ख्वाबों के पैरहन / भाग 3 / संतोष श्रीवास्तव्

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संतोष श्रीवास्तव, प्रमिला वर्मा » ख्वाबों के पैरहन »

जैसे कुर्बानी से पहले बकरे को हार-माला, तिलक से सजाया जाता है ताहिरा को भी सजाया जा रहा था। पिछली रात मेंहदी की रस्म हुई थी। गोरेपाँवोंतथा हाथों में कलाइयों तक बारीक मेंहदी लगाने ब्यूटी पार्लर से लड़की बुलाई गई थी। मंगलकार्यालय और कार्यालय के ऊपर बने फ़्लैट में पूरा घर शादी केमाल-असबाब सहित मेंहदी की रात से ही आ गया था। जमीला, सादिया के लिये तो जैसे जश्न-सा था सब। औरक्यों न हो, उनकी इकलौती ननद की शादी थी। वह भी आलीशानघराने में। उनके चेहरे पर अभिमानझलक रहा था। बच्चों के लिये तिलिस्म-सा रुपहला और रंगीन थे यह सब। वे नये कपड़ों में लक़दक़ थे। नूरा के दोनों बेटे जुबेर और क़ैसर और शकूरा के हैदर और नन्हा बबूशा शाहज़ादे बने घूम रहे थे। रुख़साना ने अपने अब्बू, नूरा से ज़िद्द करके लहँगा मँगवाया था, सो वह लहँगा-चोलीमें बड़ी ठसकेदार दिख रही थी। केवल कुढ़ रही थी भाभीजान! कितनेजतन से पाला था उन्होंने ताहिरा को। बेटों से ही भरे ख़ानदानमें ताहिरा खुदा की नेमत बनकर आई थी। बचपन में उसके रूप कोनिखारने में कोई कोताही नहींबरती गई। घर में तंगी के बावजूद भी वे जौ का आटा और दही जुटा ही लेतीं ताकि रंग गिरे न और उसकी ना-नुकुर के बावजूद वेजौ का उबटन थोप ही देतीं उसके चेहरे पर। आज उसी रूप को सौंप रही हैं एक बूढ़े, औलादकी चाहत से झुके अमीर को। क्या जाने बेटी नर्म रेशमी गद्दों पर चैन से सो पायेगी? भाईजान अपनी मजबूरी के हाथों लुटे-ठगे सारे कार्यक्रम में शरीक थे। ख़ामोशी का घेरा तोड़ पाने में असमर्थ। बस, केवल फूफी मनोयोग से हर काम, हर बंदोबस्त में जुटी थीं। अपने लुटे, वीरान अतीत के कड़वे अनुभवों से चौकन्नी। कहीं उनकी बच्ची परवह सब न गुज़रे जो उन पर गुज़रा।

ताहिरा खूब समझती थी। उसेकिसी से शिकायत न थी। शिकायत थी तो परवरदिगार से। अल्लाह! फैयाज़ को क्यों न इतना अमीर बनाया कि वह उसके दोनों भाइयों का भविष्य सँवार पाता? तब अब्बू को चिन्ता न होती किसी बात की, तब उनकी ग़रीबी मज़ाक न बनती, तब ताहिरा जीते जी काठ की गुड़िया न बनती? तब फैयाज़ होता और ताहिरा होती और ढेरों नरम, गुदगुदे, रंगीले फूलों के बीच उनकीज़िन्दगी होती। परसों जब सभी माल असबाब बाँध रहे थे तो वह चुपके से अपने घर के पीछे की अमराई से निकल लोहे की फैक्ट्री के दाहिनी तरफ़ वाले चर्च की सड़क तक निकल आई थी। चर्च के पीछे लाल, पीले कनेर और दूधिया तगड़ के पेड़ों का घना साया था, करौंदे की झाड़ियाँ थीं। काफ़ी देर वह उस सूने माहौल में टहलतीरही। वीरान चर्च में इक्का-दुक्का भक्त आते, चले जाते। अचानकचर्च की घंटियाँ टुनटुनाईं थीं। दूर साईकल पर फैयाज़ आता दिखा था। वह बेतहाशा भावुक हो लगभग चीख़-सी पड़ी थी। चर्च के पिछवाड़े, लाल ईंटों वाली दीवार से साईकल टिका फैयाज़ ने ताहिरा को बाँहों में भर लिया था और दोनों कनेर, तगड़ के साये में दुबक गये थे।

'अब क्या होगा फैयाज़? कल हम लोग यहाँ से मंगल कार्यालय के फ़्लैट में चले जायेंगे।'

फैयाज़ ने ताहिरा कागोलमासूम चेहरा हथेलियों में भर लिया था-' तुम मेरी ही हो ताहिरा, ये दुनियाबी बंधन हमें जुदानहीं कर सकते। "

'फैयाज़...मेरा दिल डूब रहा है, मैं पागल हो जाऊँगी, होश खो दूँगी।'

'ज़रा धीरज से काम लो, मैंता-उम्र तुम्हारे इंतज़ार में गुज़ार दूँगा। मैं मान लूँगा कि हमने एक मिशन सोचा था, कई ज़िन्दग़ियों को सँवारने का मिशन। हम जुदा कहाँ हुए ताहिरा, हमतो अपने मिशन की कामयाबी के लिये आगे बढ़ रहे हैं। यह बात दीगर है कि वह कामयाबी हमारी पूरी उम्र माँग रही है।'

