खुशामद भी एक कला है / गोपालप्रसाद व्यास

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मज़ाक नहीं, खुशामद भी एक कला है। और कमबख्त़ ऐसी कला है कि सारी दुनिया इसमें माहिर होना चाहती है, लेकिन बदकिस्मती भी ऐसी है कि नाचने-गाने और भगवान जाने झूठ या सच, किसी-किसी सभ्य देश में तो चोरी सिखाने तक के स्कूल-कॉलेज खुल गए हैं, पर खुशामद जैसी खुशनुमा और दिन-रात व्यवहार में आने वाली उपयोगी 'आर्ट' पर न तो कोई डिग्री कॉलेज है और न किसी यूनिवर्सिटी में इस विषय पर 'थीसिस' ही स्वीकार की जाती है। नतीजा यह है कि योगियों के लिए भी परम दुर्लभ इस गहन तत्त्व का विधिवत अध्ययन नहीं हो पाया और इस विद्या का जैसा शास्त्रोक्त और सुसंस्कृत प्रचार होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा। अभी तो हाल यह है कि आदमी की अक्ल ने अपने-अपने अलग छुरी-कांटे बना रखे हैं कि सेंक-सेंककर टोस्ट पर मक्खन लगाया जा रहा है। अपने-अपने जाल और कांटे हैं कि परिंदे फंस रहे हैं, मछलियां अटक रही हैं, अपना-अपना मांजा और करिश्मा है कि पतंग बढ़ाई जा रही है और पेच-पर-पेच उलझा दिए गए हैं और इस तरह अपनी-अपनी किश्तियां हैं कि धार में छोड़ दी गई हैं कि किनारे लग जाएं तो राम मालिक और डूब जाएं तो मर्जी भगवान की!

भाई मेरे, पिताजी की फालतू कमाई पर गोते खा-खाकर बी.ए., एम. ए. हो जाना और बात है और जीवन में बिना कौड़ी-पैसे के सफलता प्राप्त करना अलग बात है। आपने चाहे छब्बीस वर्ष तक बलात्‌ ब्रह्‌मचर्य पालन करके जैसे-तैसे विद्यालंकारिता भले ही हासिल कर ली हो, लेकिन जब तक खुशामद का 'कोर्स' लेकर आपको 'तिकड़म' की सनद नहीं मिलती, तब तक किसी दफ्तर की अफसरी तो क्या, आपको जनाब, कहीं चपरासीगीरी भी नहीं मिल सकती। जी हां, चपरासीगीरी! विश्वास न हो तो अपने शहर में जो म्युनिसिपल कमेटी है, उसके सक्के से लेकर सेक्रेटरी तक से एकांत में पूछ लीजिए कि हुजूर, जो कुछ आज आप दिखाई देते हैं, वह सब किसकी बदौलत हैं। हर ईमानदार आदमी आपसे यही कहेगा, अजी हम किस काबिल हैं, यह तो महामहिमामयी, परम भगवती, खुशामदी देवी का ही परम प्रसाद है।

यही क्यों, आप किसी भी दफ्तर के मैनेजर क्या, हैडक्लर्क तक के हाथ पर गंगाजली रखकर ईमान से पूछ लीजिए कि महाराज, हम किसी से भी जिंक्र नहीं करेंगे, न अखबारों में छपने देंगे, पर कृपा कर यह तो बताइए कि जिस कुर्सी पर आज हमें बैठना चाहिए था, वहीं आप कैसे विराजमान हैं? वह क्या उत्तर देंगे यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतना अवश्य बता दूं कि जितने भी ये बड़े-बड़े जज, कलेक्टर, तहसीलदार और थानेदार हैं, सबकी जड़ों में कहीं-न-कहीं खुशामद का पानी अवश्य पड़ा हुआ है।

