गंधर्व – गाथा / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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कहीं पढा था, कहाँ...यह तो ठीक से याद नहीं _ कि चेतन के लिए थोड़ा भी बहुत है और जड़ क़े लिए बहुत भी कुछ नहीं. उस दोपहर में जो कुछ थोड़ा - सा था, वह मेरे सजग अवचेतन के लिए बहुत साबित हुआ. उस दोपहर में ऐसा क्या था? एक बेहद उदास दोपहर थी वह, बमुश्किल बीतती. एक मरते - झरते दिन की ठिठकी सी, गर्म दोपहर. याद रखने जैसा कम अज कम उस पल तो कुछ नहीं लगा था. साल - दर - साल हजारों अरचनात्मक, सुप्त दोपहरों की - सी ही एक दोपहर थी.

हैरानी की बात तो यह है कि एक ही पैटर्न की बनी दो पेंटिंगों की तरह वह हम दोनों के मन में दूर - दूर टंगी रही, अरसे तक बहुत चमकीली याद की तरह तो नहींमगर अवचेतन में एक गर्दभरे सैलोफैन पेपर से ढकी पेंटिंग सीकुछ - कुछ. वह दोपहर, दांत में फंसे रेशे सी, लम्बे वक्त तक फंसी रही फिर आदत बन गई. या फिर यूं कहूं कि वह दोपहर एक पीडा भरी उंसास - सी फेफड़ों में देर तक बनी रहीफिर निश्वास के साथ स्वत: ही निकल गई. एक उनींदी दोपहर, जिसमें जीवन की एक जरूरी करवट अनजाने छूट गई थी. एक धूल भरी दरी - सी दोपहर जिसे शाम ढलने से पहले लपेट दिया गया हो. एक शरणार्थी दोपहर जिस पर बबूल के पीले फूलों के पीछे झांकते कांटों की छाया लगातार पड रही थी. मैं तो इतना जानती हूँकि जब उस दोपहर को मैं ने सरकाया था, बासी अखबार की तरह बाकि पुरानी दोपहरों के बासी बण्डल में तो वो एकदम निस्तेज थी.

वह दोपहर होंठ भींचेअपनी कोख में कितना कुछ रखे थी उस पल किसे पता था. किसे पता था गर्द भरे सेलोफेन के नीचे से जो पेंटिंग निकलेगी उसके रंग रखे - रखे इतने गाढे और चमकीले होंगे. किसे पता था उस धूसर दरी में बीस बरसों तक लिपटी एक नन्ही अनकही चाह सोती रह गई होगी और अचानक एक परिपक्व और जिरह को आतुर प्रेम बन कर सामने आ खडी होगी और रह - रह कर सवाल दर सवाल पूछे जाऐगी. यह भी कहाँ पता था कि उस बासी अखबार - सी दोपहर में एक चौंकाऊ खबर बन्द होगी. मैं अनजान थी कि उस दोपहर के आंगन में एक शर्मीला पारिजात झरता रहा थाइस खुली - बेबाक दुनिया से झिझकता.

देखो न, आज अचानक मई की वह दोपहर, एक कोयल की तरह दिसम्बर की इस खासी ठण्डी सुबह में, सामने ठिठुरते पीपल की फुनगी पर आ बैठी है और बेमौसम कूके जा रही है. मैं स्मृतियों के बीहड क़े इस पार हूँ मुझे जरा भी अन्दाज नहीं है, नियति के शतरंज का. बस इतना पता है वह शातिर खिलाडी है. मेरे सामने पसरा है स्मृतियों का धुंधलाता बीहड. वह दोपहर स्मृतियों के बीहड क़े अंतहीन सिरों के बीच लगे सीमा द्वार पर एक प्रवेश पत्र - सी खडी है. मेरी हैरानी बढाने के लिए उस तरफ तुम आ खडे हुए होनिर्मम शोर के बीच सुमधुर मौन - से. अपने पुराने अंदाज में एक हाथ जेब में डाले माथे पर सीधे और घने काले बालों का गिरता हुआ गुच्छा लिये. अँ,रुको जरावो बाल अब भी हैं उतने ही घने मगर पूरे काले नहीं रहे. 'साल्ट एण्ड पैपर'.

