागा है ? वह आज से लेकर आजन्म अपने पिता की बल्दियत से जुड़ा रहेगा,

जो उसकी जड़े हैं। वह पत्नी के गोत्र से घृणा करता है, क्योंकि उसे नीचा मानता है और कभी भी उसमें शामिल नहीं होता।

यदि स्त्री होश में होती तो जरूर सोचती कि उसके विलय पर परिवार और समाज एकमत क्यों हैं ? क्या वह आत्महत्या करके पति के कुल गोत्र या उसके नाम के साथ मिलाई गई है ? अब उसे किस रूप में पुनर्जीवित होना है ? सती के रूप में या सीता के रूप में ? इसीलिए लड़की के उस वजूद का खात्मा करना जरूरी है जो पिता के घर अपेक्षाकृत ज्यादा मुखर था, ज्यादा चौकन्ना था। उस चौकन्नेपन के खात्मे के समोरोह को महिमा-मंडित करना खालिस वही मामला है, जिसे अंग्रेजीदां लड़कियां ‘हिप्पोक्रेसी’ कहती हैं और इस छूत की बीमारी से बच नहीं पातीं। कैसे बचें, यह विलय तो विवाह संस्था का पहला और अनिवार्य नियम माना गया है, इसी के जरिये परिवार के पुरुष और पुरोहित मिलीभगत का खेल खेलते चले आ रहे हैं। नहीं तो समझदार और विवेकशील नवयुवतियों की जीवन पद्धति को कैसे कील पाते ? किस तरह शिक्षित स्त्री को पति के खूंटे से बांधते ?

चक्करदार घेरे की उलटगति यह भी कि अब यह भी कि अब यह कुचक्र गांवों की ओर रुख कर रहा है। गांवों में जातियों के कठिन दायरे तो रहे हैं, मगर स्त्री से कुल-गोत्र का नाम पूछने पर ही पता चलता है। किसी स्त्री के नाम से मुनादी नहीं होती कि वह किस जाति की है। अकसर तो उसको उसके मायकेवाले गांव के नाम के साथ पुकारा जाता है, जैसे

मधोपुरावाली मड़ोरावाली। लेकिन अब यह रीति पुरानी पड़ने लगी। क्योंकि गांव से जो लोक शिक्षा, नौकरी उद्योग या राजनीति के लिए शहर आ रहे हैं, वे शहरोंवालों की देखादेखी अपने नाम, जाति कुल गोत्र की तख्ती बनवाकर गांव ले जा रहे हैं कि अपनी स्त्रियों के गले में लटका दें। माधोपुरावाली का नया संस्करण हुआ है-सीता सेंगर और मड़ोरावाली लड़की हो गई है गंगा यादव, सुमन को सुमन विजय किया गया है। क्या तो गौरव का विषय है, गंवई औरतें एक ही तमगे से

अंतरराष्ट्रीय सभ्यता में छलांग लगा गईं कि अपने पुरुष के लिए, पुरुष की जाति के लिए पुरुष के धर्म के लिए उत्सर्ग होना उन्हें धर्म के रूप में सिखाया गया। यदि सही शब्दों में कहा जाए तो ऊपर से नीचे तक की संरचना में स्त्री के ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ की सौदेबाजी का कौशल दिखाई देता है। कुत्ते के गले में जिसका पट्टा होता है, कुत्ते की वफादारी का मालिक वही होता है। मालिक एक क्षण के लिए भी बेवफाई बरदाश्त नहीं करता, सीधे गोली से उड़ा देता है। कुत्ते को या कुत्ते के लिए शिकायत करने का अधिकार भी क्या है ?

कुत्ते और स्त्री की नस्ल में तो जमीन-आसमान का अंतर है। मनुष्य की मूल रूप नारी से कौन कहता है कि मालिक के नाम का पट्टा पहन ले ? औरत के मुंह में नुकीली सांग यहीं धंसी दिखती है, वह विवाह से मिले मालिक और मालिक के परिवार की इच्छा के आगे बोल नहीं सकती, क्योंकि नियम है कि जो स्त्री कुल गोत्र बदले बिना वैवाहिक जीवन जिएगी, उसकी वफा भरोसेमंद नहीं होती। उसकी आस्था पर प्रश्नचिह्न लगते हैं, चाल चलन से बगावत की बू आती है, क्योंकि उसने अपना विलय करने से इनकार किया है।

क्या समाज का अभिजात हिस्सा औरत के वजूद को कुचलता, रौंदता अखंड परिवार की झंडी का बांस उस स्त्री की पीठ में नहीं गाड़ता, जिसे विवाह मंडप में बिठाकर सुहाग बख्शा है ? क्या हमारे सामने यह वह स्त्री पीढ़ी है जिसको हमने जीवन दांव पर लगाकर नए ढंग से विकसित किया है ? आगे वाली पीढ़ी इस आधुनिकतम दिखने वाली स्त्री को कौन-सी आजादी अर्जित करते देखेगी, जिसने अभी तक अपनी गुमनामी गले लगा रखी है ? वह जरूर पूछेगी, यह आजादी, कहां तक आजादी है ?

