गली नंबर दो / अंजू शर्मा

Gadya Kosh से
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"पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।"

बीजी की तेज़ आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई. रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए. पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नज़र डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नज़र डाली। दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियाँ करते पक्षियों को देखने लगा। हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा, आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊँचाई पर क्यों बैठे रहते हैं? 'ऊंचाई', दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊँचाइयाँ उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थीं कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था! दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों-सी होती चली गई.

रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है! यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए! अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज़ होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी! यहाँ भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग ज़रूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानी वह रंग जो बेरंग है! तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी, औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी! पढ़ने लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज़्यादा पढ़ पाता! कुल जमा पाँच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका! पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था! हाँ, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी! उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज़्यादा थे! भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली और भयावह गोद में जीवंत हो जाती! ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था!

कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था! यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता! कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आँखें जबान के सारे फर्ज़ अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आँखें बस वही देखना चाहती थीं जिसका संबंध उसके काम से हो और आँखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गयी थीं! पता नहीं ये दुस्वप्नों के नींद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आँखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थीं! यह सहज ही देखा जा सकता था कि उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आँखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पायी थी!

जस्सो मासी उर्फ़ बीजी उर्फ़ जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज़ औरत थी जो ज़्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिये "जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता" (जिंदगी ने मौका ही कब दिया) ! गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, 'मैं भी हूँ' अंदाज़ में झूलती एक सफ़ेद लट, चौड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज़ और चेहरे पर मुस्कान! मुल्क के बँटवारे ने सब लील लिया था, बँटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहाँ आकर बसी थी! जाने वह दिल था, जिगर था या जान थी जो वहाँ छूट गया था, लोग कहते हैं वह अब पाकिस्तान था! बहुत समय लगा ये मानने में कि वह मुल्क अब गैर है, कि अब वह हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है! और देखिये न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी! पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गयी तो जस्सो मासी की नयी-नयी गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द सँजोती रहती! दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वे जाग-जाग कर काटी रातें देखीं, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घौंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर 2 बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती माँ के संघर्षों की मौन साक्षी बनी! इन मुश्किलों ने उन्हे जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वे छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिज़ूल मानने लगी थी! यूं भी जिंदगी ने उन्हे सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हे गले लगा लिया जाए!

यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुये लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था! अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर 2 कहा जाता था! इन लोगों ने धर्म, जाति और क्षेत्रीयता जैसे तमाम आग्रहों से ऊपर उठकर एक नए पंथ की अघोषित, मौन स्थापना कर दी थी जिसे भाईचारा कहा जाता था, जो खून के रिश्तों से कहीं ऊपर था! कोई हालांकि कई बार छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते ये लोग शाम को साथ मिलकर मन-मुटाव को साथ साथ विदा कर देते थे! तो जस्सो मासी, जी हाँ लोग उन्हे इसी नाम से पुकारा करते थे, यूं तो कहने को दो बेटो वाली थी पर बड़ा बेटा करमजीत उर्फ काके, बेटा कम अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों का फल ज़्यादा लगता था उन्हे! पिता की बीमारी और घर में कामकाजी माँ की गैर-मौजूदगी ने जहां छोटे को चुप्पा बना दिया था, वहीं बड़ा निकम्मा, और नाकारा निकला हालांकि कहने के लिए किराए का ऑटो चलाया करता था, शराबी-कबाबी ऊपर से एक दिन एक एंग्लो-इंडियन लड़की को घर ले आया!

कहने लगा "बीजी, बहू है तुम्हारी, इसके साथ कोर्ट मैरेज की है!"

अब आप जानो जस्सो मासी तो जस्सो मासी ठहरी! फौरन उसे दरवाज़ा दिखाकर कहा-

"फिटे मुंह तेरा, जित्थों लाया है, ओत्थे ही छडके आ मोए!"

