गया के किसानों की करुण कहानी / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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पहले कहा जा चुका है कि सन् 1931 ई. में प्रांतीय कांग्रेस ने गया जिले के प्रमुख किसान सेवकों के आग्रह से वहाँ और पटने में भी किसानों की दयनीय दशा की जाँच की थी। मगर उसका फल क्या हुआ यह आज तक पता न चला। न तो उन लोगों ने कोई रिपोर्ट ही प्रकाशित की और न अखबारों में ही एक अक्षर भी उसकेसंबंधमें लिखा।असल में प्रांतीय कांग्रेस नेताओं की तो सदा से ही यह चाल रही है कि मौके पर किसानों से काम ले लेना,उनके दु:खों को हटाने के लिए सब कुछ करने का आश्वासन दे देना, और अंत में चुप्पी मार जाना। जिस प्रकार पहली जाँच का कोई फल न निकला और पीछे बहाना ढूँढ़ निकाला गया कि सन 1932 के सत्याग्रह संग्राम में पुलिस वे सब कागजात ऑफिस से ले गई और वापस न कर सकी। ठीक उसी प्रकार दूसरी लंबी जाँच का भी नतीजा कुछ न हुआ,हालाँकि,इस बार तो कागजों के चले जाने का बहाना भी न था। ये बातें आगे आएँगी।

अब सन 1933 ई. की गर्मियों के बीतते-न-बीतते प्रांतीय किसान-सभा की कार्यकारिणी (किसान कौंसिल) की एक मीटिंग पटने में हुई। उसमें तय पाया कि गया के किसानों के दु:ख-दर्द की पूरी जाँच करके उसकी रिपोर्ट किसान-सभा छपवाए और उचित कार्यवाही करे। उसके लिए एक जाँच-कमिटी भी पाँच सदस्यों की बनी,जिसमें मैं,पं. यमुना कार्यी,पं. यदुनंदन शर्मा, डॉ. युगल किशोर सिंहऔर बाबू बदरी नारायण सिंह यही लोग थे। कार्यी जीमंत्रीऔर संयोजक थे।

बरसात सिर पर थी। मगर यह भी सोचा गया कि जाँच में देर न हो। उसका काम खामख्वाह शुरू होई जाए। फलत:,जिले में चारों ओर खबर देने,कहाँ-कहाँजाएयह ठीक करने, किसानों को पहले से ही वहाँ जमा करने, सभा करने और प्रोग्राम को ठीक-ठीक पूरा करने के लिएप्रबंधकरने आदि का भार पं. यदुनंदन शर्मा पर डाला गया। उन्होंने अपनी स्वभावसिध्द तत्परता से यह काम ऐसा ठीक किया कि हम सब हैरत में थे। बरसात के समय में भी घोर देहात का एक प्रोग्राम भी सफल होने बिना न रहा। ऐसी कामयाबी हुई कि हम दंग रह गए। जहाँ पहुँचते वहाँ आगे के लिए पहले से ही सवारी आदि का प्रबंधरहता। सोलह-सोलह , बीस-बीस मील तक के फासले पर विकट देहात में लगातार जाना पड़ा! यह भी नहीं कि बीच में एकाध दिन विश्राम हो। वर्षा के दिनों में पालकी , घोड़ी आदि ही सवारियाँ हो सकती थीं और उनका पूरा प्रबंध रहता था।

पाँच सदस्यों में बदरी बाबू तो आए ही नहीं। हम समझ भी न सके कि गया के दोस्तों ने उनका नाम क्यों दिलवाया था?शुरू से अंत तक न तो वे जाँच में ही या कमिटी की बैठक में ही आए और न पत्रादि के द्वारा कोई कारण ही बताया। मगर शेष चार जाँच में शामिल रहे। डॉ. युगल किशोर सिंह बीच-बीच में गैरहाजिर भी रहे। मगर मैं, कार्यी जी और शर्मा जी ये तीनों शुरू से अंत तक साथ रहे, यहाँ तक कि पीछे विचारने और रिपोर्ट की तैयारी के समय भी। लेकिन रिपोर्ट तो मैंने और कार्यी जी ने ही तैयार की।