ताहिरा ने हौले से फैयाज़ के कंधों पर सिर टिका दिया। ताहिरा के लिये मुहब्बत इबादत है और वह इबादत में झुकी जा रही थी। जानती थी फैयाज़ आम युवकों-सा नहीं है। उनका प्यार पाक और अल्लाह की इबादत जैसा है।

'जानती हो ताहिरा, कितने-कितनों ने कुर्बानियाँ दी हैं अपने लक्ष्य की ख़ातिर। हमारी संस्कृति में रचा-बसा है त्याग...कर दो त्याग ताहिरा...हमारे त्याग से सुखी होने दो औरों को।' ताहिरा ने देखा...फैयाज़ के होंठ काँपे और उसकी आँखों से दो बूँदें उसकी माँग पर चू पड़ी। भरी, डबडबाई आँखों से ताहिरा मुस्कुरा पड़ी। उसने उन बूँदों को अपनी माँग में मोती-सा सजा लिया और फैयाज़ के क़दमों को चूम लिया था। फैयाज़ को लगा...अभी-अभी बयार गुलाब की पंखुड़ियाँ बाग़ से चुरा लाई है और उसके क़दमों पर बिखेर गई हैं। नीम बेहोश उसने ताहिरा के गाल, होंठ, माथाचुम्बनों से सराबोर कर दिये और बस इतना कहा था-'जाओ ताहिरा...फैयाज़ तुम्हारा क़यामत तक इंतज़ार करेगा...उसके दिल में केवल तुम हो और तुम्हीं रहोगी। आज मैं अपने प्यार की मलिका को उसके मिशन की कामयाबी की दुआएँ देता हूँ...खुदा तुम्हारे क़दमों को कभी न डगमगाये।' और धीरे से ताहिरा की बाँह छुड़ा उसने साईकल सँभाली और चल दिया। ताहिरा विस्फ़ारित-सी ओझल होतेफैयाज़ को सूनी सड़क पर देखती रही थी। सहसा उसे लगा क्षितिजपरअभी-अभी सूरज डूबा है और शाम की स्याह चादर खुलने लगी है। थके-हारे पंछीघोंसलों की ओर लौट रहे हैं। सागरका पानी उसके घायल ख़्वाबोंकेरिसतेखूनसे रक्तिम हो उठा है और पतझड़ के सूखे पत्ते उसके पाँवोंके नीचे चीत्कारकर उठे हैं। लुटी, ठगी-सी वह चर्च के मुख्य दरवाज़ेतक चली आई थी। दरवाज़े से अंदर झाँका, चर्च के बीचों-बीच माता मरियम की पत्थर की आदमकद मूर्ति के सामने दो मोमबत्तियाँ अंतिम लौ दे रही थीं। मोमबत्ती लगभग जल चुकी थी और पिघलामोम बर्फ़ीले नन्हे ग्लेशियर-सा पसरा था। वह मूर्ति के क़दमों में देर तक बैठी रही। माता मरियम गवाह हैं उसके प्यार की। उसनेकभीफैयाज़सेअलहदाकुछ सोचा नहीं। उसके दिल में केवल फैयाज़ है...यह चर्च उनकी मोहब्बत की इबादतगाह है। इस चर्च के पिछवाड़े लगे करौंदे, कनेर और तगड़ उनकी पाक मोहब्बत के रखवाले हैं जिनके साये में सिमटकर उन दोनों ने कितने तो ख़्वाब रचेथे। अब उन ख़्वाबों का कमनीय, सुंदर घर टूट गया और वह उसके खंडहर से कंकड़-पत्थर चुन अपनी लाचार ज़िन्दगी को पनाह देने के लिये घर बना रही है। माता मरियम...तुम गवाह रहना इस बात की। ताहिरा ने बेवफ़ाई नहीं की। बेवफ़ाई की है ग़रीबी ने। और वह फूट-फूट कर रो पड़ी। वक़्त मानो रुक-सा गया। शाम भी सहम गई... देर तक माहौल में उदासी छायी रही। जब दिल की आँधी थमी तोताहिरा आहिस्ता-आहिस्ता उठ खड़ी हुई, देखा, मोमबत्तियाँ जल चुकी थीं और बाहर काले आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे।

उबटन से ताहिरा का चम्पई रंग गुलाबी सुरूर से ओत-प्रोत था। शेफ़ालीने उसके चेहरे के पोर-पोर को अपनेकुशलहाथों से सौंदर्य का ख़ज़ाना बना दिया था। उसे भारी कामदार रेशम का जोड़ा पहनाया गया। अंग-अंग भारी गहनों से लद गये। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, भावनाओं का जल छलकाने लगीं, मानो आँखें नहीं झील हों और काजल की कोरें झील के दो किनारे। मोहल्ले की उसकी सखियाँ उसे सजे-धजे तख़्त पर बिठा गईं। ताहिरा देखती रही और सोचती रही। शाहजी ने उसके नाम का सेहरा बाँधा होगा, बाहरशमियाने में शोर तारी था...फिर मौलवी जी आये...मेहर की रक़म पढ़ी और निक़ाह कबूल करवाने की इबादत उसे सुनाई। वह डूबती चली गई... मानो फैयाज़ खड़ा है सेहरा बाँधे...मानो उसके कान फैयाज़ के होठों की गुदगुदी से तपने लगे हैं। न जाने कब निक़ाह की रस्म अदा हो गई, ताहिरा, होश में कहाँ थी? फूफी ने उसे कबूतरी-सा छाती से चिपटा लिया-"अल्लाह, तुझे बुरी नज़र से बचाये। हमेशा खुश तंदरुस्त रहे मेरी बिटिया।"