तीन दिन के भीतर मुहल्ले वालों और इक्का-दुक्का नातेदारों को इकट्ठा किया और फेरे डालकर बहू को घर ले आई! ढोल बजा तो पूरे मोहल्ले से ज़्यादा जस्सो मासी नाची थी! दबी ज़बान से बहू के धर्म पर छींटाकशी करने वालों की कमी नहीं थी पर जस्सो मासी ने यह कहकर सबका मुंह बंद कर दिया कि "औरत की भला क्या जात और क्या धरम, पानी जिस भांडे में गया वैसा ही हो गया! लौटे विच पाओ तो लौटे वरगा, होर थाली विच पाओ ते थाली वरगा!" तो 'ग्लेडिस' अब 'लक्ष्मी' हो गयी थी! और गली नंबर 2 का क्या कहना, कुछ दिनों की कानाफूसी के बाद वही 'लक्ष्मी' सबकी लाड़ली बहू थी और सुबह दिन निकलते ही 'पैरी-पैना चाचीजी' 'पैरी-पैनामासीजी" करते हुये उसकी कमर दोहरी हो जाती थी! यूं चार दिन तो मज़े में कटे फिर चंद दिनों में ही शाम को डगमगाते कदमों से लौटते पति की खस्ता हालत, कपड़ों से आती असहनीय दुर्गंध और खाली जेब ने कुल मिलाकर जो तस्वीर खींची थी उसमें लक्ष्मी को भविष्य पर छाई अंधकार की छाया साफ दिखाई पड़ती थी और ये भी कि अब तो बस सास के सहारे दिन कटेंगे या खुद ही कमा-खाकर गुज़र होगी! मायके में चर्च में जाकर जीभर रोयी पर कहीं कोई रास्ता नहीं था! खुदा उसका नसीब लिखते हुये सारी स्याही खो बैठा था बस दूर तक काला रंग बिखरा नज़र आता था!

हरे-पीले-लाल-नीले-बैंगनी-नारंगी—दुनिया की भागदौड़ और चकाचौंध से दूर भागते भूपी को रंगों में निजात मिलती थी! ये और बात है कि उसके मन में दुनिया को लेकर जो भी तस्वीर बनती थी वह बहुत बेरंग थी! अपने कद को लेकर कोई ग्रंथि पाली हुई थी उसने या फिर ऊंचाई से उसका डर इसका कारण था, भूपी अक्सर ऊंची-लंबी आकृतियों से मुंह फेर लिया करता था! उसके अवचेतन में सदा एक लंबा ऊंचा ठूंठ-सा वृक्ष विद्यमान रहता था जो मन को कभी हरा-भरा होने ही नहीं देता था! ऐसा नहीं था उसने कोशिश नहीं की, पर उसकी तमाम कमजोर कोशिशें उस ठूंठ की ऊंचाई के सामने हार मानकर दम तोड़ गईं! कभी कभी भूपी को लगता था उसकी ऊँचाई हर रोज़ थोड़ा कम हो जाती है और ठूंठ हर रोज़ उतना ही बढ़ जाता है! उसे लगता था किसी दिन यह ठूंठ उसकी पूरी लंबाई को लील लेगा और वह पूरा का पूरा इसी ठूंठ में समा जाएगा! उसका यह डर अमूमन दिन में जाने कहाँ सोया रहता और रात में धीरे धीरे उसकी नींद पर काबिज हो जाता! वह पसीने-पसीने हो जाता और अपने घुटनों को पेट में घुसाए, खिड़की से बाहर स्ट्रीट-लाइट को देखते-देखते सुबह का इंतज़ार करता! उसकी बेचैनी बढ़ जाती और रगों में दौड़ता लहू, मानो लहू नहीं किसी ज्वालामुखी से निकलता गरम लावा हो जाता जिसका बहाव उसे दुनियावी चहल-पहल से कहीं दूर ले जा पटकता! हैरत की बात यह थी कि जो भूपी पहले घंटों अपनी दुनिया में लौटने की कोशिश करता रहता था उसे अब ये दूसरी अंधेरी, भयावह दुनिया रास आने लगी थी! ये दर्द, ये तकलीफ, ये बेचैनी और ये डर उसकी आदत जो बन गए थे!

