गंध, खुशबू और बदबू / कुबेर

Gadya Kosh से
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प्रात: के लगभग दस बजे थे। सड़कों पर सामान्य जिंदगी दौड़ने लगी थी। हाइवे के एक चौराहे पर मैं किसी की प्रतीक्षा में खड़ा था। पास ही चाय-भजिया की एक गुमटी थी। गुमटी का मालिक स्वयं चाय बनाने, भजिया तलने और साथ ही ग्राहकों को सर्व करने में व्यस्त था। यह उसके धंधे का समय था। एक महिला जो साफ-सुथरा कपड़े पहनी हुई थी और इतनी तो जरूर आकर्षक लग रही थी कि ग्राहकों का ध्यान पहली नजर में ही आकर्षित कर ले, एक कोने में उकड़ू बैठ कर मिर्च और प्याज काटने में तल्लीन थी। वह अपने काम में हद दर्जे तक निपुण लग रही थी। उनका पूरा ध्यान ग्राहकों पर था कि किसको क्या चाहिये, किससे कितना पैसा लेना है और यह भी कि कोई बिना पैसे दिए खिसक तो नहीं रहा है। प्याज की तीखी गंध की वजह से नाक के रास्ते बह कर आने वाले आँसू को वह बार-बार सुड़क भी रही थी। दस-ग्यारह साल की एक लड़की, जो अपेक्षाकृत छोटी साइज की मैली-सी फ्राक पहनी हुई थी, संभवतः जो किसी रईसजादी की उतरन हो, और इतनी तंग थी कि इस उम्र में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों को छिपा रखने में बिलकुल ही असमर्थ लग रही थी, जूठी प्लेटें और गिलास उठाने तथा धोने में व्यस्त थी। गुमटी के पीछे से शहर भर की गंदगी को समेट कर ढोने वाली नाली बह रही थी जिसके किनारे-किनारे कई तरह की और भी गुमटियाँ बनी हुई थी।

वह शहर की परिधि से लगा हुआ इलाका था।

हाइवे पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों के इंजनों से निकलने वाली इंधन के धुएँ की गंध, होटल की कड़ाही में जलते हुए तेल और मसालों की खुशबू तथा नाले में बह रहे गंदे पानी से उठने वाली बदबू के भभोके, तीनों के सम्मिश्रण से एक अजीब तरह का दमघोंटू वातावरण बन रहा था। धूल का गुबार अलग से आँखों में जलन पैदा कर रहा था। वैसे यहां हर किसी की आँखें किसी न किसी वजह से जल रही होती है और दिल गुंगवा रहा होता है।

हमें न तो धूल दिखता है और न ही धुआँ। गंध, खुशबू और बदबू में फर्क करना तो हम कब का भूल चुके हैं। हमारी घ्राणेन्द्रियाँ बड़ी घटिया किस्म की होती जा रही हैं। हम बड़े साधारण लोग जो ठहरे। लेकिन हमारे एक प्रोफेसर मित्र हैं। उन्हें सब कुछ दिखता है। उनकी घ्राणेन्द्रि और अन्य इन्द्रियाँ एकदम उच्च गुणवत्ता वाली हैं। वे अंतर्दृष्टि, दिव्यदृष्टि और दूरदृष्टि संपन्न सिद्ध पुरूष हैं। अपनी इन्हीं दृष्टियों के बल पर वे वर्तमान, भूत और भविष्य सब ओर ताक-झांक कर लेते हैं। पड़ोसी और पर-पड़ोसी ही नहीं पूरे मुहल्ले की खबर रखते हैं। लोग इन्हें ’अधजले जी’ के नाम से जानते हैं।

अधजले जी की बड़ी विचित्र माया है। उनकी डॉक्टर बनने की बड़ी इच्छा थी। डॉ. टंगियानी, एम.बी.बी.एस.; एम.डी.; डी.सी.एच.; एस.एस.पी.डब्ल्यू उनके आदर्श थे। डॉ. टंगियानी जी की इस लंबी-चौड़ी डिग्री में डी.सी.एच. तक की उपाधि तो सबके समझ में आती थी परंतु आगे की उपलब्धि एस.एस.पी.डब्ल्यू किसी की समझ में न आती थी। उनके डॉ. मित्रों के लिए भी यह एक रहस्यमय उपाधि थी। इस उपाधि के संभवतः वे शहर ही नहीं, दुनिया भर में अकेले धारक होंगे और इसी के बल पर आज उनके पास क्या नहीं है?