उसने अधमुँदी आँखों से फूफी की ओर देखा और उनकी गोद में फफक पड़ी। फूफी भी रो पड़ीं। उनके दिल में भी तूफान छिड़ा था पर वे बर्दाश्त करना खूब जानतीथीं। वक्त बड़ा नाज़ुक था। ताहिरा को सँभालना था ताकि वह फैयाज़ की मुहब्बत भूल सके, ताकि वह शाहजी का घर रोशन कर सके। खुदा के सज़दे में फूफी के हाथ उठे-"या अल्लाह! मेरी बच्ची को ताक़त दे हालात से मुक़ाबला करने की।"

शामियाने में चंद लोग ही बैठे थे। न शाहजी ज़्यादा बाराती लाये थे, न भाईजान ने ही सबको न्यौता था। बेहद ख़ास को ही बुलाया था। बड़े-बड़े देगचों में बिरयानी, कबाब-कोफ़्ते, शाहीटुकड़े, शीरखुरमा और बालूशाहियाँरखी थीं। आने वालों पर गुलाब का इत्र नूरा और शकूरा छिड़क रहे थे। भाभीजान इन्तज़ाम में मुब्तिला भाईजानका साथ दे रही थीं लेकिन पूरी ज़िम्मेवारी सिर्फ़ फूफी उठा रही थीं। यूँ तो उनके घर की पहली शादी नहीं थी यह, बल्कि आख़िरी थी। पर ताहिरा की शादी औक़ात से ज़्यादाथी। आदमी अपनी ताक़त से सब कुछ कर सकता है पर दूसरों से पाई ताक़त मन में जोश नहीं भर पाती। भाईजान जब नूरा-शकूरा को मिट्टी रौंदते, कूटते, मसलते देखते तो सोचते कुछ नया कर गुज़रने की चाहत में उनकी ज़िन्दगी कितनी बार रौंदी-मसली गई, कितनी बार गढ़ी-रंगी गई... कितनीबार आँच में पकी। पंद्रह वर्ष के थे तभी से गृहस्थी की गाड़ी ढो रहे हैं। पहले वालिद की, अब अपनी...पर लगता है, बसढोतेही ढोते रहे उनके हाथ, किसी को कुछ देने के लिये रत्ती भर भी सुख नहीं जुटा पाये। रन्नी को दिया दुहाजू पति...अब्बू की ज़िद्द पर मजबूर से झुके रहे और अब ताहिरा। तब तो बड़ी आसानी से अब्बूकोदोष दे दिया था भाईजान ने...अब किसे दें? खुद को? ग़रीबी को? या लाचारी को? वे तो ताहिरा के लिये तिहाजू पति लाये हैं... भाईजान रो पड़े।

गुलाबके फूलों से सजी कार में ताहिरा रोती-सुबकती अपने दूल्हे के साथ बैठ गई। पीछे की दो कारों में मेहमान और फूफी। फूफी ने भी आज शृंगार किया था। रेशमी साड़ी, ब्लाउज़...घने बालों की लम्बी चोटी... कानों में कर्णफूल और सुतवाँ नाक में मोती की लौंग। ताहिरा फूफी के सादगी भरे सौंदर्य पर मरमिटी थी। कभी ढंग से क्यों नहीं रहतीं फूफी...कितनी प्यारी लग रही हैं। बाजू में उनका मुरादाबादी पानदान धरा था। शाहजी के घर तक का रास्ता आठ घंटों का था और वे इस बीच कई बार पान खा-खिला चुकी थीं। कार में बैठे मेहमान फूफी के हाथों लगे पान की चर्चा कर रहे थे-"वाह भई... रेहाना बेग़म पान बड़ा लज़ीज़ लगाती हैं।"

फूफी कब चुप रहने वाली-"मियाँ, पान के स्वाद में ही तो लगाने वालों की नीयत छुपी रहती है। आप भले कत्था ख़ास कानपुर का मँगाये पर पान तभी भाता है जब नीयतसाफ़ हों।"

"वजा फ़रमाया बेग़म...रजवाड़ों में तो पान दोस्ती का प्रतीक माना जाता था।"

"और जो दुश्मनी निभानी हो?"

"तो पान में ज़हर मिला दो...दुश्मन ख़तम।"