इधर ग्लेडिस उर्फ लक्ष्मी ने देखा उसके अलावा ससुराल में कुल जमा चार प्राणी हैं! पति आधे दिन बोतल भर के लायक कमाता है और सब कमाई दारू में उड़ा देता है! ससुर बीमार और लकवे से लाचार है! सास किसी फ़ैक्टरी में काम करती है और देवर यानी भूपी मूर्तियाँ बनाता है! लोगों को लगा था बहू ईसाई है चार दिन में सब छोड़छाड़ कर अपने घर लौट जाएगी! उसके घरवालों ने भी कुछ इसी तरह की सलाहें उसकी झोली में डाल दी पर लक्ष्मी, जो अपने परिवार की सारी हिदायतों, आशंकाओं और भविष्यवाणियों को नज़रअंदाज़ कर इस घर में आई थी, उसने इस रिश्ते को एक मौका देने का फैसला किया! दिन बीतते गए, पता नहीं ये फेरों पर खाई कसमों का असर था या सास का स्नेह, गरीब माँ-पिता की लाचारी की चिंता थी या घुटने टेकने से इंकार करती, गर्भ में आ गए एक अजन्मे शिशु की माँ की जिजीविषा थी कि लक्ष्मी, लक्ष्मी ही रही, फिर कभी 'ग्लेडिस' नहीं बनी तो नहीं बनी! गले में डला 'क्रॉस' 'ॐ' में बदल गया और उसने एक टिपिकल संस्कारी बहू की तरह सास की गृहस्थी संभाल ली, वहीं रोजी रोटी के लिए देवर की मदद करने लगी! सास को चूल्हे चौके से छुट्टी मिली, ससुर को दवाई समय पर मिलने लगी वहीं भूपी के अकेलेपन के दायरे में लगी सेंध ने कुछ दिनों के लिए उसे परेशान तो ज़रूर कर दिया था पर वक़्त का पहिया जब मंथर गति से आगे सरकता गया तो धीरे-धीरे यह अतिक्रमण उसे भी रास आने लगा! और हुआ यूं मूर्तियाँ अब गली नंबर 2 की आवाजाही, एक-दूसरे की चुगलियाँ करती औरतें और भूपी की खामोशियों से इतर भी कुछ आवाज़ें सुनने लगीं थी!

'भाभी, पीला रंग कब खत्म हुआ होर हरा रंग किन्ना लाणा है..."

"भाभी, एक कप चा पीणी है..."

"भाभी, सिंह साहब का आदमी क्या बोल रहा था..." वगैरह वगैरह...

भूपी ने मूर्तियाँ बनाने का काम छुटपन में ही सीख लिया था, कुछ अरसा काम एक दोस्त के घर काम किया और फिर जल्दी ही अपना काम शुरू कर दिया! रबर की डाई उर्फ साँचे में प्लास्टर ऑफ पेरिस का घोल डालकर उसे छत पर सुखाया जाता था! एक लाइन से बने 10 x 10 के चार कमरों को जोड़ कर बनी लंबी छत पर लाइन से मूर्तियाँ रखी रहती थीं! एक कोने में एक छप्पर डला था जो अक्सर स्टोर रूम का काम करता था! मूर्तियाँ पूरी तरह से सूखने के बाद उन्हे रंगा जाता था! ये दिवाली से ठीक पहले का समय था! तो बस चारों और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ ही नज़र आती थीं! ऑर्डर के मुताबिक लक्ष्मी गणेश की कुछ मूर्तियों को सुनहरा रंगा जाता था, कुछ को पूरा सिल्वर कलर किया जाता था और बाकी को विभिन्न रंगों में रंगा जाता था! थोड़े ही दिनों में लक्ष्मी ने सब सीख लिया था, कैसे सबसे पहले सिंहासन पर फिरोजी रंग, लक्ष्मी जी की साड़ी में लाल रंग, उनकी चोली में हरा रंग, गणेश जी के वस्त्रों में पीला रंग, हाथ पाँव में पीच रंग और गहनों को सुनहरा रंगा जाता था! यहाँ तक तो सारा काम दोनों मिलकर करते थे, बस इसके बाद का काम केवल भूपी ही करता था और यह था उनकी आँखों का चित्रण! मूर्तियों में प्राण फूंकने वाला मुहावरा यहाँ साकार हो जाता जब भूपी बड़े मनोयोग से, अपने सधे हाथों से उनकी आँखें चित्रित किया करता था! एक-एक कर मूर्तियाँ साकार हो उठती थी और लक्ष्मी उन्हे गिनते हुये ऑर्डर पूरा होने की खुशी में झूम उठती थी! इसके बाद ईंटों के एक छोटे से चबूतरे पर रखकर उन पर वार्निश का स्प्रे किया जाता! जहां एक ओर मूर्तियाँ जीवंत हो चमक उठती वहीं उनके रंग भी पक्के हो जाया करते! लक्ष्मी के लिए ये मूर्तियाँ केवल मूर्तियाँ नहीं थी, घर का राशन थी, बच्चों की स्कूल की फीस थी, बिजली का बिल थी और मकान-मालिक का चाहे मामूली-सा ही सही, पर समय पर दिया जाने वाला किराया भी थी!