जहाँ तक मुझे याद है,ता. 15 जुलाई को हमने जाँच का काम शुरू किया। हम चारों ही जहानाबाद स्टेशन से उतरकर उससे पूर्व और उत्तर के इलाके के धनगाँवा आदि गाँवों के दो केंद्रों में दो दिन रहे। उसके बाद मखदुमपुर के इलाके में महम्मदपुर गए। वह कुर्था थाने में पड़ता है। उसके बाद, जब कि पानी पड़ रहा ही था,हम मझियावाँ (पं. यदुनंदन शर्मा के गाँव) के लिए सवेरे ही रवाना हो गए और भीगते-भीगते पैद ही वहाँ पहुँचे। रास्तेवाले नाले में गर्दन भर पानी था। उसमें घुसकर ही उसे पार किया। मझियावाँ की दशा वर्णनातीत थी। फिर टेकारी थाने में भोरी गए। वहाँ से परसावाँ और परैया जाना पड़ा। उसके बाद फतहपुर थाने में खास फतहपुर गए।जाँच की बात तो, 'गया के किसानों की करुण कहानी' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। वह पढ़ने ही लाएक है। वे बातें यहाँ नहीं लिखी जा सकती हैं। लेकिन दो-चार खास बातें लिखेंगे।

हमने प्राय: दस दिन लगाए? इस बीच ज्यादातर मौजे टेकारी राज के ही मिले जो अब सोलहों आने राजा अमावाँ के ही हाथ में हैं। उनके साठ मौजे हमने देखे। वहाँ किसानों के लिखित बयानों के सिवाय गवाहियाँ भी लीं। दूसरे छोटे-मोटे जमींदारों के और खास महाल के भी कुछ मौजे खासकर परैया में हमें मिले। टेकारी के जो मौजे श्रीमती शहीदा खातून को मिले हैं, उन्हें भी देखा। अमावाँ के एक पटवारी ने हमसे कहा कि यहाँ तो हम बेमुरव्वती से लगान वसूलते हैं। मगर हमारे घर पर लगान में ही हमारी जमीन बिक गई। क्योंकि ज्यादा होने से दे न सके और पैदावार भी मारी गई थी।

अमावाँ राज के ऐसे भी गाँव मिले जहाँ किसान की जमीन जबर्दस्ती छीनकर राज की कचहरी उसी पर बना ली गई थी। मगर लगान किसान से उस जमीन का लिया जाता ही था।

ईकिल में एक नाई ने कहा कि हम जमींदार (अमावाँ राज) के बराहिल (नौकर) को रोजाना रात में तेल लगाया करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वह कहीं चले गए थे। अत: हम राज की कचहरी में न गए। लौटने पर उनने पता लगाया और बुलवा कर हमें गैरहाजिरी के लिए सजा दी। हमने जब कहा कि आप थे ही न, फिर आते क्यों? तो उत्तर मिला कि आते और इस खंभे में तेल लगा कर चले जाते। क्योंकि आने और तेल लगाने की आदत तो बनी रहती।

कई जगह यह शिकायत आई कि जमींदार के अमले किसानों के बकरों के गले में लाल धागा बँधवा देते हैं। फिर तो वह उनका हो जाता है। किसान पालपोस के सयाना करता है। पीछे चार आने देकर उसे ले जाते हैं?कहीं गड़बड़ हुई तो दंड होता है।

पैंतालीस प्रकार की गैरकानूनी वसूलियों का पता लगा। धनगाँवा में पास ही पास के दो खेतों को देखा तो पता चला कि एक का लगान साल में पूरे साढ़े बारह रुपए और दूसरे का साढ़े तीन ही है। दूसरा पुराना था और पहला हाल का बंदोबस्त किया हुआ। हालाँकि, जमीन एक ही तरह की और पैदावार भी बराबर ही थी।

