गद्य प्रबन्ध के प्रकार / रामचन्द्र शुक्ल

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भाषा अपनी शक्तियों का व्यवस्थित रूप में विकास गद्य ही में करती है। एक ओर तो संसार के सारे व्यवहार गद्य द्वारा चलते हैं, दूसरी ओर गूढ़ और जटिल विचारों को व्यक्त करने का उपयुक्त साधन भी गद्य ही है। बातों का बोध कराने के अतिरिक्त हृदय के हर्ष, विषाद, प्रेम, करुणा इत्यादि भावों की व्यंजना के लिए भी गद्य का प्रयोग कम नहीं होता। इस प्रकार गद्य का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। प्रयोग का क्षेत्र इतना विस्तृत होने के कारण गद्य प्रबन्ध कई प्रकार के होते हैं जैसे-वर्णनात्मक, विचारात्मक, कथात्मक, भावात्मक इत्यादि। सबके लक्ष्य भिन्नभिन्न होने से उनकी भाषा के स्वरूप में भी भेद दिखाई पड़ता है। यह भेद स्थूल रूप में यों समझा जा सकता है-

वर्णनात्मक प्रबन्ध

वर्णनात्मक प्रबन्ध का लक्ष्य होता है पाठक की कल्पना को जगाकर उसके सामने कुछ वस्तुएँ या व्यापार मूर्त रूप में लाना। वस्तुओं या व्यापारों को अन्तर्दृष्टि के सामने लाने के उद्देश्य हो सकते हैं-

1. उनके सम्बन्ध में पूरा बोध या जानकारी कराना।

2. उनके प्रति आनन्द, विस्मय, भय, करुणा, प्रेम इत्यादि भाव जगाना।

पहला उद्देश्य कहीं तो बिलकुल व्यावहारिक होता है, जैसे-यदि किसी ने पुतलीघर नहीं देखा है तो उससे इसकी इमारतों, कलपुरजों, मजदूरों तथा और और वस्तुओं और व्यापारों का ऐसे ब्योंरे के साथ वर्णन करना कि उसे उसकी अच्छी जानकारी हो जाय। ऐसे वर्णन जहाँ तक जिज्ञासा की निवृत्ति मात्र करते हैं वहाँ तक व्यावहारिक ही समझे जाते हैं। पर इस प्रकार के वर्णन जब ऐसे ब्योंरे सामने लाएँ जो जानकारी की दृष्टि से फालतू, अनुपयोगी या अप्रयोजनीय हों पर जिनसे पढ़नेवालों का मनोरंजन हो तो लेखक को व्यवहार पक्ष पर न समझकर कला पक्ष पर समझना चाहिए। जैसे किसी स्टेशन या मेले के वर्णन में लोगों की दौड़ धूप, सौदा बेचनेवालों की तरह तरह की बोलियों, लोगों के दबने, गिरने पड़ने, बच्चों के रोने चिल्लाने इत्यादि के दृश्य उपस्थित किए जायँ तो लेखक का लक्ष्य अनुरंजन समझना चाहिए। ऐसे वर्णनों में स्पष्ट ब्योरे के साथ पूरा दृश्य उपस्थित करने का प्रयत्न दिखाई पड़ेगा। वाक्य कुछ छोटे होंगे; भाषा अधिकतर चलती और सुबोध होगी।

जिन वर्णनों का उद्देश्य आनन्द, विस्मय, करुणा, भय इत्यादि का रसात्मक संचार होगा वे ऐसे ही ब्योरे सामने लाएँगे जो उक्त भावों को जगाने में समर्थ हों। आनन्द का संचार शोभा की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों से; विस्मय का विभूति ऐश्वर्य, भव्यता इत्यादि की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों से; भय की भीषणता, कठोरता, उग्रता, प्रचंडता की भावना करनेवाले दृश्यों से; करुणा या दया का दूसरों के दु:ख पीड़ा इत्यादि की भावना करनेवाले दृश्यों से। भावों के भेद से भाषा की रंगत में भी भेद हो जाता है। शोभा सौन्दर्य की भावना उत्पन्न करनेवाले दृश्यों के वर्णन की भाषा में मधुर, कोमल वर्ण युक्त संस्कृत शब्दों तथा समस्त पदों की अधिकता देखने में आयगी। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि अलंकारों का प्रयोग भी स्थान स्थान पर मिलेगा। तात्पर्य यह कि लेखक शब्दों की सजावट का ध्यांन रखेंगा; जगह जगह भाषा को रंगीन और अलंकृत करने का प्रयत्न करेगा, विभूतियाँ, ऐश्वर्य चित्रिात करनेवाली भाषा भी प्राय: इसी ढंग की होती हैं। विशालता और भव्यता के चित्रण में कुछ गम्भीर और भड़कीले शब्द प्राय: मिलेंगे। भीषण, कठोर और उग्र दृश्य के वर्णन में 'प्रचंड र्मात्तांड' ऐसे कठोर और कर्कश वर्णवाले शब्द लाने का प्रयत्न लक्षित होगा। करुण दृश्यों में मार्मिक सरल वेदना प्रकट करनेवाले शब्द अधिक काम देते हैं। इसी प्रकार और समझना चाहिए। भाव जगानेवाले प्रबन्धों के लेखकों का लक्ष्य यह होता है कि वर्णित दृश्यों से जिस भाव का अनुभव वे कर रहे हैं उसी भाव का अनुभव पाठक भी करें।