पहले, जब तुम इसी अदा में दाखिल होते थे, मेरे घर में उसके साथ अपना स्टेथस्कोप दबाएतो मेरा चेहरा खिल जाता था. उसके लिए नहीं, तुम्हारे लिएफिर जब बहुत आहिस्ता से तुम नब्ज थामते और अपना आला मेरे सीने पर लगाते थे, बहुत सजग और सौम्य होकरचेहरे पर घनघोर डॉक्टरी भाव ओढ क़र तो मैं कनखियों की एक नजर तुम पर डाल कर मुंह फेर लिया करती थी. लाल रंग के कतरे मेरे गालों पे छितरते देखे तुमने कभी ? क्या हल्की - सी, मीठी आह भी कभी तुमने सुनी थी?

तब तुम उससे कहा करते थे_ “ चिन्ता मत कर यार, कोई खास बात नहीं हैमौसमी बुखार है.”

मैं उसी शाम ठीक हो जाती थी. कितनी बार तो मैं बेवजह नाटक करती थी. मेरे प्रति तुम्हारे कोमल व्यवहार ने मुझे अतिसंवेदनशील बना दिया थाबिनबोले, बिनछुए मुझे तुम्हारी उपस्थिति गहन आनंद दे जाती थी. जैसा कोई स्वप्न में महसूस करता है.


हम दोनों में वह तुम हो, जिसे हमारी पहली मुलाकात याद रही, सण्डे बाजार में फुटपाथ से 'मिल्स एण्ड बून' के नॉवल खरीदती हुई एक पन्द्रह साल की लडक़ी, दो पॉनीटेल्स में.तुम्हारा मेडिकल कॉलेज में

फाईनल ईयर था शायद. माना कि यह मिथक है फिर भी कभी - कभी मैं खुद से पूछती हूं_ वे मेरे पहले श्रुतुस्नान के दिन तो नहीं थे, जब मैं ने पहले - पहल तुम्हें देखा होगाऔर गढ ग़या होगा मेरे कोमल मन पर तुम्हारा वह गंधर्व स्वरूप! हमारे शास्त्र ऐसा ही कुछ कहते हैं, किसी किशोरी के प्रथम श्रुतुस्नान के दौरान जिस किसी पुरूष की छाया उस पर पडती है, वह जीवन भर उसके आकर्षण की प्रेतबाधा से ग्रस्त रहती है.

स्मृतियों के ये बीहड बेहद बेतरतीब हैं. बार - बार भटक जाती हूं मैं. इतना तय है कितुम मेरे कोई नहीं थे. उस के बडे भाई के दोस्त थे, जिसके साथ मेरा नाम जोड क़र लोग फुसफुसाते थे. वो अलग बात है कि तुम्हारी सगाई वाले दिन मेरा फोनेटिक्स का पेपर था और बिगड ग़या था. मुझे उस दिन की अपनी उदासी प्रीमेन्स्ट्रुअल सिण्ड्रोम से ज्यादा कुछ नहीं लगी थी.

उस दोपहर बात कुछ और थी. उस दोपहर जब मेरा सब कुछ खत्म हो रहा थातुमने सोते में मेरा सर सहलाया था. उसके अगले ही पल मैं एक लम्बे सपने से बाहर, पूरे होश में खडी थी. एकदम अकेलीबिखरी हुई जिन्दगी के साथ. वहां कोई नहीं थाऔर मुझे बाईस साल की उम्र में बिखर चुकी अपनी जिन्दगी को समेटना था. वह घर मेरा नहीं था. उसका भी नहीं था जिसके लिए कर्फ्यू में भी अपना शहर छोड आई थी. यह घर तुम्हारा था. उसे मेरे साथ ही यहां पहुंचना थामगर वह नहीं आया था. मेरे लिए शहर नया था, इस शहर में तुम अपनी पहली नौकरी पर आए थे. यह शरणार्थी - सी दोपहर वही थीजिसकी सुबह तुम अपनी नवेली पत्नी के साथ रसोई में नाश्ता बना रहे थे. मैं लम्बे अरसे से तुम्हें जानने के बावजूद अटपटा महसूस कर रही थी. तुम नितान्त अजनबी लग रहे थे.

उस दोपहर तुम्हारी पत्नी अपनी नौकरी पर चली गई थीतुम्हारा ऑफ था.