"मियाँबचना।" और कहकहे।

फूफी ने कहकहों के बीच अपनी रेशमी साड़ी का कामदार आँचल सिर पर यूँ समेटा कि कहीं मुग़ालते में डूबे मेहमान उनकी ग़रीबी का पैबन्द न देख लें। बरसात में टपकते घर और दड़बे में क़ैदमुर्गियों की याद फूफी ने परे ढकेल दी। कार रुकी तो सभी मेहमान बातचीत करते घर के अंदर चले गये। ताहिराका स्वागत फूलों की वर्षा से हुआ। चमकते ग्रेनाइट के फर्श पर काफी दूर तक क़ालीनबिछा था। ताहिरा हौले-हौले डग भरतीअंदर के हॉल जैसे विशाल कमरे में लाई गई और रेशमी गद्दों के तख़्त पर बैठा दी गई। घर की औरतों ने उसे घेर लिया। हॉल के दूसरी तरफ़ एक और बड़ा-सा हॉल था जहाँ दावत का इंतज़ाम था...मेजोंपर खाना सजाकर रखा गया था। पान, आइस्क्रीम आदि का भी इंतज़ाम था। ताहिरा को जिनऔरतों ने घेर रखा था, उनमें से एक कालीन पर बैठकर ढोलक बजाने लगी। दूसरी, धानी रंग के कपड़ों वाली, ढोलक की थाप पर झूम-झूम कर नाचने लगी। एक बूढ़ी-सी औरत उठी और नाचने वाली के सिर के चारों ओर सौका नोट गोल घुमा दरवाज़े की देहरी पर बैठी नाइनकी गोद में डाल दिया। फूफीसंपूर्ण माहौल से अपरिचित थीं। किसी ने किसी का परिचय नहीं कराया था फिर भी उन्होंने अनुमान लगाया कि बुजुर्ग रिश्तेदार हैं। फूफी भी उठीं, पर्स से पचास का नोट और एक सिक्का निकाला और नाचती हुई लड़की के न्यौछावर कर दिया। नाइन बुदबुदाई-"दुल्हन की फूफी ने इक्यावन दिये मालकन।" और हाथ में पकड़ा नोट लहराकर सबको दिखाया।

"अरी चुप रह! न मौका देखे न वक्त। मरी, कितनाठूँसेगी अपनी जेबमें, कभीभरतीहो नहीं।" बड़ी बेगम ने उसे डपटा और हँसती हुई फूफी से मुख़ातिब हुईं-"रेहाना बेगम, आप खा लीजिए, थकी होंगी, बाजू के कमरे में आपके रहने का इंतज़ाम करवा दिया है...लेकिन पहले आप गुलनार आपा से मिल लें।"

उनकी बात ख़त्म भी नहीं हो पाई थी कि गुलनारआपाहॉल में दाख़िल हुईं। मुस्कुराकर फूफी की ओर देखा फिर ताहिरा की ओर जो लम्बे घूँघट में चेहरा छुपाये थी। फूफी ने सलाम किया तो वे ताहिरा की ओर बढ़ती बोलीं-"कैसी हैं रेहाना बेग़म?" और बग़ैरजवाबका इंतज़ार किये ताहिरा के नज़दीक पहुँच गईं। फूफीउठीं, जानती थीं कि गुलनार आपा शाहजी की माँ समान हैं। उनका त्याग, उनकी शख़्सियत दोनों से वाक़िफ़ फूफी।

"उठोताहिरा...सलाम करो आपा को।" फूफी ने ताहिराको उठाते हुए कहा।

ताहिरा खड़ी हो गई, झुककर "सलामवालेकुम" कहा।

गुलनारआपा ने उसे गले से लगाकर असीसें दीं। घूँघट उलटकर देर तक देखती रहीं, फिर माथे का चुम्बन लेते हुए उसके गले में अपनी मुट्ठी में दबी डिबिया से चेन निकालकर पहना दी।

"तुम्हारीमुँह दिखाई छोटी बेग़म।"

ताहिरा ने फिर सलाम किया। गुलनार आपा रुकी नहीं, सारे माहौल पर उड़ती-सी नज़रडाल सबसे अनुरोध-सा किया कि अब सब खाना खा लें और चली गईं।

नाइनके मज़ाक से बुझी फूफी गुलनार आपा के आने से थोड़ी खुशतो हुई थीं फिर भी अन्दरबेचैनीमहसूस कर रही थीं। उन्हें शहनाज़ बेग़म उर्फ़ बड़ी बेग़म के तेवर अच्छे नहीं लगे। मानो पूरे घरपर उनका रुतबा छाया था।

हरचीज़, हर शै, हर पल, हर इन्सान शहनाज़ बेग़म के रुख़ से तलबगार। उनकी हाँ पत्थर की लकीर। वैसे पूरी कोठी का कामकाजगुलनार आपा के हाथों ही सम्पन्न होता था लेकिन उनसे भी ज़िद्द करके अपनी मर्ज़ी मनवा लेती थीं शहनाज़ बेग़म। ताहिरा तो इस रुतबे में दबकर रह जायेगी। यह क्या हो गया उनके हाथों...फूल-सी बच्ची और ये रिश्तेदार? बाहर हॉल में मर्दों की जमात दावत उड़ा रही थी, कुछ मनचले शाहजी को छेड़रहे थे-"अरे शाहजी! सत्रह का सिन और कली-सा वजूद! सँभाल कर रखना नई बेगम को!"

"आदतहै शाहजी को, तुम क्या सिखा रहे हो? भूल गये तीसरी है। खाये-खेले हैं शाहजी, कोई नौसिखिये तो नहीं," किसी दूसरे ने कहा।

फूफी का सर्वांग सिहर उठा। दौड़ती हुई ताहिरा के पास गईं और उसकी झुकी गर्दन उठाते हुए बोलीं-"शरबत पियेगी बेटी?"

ताहिरा ने नहीं में सिर हिलाया। तब तक धानी जोड़े वाली ताहिरा की थाली परोस लाई थी-"हम खिलायें चाचीजान! अपने हाथ से?"

