गर्वीली भाषा हिन्दी की बाज़ार में भी भारी धमक / संतलाल करुण

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ज़िंदा या मुर्दा दफ़न कर दिया गया स्वाभिमान भी इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ जाता है। जबकि लगभग 1000 वर्षों से कई शाही सल्तनतों, अंग्रेज़ी हुकूमत और स्वतन्त्र भारत की विरोधी नीति लगातार झेलते रहने के बाद भी हिन्दी भाषा का स्वाभिमान दबने, कमज़ोर पड़ने और काल के गाल में समा जाने के बजाय और अधिक गर्वोन्नत होता चला गया। हिन्दी भाषा हज़ारों वर्षों से अखिल भारतीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती चली आ रही है। उसका साहित्य और वांड्मय अत्यंत विशाल, श्रेयस और कालजयी है। लोक-जीवन के सही, सटीक प्रतिबिम्बन के कारण उसका लोक-साहित्य बहुत समृद्ध है। लगभग 300 वर्षों तक आज़ादी की लड़ाई की जुझारू भाषा होने और गांधी, सुभाष, भगत सिंह आदि बलिपंथियों का कंठगर्व होने तथा देश-विदेश की एक प्रबल सम्पर्क-भाषा होने से हिन्दी भारत और उसके चौहद संसार की बड़ी गर्वीली भाषा बन गयी है।

यदि इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो आक्रान्ताओं, विक्रेताओं, मध्यस्थों आदि की भाषा अधिक बाज़ारू और खनक-चमक वाली प्रतीत होगी। हिन्दी अपने जन्मकाल से मानव-संवेदना, प्रकृति और मानव-जीवन के संतुलन पर विशेष ध्यान देती रही और मोल-भाव-जैसे क्षेत्र की दक्ष माध्यम होकर भी बाज़ार वालों में उतनी प्रिय नहीं रही, क्योंकि संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी का विकास स्वाभाविक और प्रकृत लय में होता रहा तथा हिन्दी ने अपने टकसाली रूप-दर्प को आधुनिक बोध के साथ निहारना तब शुरू किया, जब उसका सामना अंग्रेज़ी से हुआ। आगे चलकर नब्बे के दशक से जब जनसंख्या के आधार पर विश्व में तीसरे स्थान पर हिन्दी भाषा-भाषियों के बीच अपने माल की खपत पर दुनिया वालों का ध्यान गया, तो वे अपनी भाषा के साथ हिन्दी भाषा में भी उत्पादन, विज्ञापन, मोल-भाव, बिक्री आदि का समूचा बाज़ार-तन्त्र लेकर सामने आ गए और विगत दो दशकों से उनके द्वारा बढ़ाए पायदानों पर बढ़ते हुए हिन्दी बाज़ार की सशक्त भाषा बन गई ।

आज हिन्दी की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार-तंत्र में विशिष्ट पहचान है। इसमें भारतीय महाद्वीप के निवासियों, उनकी आधुनिक होती जीवन-शैली और उनकी दिनोंदिन बढ़ती क्रय-शक्ति का बहुत बड़ा हाथ है। अब कॉरपोरेट-जगत हिन्दी भाषियों और उनकी भाषा की सम्पर्क-क्षमता का गणित समझ गया है। वह उनकी क्रय-शक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी भाषा को बेहिचक अपने उद्योग-व्यापार में शामिल करते हुए आगे बढ़ने लगा है। पोस्टर, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी आदि के हिन्दी-विज्ञापन और हिन्दी वेब-ऐड की अधिकता के रूप में आज के बाज़ार का पृष्ठाधार इसका ज्वलंत उदाहरण है।

पर बाज़ार की भाषा होने से हिन्दी की राष्ट्रीय चेतना, साहित्यिक समझ, लोक-जीवन की सुगंध, देश-विदेश के सम्पर्क-विस्तार आदि में कोई ख़ास कमी आ गई हो, ऐसा नहीं है। जो कुछ परिवर्तन आया भी है, वह भाषा-हीनता का नहीं है, वह भारतीयों की आधुनिक मानसिकता, नवीन चेतना और नवीन बोध से चालित है। पुराने और नए मूल्यों के समंजन-असमंजन का दौर और तेज़ होता जा रहा है और उसका परिदृश्य घर-परिवार से बाज़ार तक दिखाई दे रहा है। ऐसे में नोएडा, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद और अन्य शहरों में चहलकदमी करती हिन्दी यदि वाशिंगटन, कैनबरा, बीजिंग, मास्को-जैसों की दृष्टि में छविमान सिद्ध हो रही है, तो उसकी इस सफलता को न आँकना और उलटे व्यंग-प्रहार करना कतई उचित नहीं।

इसलिए हिन्दी भारतीय संघर्ष, साहित्य, लोक-जीवन, स्वतन्त्रता-संग्राम, जन-सम्पर्क की अनोखी भाषा होने के साथ-साथ अगर पिछले लगभग 20-22 वर्षों से बाज़ार में भी अच्छी पहचान रखने लगी है, तो उसके साथ गर्वहीनता की बात कहाँ से आ गई। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि वह यदि किसी क्षेत्र में कमज़ोर थी, तो अब वहाँ भी सबल हो गई है। अतः ये कहना कि हिन्दी बाज़ार की भाषा है, गर्व की नहीं, दिमाग से पैदल होने के अलावा और कुछ नहीं है। आज बिना क्रय-शक्ति के कोई भी मानव-समाज सम्मान का जीवन नहीं जी सकता और बढ़ती क्रय-शक्ति वाले हिन्दुस्तानियों को उनकी सारी गुणवत्ता को दर-किनार करते हुए सिर्फ़ बाज़ार के नज़रिये से देखना ओछी मानसिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। बल्कि विश्व-बाज़ार के सुदीर्घ क्षेत्र में अपनाये जाने से हिन्दी के मान-सम्मान में बढ़ोत्तरी हुई है और उसके अंतर्राष्ट्रीय स्वाभिमान की गर्दन और भी ऊँची हो गई है।

अंतत: जो भाषा साहित्य, लोक-साहित्य और जन-सम्पर्क की विश्वभाषा रही है, वह आज विश्व-बाज़ार में भी भारी धमक के साथ आ खड़ी हुई है। वह केवल मूल हिन्दी-क्षेत्रों की गर्वीली भाषा ही नहीं, देश-दुनिया के लगभग 120 करोड़ हिन्द-वासियों, देश-प्रेमियों और हिन्दी ज़बान के कायलों का कंठहार है। और अब तो जैसे वह उन्नत, मुस्कान भरी मुद्रा के साथ हुलसते हुए यह आलाप कर रही हो —

आज खड़ी बाज़ार-भाव मैं देख रही दुनिया का

हिन्दी में मैं बेच रही अब माल-ताल दुनियावी।

पर नहीं कहीं कमतर हूँ मैं साधे सारे संवेदन

मैं गर्वीली, सहित भाव, सम्पर्क-सखी, युगभावी।