विद्यार्थी जीवन में हमारे अधजले जी बड़े मेघावी थे। उनकी वह मेधा आज भी बरकरार है और इसी के बल पर वे एक दिन एस.एस.पी.डब्ल्यू. का रहस्य हल करने में कामयाब भी हो गए। तुरंत वे डॉ. टंगियानी जी के क्लीनिक गए और चुपके से उनके कान में यह रहस्य उगल आए। सुनकर डॉ. टंगियानी की टांगों की हालत, जो पहले अकड़ी-अकड़ी रहती थी, पतली होने लगी और वे अधजले जी के मुरीद हो गए।

फिर तो अधजले जी के मुँह में जब भी एस.एस.पी.डब्ल्यू की उबकाई आती, वे तुरंत डॉ. अंगियानी जी के कानों में इसे उलट आते हैं।

बहुत मान-मनौवल और पूजा आरती के बाद एक दिन इस चेतावनी के साथ कि इस रहस्य को अन्यंत्र प्रकट करने का अंजाम बहुत ही बुरा होगा, उन्होंने मुझे एस.एस.पी.डब्ल्यू. का अर्थ बताया, ’सीधा स्वर्ग पहुंचाने वाला’।

अधजले जी का असली नाम लोग भूल चुके हैं। उसके इस निकनेम के अस्तित्व में आने की भी बड़ी दुखद कहानी है। बकौल उनके, पी.एम.टी. की परीक्षा में उनकी मेधा की, आरक्षण के गोबर दास ने हत्या कर दी और वहीं दफना कर कब्र के ऊपर लीपा-पोती भी कर दी। जितने भी ऐसे-वैसे थे सब डॉक्टर बन गए। इसी विरह में हमारे ये साहब दिन-रात अपनी आँखें और दिल जला-जला कर अधजले जी हो गए हैं। कबीर दास ने यह पद जैसे इनके लिए ही लिखी हो -” मैं बिरही ऐसे जली कि कोयला भई न राख।”

अधजले जी भी अपनी सनक के पक्के हैं। किसी भी हालत में डॉक्टर बनना उनकी सनक है, अतः अब वे डॉक्टर बनने के अहिंसक रास्ते अर्थात् साहित्य के रास्ते पर चल पड़े हैं। दिन-रात वे शोध कार्य में जुटे रहते हैं। उनके शोध का विषय है - “कवि प्रवर धुंधुआये जी के भविष्यकालीन काव्य में, धूप, धूल और धुएँ का भूत, भविष्य और वर्तमान के गंध, खुशबू और बदबू के साथ अंतर्संम्बंधों का मानव सभ्यता के उत्थान-पतन में योगदान: एक अनुशीलन।”

स्नातकांत्तर के बाद अधजले जी दस वर्ष अपने गुंगुवाते हुए दिल की जलन को कम करने में खर्च कर डाले। दस वर्ष यह तय करने में बिता दिए कि उनके शोध के स्तर का साहित्यकार कौन हो सकता है। फिर दस वर्ष यह तय करने में लगा दिए कि उनके शोध का शीर्षक क्या हो ? डॉ. टंगियानी जी की उपाधि से उन्हें अपने शोध का शीर्षक चयन करने में बड़ी सहायता और प्रेरणा मिली। अब वे विगत दस वर्षों से दिन-रात अपने शोध कार्य में डूब-उतरा रहे हैं। जब से मैं उनके संपर्क में आया हूं , मुझे भी डॉक्टर बनने का कीड़ा काटने लगा है। अधजले जी मेरे लिये भी किसी विश्व कवि का चयन करने में लगे हुए हैं जिनके व्य क्तित्वज और कृतित्व पर मुझे शोध करना होगा।