मझियावाँ में कंकड़ीदार खेत का लगान फी बीघा साढ़े तेरह रुपया पाया! उसमें पाँच मन पैदा होना भी असंभव था! हजार रुपए साल में लगान देनेवाले किसान का घर पाखाने से भी बदतर था। वह खाने बिना तबाह था! परसामा में नदी के किनारे निरी बालूवाली जमीन हमने आँखों देखी। उसमें जंगली बेर लगे थे। मगर लगान संभवत: पूरे ग्यारह या तेरह रुपया फी बीघा! परैया के इलाके में देखा कि खास महाल में मिट्टी दिलाने और आब पाशी का प्रबंध होता है। मगर पास ही में अन्य जमींदार कुछ नहीं करते। कई गाँवों में खास महाल और टेकारीराज की शामिल ही जमींदारी मिली। उसमें खास महाल का लगान नगद पाया और जमींदार की भावली। जहाँ किसानों के साथ ही जमींदार की भी खेती (जिरात) होती है, वहाँ का जुल्म देखा कि किसानों के हल-बैल मौके पर जमींदार बेगार में ले जाते हैं। फलत:, किसानों की खेती बिगड़ जाती है। धान के लिए पानी पहले जमींदार लेता है और बचने पर ही किसान पाता है। नहीं तो उसका धान सूख जाता है।

इस प्रकार जाँच कर के हम लोग पटने लौट आए। इस जाँच से किसानों की भीतरी जर्जर दशा की और जमींदारों के जुल्मों की भी प्रत्यक्ष जानकारी तो हुई ही। साथ ही,हमने किसानों को जो स्वयं मुस्तैदी से हमारी जाँच-सभा और अन्य बातों का प्रबंध करते देखा उससे हमारे दिल पर पहले पहल यह असर हो गया कि यदि कोशिश हो तो किसान जल्द जग पड़ेंगे। क्योंकि क्षेत्र तैयार है। हमें चट्टान से सिर टकराना या निरे मुर्दों को जगाना नहीं है। हमारा अंदाज हुआ कि समय के धक्के से उनकी नींद टूटी है। वे आलस्य में पड़े हैं। किसी जगानेवाले की प्रतीक्षा में हैं। यह उसी समय की हमारी धारणा है जो ज्यों की त्यों याद है।

लौटकर एक तरफ तो हम विस्तृत रिपोर्ट की तैयारी में लगे। दूसरी ओर राजा अमावाँ को एक पत्र लिखा। वह मसूरी गए थे। वहीं पत्र भेजा। पत्र और उसके उत्तर दोनों ही सुरक्षित हैं। कई वर्षों के बाद जब एक दिन अकस्मात वह पत्र मुझे मिल गया और मैंने पढ़ा तो मुझे अपार आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि मैं वही हूँ या दूसरा, मैं बदल गया या दुनिया ही बदली। पत्र की भाषा और बातें ऐसी हैं कि आज मुझे उसे पढ़ने में शर्म आती है और यदि उसे कोई आज का साथी, जो प्रगतिशील विचार वाला है,देखे तो मुझे पक्के दकियानूसी के सिवाय दूसरा समझ सकता ही नहीं। फलत: या तो मुझ पर और मेरी बातों पर आज सहसा विश्वास ही न करेगा, या यह मानेगा कि यह स्वामी सहजानंद सरस्वती कोई और है, न कि उस पत्र का लेखक। फिर भी बात ऐसी नहीं है।

असल में उन दिनों मेरे विचार वैसे ही थे। मैं ईमानदारी से मानता था कि जमींदारों को समझाकर तथा उनसे मिल-मिलाकर किसानों के कष्ट दूर किए जा सकते हैं। उसके आगे न तो मैंने कुछ जाना था और न सोचा ही था। इसी भाव से मैंने राजा सूर्यपुरा से भी समझौते की कोशिशें की थीं। पर विफल रहा। इसी भाव से एक बार मैंने राजा अमावाँ को पहले भी समझाया था कि बेगार और दूध-दही वगैरह वसूलना बंद करें। वे ऐसा न करें कि उनके ग्वाले (यादव) किसान अपने को अपमानित समझें। मेरे पास बिहार शरीफ की एक शिकायत यादव-सभा के मंत्री ने लिखी थी कि राजा अमावाँ के अमले यादवों के स्त्री-पुरुषों के सिर पर दही की हँड़ियाँ रखवा कर उन्हें दही पहुँचाने को बुलाते हैं। यह आत्मसम्मान के खिलाफ है।