"ओए होये, अबे तू जमीन से बाहर आएगा या नहीं?"

"भूपी, तू तो बौना लगता है यार! हीहीही!"

"अबे तू सर्कस में भर्ती क्यों नहीं हो जाता, चार पैसे भी कमा लेगा"

"साले, तेरी कमीज़ में तो अद्धा कपड़ा लगता होएगा और देख तेरी पैंट तो चार बिलाँद की भी नहीं होगी!"

"ओए तुझे कौन अपनी लड़की देगा, बड़े होकर काके के न्याणे (बच्चे) खिलाने हैं तेनु..."

"भूपी, वर्माजी के ऑर्डर का कितना काम अभी बाकी है?"

लक्ष्मी ने गीले कपड़े से हाथ पौंछते हुये पूछा और भूपी फ़्लैशबैक से बाहर आ गया! लगा जैसे किसी ने जंजीरों में जकड़ दिया था और वह दूर भाग जाना चाहता है! बदन पसीने पसीने हो रहा था! सांस धौंकनी की तरह चल रही थी और कनपटियाँ जैसे शरीर के सारे लहू को अपने में समाये सुर्ख हो गईं थीं! लग रहा था जैसे वह मीलों लंबी दौड़ दौड़कर लौटा है!

"दो दिन होर लगने हैं!"

दोबारा पूछने पर भूपी के भावहीन चेहरे ने बिना नज़र उठाए ही बुदबुदाया! लगा आवाज़ कहीं दूर किसी गहरी खाई से आ रही है! उत्तर रस्म अदायगी भर था और इन शब्दों से उसे कोई लेना-देना नहीं है! इतना तय था कि उस हाँफते जिस्म और लड़खड़ाती ज़बान के लिए इससे कम शब्दों अपनी बात कहना शायद संभव न रहा होगा!

लक्ष्मी बच्चों को स्कूल भेज चुकी थी! ससुर नाश्ता करने के बाद आराम से सो रहे थे! उसका पति काके 'काम' पर जा चुका था और सास आज जमनापार एक जानकार के यहाँ गयी थी! भूपी का काम अब अच्छा चल निकला था, लक्ष्मी का साथ मिलने से अब वह ज़्यादा ऑर्डर ले सकता था! मूर्तियाँ तो पहले ही उसकी अभी मुंह से बोल उठने वाली लगती थीं! किराए के उस छोटे से एक कमरे-रसोई वाले घर को माँ ने खरीद कर ऊपर भी एक बड़ा कमरा बना लिया था, जहां बहू लाने के वह सपने देखने लगी थी! लौटी तो चेहरे पर चिरपरिचित मुस्कान कुछ और गहरी हो गयी थी और हाथ में बर्फी का डिब्बा था जिसे उसने पूरे मुहल्ले में बांटा था! भूपी ने दूर खड़े बिजली के खंबे को देखा तो उसके मुंह का स्वाद कसैला होता गया! पता नहीं क्यों वह आज कुछ ज़्यादा ही लंबा लग रहा था! आँखें बंद होते ही ठूंठ एकाएक आसमान को छूता नज़र आया! उसने घबराकर आँखें खोल दी! "आक थू sssss" उसने बर्फी थूक दी और निर्विकार शून्य में ताकने लगा!