और क्यों न हो, खुशामद कोई आज की या अनहोनी चीज तो नहीं। हम सबका सिरजनहार, अखिल विश्व का नियंता, खुद परमेश्वर ही जब महा खुशामदपसंद है तो हम धरती के तुच्छ मनुष्यों की क्या औक़ात! वेद-शास्त्र, पुरान-कुरान, गीता-बाइबिल सब एक स्वर से कहते हैं कि उसकी प्रार्थना करो, उससे दुआएं मांगो, उसके सामने नाक रगड़ो, अपने को तुच्छ समझो, उसे सर्वशक्तिमान कहो। यही नहीं, उनका यह भी कहना है कि आप लाख पापी हों, लेकिन सारे जीवन में यदि एक बार भी आपकी खुशामद की टेर उस तक पहुंच जाए, तो बस, फिर जनम-जनम के पाप स्वयं ही कट जाते हैं। अजामिल, गीध, व्याध, गणिका और गजराज की अमरकथाएं, हजार मुख से खुशामद की ही महान शक्ति का जयघोष कर रही हैं। सतयुग, त्रेता और द्वापर का तो पता नहीं, पर इस कलिकाल में और खास तौर से इस बीसवीं शताब्दी में तो आप जानते हैं कि आज तक किसी ने ईश्वर को देखा नहीं। फिर भी हम उसे सर्वत्र व्याप्त कहते हैं। सब जानते हैं कि रोटी आठ घंटे कड़ी मेहनत और गृहलक्ष्मी की कृपा से प्राप्त होती है, कपड़ा मिलों में बनता है और कंट्रोल के ज़माने में परमिटों से प्राप्त होता है, मकान पगड़ी देने पर खुला करते हैं और नौकरी खुशामद से तथा रोज़गार बेईमानी से फूलते-फलते हैं? फिर भी हम सब यही कहते हैं कि यह सब उसी का दिया हुआ है। सब उसी की कृपा है।

मरने के बाद सिवाय नचिकेता के आज तक कोई उस दुनिया से नहीं लौटा। आज के वैज्ञानिक चाहे मनुष्य को दस लाख वर्ष पुराना ही मानें, हमारे नचिकेता को हुए करोड़ों वर्ष बीत गए होंगे। इस बीच इस दुनिया में क्या उलट-फेर हुए, यह पता नहीं लग पाया। पता नहीं यमराज की हिटलरशाही अब भी वैसी ही चल रही है या मित्र राष्ट्रों ने उसका भी ख़ात्मा कर दिया है? क्या पता अब प्रजातंत्र की स्थापना होगई हो? यह भी संभव है कि स्वर्ग में इन्द्र के अपार वैभव, असमानता को देखकर देवताओं में भी समाजवाद के बीज फूट पड़े हों? या ईश्वर की अखंड सत्ता भी अब भारतीय नरेशों की भांति वैधानिक ही रह गई हो? लेकिन हम यह सब कुछ नहीं सोचते और खुशामद के शुद्ध सनातन धर्म को आंख मूंदकर, भक्तिपूर्वक निबाहे जाते हैं।

कहने का मतलब यह है कि खुशामद अनादि है, अनंत है। आत्मा चाहे जर और मर हो, लाख क्रांतियां हों, हजार निज़ाम बदलें, खुशामद अजर और अमर है। सनातन और निर्विकल्प है। देश और काल उसमें बाधा नहीं डालते। जैसे जीवन के साथ मरण जुड़ा हुआ है, उसी प्रकार मनुष्य के साथ खुशामद जुड़ी हुई है। दूध में से पानी को अलग किया जा सकता हो, बालू से छानकर चांदी निकाली जा सकती हो, लेकिन मनुष्य से खुशामद अलग नहीं की जा सकती। वह ईश्वर की नहीं, प्रकृति की करेगा। बादशाहों को छोड़ देगा, मिनिस्टरों की करेगा। उनसे काम नहीं निकलेगा, अफसरों की करेगा। ज़रूरत न होगी तो पूंजीवाद की दुहाई देगा और ज़रूरत होगी तो स्टालिन को सलाम पहुंचवा देगा।

तो फिर खुशामद थी, है और रहेगी, तो क्यों न उसे खुलकर गले लगाया जाए? फिर क्यों हिचका जाए और तक़लीफें सही जाएं?