उसी भाव से मैंने सन 1933 के उत्तरार्ध में मसूरी पत्र भी लिखा कि मेरे सामने अंधेरा है कि क्या करूँ, कोई रास्ता नहीं सूझता कि किसानों के कष्ट कैसे दूर करूँ। मेरा खयाल है कि सारी बातें जानकर आपका दिल अवश्य द्रवीभूत होगा और उनके कष्ट आप दूर कर देंगे। आपके यहाँ से निराश होने पर ही दूसरा उपाय ढूँढ़एगा जो अभी तो कतई नजर आता ही नहीं। भला इससे ज्यादा दकियानूसीपन और क्या चाहिए? लेकिन यह ठीक है। मैंने अपने हृदय के सच्चे भाव लिखे थे। क्योंकि 'मन में आन और मुख में आन' वाली बात मैंने आज तक जानी ही नहीं। पर इसका परिणाम क्या हुआ सो तो आज सबों के सामने ही है।

राजा अमावाँ का उत्तर ले कर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी और मेरे पुराने परिचित पं. रामबहादुर शर्मा एम. ए. आए। राजा साहब भी तो पुराने परिचित ही थे। शायद इसीलिए ऐसा हुआ। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा भी कि मैं आपको पहले से ही जानता हूँ। इसलिए आपकी बात में मुझे विश्वास है, अधिक विश्वास दिलाने की जरूरत नहीं, जैसा कि पत्र के द्वारा आपने किया है आदि-आदि। मगर उन्होंने पूरी रिपोर्ट की एक प्रति माँगी ताकि अपने ऑफिस में भेज कर सारी बातों की जाँच पहले से करवा लें और अफसरों एवं अमलों से कैफियत पूछ लें। उन्होंने यह भी लिखा कि इस बीच में यह कर केसितंबर में पटने में आपसे मुलाकात तथा बातें करूँगा।

आखिर,हमें रिपार्ट की दो प्रतियाँ लिखनी पड़ीं। बहुत बड़ी चीज थी। मगर करते क्या?जल्द-से-जल्द एक प्रति उनके पास भेजी गई। उसके बाद सितंबर में जब वे पटने लौटे तो चौधारी टोलेवाले टेकारी के मकान में ठहरे। वहीं मिलने के लिए मेरे पास संदेश गया। मैं गया और पूरे साढ़े तीन घंटे तक बातें होती रहीं। मगर नतीजा कुछ न निकला। बातचीत के समय उनके मैनेजर बाबू केदारनाथ सिंह भी मौजूद थे। राजा साहब की अजीब हालत थी। कभी तो इलजामों को मानते और कहते कि हो सकता है ऐसा होता हो और कभी कहते कि इतना बड़ा इंतजाम है। इसमें स्थायी नौकरों पर विश्वास करना ही पड़ता है। उसके बिना काम चल नहीं सकता।

मैंने जो कुछ आरोप लगाए थे वह तो मौके पर जा के देखने के बाद ही। मैंने यह भी कहा कि अगर कभी-कभी अचानक किसी मौके पर आप खुद पहुँच जाएँ और किसान को एकांत में बुलाकर उसके सुख-दु:ख पूछें तो बहुत कुछ पता लग जाए कि मेरी बातें सही हैं या नहीं। इससे यह भी होगा कि आपके अमले थर्राते रहेंगे। मैंने फिर कहा कि यदि किसानों का विश्वास अपने ऊपर लाना या कायम रखना है तो मजिस्ट्रेट वगैरह के कहने से दस-बीस हजार रुपए अस्पताल में देने की अपेक्षा, अपनी जमींदारी के गाँवों में हैजे आदि के समय दस ही पाँच रुपए की दवा किसानों में अपनी ओर से बँटवाइए और उसका असर देखिए। बातें तो ठीक थीं और थीं उन्हीं के काम की। मगर इन्हें स्वीकार करना उनके लिए असंभव था।