जब ठोकरें नसीब में हो तो भरे-पूरे संसार को भी एक छोटी-सी चिंगारी लील लेती है! कुछ ऐसा ही सन 84 में सिखों के साथ हुआ था! 84 के प्रेत ने मुंह खोला और पंजाब के एक गाँव में रहने वाले सरदार दलजीत सिंह दो-दो गबरू जवान बेटों के साथ रोती-बिलखती पत्नी और 16 साल की जवान बेटी को छोड़ कर उसके मुंह में समा गए! सदमे ने उनकी पत्नी कुलवंत के होश छीन लिए और जब होश आया तो पाया दुनिया उजड़ चुकी थी, लालची रिश्तेदारों की मेहरबानी से अब न पास में जमीन थी और न सर पर छत! अपनी बच्ची को सीने से लगाकर दूर के रिश्ते के एक भाई के पास दिल्ली चली आई! अजीब आलम था, न गले से निवाला उतरता था और न ही रातें दिल में भरी बेचैनी को कुछ आराम दे पाती थीं! उनकी रातें जैसे किसी अज़ाब की गिरफ्त में थीं और उनके दिन इसे पहेली से सुलझाते हुए शाम के कदमों में दम तोड़ दिया करते थे, क्योंकि शरीर को न भूख सताती थी और न ही नींद बस अगर कुछ दिखाई देता था तो सोहणी की चढ़ती जवानी और अल्हड़ अटखेलियां!

ये बीसवाँ साल किसी भी लड़की के जीवन पर एक बसंती चादर की तरह छा जाता है जिसकी छांव में हर लम्हा वसंती लगने लगता है! पिता अपनी सूरत और सीरत के साथ अपना डील-डौल भी सोहणी को सौंप गए थे! खासा लंबा क़द, चौड़ा हाड़, दबा हुआ रंग और गदराया हुआ भरा जिस्म, साधारण शक्लों-सूरत के बावजूद सोहणी भीड़ में भी अलग नज़र आती थी! कुछ साल बीत चुके थे, कुछ अरसा तो बाप-भाइयों की मौत का शोक उस पर हावी रहा, फिर दिल्ली की आबोहवा और नयी बनी सहेलियों का साथ, मन आवारा परिंदे से उड़ने लगा और जवानी एक साथी मांगने लगी थी, जोबन का असर अपने शबाब पर था, और मन सपनों की गलियों में रोज़ सैर पर जाने लगा! उसका बेपरवाह अंदाज़, ज़ोर से खिलखिलाना और मस्तानी चाल, माँ के कलेजे में बरछी की तरह गड़ते थे! "हायो-रब्बा, मरजानी कितनी जल्दी बड़ी हो गयी" अक्सर वे सोचा करतीं! उनका बस चलता तो उसकी उम्र का पहिया कब का थाम चुकी होती!

खैर, कुलवंत कौर ने कई जगह बात चलाई पर किसी को पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए थी, किसी को ऊँचा घर-बार, कोई दाज में 10 तोले सोना चाहता था तो कोई बजाज का स्कूटर! बिन बाप-भाई की लड़की का ब्याह वह भी बिना दहेज इतना आसान भी नहीं था! इससे पहले कि 'ऊँचनीच' की आशंका से परेशान कुलवंत कौर और हलकान होतीं पड़ोस की एक पंजाबी महिला ने उन्हे जस्सो मासी के बेटे भूपी के बारे में बताया! ये महिला भी जस्सो मासी के साथ ही फ़ैक्टरी में काम करती थी! जमना-पार के उस मोहल्ले में आज भी इतनी सदाशयता बाकी थी कि जवान लड़की माँ-बाप के साथ-साथ पड़ोसियों की भी साझी चिंता का कारण बना करती थी! लड़के का कमाऊ और शरीफ होना ही सबसे अधिक सुकूनदायक बात थी, उम्र में दस साल का फर्क तो बातचीत का विषय बनने लायक समझा ही नहीं गया!

'आहो जी, की फरक पैन्दा ए? "फिर भाभी का ईसाई होना भी भला कोई बात है,"ये क्या कम है कि कोई'डिमांड-शिमांड'नहीं है! बस दो जोड़ी कपड़ों में लड़की भेजने की बात है! अगले व्याह दा ख़रच उठान लई भी तैयार हैं! " डूबते को तिनके का सहारा काफी होता यहाँ तो साहिल खुद सामने आकर बाज़ू दे रहा था! कुलवंत कौर ने हाथ जोड़कर बात चलाने के लिए कहा, हालांकि उनकी जागती रातों को अब एक नया काम मिल गया था! अब तो दिन-रात'वाहेगुरु' से इस रिश्ते के सिरे चढ़ने की अरदास करते बीतता था! ऐसा नहीं था कि सोहणी को माँ की इस हालत का अंदाज़ा नहीं था, वह खुद दुआ करने लगी थी कि माँ की खोयी नींदें उसे वापिस मिल जाएँ!

