खोज / रमेश बतरा

Gadya Kosh से
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मैं अपने घर की मुण्डेर पर बैठा हवाखोरी करते हुए उसे देख रहा था। आँखें मिचमिचाती वह बड़ी देर से गली में इधर-उधर झाँकती शायद कुछ ढूँढ़ रही थी। उसके दोनों हाथ कमर को कुछ इस तरह जकड़े हुए थे कि चलने में उसके लिए लाठी का काम कर रहे थे।

मेरे समीप पहुँचकर भी उसने पहले घर में झाँका और फिर मुझे घूरती हुई आगे बढ़ने लगी। अपनी ओर से काफ़ी तेज़ चलने पर भी वह सरक ही रही थी।

उसे परेशान पाकर मैंने पूछा -- कुछ खो गया है क्या ?

-- हाँ । -- वह रुककर भी अगल-बग़ल के मकानों पर नज़र दौड़ाती रही।

-- क्या खोया है ? मैं मदद करूँ ?

-- मेरी बेटी का दुपट्टा फट गया था, उसी को सी रही थी कि सुई गिर गई...।

-- तुम कहाँ बैठी हुई थी ?

-- अपनी कोठरी में ।

-- तो जाकर कोठरी में ढूँढ़ो । तुम्हारी आँखें कमज़ोर हैं। अपनी बेटी से कहना वो ढूँढ़ लेगी ।

-- कोठरी में तो नहीं मिलेगी ।

-- कमाल है, जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में ही मिलेगी। और कहाँ जाएगी?

-- वहाँ अन्धेरा भर गया है।

-- तो यहाँ क्या कर रही हो ?

-- रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी .... तुम्हारे पास है क्या ?