ताहिरा घूँघट में सिमट गई।

"आप शर्माती बहुत हैं चाचीजान! लीजिए मुँह खोलिए।"

इस उम्र की तो उसकी ननद होनी थी। यहाँ वह यौवन तो ज़रूर लाई पर ढलती उम्र के साये में यौवन कितना टिकेगा समझ नहीं पाई। उपवन के फूलों का निखार सुबह की शबनमी ताज़गी में ही अच्छा लगता है। ढलतीसाँझ में फूलों को कौन देखता है भला...? सूँघी जाती हैं तो बस खुशबू।

"तुम्हारा नाम क्या है बेटी?" फूफी ने माहौल को हलका बनाने की गरज़ से पूछा।

"निक़हत! आप मुझे निक्की कह सकती हैं।"

"तुमभी मुझे फूफी कहना और ताहिरा को ताहिरा बेग़म।"

"वाह! ये तो चाची हैं मेरी!"

"अब सखी बना लो न! तुम्हें हमराज़ बना ये सुख-दुख में हलकी हो लेगी।"

"गुलनार फूफीजान तो कुछ न कहेंगी पर बड़ी चाची ने सुन लिया तो...?"

फूफी चिढ़ गईं, बात-बात में क्या शहनाज़! ...आख़िर ताहिरा भी तो उतने ही अधिकार से घर में आई है जितनी शहनाज़? और अल्लाह ने चाहा और बेटा हो गया तब भीक्या शहनाज़ का भय यूँ ही बरपा रहेगा?

"एक बात कहूँ फूफी? यहाँ सब बड़ी चाची के हुक्म से चलता है। चाचा क्या पहनेंगे, क्या खायेंगे, कहाँ जायेंगे, कहाँ बैठेंगे सब उनके हुक्म से। लगता है तारों की गिनती भी चाचा उनके हुक्म से ही करते हैं। मेरी अम्मी तो कहती हैं कि चाचा उनकी मुट्ठी के जिन्न हैं। जबमुट्ठीरगड़ी जिन्न सामने।"

इतनी देर से चुप बैठी ताहिरा खिलखिला पड़ी। निक़हत भी हँसने लगी। फूफीके कानों में घूँघरू बजने लगे। अब ताहिरा थोड़ा खुली थी। वह धीरे-धीरे निक़हत के साथ खाने लगी। फूफी तृप्त थीं। सुबह से बच्ची ने कुछ खाया नहीं, कैसी कुम्हला गई है।

"आप तारे गिनने की बात कर रही थीं कि आपके चाचा तारे गिनते हैं।"

मुँह में निवाला था लेकिन ताहिरा की बात सुन निक़हतको ऐसी ज़ोर की हँसी छूटी कि ठसकी लगी। उसने जल्दी से पानी पिया और बोली-

"चाचीजान! सब समझ जायेंगी आप, आज तो पहला दिन है आपका। मालूम है, चाचा को नक्षत्र विद्यामें बहुत इंटरेस्ट है। दिन रात नक्षत्रों की दुनिया में खोये रहते हैं। ऊपर छत पर बहुत बड़ी दूरबीनरखी है, काले कपड़े से ढकी। वहीँ बरसाती से लगा उनका कमरा है। कमरे में बस एक बड़ी गोल मेज और तीन-चार कुर्सियाँ। मेज़ पर कागज़ बिखरे रहते हैं। उन्हेंसमेटियेगा नहीं वरना चाचा बहुत नाराज़ होंगे।"

फूफी, ताज्जुब सेबोलती हुई निक़हत का चेहरा देख रही थीं। शाहजी खोजी भी हैं, नक्षत्र विद्या के जानकार! एक नये पक्ष से परिचय हुआ उनका। पर यह परिचय! तभी दरवाज़े के परदे की घंटियाँ टुनटुनाईं और जो औरत दाख़िल हुई उसे निक़हतने-"सलाम छोटी चाची," कहकर पुकारा। फूफी समझ गईं ये शाहजी की छोटी बेग़म हैं। उन्होंने ताहिरा को इशारा किया तो ताहिरा उठकर खड़ी हुई और झुककर सलाम किया मिलने की रस्म पूरी हुई तो छोटी बेग़म जो अब मँझली बन चुकी थीं बोलीं-"तो तुम्हें भी हलाल करने लाई हैं गुलनार आपा! क़िस्मत से तुम माँ बन गईं तब भी और न बनीं तब भी रहोगी तुम तिरस्कृत ही क्योंकि बड़ी ही उनकी असल बीबी है। हम तो मशीन बनाकर लाये गये थे। नहीं चले तो शाहजी ने मुझे छः-सात महीने में ही ऐसा छोड़ा कि आज तक पलटकर नहीं देखा। हरामज़ादी! खुद तो बाँझ है और मुझे भी बाँझ सिद्ध कर दिया। अरे! मेरी मौसी को तो शादी के साल भर बाद गर्भ ठहरा था। आजकल तो एक-दो साल वैसे भीएहतियात बरतते हैं, मौज-मज़ा करते हैं। यहाँ तो सात ही महीनों में दुत्कार दिये गये। अब देखें, तुम्हारा क्या होता है?" छोटी बेग़म के एक-एक शब्द से नफ़रतटपक रही थी। चोट खाई नागिन-सी फुफकार छोड़, छोटी बेग़म पास रखे सोफ़े पर बैठ गई। उनकीआँखों में दर्दकी परछाईयाँ तैर रही थीं और हाथ घुटनों को सहला रहे थे।

"आपकोतक़लीफ़है बेग़म?"