अमावस की रात अधिक काली हो जाती है अगर मन का अँधेरा बढ़ जाए! लगातार चौदह दिन ड्यूटी देने से थके, उकताए चाँद ने उस रात विश्राम के लिए बादलों की चादर ओढ़ ली और सोने चला ये सोचकर कि कल फिर से उगेगा नयी उम्मीद और नए रूप के साथ! अंधेरे के लबादे ने आहिस्ता-आहिस्ता गली नंबर 2 को भी अपने साये में ले लेने के लिए कदम बढ़ाया था पर स्ट्रीट लाइट ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया! उस रात जस्सो मासी अपने कुछ परिचितों के घर कार्ड बांटने गई हुई थी! लौटने में देर होने पर शायद वही रुक गयी होगी! बड़े की शादी इतनी जल्दबाज़ी में हुई थी कि इस बार मासी कोई कोर-कसर नहीं छोडना चाहती थी! भूपी ने कुछ साल पहले मनोयोग से एक मूर्ति बनाई थी! एक लड़की की वह सुंदर मूर्ति इतनी दिलकश लगती थी कि मासी ने उसे कमरे के कोने में रख छोड़ा था! भूपी ने उसे मनचाहे रंगों से सुंदर कपड़े और गहनों से सजाया था, उसकी देहयष्टि इतनी चित्ताकर्षक थी कि अक्सर देखने वालों का ध्यान खींच लेती थी! भूपी ने एकटक उस मूर्ति को निहारते हुये अपनी आँखें बंद की और बिस्तर पर लेट गया! रात के गहराने के साथ नींद भी गहराने लगी थी! देर रात अचानक भूपी को लगा मूर्ति, मूर्ति नहीं जीती-जागती एक लड़की है जो धीमे-धीमे मुस्कुरा रही है! उसकी आँखें इतनी सम्मोहक है कि उसके आकर्षण से बचने के किसी प्रयास के करीब आ पाने का कोई चांस नहीं है! अमावस की उस काली रात में भी पूरा कमरा एक अनोखी रोशनी और खूशबू से सराबोर है! भूपी उठा और उसकी और बढ्ने लगा, मात्र तीन कदम के बाद वह उसके सामने था! करीब, बेहद करीब, उसके होंठों पर गहरी मुस्कान थी और उसकी साँसे अब भूपी के साँसों में एकाकार हो रही थी! भूपी ने महसूस किया, खून की गर्मी उसके पूरे जिस्म को गरमा रही थी! जिस्म जैसे आग की भट्टी की तरह तप रहा था! सम्मोहन से खिंचे आए भूपी ने उसे अपनी बाहों में भरना चाहा! उसके तपते होंठ अभी उन सुर्ख मदमाते होठों की ओर बढ़े ही थे पर ये क्या एकाएक मूर्ति का क़द बढ़ने लगा, ऊंचा, ऊंचा और ऊंचा, इतना ऊंचा कि काफी ऊंची बनी उस कमरे की छत को छूने लगा! फिर जाने छत कहाँ गायब हो गयी और औरत की लंबाई बढ़ती रही, उसकी मुस्कान अब विद्रूप हो गई, मानो बाहें फैलाये खड़े भूपी का मज़ाक उड़ा रही हो! मुस्कान अब ठहाकों में बदल गयी और भूपी जैसे जड़ हो गया, वह न तो हिल पा रहा था और न ही बोल पा रहा था! उसे लग रहा था वह बौना और ज़्यादा बौना होता जा रहा है! फिर अचानक अट्टहास करती वह मूर्ति ठूंठ में बदलने लगी, वही लंबा, निर्जीव, अकेला और डरावना ठूंठ! तभी मुर्गे की बांग ने स्याहीचूस की तरह उसकी नींद का सारा कालापन सौख लिया और भूपी इस दुनिया में वापस लौट आया था! बाहर अब भी स्ट्रीट लाइट की रोशनी थी, भूपी बिस्तर पर सिमटा हुआ था, उसका वजूद एक सूखे पत्ते की मानिंद काँप रहा था, साँसे फिर धौकनी की तरह चल रही थी! कोई देखता तो हल्के सर्द मौसम के बावजूद उसके चेहरे पर पसीने का असर साफ नज़र आता! बमुश्किल भूपी देख पाया कि मूर्ति अब भी पहले की तरह वहीं कोने में चुपचाप खड़ी थी! शांत और बेजान!

