गंगा मैया-14 / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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चौदह

पौ फटने के पहले ही गोपी लौटकर कुँए की जगत पर पड़ रहा। अभी वह अपने को स्थिर करने की कोशिश कर ही रहा था कि माँ के चीख़ने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, ‘‘हाय राम! बड़ी बहू घर में नहीं है!’’ लेकिन वह आँखें मूँदें ऐसे पड़ा रहा, जैसे नींद में बेख़बर हो।

धीरे-धीरे मोहल्ले के औरत-मर्द उसके दरवाज़े पर जमा हो गये। गोपी को जगाया गया। वह एक हत्यारे की तरह चुप बना रहा। लोगों ने बहुत सोच-समझकर भीड़ हटायी और हिदायत की सब चुप रहें, किसी को कानो-कान ख़बर न हो; वरना बदनामी होगी सो तो होगी ही, ऊपर से लेने के देने भी पड़ न जाएँ।

लेकिन इस तरह की वारदातें छिपाये कहीं छिपती हैं? बहुतों को इस तरह की संगीन ख़बरें फैलाने में एक अजीब तरह का मज़ा मिलता है। सो, घड़ी-आध घड़ी बीतते दारोग़ा आ धमका।...

दारोग़ा चला गया। गोपी चौपाल में अकेला बैठा सोच में डूबा था। माँ की रुलाई की आवाज़ सुनकर उसका पारा चढ़ रहा था। उसकी समझ में न आता था कि वह क्यों रो रही है? उसी ने तो उसे डूब मरने के लिए कहा था। अब यह ढोंग क्यों दिखा रही है? उसके जी में आता था कि जाकर उसे खूब आड़े हाथों ले और कहे कि अब तो नाक बच गयी! खुशी मनाओ! अपने कुल की मर्यादा का ढोल पीटो! वहअपने बाप से भी झगडऩा चाहता था। अब तो इज्ज़त बढ़ गयी? कलेजा ठण्डा हुआ? हत्यारों! उस मासूम की हत्या का पाप ताज़िन्दगी तुम्हारे सिर पर रहेगा। तुम अपनी बिरादरी को हार बनाकर गले में पहने रहो, रीति-रिवाज की खूब माला जपो!

लेकिन रात की घटना उसके दिल-दिमाग पर इतनी और इस तरह छायी थी, कि वह उठ न सका। सोचने-विचारने पर उसे लगता था कि वह खुद भी माँ-बाप से किसी प्रकार कम अपराधी नहीं था। उसका भी उसमें उतना ही हाथ था, जितना उनका। अगर हिम्मत करके वह माँ-बाप का मुकाबिला कर सकता, सरेआम भाभी का हाथ पकड़ लेता, तो भाभी के लिए ऐसा करने की नौबत क्यों आती? यही ख़याल उसे बेतरह दबाये हुए था। उसकी जबान बन्द थी।

आज वही बात फिर उसके मन में बार-बार उठ रही थी कि सच ही उसके समाज की विधवा लकड़ी का वह कुन्दा है जिसमें उसके पति की चिता की आग एक बार जो लगा दी जाती है, वह जलती रहती है, तब तक जलती रहती है, जब तक वह जलकर राख न हो जाए, और उसके राख हो जाने के पहले उसे बुझाने का किसी को अधिकार नहीं। क्या राख हो जाने के पहले उसने भाभी को बचा लेने की जो कोशिश की, वह उसकी अनाधिकार चेष्टा थी? क्या उसकी सच्ची सहानुभूतिपूर्ण कोशिशों का यही अन्त होना था? आख़िर इसमें बाकी ही क्या रह गया था। भाभी के राख जाने में कसर ही कितनी थी? यह तो संयोग ही था न, जो बच गयी, वरना, वरना...और वह फूट-फूटकर रो पड़ा। ओह! यह क्या होने वाला था! हे भगवान्! तेरा लाख-लाख शुक्र, जो...

और वे सवाल फिर-फिर उसके दिमाग में उठ पड़ते, ऐसा क्यों हुआ? क्यों, क्यों?