"हाँ, रेहानाबेग़म...गठियातोड़ेडाल रहा है। आज शांताबाईको भी बड़ी ने काम में उलझा रखा है।" फिर फूफी की सवालिया नज़रें देख बोलीं-"शांताबाईहमारी देखभाल के लिये रखी गई है। गठियासे भरा शरीर और तनहा ज़िन्दग़ी, कोई तो साथी चाहिए न। मुझे तो ताज्जुब है आप पर! कैसेराजी हो गईं इस बेटी की उम्र की लड़की को शाहजी से ब्याहने? कितने हज़ार दिये आपके घर को?"

फूफी सहम गई। क्या बक रही है ये? लगता है यह यहाँ की परम्परा ही है लड़की वालों को रुपये देने की।

"तुम्हें कितने दिये थे मँझली बेग़म? लाई तो तुम भी गई थीं मक़सद से ही?" फूफी ने तल्ख़ी सेकहा।

"जानती हूँ बेग़म, आपको बुरा लगा, मेरी मंशा आपको दुखी करने की न थी वरन मैं तो इस फूल-सी ताहिरा के नसीब पर दुखी हूँ। जुही की कलीटपकी भैरोनाथ के मंदिर में।"

"जितना नसीब में होता है उतना ही मिलता है। मैं चाहती हूँ मँझली बेगम, तुम ताहिरा को अपने आँचल में समेट लो। अपने जिगर का टुकड़ा तुम्हें सौंप रही हूँ।"

"आप मुझे बेग़म न कहें। आपके लिये जैसी ताहिरा वैसी मैं...मुझे अख़्तरी कहें और फिर आप तो यहाँ रहेंगी ही।"

"मैं कौन-सा ताउम्र रहूँगी। ताहिरा रच-बस जाये इस घर में। मन लग जाये उसका, चल दूँगी। रहेगी तो तुम्हीं लोगों के साथ न!"

अख़्तरी दर्द की वजह से आह भरती उठी और ताहिरा का घूँघट उलट निहारने लगी। होंठों ही होंठों में हँसी दोनों। ताहिरा शर्म-लिहाज से...अख़्तरीउसके रूप सौंदर्य से। कहाँ बुढ़ौती में क़दम रखे शाहजी और कहाँ यह यौवन की कली। जब अख़्तरीब्याहकरआई थी तब शाहजी इतने बुजुर्ग नहीं दिखते थे...अब होते जारहे हैं। बड़ी के आँचल में दुबके शाहजी की मर्दानगी भस्म हो रही है। ताहिरा अख़्तरीकी बहन होती तो क्या वह बर्दाश्त करती? उससे सचमुच बर्दाश्त नहीं हुआ। आँखेंडबडबा आईं। फूफी ने अख़्तरीके बारे में बड़ा ग़लत सोचा था, वह बड़ी रहमदिल और नेक इंसान निकली। वैसेभले ही इस्लाम में चार शादियाँ कबूल हैं पर अपना सुहाग बँटते दिल टूटता है।

कमरे में सन्नाटा-सा फैल गया। दावत के क़हक़हे भी धीरे-धीरे कम होते गये थे। खिड़कीसे बाहर बगीचा था शायद, फूफी का ध्यान अब गया उधर। लॉन था लचीली घास का...गोलईंट की क्यारी में बीचोंबीच पॉपी के सतरंगे फूल खिले थे जो क्रिसमस ट्री की टहनियों में लटके, जलते बुझते लट्टुओं की रोशनी में साफ़ दिख रहे थे। पूरे चाँद की रात थी। आकाशमें केवल चाँद था और साफ निरभ्र विस्तार। ठंडी हवा के झोंके में फूफी कीपलकेंमुँदने लगी थीं पर तभी ताहिरा को देखने आठ-दस औरतों का झुंड कमरे मेंआया। फूफी ने देखा शांताबाई आकर अख़्तरी को ले गई थी और निक़हत भी जा चुकी थी। औरतें घूँघट में से ताहिरा का मुखड़ा देख नेग दस्तूर अदा कर रही थीं। किसी ने फूफी के हाथ में चाँदी की सुरमेदानी लाल कागज़ में लिपटी रखी तो फूफी ने हाथ खींच लिया-"मैं दुल्हन के मायके से हूँ।"

"मायके से? दुल्हन की फूफी हैं? हाँ, बड़ी बेग़म ने बताया तो था कि दुल्हन की फूफी साथ रहेंगी। ठीक तो है...दुल्हन को यहाँ के रीतिरिवाज़ समझायेगा कौन? ...ये नेग...हाँ, निक़हत को बुलाओ... उसी ने सब हिसाब रखा है। निकहतऽऽ...निक़हत...आओ भई, दुल्हन को अकेला क्यों छोड़ रखा है?"