"साली, ज़बान चलाती है, एक शबद होर निकाला तो ज़बान खींच लूँगा! तेरे बाप की नहीं पीता हूँ, अपनी कमाई से पीता हूँ!"

लक्ष्मी दरवाज़े पर बुत बनी खड़ी थी! घर की इज्ज़त सरेआम रुसवा हो रही थी और थर-थर दोनों बच्चे उसकी ओट में खड़े गली में हो रहा तमाशा देख रहे थे! शराब इंसान को कितना गिरा देती है, यह वह अग्नि है जिसमें प्यार-मोहब्बत, रिश्ते-नाते क्या घर के घर होम हो जाते हैं! काके शराब पीता था और शराब बदले में उस घर का चैन, सुकून, इज्ज़त और नेकनामी जाने क्या-क्या पी रही थी! काके रात भर हवालात की हवा खाकर आया है! एक दिन बीजी घर से बाहर रही और उसे चिलत्तर करने का मौका मिल गया! जस्सो मासी ने उसका गरेबान पकड़ा और घसीटती हुई कमरे में ले गयी! हवालात से आने के बाद भी उसने 'चढ़ा' ली थी और अब न उसे बीजी का परेशान चेहरा नज़र आता था, न लक्ष्मी की लाल-सूजी आँखें नज़र आती थी! जिसे अरमानों से ब्याह कर लाया था उसके चेहरे पर पुती श्मशान-सी कालिख धीरे-धीरे उसकी ज़िंदगी में उतर आई थी, और वह था कि शराब के कतरों में अपनी बिखरी जिंदगी की किरचें चुन रहा था! दिन भर बेहोश पड़ा रहा, शाम होने पर बीजी के पैर पकड़कर माफी मांगने वाला काके क्या वही था! यकीन के चिथड़े बटोरने का आदी जितना यह परिवार था उतनी ही अब तक गली नंबर 2 भी हो चली थी! दूधवाला दूध ला रहा था, बच्चे गली में स्टापू खेल रहे थे और औरतें धूप जाने के बाद मँजी (खाट) खड़ी कर शाम के खाने का मेन्यू बतिया रही थी!

"गल सुन, यहाँ आ!"

"क्या बात है? क्या चाहिए, खाना बना रही हूँ!"

"तू मुझसे नाराज़ है ना?"

कोई उत्तर नहीं!

"अच्छा माफ कर दे यार, भोत शर्मिंदा हूँ, आगे से नइ पीऊँगा!"

कोई उत्तर नहीं!

"देख, तेरी सौं...पक्का!"