और उसके ही अन्तर की आवाज़ उसके जवाब में गूँजने लगती, ‘‘हाँ, तुम सच्चे थे, तुम्हारा दिल भी सच्चा था, तुमने कोशिश भी की ज़रूर! लेकिन उस कोशिश को सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी, वह पूरा-पूरा तुममें न था। इस साहस के अभाव ने ही भाभी को राख हो जाने के लिए मजबूर कर दिया था। साहस विहीन इस तरह की कोशिशों का यही अन्त होता है। ये आग को और भडक़ा देती हैं। ये तत्क्षण जलाकर राख कर देती हैं। मूर्ख! अब भी समझ, अब भी सँभल! यह बच्चों का खेल नहीं, यह भावुकता के व्यर्थ के जोश के बस का रोग नहीं! यह आग में फाँदकर आग बुझाना है, यह जीवन पर खेलकर जीवन को बचाना है, यह युगों-युगों से लाखों विधवाओं का खून पीकर बलिष्ठ हुए रीति-रिवाज के भयंकर राक्षस से अकेले लडक़र उसे पछाडऩा है, यह बीहड़ जंगल से एक नयी राह निकालना है! कोई ठट्ठा नहीं, कोई खेल नहीं!’’

और जीवन में कभी भी हार न मानने वाले गोपी को लगा कि जैसे उसके साहस और बल को यह दूसरी ललकार है, जिसके सामने अगर उसने सिर झुका दिया, तो उसकी भाभी जलकर राख हो जाएगी। पहली ललकार जोखू की थी और आज यह दूसरी है। और गोपी को महसूस हुआ कि आज फिर वही खून उसकी नसों में दौडऩे लगा है, जिसकी ताकत के सामने वह किसी को कुछ न समझता था।

कुएँ में काँटा डाला गया, ताल पोखर को छाना गया। और जब कुछ पता न चला, तो तरह-तरह की अफवाहें हवा में उड़ायी गयीं, तरह-तरह की कहानियाँ रची गयीं। औरतों ने भाभी में कितने ही कुलच्छन निकाल डाले, बूढ़ों ने ज़माने को कोस-कोस मारा। यारों ने चरचा चला-चला खूब मज़े लूटे। लेकिन किसी में इतनी हिम्मत न थी कि गोपी के सामने ज़बान खोलता। फिर अपनी चादर के छेद को छिपाकर दूसरे की चादर के छेद में पैर डालकर कहाँ तक फाड़ते? ढेला गिरने से पानी की सतह पर जो हलचल मचती है, वह कितनी देर ठहरती है?

दिन बीतते गये। दुनिया पूर्ववत् चलती रही। और एक रात जब गाँव में सोता पड़ गया था। गोपी के दरवाज़े पर एक भारी-भरकम गोजी धम से बज उठी।

बूढ़े ने, जिसकी नींद आज-कल पहले की बहू वाली सेवा-सुश्रुषा न पाकर हिरण हो गयी थी; यों ही मुँदी आँखें खोलकर टोका, ‘‘कौन?’’

आगन्तुक धीरे से हँसा। फिर बूढ़े की ओर बढ़ता बोला, ‘‘जाग रहे हो, बाबूजी्?’’

‘‘कौन? मटरू है क्या? अरे बेटा, मेरी नींद तो उसी दिन उड़ गयी, जिस दिन से बहू चली गयी। अब तो लाश ढो रहा हूँ। कौन उसके बराबर हमारी सेवा करेगी? बूढ़ी तो ज़रा देर में झल्लाकर भाग खड़ी होती है। अब तो भगवान् उठा लें, यही मनाता रहता हूँ। आओ बैठो। बहुत दिन पर आये! क्या-क्या हो गया, इसी बीच। सोचा था, अब दिन लौटेंगे, लेकिन करम में तो जाने अभी क्या-क्या भोगना बदा है।’’