ऐ दुनिया के संत्रस्त प्राणियों! मैं तो कहता हूं कि विद्या चूक जाए, बल न रहे, धन बेकार हो जाए, रूप का जादू भी न चले और चाहे बुद्धि भी साथ न दे, लेकिन याद रखो, मौके पर आज तक खुशामद ने कभी दग़ा नहीं दी! जहां सब फेल होते हैं, वहां ब्रह्‌मास्त्र (अब तो 'एटम बम' कहूं तो ठीक होगा) की तरह अकेली खुशामद ही सफल होती है।

अगर आप खुशामद करना चाहते हैं तो कोई परवाह नहीं कि आपके पास डिग्रियां है या नहीं, आप योग्य हैं या अयोग्य, नौकरी आपको ही मिलेगी। आप शक्ल से लाख शेखचिल्ली हों और आपकी जेबों में चाहे सूराख हो रहे हों, लेकिन खुशामद के शस्त्र से प्रेम के पंथ में भी आप बड़े-से-बड़े स्वरूपवान और धनवान को पछाड़ सकते हैं।

दूर क्यों जाते हैं, खुद मेरी खुशामदी सफलताओं का ब्योरा सुनिए न? कभी हम साहब आठ रुपये महीने के कंपोजीटर थे। पन्द्रह साल बाद इस तेजी के जमाने में बहुत होता तो पचास रुपये के हो गए होते। हाथ में 'स्टिक' पकड़ते-पकड़ते ठेकें पड़ गईं होतीं। स्टूल पर बैठते-बैठते कमर कमान होगई होती। 'करेक्शन' करते-करते कटाक्ष कोटरलीन होगए होते। बहुत मुमक़िन था कि शीशे की गर्मी श्वास द्वारा फेफड़ों तक पहुंच गई होती और अब तक हमें हमारे बिरादरी वालों ने 'सत्यधाम' भी पहुंचा दिया होता। लेकिन वह तो यह कहिए कि तक़दीर हमारी कुछ अच्छी थी, जो शीघ्र ही हमने खुशामद के महत्व और माहात्म्य को हृदयंगम कर लिया। उस्तादों की चिलम भर-भरकर हजारों नई-पुरानी कविताएं याद कर डालीं। पचासों जगह उन्हें अपनी बताकर सुना डाला। तिकड़म से नकल कर-करके विशारद और साहित्य-रत्न पास कर डाले। कवियों की खुशामद करके कुछ तुकें जोड़ना सीख लिया। महान कवियों और लेखकों की नयी-पुरानी कृतियों पर प्रशंसात्मक लेख लिखे। खुशामद कर-करके इन्हें पत्रों में छपवाया। इस तरह क्रम-क्रम से साधना करने पर आज यह दिन भी आया कि लोग भूल गए कि हम पहले क्या थे, अब तो हम हैं महापंडित स्वनामधन्य श्री-कवि, लेखक और पत्रकार।

तो भाई मेरे! इसीलिए कहता हूं कि खुशामद से भागो मत। इस दुनिया में सब कुछ असत्य है। सत्य दो वस्तुएं हैं, वह यह कि अगर नालायक हो तो खुशामद करो और अगर लायक हो तो खुशामद कराओ। संसार और सफलता का रहस्य इसी में छिपा है।

इतनी भूमिका और खुशामद के इस महामहिमामय माहात्म्य के बाद आप शायद इस कला के तौर-तरीके अवश्य जानना पसंद करें। यों तो यह विषय योगियों के लिए भी दुर्लभ और तपस्वियों के लिए भी परम गहन है, क्योंकि अपनी पत्नी के पुण्य प्रताप से मैंने इसमें यत्किंचित सिद्धि लाभ की है। इसलिए, अपने चौथाई शताब्दी के कुछ अनुभूत प्रयोग आपकी सुविधा के लिए यहां दे रहा हूं। आशा है मेरे इस परमार्थ से पाठकों का स्वार्थ अवश्य ही सिद्ध हो सकेगा। तो सुनिए, खुशामद की कला में सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि आप खुशामद तो करें, लेकिन खुशामदी न समझे जाएं। यानी जिसकी खुशामद आप करना चाहते हैं, उसे यह न मालूम हो कि उसकी खुशामद की जा रही है।