विचारात्मक निबन्ध

विचारात्मक निबन्धों में लेखक इस बात का प्रयत्न करता है कि किसी विषय में जो विचार या सिध्दान्त उसके हैं वे ही विचार या सिध्दान्त पाठक के भी हो जायँ। इसके लिए आवश्यक यह होता है कि सब बातें बड़ी स्पष्टता के साथ रखी जायँ। विचारों की ऋंखला उखडी न हो। सब विचार एक दूसरे से सम्बध्द हों। शब्द और वाक्य नपे तुले हों, अनावश्यक और फालतू शब्दों और वाक्यों के बीच में आ जाने से विचार ढक जाते हैं और पाठक का ध्या्न गड़बड़ी में पड़ जाता है। मनुष्य जीवन में विचार-क्षेत्र बड़े महत्तव का है। उसमें भाषा के प्रयोग की बड़ी सफाई और सावधनी अपेक्षित होती है। उसमें भाषा की उछल कूद, सजावट, अलंकार चमत्कार इत्यादि के लिए बहुत कम जगह मिल सकती है। ऐसे लेखकोंमें मुख्यफ ध्या्न विषय के स्पष्टीकरण की ओर होना चाहिए, भाषा की रंगीनी दिखाने की ओर नहीं।

कथात्मक निबन्ध

कथात्मक निबन्ध किसी उपाख् यान, वृत्तान्त या घटना को लेकर चलते हैं। विचारात्मक निबन्धों के समान उनमें भी सम्बन्ध निर्वाह अत्यन्त आवश्यक होता है। उसमें घटनाओं को एक दूसरे के पीछे इस क्रम से रखना पड़ता है कि उलझन न पड़े और साथ ही इस बात का भी ध्याइन रखना पड़ता है कि आगे की घटनाओं को जानने की उत्कंठा पाठक को बराबर बनी रहे और बढ़ती जाय। भाषा चलती और सरल रखनी पड़ती है। शुध्द कथा या कहानी कहनेवाले वर्णन के विस्तार या भावों की व्यंजना में नहीं उलझते। कहानी सुननेवाले की उत्कंठा तो जिज्ञासा के रूप में होती है, जिसे पाठक बीच बीच में 'तब क्या हुआ' कहकर प्रकट करता है।

भावात्मक निबन्ध

भावात्मक निबन्ध में लेखक अपने प्रेम, आह्लाद, हर्ष, करुणा, क्रोध, विस्मय या किसी और भाव की व्यंजना करता है। भाव के आवेश के अनुसार कहीं कहीं भाषा में असम्बध्दता, विऋंखलता और वेग या तीव्रता दिखाई पड़ती है। कथन की सीमा पर मर्यादा का अतिक्रमण भी प्राय: अनिवार्य हो जाता है, इससे अत्युक्ति या अतिशयोक्ति का सहारा प्राय: लिया जाता है, जैसे-यदि किसी वेदना की व्यंजना हो रही है तो अनन्त ज्वाला में जलने, पहाड़ के नीचे पिसने आदि की बातें कही जाती हैं। उक्तियों में जितना वेग, जितनी नवीनता इत्यादि लाई जा सकती है उतनी शरीर की किसी चेष्टा से नहीं। क्रोधी के वास्तविक व्यापार तो तोड़ना फोड़ना, मारना, पीटना, डाटना डपटना इत्यादि ही देखते जाते हैं। पर उक्ति चाहे जहाँ तक बढ़ सकती है। किसी को धूल में मिला देना, चटनी कर डालना, घर खोदकर तालाब बना डालना तो मामूली बात है। यही बात सब भावों के सम्बन्ध में समझिए।

ऊपर प्रबन्धों का जो वर्गीकरण किया गया है उससे यह न समझना चाहिए कि लेखक जब कोई लेख लिखता है तब उक्त वर्ग में से किसी एक में ही वह अपने को बाँध देता है। आवश्यकतानुसार वह भावात्मक, विचारात्मक कई पध्दतियों का मेल कर सकता है। जैसे कोई विचारात्मक लेख लिखाते समय यदि कोई मार्मिक स्थल आया तो लेखक भावोन्मुख हो कुछ दूर तक भावावेश की शैली का अवलंबन करेगा। इसी प्रकार किसी इमारत का वर्णन करते समय बहुत सम्भव है कि लेखक विवरण देने के स्थान पर अपने भावों की व्यंजना करने लगे। जैसा कि इस संकलन में उध्दृत 'ताजमहल' शीर्षक लेख में है।

मुख्यल बात यह है कि शैली कोई हो, वाक्यरचना की व्यवस्था, भाषा की शुध्दता और प्रयोगों की समीचीनता सर्वत्र आवश्यक है। जब तक ये बातें न सध जायँ तब तक लिखने का अधिकार ही न समझना चाहिए। इनके बिना भाषा लिखने पढ़ने की भाषा ही नहीं है जिसकी शैली आदि का विचार हो।

('हिन्दी गद्य चन्द्रिका' : हाई स्कूल तथा उसके समकक्ष परीक्षा के लिए हिन्दी के विविध विषयों पर चुने हुए सुसम्पादित गद्यांशों का संकलन। सम्पादक: पंडित रामचन्द्र शुक्ल, प्रोफेसर, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी। प्रकाशक : रत्नाश्रम, आगरा, संवत् 1990 भूमिका 'कुछ आवश्यक बातें' शीर्षक से।)

[ चिन्तामणि, भाग-3 ]