दीवार से गोजी टिकाकर, पैंताने बैठकर मटरू बोला, ‘‘सब ठीक हो जाएगा, बाबूजी। आप चिन्ता न करें! इस घर को बसाने के लिए ही तो मैं इतने दिनों रात-दिन एक किये रहा। सोचता था कि जब तक काम न बन जाए, कौन मुँह लेकर आपके यहाँ आऊँ। जबान दी थी, तो उसे पूरा किये बिना चैन कहाँ? मटरू की ज़िन्दगी इसी एक बात से तो पैमाल रहती है। अपने स्वभाव को क्या करूँ? गंगा मैया के पानी, मिट्टी और हवा के सिवा ज़िन्दगी का कोई सुख न जाना। हाँ, एक हक और न्याय के सामने किसी को मैंने कभी कुछ न समझा। कई बार मुँह की खाकर भी ज़मींदारों की ऐंठ नहीं जाती। मुँह का लगा हुआ आसानी से नहीं छूटता, बाबूजी! पुश्तों हराम का दीयर से बटोरा है। अब नहीं मिलता, तो दाँत किटकिटाते हैं। सुना है, कानूनगो को पड़ताल करने का हुक्म आया है। अभी तो चारों ओर पानी-ही-पानी है, वह काहे की पड़ताल करेगा? बात अगले साल पर गयी। तब तक हमें भी तैयारी करने का मौका मिल गया है। जान दे देंगे, बाबूजी, लेकिन ज़मींदारों का वहाँ पाँव न जमने देंगे। सालों यह लड़ाई चलेगी। गंगा मैया की किरिपा से हमारी जीत होगी। हक और न्याय हमारे साथ हैं। झूठ, फरेब, धाँधली, जोर-जुलुम की गाड़ी, बहुत दिनों तक नहीं चलती। अब मटरू अकेला नहीं, दीयर और तिरवाही के हज़ारों किसान उसके साथ हैं। अपनी प्यारी धरती पर जान देने वालों से उनकी धरती छीन लेने की ताकत किसमें है? ...इन्हीं झंझटों में फँसा रहा, बाबूजी, नहीं कभी का सब ठीक हो गया होता। इधर गंगा मैया भी फूल उठी हैं। पाँच दिन पहले ही तो अपनी झोंपड़ी उस पार ले गया हूँ। इस पार तो कुत्तों की तरह ज़मींदार मेरी महक सूँघते रहते हैं। अब तुम कहो, यहाँ का कोई समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला? ...’’

‘‘क्या कहें बेटा, घर में एक करने-धरने वाली थी, वह भी...’’

‘‘वह तो सुन चुका हू, बाबूजी...’’

‘‘क्या बताऊँ, मटरू बेटा, ऐसी लायक वह थी कि उसकी याद आती है, तो कलेजा फटने लगता है। अब मैं नहीं जीऊँगा।’’ कहते कहते वह रो पड़े।

‘‘बाबूजी, तुम इस तरह अपना जी हलका न करो। तुम्हारे चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, बाबूजी, कि मैं गोपी को ऐसी बहू ला दूँगा, जो अकेले ही आपकी बड़ी बहू और छोटी बहू, दोनों की जगह भर देगी। आप चिन्ता न करें?’’

‘‘लेकिन गोपी तैयार हो तो, बेटा! वह तो हमसे बहुत नाराज़ है। बोलता भी नहीं। अब तुमसे क्या छिपाऊँ, वह अपनी भाभी के साथ ही घर बसाना चाहता था। यह भला कैसे हो सकता था? जाने उस दिन पगली बूढ़ी ने बहू को क्या कह डाला कि वह घर से निकल गयी। इधर यह हमसे नाराज़ हो घुलता जा रहा है! हमें क्या मालूम था, बेटा, कि इस तरह उसका दिल लगा था। मालूम होता तो हम काहे को कुछ कहते? माँ-बाप के लिए क्या बेटे से बढक़र बिरादरी है? वह भी दो-चार होते तो एक बात होती। यहाँ तो उसी के सहारे हमारी ज़िन्दगी है। बिरादरी वाले क्या हमें खाना दे देंगे? लेकिन हमें क्या मालूम था? अब कितना पछतावा हो रहा है! अरे, मेरी तो बेटी ही निकल गयी। उसके बराबर कौन मेरी सेवा करेगा? लेकिन अब किया ही क्या जा सकता है, बेटा! तुम उसे समझाओ, अब तो होश सँभाले।’’

‘‘समझाऊँगा, बाबूजी। मेरी बात वह नहीं टाल सकता। मुझे अपने मानिक भैया की तरह वह मानता है। तुम चिन्ता न करो, सब ठीक हो जाएगा। कहाँ पड़ा है वह।’’ उठते हुए मटरू ने कहा।

‘‘अरे बेटा ज़रा देर और बैठ। मुझे यह तो बताया ही नहीं कि कहाँ...’’