रात भर के सफर की थकान, तनाव और दोपहर के खाने के बाद मैं तुम्हारे छोटे से घर के इकलौते बेडरूम में जा लेटी थी. मैं पलंग पर एक किनारे सोई थी पैर समेटे. सर पर पंखा घूम रहा था. कमरे में मोटे परदे डले थे. बहुत असहाय और ठगा हुआ महसूस कर रही थी. आत्महत्या का ख्यालनन बन जाने का ख्याल पता नहींक्या - क्या मन में घर कर रहा था. न जाने कब हल्की नींद के बुलबुले में मैं कैद हो गई थी. उनींदे ही मैं ने स्पर्श की सरसराहट सुनीमेरी भारी पलकें खुलतीं उसके पहले एक हाथ मेरे बालों पर था.

दरअसल पलंग का एक छोर मेरा था दूसरे छोर पर बैठे तुम किताबें पलट रहे थे. तुम्हारे स्पर्शों से बुलबुला फूटा थातुम बालों पर हाथ फेर रहे थे. चेहरे पर कुछ खास भाव नहींमुझे हल्का सा अजीब लगा मगर कुछ गलत नहीं लगा.

“कोई खबर उसकी?” मैं ने स्कर्ट ठीक करते हुए पूरी आंखें खोल कर पूछा.

“.” तुमने सिर हिला दिया था. मैं उठ कर पत्रिका पलटने लगी. कोई मेडिकल जरनल था. मेरी समझ से परेफिर भी पलटती रही. तुम उठकर बाहर चले गए.

बस! इतना ही. वह आखिरी दोपहर थीजब तुमसे मिली.


नियति के खेल समझ नहीं आते. मैं तो सब कुछ ठीक ही छोड क़र आई थी उस दोपहर. मेरे लिए तो, तुम्हारी शादी हो चुकी थीसब कुछ प्यारा और सही था. फिर ऐसा क्या हुआ कि तुम्हारा सब कुछ बिखर गया, तुम अकेले रह गए. तुम्हारे उदास एकान्त ने मुझे कल ट्रेन में पूरी रात जगाया है.

रोष होता रहा था अपनी अभिशप्त कलम पर कि मेरा लिखा तुम्हारे भाग्य की व्यंग्य - छाया बन क्यों बन गया. हाँ , मैं ने देखा है, कई बार अनजाने में अपनी ही कलम से प्रयोग किए गए शब्दों पर मुझे प्र्रायश्चित करना पडा है. गंधर्व या देवपुरूष तक तो ठीक था 'श्राप ग्रस्त ' विशेषण क्यों दिया था? हाँ , उन लिजलिजे भावुक दिनों में मैं ने उस पर लिखी दर्जनों कविताओं के बीच तुम पर भी एक कविता लिखी थी

“उसका और मेरा

एक ही क्षीण सा संबन्ध है

हंसी का झरना

जो तुमसी महानद से होकर

मुझ तक बहता है

जब उसकी और मेरी कल्पना

एक हो जाती है तो

हम दोनों के बीच यह निर्झर

अकसर फूट पडता है

हंसते वक्त उसकी आंखें मुंद जाती हैं

और उसे देख, मेरे नेत्र अप्रतिभ!

इस यांत्रिक युग में

इस सरल, निश्छल, हासरचित युवक को

देखकर लगता है

कोई श्रापगस्त गंधर्व

मृत्युलोक में आ गया है.


वो दोनों भाई ही अकसर कहा करते थे कि तुम एक बेहद खूबसूरत, जहीन मगर सादादिल इंसान हो. गंधर्व या देवपुरूष तुम सच में दिखते थे या उस उम्र की रूमानियत का गाढापन मुझे ऐसा दिखाता था कह नहीं सकती. हल्के रंग की कमीजें और हमेशा घने काले, संवरे बाल. लम्बी, सतर, कलात्मक देह, मजबूत बाँहें. खिली हुई रंगत और मांसल होंठों से विस्तार पाकर आंखों तक फैली मुस्कान. तुम प्राचीन ग्रीक मूर्तिकला की कोई प्रेरणा - से लगते थे. ग्रीक - गॉड!

बस तुम्हारी उपस्थिति ही काफी थी. उसमें ही एक झीना सुख थातुम बिना बोले बोलते थे. तुम और तुम्हारी विद्वता मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती थी कि तुम्हें उस 'ऑरा' की चमक के चलते तुम्हें पूरा एकबार में देख पाऊं. सूरज को कौन देख सकता है एकटक?