आपमें से शायद कुछ मेरी इस बात से सहमत न हों और कहें कि जब परमात्मा सीधी प्रशंसा यानी खुशामद से खुश होता है तो जीवात्मा क्यों नहीं होगा? दुनिया में ऐसा कौन है जिसे अपनी खुशामद खुद अच्छी नहीं लगती। लेकिन मैं कहता हूं कि यह 'टेकनीक' अब पुरानी होगई, घिस गई। आज के खुशामद-पसंद इससे भलीभांति परिचित होगए हैं। अब हर समय, जी हुजूर, हां जी-हां, बहुत ठीक, वाह-वाह क्या कहने हैं, आदि पर रीझने वाले राजा-रईस, नवाब, शौकीन सब या तो परमधाम पहुंच गए या वहां की बाट जोह रहे हैं। आजकल के हम खुशामदियों का पाला पड़ता है उन पढ़े-लिखे मनोविज्ञान के जानने वालों से, जो स्वयं खुशामद कर-करके ही आज खुशामद कराने की स्थिति पर पहुंच सके हैं। इसलिए हे नई दुनिया के नये खुशामदियों, आज के युग में भूलकर भी सीधे अपने आराध्य देव की प्रशंसा न करो। इस संबंध में मेरा पहला गुर याद रखो कि उनकी प्रशंसा नहीं, उनसे संबंधित चीजों की प्रशंसा करनी चाहिए। हमें उनकी रुचियों का अध्ययन करना चाहिए। हमें ध्यान से पहले यह देखना चाहिए कि उनके कमरे में चित्र कैसे लगे हैं, मूर्तियां किसकी हैं, वह सिगरेट कौन-सी पीते हैं, सिनेमा कैसा पसंद करते हैं, साहित्य कैसा पढ़ते हैं, कपड़े कैसे पहनते हैं, और फिर स्वयं उनकी प्रशंसा न करके आप उनकी चीजों की प्रशंसा कीजिए, उनकी रुचियों की सराहना कीजिए और भले ही कवियों की अतिशयोक्ति का भी उल्लंघन करते हुए कहिए-वाह! क्या पांवपोश आपने चुनकर रखा है। इस पर पैर पोंछने के बजाय मुंह रगड़ने को मन ललचा आया! और कहिए-वाह! क्या सिगार आप पीते हैं कि दूर से ही सुगंध पाकर तबीयत हरी हो जाती है!

अपने अफसर से कभी भूलकर भी यह न कहिए कि हुजूर ज़रा तो खुशामद मान जाइए। इससे काम बनता होगा तो बिगड़ जाएगा। इस संबंध में मेरा दूसरा सूत्र याद रखिए और उनसे कहिए-सरकार आपसे पहले अफसर तो खुशामद से पिघल जाया करते थे, लेकिन आपके यहां तो खुशामद से भी काम नहीं चलता। फिर देखिए कि यह मक्खन कितना पौष्टिक साबित होता है!

खुशामद का तीसरा गुरुमंत्र यह है कि जिसकी खुशामद करनी हो, उसके निकट उसकी महत्ता और अपनी अज्ञता अवश्य प्रकाशित की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, उनकी मेज पर रखे फाउंटेनपैन को उठा लीजिए और कहिए-अरे, यह मॉडल बाजार में कब आया? वाह, क्या खूब! अजी, इसमें स्याही कैसे भरी जाती है? आप देखेंगे कि मछली जाल में फंसी चली आ रही है।

एक बार की बात है कि एक सज्जन से मुझे कुछ काम निकालना था। उनके बारे में सुन रखा था कि महाशय बड़े आदर्शवादी हैं। गज़ब के कट्टर हैं। खुशामदियों को ज़रा भी मुंह नहीं लगने देते। काम बहुत ज़रूरी था। मैंने उनके पास आना-जाना शुरू कर दिया। रोज नए-नए नुस्खों का व्यवहार करता। मगर वे सब खाली जाते। हैरान था कि क्या किया जाए?