मटरू धीरे से हँसकर बोला, ‘‘अपने ही घर की लडक़ी है, बाबूजी! यों समझ लो कि मेरी छोटी साली ही है। पण्डित से जँचवा लिया है। गनना-बनना सब ठीक है। रूप-रंग में बिलकुल गोपी की भाभी ही की तरह है। ज़र्रा-बराबर भी फर्क नहीं। गुण में भी उसी की तरह। सेवा-टहल तो इतना करती है, बाबूजी, कि तुमसे क्या कहूँ? तुम देखना न! तुम तो समझोगे कि बड़ी बहू ही दूसरा रूप धारण करके आ गयी! तुम भी क्या समझोगे कि मैं कैसा पारखी हूँ। जब से गोपी की भाभी को देखा था, गोपी के लायक कोई लडक़ी ही नज़र पर न चढ़ती थी। कम कैसे आती घर में? यह तो संयोग कहो कि बिलकुल वैसी ही लडक़ी घर में ही निकल आयी। वे लोग दुआह से उसकी शादी करने को तैयार ही न होते थे। सच भी है, वैसी रूपवती, गुणवती लडक़ी की शादी कोई दुआह से कैसे करे? वह तो मटरू की बात थी कि मान गये। मटरू की बात कोई नहीं टालता, बाबूजी। लेकिन, हाँ घर की हुई तो क्या? मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि जो भी दर-दहेज वे माँगेंगे, देना पड़ेगा। सो, बाबूजी, किसी बात का लिहाज न करना। जो माँगना है, कह दो...’’

‘‘अरे, हमें उससे क्या मतलब है? तू गोपी से ही यह सब तय कर लेना हमें क्या, बेटा? जिसमें सब खुश, उसमें हम खुश। घर बस जाए, बस यही भगवान् से मिनती है। अच्छा, तो जा, सहन में गोपी होगा उससे बातें कर ले। और, बेटा, जितनी जल्दी हो, सब कर डाल। देर अब नहीं सही जाती! हे भगवान्...’’

‘‘सो तो सब तैयारी ही करके आया हूँ, बाबूजी,’’ कहकर मटरू उठा और गोजी में बँधी गठरी खोलकर बूढ़े के हाथ में थमाता हुआ बोला, ‘‘यह मिठाई, धोती और पाँच सौ रुपये तिलक के हैं...

‘‘हैं-हैं, अरे, इतनी जल्दी कैसे होगा यह सब? पर-पुरोहित, बर-बिरादरी...’’

‘‘सो तुम सब करते रहना, बाबूजी। मेरा तो जानते हो, रात का ही मेहमान हूँ! फिर गंगा मैया ऊफनी हुई हैं। पार-वार का मामला है। कौन बार-बार आने जाने की जोखिम उठाएगा? फिर तुम यह सब ले लोगे तो गोपी पर दबाव डालने की एक जगह भी निकल आएगी। मेरा काम कुछ आसान हो जाएगा। यों, काम तो तुम्हारा ही है। अब गोपी को भी टीका लगा दूँ। जय गंगा जी!’’ और वह उठ पड़ा।

गोपी सहन में खटोले पर पड़ा खर्राटे ले रहा था। मटरू ने पहुँचकर एक जोर की धौल जमायी और उसका हाथ पकड़ उठाकर बैठाता हुआ बोला, ‘‘क्यों बे, मैं तो तेरी शादी के चक्कर में इतनी रात को उफनती हुई नदी पार करके आया हूँ और तू यहाँ खर्राटे ले रहा है? आने दे बहू को, फिर देखूँगा कि कैसे खर्राटे लेता है?’’

सकपकाया हुआ गोपी उठकर खड़ा होता धीरे से बोला, ‘‘चौपाल में चलो, मटरू भैया।’’

‘‘और यहाँ क्या हुआ है, बे? ...ओ, शर्म आती होगी! अबे, तूने तो, कुँआरों को भी मात कर दिया?’’

गोपी उसका हाथ खींचकर अन्दर ले गया। उसके हाथ से गोजी लेकर दीवार से टिकाकर बोला, ‘‘मेरी...’’