हाँ , मैं ने भी तुम्हारे प्रति अपने प्रेम को छुपाया थाक्योंकि एक समय बाद मुझमें तुम्हारी रोशनी की तरफ देखने की इच्छा नहीं बची थी. मेंरा प्रेम जंगली मधुमक्खी की गुनगुन की तरह अंत तक रहस्यमय बना रहा मगर यह गुनगुन गीत मुझे भरमाता रहा ताउम्र. ही लव्स मीही लव्ज मी नॉट करते हुए मेरे हाथों की पीली डेजी क़ी सारी पंखुरियां झर गई थींऔर कुछ पता नहीं चल सका था. उस दोपहर भी गौरैय्यों के झगडालू शोर और पत्तियों की सरसराहट के पीछे मैं ने अपनी सिसकियां छिपा कर रख दी थीं. उसके साथ बीते सात बरस तो मैं ने पूरी तरह भुला दियेलेकिन तुम्हारे साथ बीती वह एक दोपहर कहाँदबी रह गई थी? जो अचानक कहीं से पुराने, पीले पडे एलबम - सी, किसी काले टीन के बक्से में से बाहर निकल आई है. हां, ये मुझसे भी विस्मृत हुए अवशेष साक्षी हैंकि मैं निर्जन तट से बंधी प्रतीक्षारत नाव थी तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा में हिलती डुलती!

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कुछ अलौकिक पलों को दुबारा निराकार तौर पर जीने की आत्मछलना का ही दूसरा नाम है 'स्मृति'. एक स्मृति जिसमें तुम थीं और मैं था, अब हम उस पर फ्रेम लगाने की कोशिश में है. एक सुनहरा फ्रेम. तुम समय को पलटा लाना चाहती हो, बिना मूवी कैमरे की गुस्ताख आंख के. फागुन और चैत के संक्रमण काल की ठण्डी - गर्म हवा अब तक हमारी यादों में बह रही है, जब कि पटरियों के उस पार की जंगली घास दिसम्बर की सुबह के कोहरे में डूबी है. वृक्षों की परछाइयां उनके तनों से चिपकी ठिठुर रही हैं. हम मानो अपने ही सपनों में मंडरा रहे हैं.

मैं आज भी हैरान हूँकि आखिर हम दोनों शुरु कहां से हुए थे कि हमने एक ही दिन में स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना ली, जो आधी रात को बिना सिग्नल हमारी नींद से धडधडा कर गुजरती है और हम चौंक कर जाग उठते हैं. मैं कोई दूरी, दर्द या उपेक्षा नहीं महसूस करता. मैं बस स्मृतियों में फ्रेम लगाने की कोशिश में हूँ. यादों की एलबम बीस साल में पीले पड चुके स्मृतिचित्रों पर कोई सुनहरा फ्रेम.

हैरान तो हूं कि वह सब तुम्हारे मन से भी बुहारा नहीं गयावहीं कहीं कालीन के नीचे सरका दिया गया. हाँ , गर्मी की वह दोपहर खामोश और तटस्थ . उस दोपहर, मैं नि:शब्द और बहुत अकेला था. बस तुम थी. मेरे दिमाग की तत्कालीन सुस्ती के चलते एक किताब, उपेक्षित - सी सिरहाने पडी थी. शिथिल और स्तब्ध वातावरण, आलसी हवा बहुत दम लगा कर पीपल के पत्ते हिला पा रही थी. धूप जितनी घनी थी, छायाएं उतनी गहरी. सपनीली, निंदासी दोपहर थी जिसमें शांति औंधे मुंह लटकी थी. इस शांति में अनायास कोई आवाज भटक कर आ जाती तो संगीत के टुकडे का भ्रम देती थी. मैं माहौल की स्तब्धता में डूबा था.तुम्हारी उपस्थिति और स्तब्धता का कोई मेल नहीं था. तुम हमेशा से बातूनी थीं एक जगह टिक ही नहीं सकती थीं. तुम्हारी ठोढी में गहरा डिंपल था, आंखें चमकीली. कपडे क़ी पसंद में वक्त से कहीं आगेचौडी बेल्ट्स और जीन्स. मैं ने पहली बार अपने हॉस्टल के गेस्टरूम में देखा था, तुम उसके साथ आईं थी. सब लडक़े मुडक़र तुम्हें देख रहे थे. जिस लडक़ी को पॉनीटेल्स में गाते - नाचते देखता आया थावह अचानक बडी हो गई थी. उदास होना सीख गई थी. कभी वक्त था कि मैं तुम्हारी हंसी सुनकर सुख से भर जाया करता थाजब मैं आता था तुम्हारा चेहरा चंपा के फूल की तरह खिल जाता था. तुम मेरे स्टेथस्कोप को देखतीं और जब मैं उसे तुम्हारे नन्हें सीनों के करीब लाता था तो तुम बहुत बारीक मुस्कान के साथ मुंह फेर लेती थीं. कौन जानता था कि अपने भीतर की खलबली को मैं कितनी मुश्किलों से छिपाता थाढेर सारी उदासीनता ओढ क़र. मुझे पता नहीं था कि वह रहस्यनुमा भाव क्या था. मैं अपने मन में धुंधले तौर पर भी यह स्वीकार नहीं कर पाता था कि यह परस्पर प्रेम हैक्योंकि तुम तोउसके.

