गठरी / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह उसे प्लेटफॉर्म पर मिली। अपने सामान की गठरी संभाले, सकुचाई-सी वह अपनी गाड़ी का इंतजार कर रही थी। ये बात अलग थी कि उसे कहाँ जाना है उसे खुद ही नहीं पता था।

वह वहीं बैठ गयी गठरी को नवजात शिशु की तरह सीने से चिपकाये हुए.

पूरा प्लेटफॉर्म भीड़ से अटा पड़ा था। लेकिन उसे सब अजनबी ही लगते थे कोई भी चेहरा देख ऐसा नहीं लगा जो अपना-सा हो।

तभी उसके ठीक बगल में एक नौजवान आकर बैठ गया। सिगरेट पर सिगरेट फूंकते उस लड़के को देख पलभर में उसने सोच लिया। बहुत जल्दी मरेगा ये, देखो तो कैसे फूंकता है जिगर को। वह हर सिगरेट आधी ही पीता था आधी लापरवाही से फेंकता जाता था।

वह न जाने क्या सोच कर उसके पास आकर बैठ गया और बार-बार मोबाइल में कुछ लिखता जाता था। कभी टाइम देखता था। मतलब बड़ा ही बेचैन-सा दिखता था वह।

वह उसे बड़े गौर से देख रही थी। उसने देखा, अब उसका गला सूखने लगा था। उसके सूखे होंठ देख, अपनी गठरी में से पानी की बोतल निकाली और उसकी ओर बढ़ा दी।

अब उस लड़के ने पहली बार उस गठरी वाली औरत को देखा और हैरानी से मुस्काया। शायद ये सोचकर कि इसे कैसे पता मेरा गला सूख रहा है?

उसने ध्यान से देखा बैग और पर्स के जमाने में ये गठरी क्यों लिए हुए है। चेहरे से तो पढ़ी-लिखी जान पड़ती है।

आखिर संकोच छोड़ वह बोल पड़ा "क्या है इसमें और इसे सीने से क्यों चिपकाये हुए हो?"

जवाब में वह चुप हो गयी।

इस गठरी को यहाँ रख दो क्यों बोझ उठाना? उसने पानी के बदले हमदर्दी दिखाई.

"मैं ठीक हूं"

"लेकिन इसमें है क्या ऐसा?"

"कुछ नहीं खास।"

"देखो मुझे बताओ इसमें क्या है ऐसा।"

उसे अब जानना ही था उस गठरी के रहस्य को। ये फिक्शन राइटर होना भी मुसीबत ही है। क्यों सोच रहा हूँ इस अजीब-सी औरत के बारे में वह मन ही मन बड़बड़ाया।

उसने बातें शुरू कीं, ज़रा देर में उस बातूनी लड़के ने उस गठरी वाली औरत के मन की सभी गांठें खोलनी शुरू कर दीं।

उस लड़के ने कहा-"देखो हर गांठ या गठरी हमेशा खुलने के इंतजार में रहती है। इस गठरी को खोल क्यों नहीं देतीं? खोलकर फिर चाहे तो बांध देना लेकिन एक बार खोलो तो सही।" वह गजब का जिज्ञासु था।

उसे वह लड़का भला आदमी लगा और उसने धीरे-धीरे एक-एक करके गठरी की गांठें खोलनी शुरू कीं।

साथ में वह भी उसकी मदद कर रहा था।

थोड़ी-सी देर में उसकी गठरी खुल गयी। खुलते ही जन्मों के सोये अहसास, पीड़ाएँ बिखरने लगीं। पलभर में भाव तितलियाँ बनके इधर-उधर उड़ गए. उसके पास अनगिनत खत थे जिन्हें उसने कभी पोस्ट नहीं किया था। वे सब यहां-वहाँ बिखर गए. पलभर में उसकी छोटी-सी गठरी समंदर जैसी फैल गयी थी जिसे अब समेटना असम्भव था।

वह उड़ते हुए अहसासों को देख रही थी। बिखरते खतों को पकड़ रही थी। उसकी सभी पीड़ाएँ भीड़ के पैरों के नीचे कुचल गयी थीं। उसका प्रेम उड़ कर रेल की पटरी पर चिपक गया था।

उसने जल्दी-जल्दी अपनी गठरी को फिर से बांधने का प्रयास किया, लेकिन सब बुरी तरह बिखर चुका था। कितने बरसों से उसने एक-एक चीज को तह करके जमाया था। प्रेम को सबसे नीचे दबाया था, उस पर पीड़ा और दर्द रख छोड़ा था।

आस-पास कोमल अहसास और खत भर दिए थे और फिर तरीके से इस मन की गठरी पर सौ गांठें लगायी थीं।

क्यों किसी अजनबी के कहने पर उसने इस गठरी को खोल दिया।

(वह मन ही मन खुद पर नाराज हो गयी और बडबड़ाई)

तभी रेल की आवाज आई सभी यात्री बदहवास से यहां-वहाँ भागने लगे।

वह लड़का भागते हुए बोला-"यार मेरी ट्रेन आ गयी मुझे जाना होगा।"

वह ठहर गयी उसी प्लेटफॉर्म पर और आज तक गठरी नहीं बांध पायी।

(प्लेटफॉर्म से)