शोध जैसे जनहितकारी कार्य पर चिंतन करने के लिए हाइवे के इस चौराहे का वातावरण अधजले जी को खूब भाता है। वे रोज सुबह-शाम इसी गुमटी के पास हाइवे पर बने रपटे की जगत पर चाय की चुस्कियाँ लेते घंटों बैठे रहते हैं।

मैं उनका शागिर्द जो ठहरा। मुझे अधजले जी की ही प्रतीक्षा थी।

मेरे खाली दिमाग में अधजले जी के व्यंक्त्तिव व कृतित्व के क्रांतिकारी विचारों की धमाचौकड़ी मची हुई थी, तभी किसी के संबोधन से मेरा ध्यान टूटा। पच्चीस-तीस साल का एक आदमी, जिसे युवक कहने में मुझे आत्मग्लानि हो रही थी, सामने खड़ा था और कुछ अस्पष्ट से शब्द मेरी ओर उछाल रहा था। मेरा अनुमान सही था, वह मुझे ही संबोधित कर रहा था। पता नहीं, आत्मिक शक्तिक्षीणता या शारीरिक कमजोरी के कारण, उनकी आवाज होठों तक आते-आते कहीं गुम हो जा रही थी। शायद आत्महीनता से। मुझे लगा कि उनके अंदर की यह आत्महीनता उन लोगों को देख-देख कर पैदा हुई होगी जिनके पास करने को कुछ काम चाहे न हों पर होटलों-ढाबों और बाजारों की सजी-धजी दुकानों में खर्च करने के लिए ढेर सारे पैसे होते हैं।

इस देश में शायद भूख से उतने लोग नहीं मरते जितनी आत्महीनता से मरते हैं। हर आम आदमी किसी न किसी हीनता का शिकार है। स्वाभिमान का मुखौटा लगाकर यह और भी खतरनाक हो जाता है। यही हीनताजन्य-स्वाभिमान यहाँ के आम लोगों की राष्ट्रीय बीमारी है। नेताओं और धर्माचार्यों द्वारा परोसी जा रही भाषण, आश्वासन और प्रवचन रूपी साग-भाजी खा-खा कर सारा देश आत्महीनता के दलदल में धँसता चला जा रहा है। हमारी महान सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक परंपरा इसी आत्महीनता के बोझ से दब कर छटपटाये जा रही है।

यहाँ आम व्यक्ति चाहे आत्महीनता से मरे या आत्मग्लानि से, अधिकारियों, व्यापारियों और नेताओं को यह रोग कभी नहीं व्यापता।

मैंने उस व्यक्ति को ऊपर से नीचे तक देखा। वह भी छटपटाता नजर आया। आत्महीनता के बोझ से दब कर झुका हुआ उसका सिर मुझे देश का सिर लग रहा था। भ्रष्ट्राचार के दमघोंटू वातावरण में जैसे उसका दम घुटा जा रहा था। उसके शरीर की हड्डियाँ उभरी हुई और पेट पिचका हुआ था। देश का भाग्य निर्माता सड़कांे पर भूखा मारा-मारा फिर रहा था। उसके इस हुलिये ने मुझे डरा दिया। डरा हुआ आदमी साहसी होने का दिखावा करता है। मैंने भी साहस बटोरकर उसे झिड़का - “क्या बात है?”