मैंने कहा, आपके जो नौकर दस-बीव रुपए महीना पाते हैं जरा उनका ठाटबाट देखें। वह तो सैकड़ों कमानेवालों को मात करता है। फिर ये रुपए आते कहाँ से हैं यदि वे जुल्म नहीं करते? उनके पास इसका उत्तर क्या था, सिवाय मौन हो जाने के? मैंने फिर कहा, जमींदारी आपकी खराब होगी या बिक जाएगी। इसमें नौकरों की क्या हानि है? वह तो उसी के यहाँ नौकरी करेंगे जो आपकी जमींदारी खरीदेगा। इसलिए उसकी फिक्र आप नहीं करें,और उस नौकर से उमीद करें यह तो आपकी भूल है। मगर वे चुपचाप सुनते रहे।

फिर मैनेजर साहब ने कोशिश की कि सारा प्रबंध दूध का धोया सिध्द करें और यह बताएँ कि मैं ही भ्रम में हूँ। इसलिए उनने बहुत भूमिका बाँधी। अंत में कहा कि आप दूसरे दिन फिर बातें करें तो मैं कागज वगैरह लाकर अपना पक्ष साबित करूँगा और आपको विश्वास दिलाऊँगा, "I shall convince you" कि कोई गड़बड़ी नहीं है। मैंनेउत्तरदिया कि जो बातें आँखों देख आया,उन्हें सोलहों आना गलत और भ्रम मान लूँ, यह तो अजीब बात है! यह दूसरी बात है कि सौ इलजामों में दस-पाँच या दो-चार को भी आप सही मान लें तो आगे बातें कर सकता हूँ। मगर सभी गलत मान कर बातें करने की उम्मीद मुझसे आप करें, या चाहें कि मुझे विश्वास दिलाएँगे, यह ठीक नहीं। मैं ऐसी बात के लिए तैयार नहीं। यकीन रखिए, आपके द्वारा ऐसे यकीन को प्राप्त करने के लिए मैं हर्गिज तैयार नहीं, "I am not going to be convinced by you" ऐसी दशा में और बातें करना बेकार है। यही कह के मैं चला आया और फिर कभी आज तक उन लोगों से मिला ही नहीं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि ये लोग कितने बेशर्म और पक्के हैं। जरा भी टस से मस होने को तैयार नहीं। उलटा मुझे ही बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे थे! मगर मेरी आँखों का तो पर्दा ही खुल गया। सारी आशाओं पर पानी फिर गया। मुझे साफ दीखा कि ये लोग लाइलाज मर्ज में फँसे हैं। अब समझौते से शायद काम न चलेगा। उसकी कोई आशा ही नहीं। अब तो कोई दूसरा रास्ता सोचना ही पड़ेगा। मुझे ताज्जुब हुआ कि मैंने किस भाव से और किन शब्दों में उन्हें लिखा था और उसका नतीजा क्या हुआ! असल में मुझे यही अनुभव हुआ है कि जो लोग इन्हें दबाएँ उनके सामने तो ये झुकते हैं। मगर जो दोस्ताना ढंग से इनसे बातें कर के इन्हें समझाना और मनाना चाहें उन्हें उलटे ये लोग उल्लू बनाने की कोशिशें करते हैं। ऐसे मौके अनेक मिले हैं, जिनसे मेरी यह धारणा हुई है। खैर, उस बातचीत के बाद पहला काम मैंने यह किया कि उस रिपोर्ट की सभी प्रमुख बातें ले कर 'गया के किसानों की करुण कहानी' लिखी और फौरन छपवा डाली।