खेल भावना का लोप होना / जयप्रकाश चौकसे

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खेल भावना का लोप होना

प्रकाशन तिथि : 01 अगस्त 2012

खेल प्रतिस्पद्र्धाओं पर विदेशों में बहुत फिल्में बनती हैं। ओलिंपिक पर 'व्हील्स ऑफ फायर' जैसी श्रेष्ठ फिल्म बनी है और डैनी बॉयल ने लंदन में हो रहे ओलिंपिक के उद्घाटन समारोह में इसी फिल्म के ध्वनि-पट्ट का इस्तेमाल करके उसे आदरांजलि दी है। हमारे यहां खेल की पृष्ठभूमि पर 'लगान', 'चक दे इंडिया', 'पान सिंह तोमर' जैसी कुछ श्रेष्ठ फिल्में बनी हैं। हालांकि 'लगान' को आप महज क्रिकेट फिल्म नहीं कह सकते। वह निहत्थे अनपढ़ लोगों की साहस गाथा है। इसी तरह 'चक दे इंडिया' महज हॉकी फिल्म नहीं, वरन भारत की अनेकता में एकता की फिल्म है। 'पान सिंह तोमर' महज एक धावक की कहानी नहीं है, वरन अन्याय आधारित समाज में अमीरों और पुलिस की मिलीभगत के तांडव के खिलाफ आक्रोश की फिल्म है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा मिल्खा सिंह के जीवन से प्रेरित फिल्म फरहान अख्तर को लेकर बना रहे हैं और मनमोहन शेट्टी महान हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद पर फिल्म की तैयारी कर रहे हैं।

खेल-कूद एकमात्र क्षेत्र है, जिसमें आप अपने देश का झंडा विदेश में बिना खून-खराबा किए लगा सकते हैं। इसके लिए वर्षों पसीना बहाना पड़ता है, अनुशासनपूर्ण जीवन जीना पड़ता है। खेल-कूद की तैयारी तप और हवन करने की तरह होती है, परंतु ú स्वाहा बोलते हुए सांस उखडऩे लगती है। विगत कुछ वर्षों से टेक्नोलॉजी ने खिलाडिय़ों को दमखम बढ़ाने और अभ्यास करने के लिए विज्ञानसम्मत कार्यक्रम और उपकरण रचे हैं। उन्होंने तो इतना तक शोध किया है कि तैराक प्रतिस्पद्र्धा के पहले अपनी छाती और हाथ-पैरों के केश हटा दे तो जल में कितने प्रतिशत अवरोध कम हो जाता है।

हिटलर ने १९३६ के बर्लिन ओलिंपिक का सेल्युलॉयड पर विवरण शूट करने के लिए युवा फिल्मकार लेनी रोजन्थाल को नियुक्त किया था और उन्होंने लाखों फीट की शूटिंग अनेक कैमरों के साथ की और संपादन करके लगभग पांच घंटे की फिल्म दो भागों में प्रदर्शित की। यह लेनी का जीनियस था कि उन्होंने खेलते समय की ध्वनियों को स्टूडियों में रिकॉर्ड किया और मिक्सिंग में यह ट्रैक लगाकर दृश्यों को ऐसे जीवंत किया, मानो वे सांस ले रहे हैं। इसके पूर्व लेनी रोजन्थाल ने हिटलर की एक परेड को ऐसे संपादित किया, मानो वे कोई दिव्य अवतार हैं। तानाशाहों को अवतार की तरह प्रस्तुत करने का खेेल बहुत पुराना है, परंतु घिसा-पिटा होने के बावजूद वह हमेशा नया-सा लगता है। अवतार की हमारी अपनी आदिम इच्छा फिल्मकार के काम को आसान बना देती है। तमाशे रचने में हमारा कोई जवाब नहीं है। कुछ समय पूर्व ही वृत्तचित्रों की अम्मा लेनी की मृत्यु हुई है।

यह गौरतलब है कि यहूदी लोगों के संगठन ने हिटलर के साथियों और सहयोगियों को खोज-खोजकर दंडित किया है, परंतु किसी ने लेनी को हाथ नहीं लगाया, जबकि कैमरा कैसे राजनीतिक झूठ बोलता है, इस विधा की जनक वही रही हैं। अब तो ऐसे लैंस बन गए हैं, जिनके उपयोग से हजार की भीड़ को दस हजार की दिखाया जा सकता है। कैमरे में ही ट्रिक्स की सुविधा उपलब्ध करा दी गई है।

एक जमाने में भीड़ के दृश्य के लिए आगे असल आदमी होते थे और पीछे कार्डबोर्ड पर बने आदमी रखकर फिल्मकार अधिक बड़ी भीड़ का भरम रचता था। तथ्य तो यही है कि असल भीड़ में भी अधिकांश जीवित हाड़-मांस के लोग बुद्धि से कार्डबोर्ड के बने पुतलों से बेहतर नहीं होते। कई 'पुतले' तो यंत्रवत मतदान भी कर आते हैं और मतपेटी से भस्मासुर निकल आते हैं। यह बात भी गौरतलब है कि भस्मासुर मारने के लिए ईश्वर को मोहनी रूप धारण करना पड़ता है।

बहरहाल, १९७२ में म्यूनिख, जर्मनी में आयोजित ओलिंपिक में ग्यारह यहूदी खिलाडिय़ों की नृशंस हत्या से मानवता पर कलंक लगा। बाद में इस पर फिल्म बनी कि किस तरह कातिलों को खोजकर दंडित किया गया। एक जमाने में इस तरह के आयोजन से उस देश के बाजार में नई जान आ जाती थी, परंतु कई बार लंबे-चौड़े घाटे हुए हैं और दशकों तक कर्ज चुकाना पड़ा है।

हर आयोजक देश में इसका विरोध भी होता है, क्योंकि जनजीवन ठप हो जाता है। चीन ने बड़ी शान-शौकत से बीजिंग में शानदार आयोजन किया, परंतु इसके लिए अनेक छोटे शहरों और कस्बों ने कष्ट झेले और आज भी वह राजनीतिक विरोध का मुद्दा है।

भारत में आयोजित एक एशियाई खेल के समय नेहरू ने कहा था कि खेल भावना ही मुख्य बात है। हम जीवन की हार-जीत को भी खेल भावना से ग्रहण करें। खेल भावना अब सभी क्षेत्रों में गौण हो चुकी है और राजनीति में इसका लोप हो गया है। ओलिंपिक आयोजन एक विशाल व्यवसाय है और लाभ-हानि ी तराजू पर ही इसका आकलन होने लगा है। यह 'मुद्राराक्षस' का दौर है।