ढेरोंवाक्य। ढेरोंआवाज़ कि उन्हीं आवाजों में निकहत की मिश्री जैसी आवाजघुली-"आईऽऽ...बस, लो आ गई। अरे, आपाजान हैं...क्या आपा जान, आप ही येड्यूटी कर देती न।"

चिड़िया-सीचहकती निक़हत आई और नेग दस्तूर अपने दुपट्टे में समेटे ताहिरा के कान मरण फुसफुसाई-"बाथरूम तो नहीं जाना...कब से बैठी हैं आप? अंदर चलकर थोड़ा आराम कर लीजिए।"

ताहिरा की जान में जान आई। सोचा फूफी से भी पूछ ले पर सबके सामने दुल्हन का मुँह खोलना ठीक न था। ताहिरा निक़हत के साथ अंदर चली गई।

"यह आपका कमरा है चाचीजान! लेकिन अभी प्रवेश निषेध। इसमें आपका प्रवेश चाचाजान के साथ होगा...रात के बारह बजे।" और ठी-ठी कर हँस पड़ी निक़हत। ताहिरा कमरे की एक झलक ही देख पाई, निक़हत उसे दूसरे कमरे में ले आई।

"मैं आपके लिए चाय लाती हूँ। तब तक आप फ्रेश हो लें।" निक़हत के जाते ही उसने दरवाज़ा बंद किया और सिर पर ओढ़ी भारी चुनरी उतारकर पलंग पर रख दी। बाथरूम में जाकर उसका मन हुआ नहा ले पर मुँह हाथ धोकर हीबाहर निकल आई। क्या पता कोई दरवाज़ा ही भड़भड़ाने लगे और हुआ भी वही। गुलनार आपा अपनीचचाज़ाद बहन अज़राके साथ कमरे में आ गईं। उसने झट से चुनरी सिर पर ओढ़ ली। अज़रा के हाथ में एक पैकेट था।

"भाभीजान आदाब! मैं आपकी ननद हूँ अज़रा।"

ताहिरा ने सलाम किया। तभी निक़हत चाय लेकर आ गई। "ताहिरा बेग़म, तुम चाय पीकर तैयार हो जाओ... यह सूट पहन लो। तुम्हें, तुम्हारे ससुर ने मुँह दिखाई के लिये बुलाया है।" गुलनार आपा ने कहा और अपनी मुस्कुराहट बिखेरती चली गईं।

"लीजिए खाला चाय!" निक़हत ने एक प्याला अज़रा की तरफ़ बढ़ाया।

"हाँ, चाय की तो तलबलगी है और भाभीजान का शृंगार भी करना है। निक़हत तुम ज़रा अंदर मेहमानों की देखभाल में जुटो। इधर मैं सँभालती हूँ।"

"जी अच्छा!" निक़हत के जाते ही अज़रा पलंग पर बैठ गई-"आपकी फूफी से मिलकर आ रही हूँ। वल्लाह, क्या शख़्सियत है। वैसे आप भी कुछ कम नहीं भाभीजान।"

ताहिरा शरमा गई। शृंगार करते हुए उसने अज़रा से अपने ससुर के बारे में सुना।

"बड़े अब्बा सालों से बीमार पड़े हैं, असल में बीमारी उनके शरीर में दबे पाँव तभी प्रवेश कर गई थी जब बड़ी अम्मी नहीं रहीं। बहुत चाहते थे बड़े अब्बू उन्हें। फिर गुलनार आपा के संग घटा हादसा। शादी के साल भर बाद ही आपा विधवा हो गईं। बड़े अब्बू पर ऐसी बिजली गिरी कि तबसे खाट ही पकड़ ली। अब तो नब्बे साल के हो गये। चालीस साल से बीमारी झेल रहे हैं। डॉक्टर, वैद्य सबको दिखाया पर दिल से टूटा इंसान कभी ठीक होता है।"

ताहिरा सिहर उठी। दिल तो फैयाज़ का भी टूटा है। या अल्लाह सलामत रखना उसे। ताहिरा के दिल ने दुआ माँगीऔरआँसू की परत जो आँखों में झलक आई थी अज़रा से छुपा गयी।

अज़रा ने ग़ज़ब का शृंगार किया था ताहिरा का। मरून शरारे, कुर्ते और ओढ़नी में वह किसी शहज़ादी से कम नहीं लग रही थी। गुलनार आपा, अज़रा, निक़हत और फूफी के साथ ताहिरा ससुरजी को आदाब करने गई। वे बड़े से आबनूसी पलंग पर गावतकियों के सहारे बैठे थे। उसके आदाब के जवाब में उन्होंने अपना हाथ ताहिरा के सिर की तरफ़ बढ़ाया-"आबाद रहो दुल्हन बेग़म! इस घर को खुशियों से भर दो। खुदा तुम्हारी कोख को बरक़त दे। यह हवेली सूनी है बेग़म, पोतों के बिना।"

फिर पास खड़े एक लड़के के हाथ में रखी चाँदी की तश्तरी से सोने की कंठी उठाई-"यह तुम्हारी सास की है...इसे पहनने का हक़ सिर्फ तुम्हें है क्योंकि तुम मेरी बूढ़ी आँखों में वह चिराग़ रोशन करोगी जिसके लिये यह कोठी लालायित है। मुझेउम्मीद ही नहीं भरोसा भी है। लो, निक़हत...पहना दो अपनी चाची को।"

निक़हत ने ताहिरा के दुपट्टे के अंदर गले में कंठी पहना दी। गला वैसे ही चेन, नेकलेस से भरा था। इतनेज़ेवरों में ताहिरा घबरा उठी थी फिर भी ज़ब्त किये रही।