स्त्री की धार्मिक यात्रा

राजधर्म की दुहाई देने वाले क्या समझते नहीं कि दरबार में धर्मराजों को अकसर चुप्पी साध लेनी पड़ती है, क्योंकि यहां धर्म, (करुणा उदारता और मानवता) धर्म के सहिष्णु आधार पर नहीं चलता, उग्र ताकतों के इशारे पर नाचता है, भले ही चिंतन मनन और निरपेक्ष धार्मिकता का अनुकरण का भ्रम देते हुए अंतरात्मा की दुहाई दी जाए। फिर भी इसमें क्या संदेह है कि हम मानवता के नारे के नीचे हिंदू मुस्लिम, सिख ईसाई हैं। हम मनुष्य नहीं, अलग-अलग धर्म हैं। अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग महंत, पैगंबर, गुरु और फादर माने गए हैं और लोग उनके तंबुओं तले खड़े दिखाई देते हैं। प्रेम का प्रतीक धर्म सबका सिरमौर है, मगर अपने विस्तार की लालसा धर्म भी नहीं छोड़ता अतः वह ताकतवर और कमजोर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे खांचों में बंध जाता है।

जाहिर है कि हिंदुस्तान के ब्रह्मांड में जलवायु आकाश और धरती से लेकर तीन मालिक देवताओं के साथ तैंतीस करोड़ छोटे-बड़े देवों की उपस्थिति बताई जाती है। इस अनुपात में मुस्लिम सिख और ईसाइयों के पैंगबर, गुरु और फादर लोग अल्पसंख्यकों में ही आ जाते हैं। यों तो हम अपने देवताओं और धार्मिक मान्यताओं के साथ दया, करुणा, परदुःखकातरता के चलते संकटमोचन की भूमिका में रहना पसंद करते आए हैं और भेदभाव को परे धकेलते रहे हैं, लेकिन अपनी सुदृढ़ स्थिति के बरक्स दूसरे को भी सुदृढ़ पाते ही हमारी धर्मनिरपेक्षता ऐसी अपेक्षा में बदलने लगती है, जिसे ताकतवरी कहते हैं। कोई भी ताकत शासन करना चाहती है, अतः हमारे हिंदुस्तान में ‘हिंदू धर्म’ उस ताकत का पर्याय बन गया है, जो राजाओं की सेना में होती है, सेना के हथियारों में होती है और हथियारों के लोहे में होती है।

इन दिनों हम धर्म का लोहा मान रहे हैं, कौन कहता है कि धर्म जीवन की गति को लय देने वाला होता है ? लौकिक भवबाधा का प्रतीक आम आदमी भयभीत हुआ धर्म को रास्ता दे रहा है, क्योंकि अस्त्र-शस्त्र लिए अक्षौहिणी सामने है, जिसका नाम भी धर्म बताया जा रहा है और भारतीय आदमी उस अलौलिक, अमूर्त शक्ति की बाट देख रहा है, जिसे संत-महंत-स्वामी-जोगियों ने परमात्मा कहा था, रक्षक माना था और कृपासिंधु बताया था। वह कृपासिंधु कहां हैं ? लोगों के दिल में निवास करता है, यही धारणा लेकर व्यक्ति धर्म से प्रेम करता है। लेकिन यहां प्रेम नहीं, भय ने जनमानस जकड़ लिया है। तो अब धर्म में किसकी आस्था रह जाएगी ? ऐसे ही जैसे धर्म के द्वारों को घेरे बैठे ऋषि मुनियों में मनु और याज्ञवल्क्य सरीखे विभाजनकर्ताओं ने मनुष्य धर्म को वर्णाश्रमों में बांट दिया और ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रियों के बीच सारी खुदाई उलीच दी। व्यवस्था के पुरोधाओं ने जब देखा कि अभी तो आधे से ज्यादा लोग बचे हैं, तब उन्हें इन तीन वर्षों के मुट्ठी-भर पुरुषों की सेवा का भार सौंपकर उनका वर्ण अलग किया और सृष्टिगत स्त्रियों की आधी संख्या को नजरंदाज करते हुए उन्हें भेड़ों की तरह पुरुषों के बाड़ों की ओर हांक दिया। वाह रे राजधर्म और समाजधर्म के विधान ! शूद्र और सभी भौंचक्के से देखते रह गए। मगर जब महंतों से पाई हुई ताकत के पुतले उठे और हांका लगाने लगे तो सेवा के लिए नियुक्त चाकर अपनी देहों की खैर मनाते हुए सेवा में जुट गए। मगर सेवक लोग आपके इस कोड़ेबाज धर्म में आस्था भी रखते हों, यह खामखयाली हो सकती है।

मैं यहां स्त्री धर्म के विधान पर बात करूंगी, क्योंकि यह धर्म शूद्र को बताए गए उसके सेवा धर्म से भिन्न है, क्योंकि इसका आधार वर्ण नहीं, जाति नहीं, व्यवसाय नहीं, शुद्ध लैंगिक भेद है। स्त्री को पुरुष के ब्रह्मचर्य से लेकर गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास जैसे आश्रमों की सुविधा देने के लिए मुस्तैद रहना पड़ता है। साथ ही पुरुष की सेवा के लिए जीवन की नैसर्गिक छूटों को स्वामी के खूंटों से बांधा गया है। उसे धन जमा करने की मोहलत नहीं, पति की आज्ञा के बिना हिलने-डुलने की छूट नहीं। वह संतान पैदा करने और उसे पालने से लेकर पुरुष के लिए उत्तम रति के हवाले होती है।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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