“ यकीन मानो. उस दोपहर तुम्हारा उत्साह चुका हुआ था. मैं जिसे जानता थाजिसे कहीं भीतर पसंद करता था, वह लडक़ी उदास मुद्रा में मेरी बगल में उधर मुंह करके लेटी थी. ताजा नहाई हुईनम. पैर मोडे, स्क़र्ट को टखनों तक खींच कर ढके. एकदम मेरे बगल में. सांसों की लहरों में हल्के - हल्के तैरती - सी. पंखे की हवा से हिलते पर्दे को छका कर भीतर घुस आए धूप के शैतान टुकडे तुम्हारे गाल और गर्दन की सुनहरी जिल्द पर खेल रहे थे. उसी पल तुम्हारी काली टी शर्ट कमर से थोड़ा उठ गई थीक्यूपिड के धनुष का कोई मांसल चाप बनता हुआ मिट गया था, तुम्हारी करवट में. तुम्हारी स्कर्ट की तरफ देखे बिना ही मैं उत्तेजना महसूस कर रहा था.

मुझे उस दोपहर पाब्लो नेरूदा की कविता 'नेकेड' याद आ गई.

नेकेड, यू आर सिंपल एज ए हैण्ड

स्मूद अर्दी, स्मालट्रांसपेरेन्ट, राउण्ड

यू हैव मून लाइन्स एण्ड एपल पाथ्स

नेकेड यू आर स्लैन्डर एज द व्हीट

नेकेड क्यूबन ब्लू मिडनाइट इज योर कलर

नेकेड आई ट्रेस द स्टार्स एण्ड वाइन्स इन योर हेयर

नेकेड यू आर स्पेशियस एण्ड यलो

एज ए समर्स होलनेस इन गोल्डन चर्च

मैं जानता था तुम सोयी नहीं हो. तुम्हारा मन उदास है. तुम चंपा के मुरझाए फूल की तरह उस दोपहर मेरे पलंग पर पडी थीं. मन किया कि जगा कर बातें करूं या सहला दूं प्यार से. सहलाने का ख्याल कूद कर फेन्स पार कर गयामन किया कि सीधे तुम्हें सीने से लगा कर पूछूं कि इतना उदास क्यों हो? फिर हल्की उत्तेजना तारी होने लगी . एकाएक लगा कि हौले से अपनी तरफ पलटा लूं. एक हल्की आंच में मन से होकर देह की कोर सुलगने लगी मैं तुम्हें छूना चाहता था, पूछना चाहता था, कुछ ऐसा करना चाहता थाजो कि मुझे खुद अस्पष्ट था. मुझे नहीं पता मैं ने तुम्हें छुआ कि नहीं. मेरे ख्याल से उस दोपहर मैं ने तुम्हें नहीं छुआ था. तुम कहती होहल्का सा बालों को छुआ था. जो भी होतुमने अपनी दूध धुली, कुंवारी आंखों से मुझे जरूर पलट कर मुझे देखा थाढेर से सवाल उफन रहे थे वहां. फिर अपनी आंखों को लम्बी-लम्बी बांहों से ढक लिया था. मैं आतंकित हो गया था. शायद अविवाहित लडक़ियां अपनी 'वर्जिनिटी' को लेकर बहुत सजग होती हैं. मैं तुम्हें बिनछुए, प्रेम, मन में कहीं कोने में जल्दी से बुहार कर चुपचाप वहां से उठ गया था. मैं उठा था . मैं ने कॉफी बनाई थी, बेहद मीठी और भूरी. तुम्हारी तरह.