अंत में मालूम हुआ कि श्रीमानजी को 'होमियोपैथी' का शौक है। मैंने सोचा बस मैदान मार लिया। रोज़-रोज़ उनके पास नए मरीज ले जाता और हर दूसरे दिन उनके चंगे होने के समाचार पहुंचाता। कहता-डॉक्टर साहब, क्या जस है आपके हाथ में कि तीन खुराक लेते ही बीमार चारपाई से उठ खड़ा हुआ। आज तो वह अपने काम पर भी चला गया। उसके बच्चे डॉक्टर साहब, आपको बड़ी दुआएं दे रहे हैं। कभी कहता-यह 'केस' तो डाक्टर साहब आपने ऐसा ठीक किया है कि इसमें शहर के सारे डॉक्टर ना कर गए थे। कभी कहता- डॉक्टर, आप तो सब कुछ छोड़कर एक धर्मार्थ अस्पताल खोल लीजिए! हजारों आत्माएं आपको दुआएं देंगी। गरज यह कि पंद्रह दिन के इस अचूक प्रयोग में डॉक्टर साहब वह सीधे हुए कि जितना मैं चाहता था उससे अधिक काम ही उन्होंने नहीं कर दिया, बल्कि समय-समय पर सदैव मुझे उपकृत करने को उत्सुक भी रहने लगे। कहते हैं कि सेवा से ही मेवा मिला करती है और लोग खुशामद के मार्ग में सेवा को बड़ा साधन बताया करते हैं। वह है भी। मगर उस तरह से नहीं, जिस तरह से लोग कहते हैं या करते हैं। यह ठीक है कि भरी सभा में चरण छूने से, रात को सोते समय हठपूर्वक उनके पैर दबाने से, बैरे की जगह खुद ही चाय बना लाने से आज के देवता इच्छित पदार्थों को दे दिया करते हैं। मगर ये तरीके पुराने हैं। इनमें (वैसे तो हम खुशामदियों के स्वाभिमान और आत्मा होती ही नहीं, मगर फिर भी) आत्मा बेचैन होती है। इसलिए आपको चाहिए कि आप मेरे मार्ग को अपनाएं। मतलब है कि आप बाबूजी की सेवा छोड़कर बीवीजी की सेवा में लग जाएं? और बीवीजी का काम करते-करते अगर कहीं उनके बच्चे रोते-ठुनकते नज़र आएं तो पहले उन पर ध्यान दें। यह वह अमोघ अस्त्र है, जो कभी खाली नहीं जाता। बाबूजी की लाख काम न करने की इच्छा हो, मगर बीवीजी के कहे को कौन टाल सकता है।

उनकी तो क्या, उनके अग्रजों के भी बस से बाहर की बात है। और बीवीजी को प्रसन्न करने का गुर उनके बच्चे खिलाने से बढ़कर अब तक दूसरा कोई ईज़ाद नहीं हुआ।

इसलिए सुलझे हुए खुशामदी प्रायः पीछे के दरवाजे से ही प्रवेश प्राप्त किया करते हैं। इसमें कोई बुराई की बात नहीं। बाबा तुलसीदास ने भी अपनी 'विनयपत्रिका' आखिर सीताजी की मार्फत ही रामजी को पहुंचाई थी।

और बच्चे! वे तो कार्य-सिद्धि की कुंजी है। सुनिए, जो काम थैलियों से नहीं होता, सिफारिशों से नहीं होता, वह चुटकियों में बच्चों के माध्यम से हो जाया करता है। उदाहरण के लिए, एक सज्जन आल इंडिया रेडियो में नौकरी के इच्छुक थे। दो साल तक पार्लियामेंट स्ट्रीट के चक्कर काटते-काटते कोई दो दर्जन जूते बदल चुके थे। एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने मुझे अपना दर्द कह सुनाया। मैंने कहा, अरे बावले! क्यों अपनी कमाई बाटा कंपनी को बांट रहा है? जा, फिरोजशाह रोड के अंत में जो नं........कोठी है, उसमें घुस जा और देख जाकर कि श्री-जी के बच्चे अपने पिताजी को क्या संबोधन करते हैं? कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सज्जन वहां गए और बच्चों की देखादेखी बाबूजी को दद्दा कहने लगे। परिणाम यह हुआ कि दद्दा-दद्दा कहते वह स्वयं सबके दद्दा बन बैठे।

यह भी हो सकता है-शिमले में एक जोड़े ने रिक्शा किराए पर ली और उस पर बैठकर चल दिया। रास्ते भर एक-दूसरे को 'डार्लिंग' कहकर न जाने वह क्या-क्या बातें करते रहे? स्थान पर पहुंचकर जब बाबू ने कुली को पैसे दिए तो रिक्शेवाले ने अनुभव किया कि मज़दूरी कम दी जा रही है। उसने तपाक से श्रीमतीजी से अनुनय-भरे स्वर में कहा, "डार्लिंग, इतने से काम नहीं चलेगा, मेहनत देखकर दीजिए न?"

इसके बाद की कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। इसलिए, मेरा कहना है कि बच्चों का अनुकरण अवश्य कीजिए, मगर बच्चों की तरह से नहीं, समझदारों की तरह से। क्योंकि खुशामद नासमझों के वश का रोग नहीं।