ताहिरा की सेज सजाने में अज़रा का ख़ास हाथ था। यूँ तो कोठी में नहीं-नहीं करके भी कईमेहमान जुट ही आये थे सो नौजवान लड़कियों ने ताहिरा का कमरा अरेबियन नाइट सासजा दिया। फूल, सुगंध, ठंडी चाँदनी-सी चंद्रिका वाली विद्युत् जोत...जैसे सुनसान प्रकृति ने बसंत को अपने आगोश में दबोच लिया हो। ताहिरा कमरे में ले जाई जा रही थी। फूफी ने उसकी बलाएँलीं और कान में धीरे से मंत्रफूँके, फुसफुसाई-"इम्तहान का वक़्त है तुम्हारा...यह वक़्त तुम्हें राजसिंहासन पर बैठा सकता है या पाँव की उतारी हुई जूती बना सकता है। दिल तुम्हें जीतना है शाहजी का।"

ताहिरा पत्ते पर पड़ी बूँद-सी थरथरा रही थी। यूँ वह काफी साहसी और ज़हनी लड़की थी पर इस वक़्त मानो हौसले पस्त हो रहे थे। घड़ियाँ बीत गईं, फूफी के कान हर आहट पर चौकन्ने हो जाते। रात बारह बजे तक शाहजी शहनाज़ बेग़म के कमरे में रहे। शहनाज़ की खिलखिलाहट दूर-दूर तक फैले सन्नाटे में समंदर के शोर-सी प्रतीतहोती। बारह बजे शाहजी ने धीरे से ताहिरा का कमरा खोला। ताहिरा उठकर खड़ी हो गई। कमर तक झुकी और मिश्री जैसी आवाज़ में बोली-"आदाब!"

शाहजी ने आगे बढ़कर उसे बाँहों में भर लिया और कानों के पास फुसफुसाये-"आदाब...मेरी नन्ही बेग़म।"

ताहिरा शर्मो लिहाज से दोहरी हुई जा रही थी।

"ज़रा कलाई इधर तो लाइए।"

ताहिरा ने अपना कंगन, चूड़ियों से भरा बायाँ हाथ आगे बढ़ाया। शाहजी ने चूड़ियाँ पीछे सरकाईं और कलाई पर हाथ में पकड़ी बेशकीमती घड़ी पहना दी-"हमारी तरफ़ से मुँह दिखाई में।" औरउसका घूँघट उलटकर बाँहों में भर लिया-"जानतीहैं बेग़म...इस बेशुमार दौलत के बीच भी हम कितने अकेले, कितने तन्हा हैं?"

ताहिरा ख़ामोश रही। शाहजी उसके साथ पलंग पर टिककर बैठ गये। गुलाब की कलियाँ जो सेज

पर बिखरी थीं, धीरे-धीरे अपनी पंखुड़ियाँ खोल रही थीं। चाँदनी जैसीरोशनी में ताहिरा सकुचायी-सी घुटनों में गड़ीजा रही थी।

"आप इतना शरमायेंगी तो हम अपने दिल का हाल बयान कैसे करेंगे?"

उन्होंने ताहिरा कीकमर में हाथ डालकर अपने करीब खींच लिया और उसके सिर को अपने सीने से चिपटा के चेहरे की रग-रग छूने लगे। ताहिरा सिहर उठी। वह शाहजी के दिल की धुक-धुक साफ सुन रही थी।

"हमबहुत उम्मीदों से आपको लाये हैं। बस, हमें एक चिराग़ दे दो बेग़म! एक हमारा नामलेवा।"

और हाथ बढ़ाकर बत्ती बुझा दी फिर ताहिरा को आहिस्ता से पनी बगल में लिटा लिया। ताहिरा का मन तड़प उठा...यह उसकी सुहागरात है जिसकी कल्पना हर लड़की के दिल में प्यार-रोमांस की शक्ल में खुदी रहती है। जब नवविवाहिता जोड़े एक दूसरे में समाये रहते हैं...उन्हेंदुनिया का होश नहीं रहता और हवा का दख़ल भी बर्दाश्त नहीं होता। लेकिनयहाँ...मात्र मक़सद के लिये उसका इस्तेमाल किया जा रहा है। सुहागरात न रहकर मक़सद की रात बन गई है। शौहर उससे दान माँग रहे हैं...पुत्रदान। उनके मन में न उसके जज़्बातोंकी क़द्र है न कमसिनी की। ...'ओह फैयाज़! मेरे फैयाज़! तुमने मुझे दानवीर क्यों बना दिया तो मात्र मुहब्बत का एक शगूफ़ाथी' कि उसके कान में फैयाज़ फुसफुसाया-'ज़ब्तकरो ताहिरा...मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा...मैं तुम्हारी हार देख नहीं सकता।' और ताहिरा बुत बन गई। शाहजीउसके बदन पर हाथ फेरते रहे...ताहिरा बुत बनी रही...शाहजी उसकेहोंठों को चूमते रहे...ताहिराबुत बनी रही...बुत बनी रही। इंसान तो प्यार की तपिश चाहता है, समर्पण की क़शिशचाहता है...औरइसका एक क़तरा भी तो शाहजी उसे नहीं दे पा रहे थे।

फिज़ा में नीरव निशा अपनी मादकता का क़हर बरपा रही थी। फूफी बेचैन थीं...न जाने ताहिरा इम्तहान में पास हुई अथवा।