‘‘अभी चुप रह, मुझे अपना काम कर लेने दे!’’ कहकर उसने बायीं हथेली पर दाहिने हाथ का अँगूठा रगड़ा और कुछ मन्त्र-सा बड़बड़ाता हुआ गोपी के माथे पर तिलक सा लगाने लगा, तो गोपी बोला, ‘‘इसे तूने कोई खेल समझ रखा है?’’

मटरू सहसा हँसोड़ से गम्भीर हो उठा। बोला ‘‘खेल तू कहता है? बहादुरों के लिए मुश्किल-से-मुश्किल काम भी खेल है और बुज़दिलों के लिए आसान-से-आसान काम भी मुश्किल! तू यह बात किससे कह रहा है, कुछ ख़याल है? मटरू ने अपनी जिन्दगी में किसी काम को कभी भी मुश्किल न समझा। उसने मुश्किलों से हमेशा ही खेला है और खेल-खेल में ही सब कुछ सर कर लिया है। तू इस तरह की बात फिर जबान पर न लाना! दुनिया में मुझे किसी बात से चिढ़ है, तो वह बुज़दिली से है और जिस दिन मैंने समझ लिया कि तू बुज़दिल है, उसी दिन तुझे और तेरी भाभी काटकर गंगा मैया की भेंट चढ़ा दूँगा! समझ लूँगा कि एक भाई था, मर गया, एक बहन थी, न रही!’’ उसका गला भर्रा गया और उसने सिर झुका लिया।

गोपी उसकी गोद में सिर डालकर सिसक पड़ा। मटरू उसकी पीठ सहलाते हुए बोला, ‘‘पागल, मेरे रहते तुझे कौन-सी बात की मुश्किल लगती है? उठ, मेरी बात सुन! वक़्त ज्य़ादा नहीं है। रात-ही-रात मुझे वापस जाना है!’’ और उसने गोपी को उठा उसके गालों को थपथपाते हुए कहा, ‘‘सिसवन घाट के सामने मेरी नाव लगी रहती है। वहाँ तू कहेगा, तो मेरी झोंपड़ी तक पहुँचा दिया जाएगा। मैं अपने आदमियों से कह रखँगा। तुझे कोई दिक्कत न होगी। मैंने बाबूजी को तिलक दे दिया। कल पीली धोती पहनना, बिरादरी में मिठाई बँटवा देना। और शादी की तिथि की ख़बर मेरे आदमियों को दिलवा देना। सब बाकायदे हो। दूल्हा बनकर मेरे यहाँ आना। बारात, बारात भरसक न लाना, लाना तो छोटी। गंगा मैया कोप में हैं। खैर, जैसा मुनासिब समझना, करना। मेरी बहन की शादी है। अपने को बेच देने में भी मुझे कोई उज्र न होगा। गंगा मैया फिर झोली भर देंगी। उसके दरबार में किसी चीज़ की कमी नहीं। समझा? मन में कोई वैसी बात न लाना। यह न भूलना कि तू मटरू का भाई है। ऐसा करना कि मटरू की इज्ज़त बढ़े। मटरू की इज्ज़त बहादुर ही बढ़ा सकता है। अच्छा, तो ख़याल रखना मेरी बातों का! सिसवन घाट! अब चलूँ?’’

‘‘मेरी भाभी कैसी है?’’ प्यार से गद्गद गोपी बोल पड़ा।

मटरू हँसा! बोला, ‘‘अबे अब भी वह तेरी भाभी ही है? दुलहन क्यों नहीं कहता? अच्छी है, बिल्कुल अच्छी है! गंगा मैया की हवा जहाँ तन में लगी कि तीनों ताप मिट जाते हैं। वह तो अब ऐसी हरी हो गयी है, कि देखो तो जिया लहराय उठे। इस बीच कभी मौका मिले, तो आ जाना।’’ कहकर उसने गोपी का माथा चूम लिया और उठ खड़ा हुआ।

गोपी ने उसके पाँव पकड़ लिये। मटरू बोला, ‘‘हाँ, अभी से सीख ले, कि बड़े साले का आदर कैसे किया जाता है!’’

‘‘भैया!’’ गोपी ने शर्माकर सिर झुका लिया। मटरू ने उसे उठाकर अंक में भर लिया।