तुम कहती हो तो सच होगा, उठे होंगे मेरे विवश हाथफिर बालों पर ठहर कर उठ आए होंगे.

तुमने कुछ पूछा था बुदबुदा करजिसका उत्तर मेरे पास नहीं था. मैं अनायास चुपचाप तुम्हारे पास से उठ आया था. पसीने की एक बूंद पेशानी से ढलक कर भौंह पर टिक गई थी. दरअसल प्रेम में पडने से ज्यादा चुपचाप और अनायास कुछ नहीं हो सकता और प्रेम को खोने से ज्यादा चुपचाप और अनायास तो कुछ ही नहीं होता है. वह दोपहर, सतत, छिने जाते पल का सुख थी. वह अज्ञेय की कविता की 'सोने की कणी' सा पल था जो अंजलि भर रेत में से धोकर अलग करने की चेष्टा में मुट्ठियों से फिसल कर नदी में जा बहा था.

उस दोपहर में आज की पीडा का भविष्यफल लिये कोई तोता बैठा था जो शर्मिन्दा हो रहा था, अपने उठाए हुए कार्ड पर.उस दोपहर में जो प्रेम, खामोशी और पीडा थी वह जिन्दगी भर अवचेतन में बनी रही. तब सोचा ही नहीं था कि कभी दुबारा मिला तो तुमसे क्या कहूंगा? कल रात भर ट््रेन में बस यही सोच पाया कि कहूंगा_ “हाँ , मैं ही तुम्हारा मौन हूँवह मौन जिसका मोल हमने बीस साल चुकाया है. वह मौन जो हमारे दिलों में सुषुप्त रह कर भी, सांस लेता रहा, बंसी में बजती, विलम्बित राग भैरवी - सा.

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मैं उस गर्म दोपहर में झुलसी कामना की एक अस्पष्ट संकोची चाह हूं. पृथ्वी पर तुम्हारी अभिशप्त उपस्थिति का एक अवशेष चिन्ह, अकुला कर यक्ष द्वारा उकेरा गया एक स्वप्न चित्र!

मैं तुम्हारा बिन गुनगुनाया लम्बा विरह गीत हूं. मैं धूल में खोई एक स्वर्ण दोपहर!

हम मिले सत्य और मिथक की तरह. एक परी - कथा के फटे पन्ने परजहाँस्लीपिंग ब्यूटी को नींद में चूमने कभी कोई राजकुमार नहीं आ सका थाजहांबारह बजने पर सिण्ड्रेला रॉयल बॉल से भाग भी नहीं पाई थी कि जादू टूट गया था. हमने चेहरा उठा कर एक दूसरे को देखा नमी दोनों तरफ थी. हमने हमेशा खुद को संयत रखा है मगर अब इस पल नहीं. प्रकृति की पहेली को सुलझाए बिना निजात कहां थी? परोक्षत: हम बस यही महसूस कर रहे थे कि जो कुछ, कभी उनके बीच घटा था वह असामान्य - सा था. क्या वह 'असामान्य', प्रेम था? प्रेम न सही कुछ तो था, जो बना रहा नेपथ्य में भी सजग. पराजित होकर भी जीता हुआ सा.

एक छोटे शहर का स्टेशन. आस - पास अजनबी लोग. हमने दोनों ही ने रिटायरिंग रूम में पहुंच कर गहरी सांस ली. एकबारगी एक - दूसरे को देखकर नजरें घुमा लीं. वक्त ने दोनों ही को थोड़ा तो बदल ही दिया थाफिर भी बहुत ऐसा था जो वही था. वैसा का वैसा ही. सवाल होंठों में से, आंखों की कोर से झांक रहे थे. सवालों पर बात आती कैसे? अगर हर सवालों के जवाब होते और अगर सब कुछ कहा जा सकता कह - कहा कर तो कोई आंख किसी आंख में फिर कभी झांकती? आत्माएंजिस्मों से मुक्त होतीं और पसलियों के नीचे छिपे मांसल पिण्ड में प्यार छिपा रह पाता तो मिलने के पूर्ण सुख के लिए लगातार मन मीठे दर्द से पका न रहता.