अपनी आत्महीनता को पछाड़ते हुए उसने दो टूक कहा - “चाय पीना है, एक रूपिया चाहिए।”

उनकी बेबाकी और बेबसी पर मुझे रोना आया। पर उसकी ईमानदारी का मैं कायल हो गया। चाय यहाँ एक रूपय में ही बिकती है। एकबारगी इच्छा हुई, दहाड़ें मार कर रोऊँ। पर किस बात पर? देश की युवा-पीढ़ी की अकर्मण्यता पर, देश की शिक्षा प्रणाली पर, सरकार की नीतियों पर या बढ़ती हुई भूखमरी और बेकारी पर।

फिर विचार आया, यहाँ पर लोग केवल मगरमच्छी आँसू बहाते हैं। दहाड़ें मार कर रोना हमारे राष्ट्रीय चरित्र के विरूद्ध है। क्यों न इसी मुद्दे पर सामने वाले को बढ़िया सा एक भाषण पिला दूँ। कहूँ - “चाय पियो, न पियो; पहले यह भाषण ही पी लो। पचपन साल से भाषण पी-पी कर पेट भरने वाले विचित्र प्राणी, चाय पीने की बात तुझे आज सूझी? इतनी हिम्मत तुझमें कहाँ से आई? आँख, कान, नाक सभी सलामत है, देश में फैल रही धूल, धुएँ और बदबू के प्रदूषण को सूंघ-सूंघ कर आत्मसंतुष्टि पाने वाले मूरख, अपनी महान परंपरा का निर्वाह क्यों नहीं करता? वादों, नारों और आश्वासनों की खुराक पर जिंदा रहने वाले, अब इससे पेट न भरता हो तो हाथ पैर तुम्हारे सलामत है, काम क्यों नहीं करता ? मांगते हुए शर्म नहीं आती? कबीर दास ने क्या कहा है, सुना नही; ’मांगन मरन एक समाना’। मांगना है तो सरकार से मांग। रोटी मांग, कपड़ा मांग, मकान मांग, काम मांग, पद मांग, कुर्सी मांग, विधान सभा और संसद मांग। अरे कुछ तो मांग। मांगने से न मिले तो छीन कर हासिल कर” आदि, आदि.......।

मुझे पक्का विश्वास था कि मेरे भाषण शुरू करते ही वह चुपचाप खिसक जायेगा और मेरा एक रूपिया बच जायेगा। अपने इस तरकीब पर मुझे गर्व हुआ। भाषण शुरू करने जा ही रहा था कि अंर्तआत्मा से आवाज आई, यदि सामने वाला जरूरत से ज्यादा सहनशील और चालाक निकला और कहे - ’जनाब ! काम से डरता कौन है? दीजिये न काम। इसी की तो मुझे तलाश है’ तब तेरी क्या इज्जत रह जायेगी। क्या यह तेरे गाल पर तमाचा नहीं होगा?

इस तमाचे के लिए मैं तैयार नहीं था। अब मेरे विचार और व्यवहार एकदम सरकारी हो गए। सरकारी दिमाग बड़ा असरकारी होता है। ऐसे ही तमाचों से बचने के लिए सरकार कभी रोजगार दफ्तर, कभी नौकरियों का विज्ञापन और कभी बेरोजगारी भत्ते का झुनझुना दिखाती है।

मेरी अंर्तआत्मा भय से कांपने लगी। इस कल्पना से कि कहीं सामने वाला यह व्यक्ति अधिकार प्राप्त करने की मेरेे ही बताये तरकीब का (यद्यपि अभी तक मैंने उसे कुछ भी नहीं बताया था।) मेरे ऊपर ही प्रयोग न कर दे। मुझे अपना जेब कंटता हुआ और हाथ का थैला छिनता हुआ महसूस हुआ।

मैंने कांपते हाथों से एक रूपय का सिक्का निकाल कर चुपचापसे बचा लिया। उसे भाषण पिलाने की अपेक्षा यह रास्ता मुझे अधिक निरापद लगा।

वह युवक पैसे लेकर तेजी से भीड़ में कहीं विलीन हो गया। न तो उसने धन्यवाद के कोई शब्द कहा और न ही उसके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव ही थे। मानों उसने अपना अधिकार छीन कर हासिल कर लिया हो।

क्या अधिकार छीनने की प्रक्रिया की शुरूआत ऐसे ही होगी?