हम आमने - सामने बैठे थेचुप करीब और करीबतर, जब तक कि हमारे मोमपंख सत्य से टकरा कर आग ही न हो गए. तब हमारी आत्माएं मजबूत और सीधी खडी हुईं. उस दोपहर को डीकोड करने की जरूरत एकदम आ पडी है. हम दोनों ही जानना चाह रहे थे.

यह अहसास तो हमें आज भी है कि उस दोपहर पर कोई अव्यक्त, अदृश्य, अस्पृश्यप्रकंपित छाया मंडरा रही थी. जिसे हम समझ ही नहीं सके आज तक. अब डीकोड होना था उस दोपहर को.

दोनों के मन बुरी तरह धडक़ रहे थे मानो कि किसी धूमकेतु के बरसों बाद लौट आने की सी कोई खगोलीय परिघटना होने को थी.

मैं फुसफुसाई_ “स्वीट आफ्टरनून लव, स्वीट ब्राउन लव, टेण्डर - पेशनेट लव, स्पीचलैस लव.”

वह गुनगुनाया _ 'लव इन आफ्टरनून' तो आण्ड्रे हैपबर्न और गैरी कूपर की फिल्म थी.

“मगर ये पंक्तियां तो मिल्स एण्ड बून सीरीज क़े एक नॉवल 'लवर्स इन द आफ्टरनून' की हैं.

“हां उस फिल्म में एक डायलॉग था _ लव इज ए गेम एनी नंबर केन प्ले स्पेशली इन आफ्टरनून.”

“एक बार मैं आपके घर आई थीठहरी थी दोपहर भर.”

“.”

“ याद नहीं?”

“याद है. तुमने गहरी नीली डेनिम की स्कर्ट पहनी थीकाला टॉप!

“इतना तो मुझे याद नहीं.यह याद है कि आपकी नई शादी हुई थीनाश्ते के वक्त डायनिंग टेबल पर, खिडक़ी में लगे बुलबुल के घोंसले को लेकर आप अपनी बीवी से बहस कर रहे थे.वह घोंसला वह हटा देना चाहती थी और आप उसे सहेजना चाहते थेउसमें अन्डे थे.”

“ यह मुझे याद नहीं. यह याद है कि उस दोपहर मेरा ऑफ था.”

“ .”

“ तुम थक कर गहरी नींद सो रही थीं.”

“ गहरी नींद तो नहीं सो रही थी मुझे याद है आपने मेरे बालों में हाथ फेरा था. ममता से.”

“.”

“ क्या हुआ?”

“ ऐसा किया था मैं ने?” वह हैरान था कि शर्मिन्दा? समझ नहीं आया.फिर एक चुप्पी बनी रही हमारे बीच.


“वह दोपहर तुम्हें खूब याद रही.” वह चुप्पी तोडने को हंसाएक हारी हुई, कमज़ोर हंसी.

“आपको नहीं रही?”

“ बखूबी.”

“ क्या सच में, ऐसा हुआ था कि मैंने तुम्हारे बाल या चेहरा छुआ था?”

“ हाँ . इसमें हैरान होने की बात क्या है तरस आ रहा था आपको.”

“ तरस! तरस नहींकामना थी वह.” उसकी आवाज बहुत धीमी थी, मगर शब्द तराशे हुएअलग - अलग.

“.”

“ मुझे लगा कि शायद तुम भी.”

“इतनी हताशा और उदासी में कोई कामना कैसे जाग सकती है?”

“फेरोमोन्स. प्रकृतिहताशा और उदासी में देह इन्हें ज्यादा स्त्रवित करती है.”

हम दोनों ने अपने मन पर टंगी उस जुडवां और एक ही पैटर्न की पेन्टिंग का सेलोफैन पेपर हटाया. कामना के शोख रंगों के गहरे स्ट्रोक वहाँथे. हाँ , यह सच था. यही सच उस दोपहर को चमकाता रहा. बनी रही थी, मन के तहखानों में कोई प्रेतकामना.


“और?”

“और क्या?”

“कुछ सुनाओ.”

“ तुम सुनाओ मैं तो सब ठीक ही छोड क़र आई थी फिर उस रोज तुम्हारी पत्नी के साथ तुम्हारी शादी के एलबम देखे थे. एक फोटो में तुम एक पटे पर पजामे और बनियान में बैठे थेमुस्कुराते हुए रस्म की हल्दी से पीले और बेहद - बेहद खुश.” एक की आंख भर आई थीएक विवश खिडक़ी के पार देखता रहा.

“मैं ने क्यों लिखी थी यह कविता?” एक काली - डायरी हम दोनों के घुटनों के बीच टिकी रही. उसका पीला पन्ना फडफ़डाता रहा, दस अगस्त उन्नीस सौ सतासी.

“बुध्दू, श्रापग्रस्त न होता तो कोई गंधर्व पृथ्वी पर कैसे आता?” हम दोनों हंस दिए.

“...”

“तुमने यह कविता मुझे पहले क्यो नहीं दिखाई? मुझे तुम्हारे चेहरे से यह सब कभी लगा ही नहीं कि. बस इतना लगा कि तुम मेरे आने से खुश होती थीं.”

“ हाँ .मैं ने तुम्हें सदा पराजित भाव से चाहा था खोते चले जाते हुए देखने को स्वीकार करते हुए.”

“मैं सोचता थावह तुम्हारे जीवन में है.”

“हाँ , वह अभिव्यक्त करना जानता था.”

“तुम भी तो बातूनी थी.”

“जिस दिन मैं ने कुछ महसूस किया था, उसी दिन आपकी सगाई हो रही थी.”

“व्हाट एन आयरनी.” उसकी छल - छल हंसी के तलछट में जमी उदासी ऊपर तैर गई.

हम बहुत देर चाय के साथ मौन के घूंट पीते रहे. बाहर स्टेशन का शोर हम तक पहुंचना बन्द हो गया था. हमारे मन एक दूसरे में मगन कोई नि:शब्द रूमानी खेल खेल रहे थे, हालांकि हमारे दिमाग इस खेल को वहीं खत्म करने की चेतावनी बार - बार दे रहे थे, लेकिन न जाने कैसा प्रलोभन था कि हाथ आई बाज़ी हममें से कोई खाली नहीं जाने देना चाहता था. रिटायरिंग रूम की हर दूसरी चीज, प्रक़ाश, लोगों की फिसलती नजरें, बाहर का शोर सब हमारे लिए निराकार झुटपुटे में बदल गया था. हम ऐसी तन्द्रा में थे कि हमें न कुछ सुनाई दे रहा था, न दिखाई.

“यह बहुत ट्रेजिक है”

“क्या?”

“किसी को खोते हुए देखनाजिसे तुम प्यार करते हो. भीषण दुखांतिका तो तब है जब उसे पता ही न हो कि तुम उसे प्यार करते हो. जबकि इस दुष्ट दुनिया में जहाँ प्रेम बमुश्किल मिलता हो.”

“ऐसा नहीं है, बातों के बीच की चुप्पियों में, हंसी में टूट कर अनसुनी रह गई कराहों में मैं ने इसे पाया है.”

“फिर भी वो सरल और सार्वकालिक तीन शब्दकभी फेल नहीं होते प्रेम को अभिव्यक्त करने में.”

“ वही एक बात, जो हरेक ने बहुत बार कही - सुनी है इस संसार में.क्या हुआ जो हमारे बीच हर बार कही जाने से छूट गई. तुम्हारे जिक़्र में एक खुश्बू हमेशा रही है.”

मैंने अपने पैर स्टूल पर फैला दिएउसने उन्हें थामते हुए कहा.

“लाओ, तुम्हारे पैर दबा दू?”

“क्यों ?”

“दुख रहे होंगे.”

“तुम्हें कैसे पता?”

“पिछले बीस सालों तुम भी तो बेतहाशा भागी हो. अपने सपनों के पीछे”

हम स्मृतियों के बीहड क़े आर - पार खडे थेबीच में दिसम्बर की सुबह का कोहरा था और हम अपने - अपने हाथों में उस दोपहर का सुनहरा प्रवेश पत्र लिये खडे थे. रिटायरिंग रूम में कोहरे को धोखा देकर हल्की धूप चली आई थी, हमने वहां लगी घडी क़ो गौर से देखा मन की सतह पर असमंजस गाढा - गाढा जमा था. अभी जाना ही कितना है, अभी देखा ही क्या है? बस उतना ही तो जो सतह पर तैरता है या जो परछांइयों पर ठहरता है. जो परछांइयों में घुला होता है वह देखा? और वह जो उस दोपहर हम दोनों के देखने से चूक गया?