लक्ष्मी ने एक नज़र पति पर डाली पर कोई उत्तर नहीं दिया! मन ही मन बुदबुदाई "सब नौटंकी" और चुपचाप रोटी सेंकने लगी! उसकी आँखों में जाने कितने आँसू थे जिनका पानी मानों सूखता ही नहीं था! जब-जब उसने सोचा उसके आँसू सूख गए हैं तब-तब कोरों से टपक जाते थे! जाने इन आँखों ने कितने समंदर जमा किए हुये थे कि खत्म ही नहीं होते थे! और कमबख्त जाने क्या बदा था उसके नसीब में! उसने पिछले चार दिन से काके से कोई बात नहीं की! उसने क्या, बीजी और बच्चों ने भी मौन साधा हुआ था और भूपी तो बात करता ही कब था! शाम को लक्ष्मी के मॉम-डैड उसे ले जाने आए थे! उसने सूटकेस निकाला और खामोश अपना सामान पैक करने लगी! काके माफ़ियाँ मांग रहा था, बीजी चुपचाप आँसू बहा रही थी! 'कमबख्त मोए' ने किसी लायक ही कहाँ छोड़ा था कि वे प्रतिरोध करतीं! लक्ष्मी बच्चों को साथ ले निकलने ही वाली थी कि बीमार और बूढ़े ससुर ने हाथ जोड़ लिए! वे बोले तो कुछ नहीं पर उनकी सूजी आँखें और झुर्रियों से भरे ज़र्द चेहरे आसुओं की आड़ी-तिरछी इबारत ने सब कह दिया! सूटकेस हाथ से छूट गया और वह अंदर दौड़ गयी! कोई नहीं जानता था, काके को अपनी हरकतों पर वाकई अफ़सोस था या फिर कोई नौटंकी, पिछले चार दिनों से वह भी पीना छोड़कर रोज़ चुपचाप खाना खाता और ऑटो लेकर निकल जाता था! उस दिन शाम को लक्ष्मी के हाथ में हज़ार रुपए रखे और कान पकड़कर खड़ा हो गया, तो उसने अविश्वास से अपनी हथेली पर नज़र डाली, उसे लगा दुनिया के सारे सुख उस हथेली पर सिमट आए हैं उसने मुट्ठी भींचकर कलेजे से लगा ली, और आँखें भींच कर इस सुख को पीने लगी, कहीं इस अमृत का एक कतरा भी चू गया तो अनर्थ हो जाएगा! और उसका माही जिसके कलेजे से वह लगी थी चुपचाप उसके आँसू पोंछ रहा था! दो पश्चाताप के आँसू टपक के उन आंसुओं में मिले और लक्ष्मी को लगा जैसे तक़दीर के आईने पर बरसों से जमी बदकिस्मती की मनहूस गर्द हट गयी और नया दिन निकल आया हो!

"काला डोरया कुंडे नाल अड़या ओए, के छोटा देवरा भाभी नाल लड़या ओए" ढोलक की थाप पर ज़ोर-ज़ोर से व्याह के गाने गाये जा रहे हैं! आखिरकार वह दिन आ ही गया! व्याह वाले दिन बेतरतीब दाढ़ी और ऊबड़-खाबड़ बालों के पीछे से भूपी का गोरा-चिट्टा चेहरा ऐसे दमक कर सामने आया था जैसे कालों बादलों के पीछे से चाँद निकल कर सामने आता है! और लोग थे कि अपलक निहार रहे थे! कुछेक को तो भ्रम हो गया था कि ये भूपी नहीं कोई और है! सुंदर कपड़ों में बैठा हुआ वह किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था, जस्सो मासी जिसकी बलाएँ ले रही थीं! उसकी बेजान और निर्जीव आँखों का सूनापन, भाभी के लगाए काजल के पीछे कहीं छुप-सा गया था! उन आँखों में कोई सपना नहीं था, शुष्क और खाली-खाली आँखों से इस सारे तमाशे को देखता भूपी भाभी की एक शरारत पर धीमे-से मुस्कुरा दिया! सोहणी के लिए उसकी लंबाई पता नहीं कोई मायने रखती थी या नहीं पर भूपी...! भूपी के मन में चल रहे अंधड़ों के आगे गाजे-बाजे की सब आवाजें बस शोर थीं! और इस शोर के सामने उसके मन की आवाज़ मानो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह विलीन हो गयी!

आज शादी को दो दिन बीत चुके हैं! सोहणी 'पैर फेरने' के बाद अभी भूपी के साथ वापस लौटी है! ससुराल से शादी के बाद पहली बार मैके जाने की इस रस्म में भूपी को सोहणी को साथ लाना था! वह जो ऑटो में सोहणी के साथ बैठकर आया है, क्या वह भूपी है? नहीं, वह तो उसकी परछाई है, भूपी तो सोहणी को देखने के बाद जाने किस बियाबान में खो गया था! उसका डील-डौल, उसकी लंबाई और उसका खिलंदड़पन, सब भूपी को उसके करीब जाने से रोकने के हथियार साबित हुये! वह जितना करीब आती थी, भूपी उतना ही दूर होता जाता था! उसे लगता था सोहणी उससे दूर, बहुत दूर इतनी ऊँचाई पर खड़ी है जहां पहुँचने के लिए अगर वह अपने सारे अरमानों, सारी ख़्वाहिशों, सारी तमन्नाओं को सीढ़ी में बदल दे तो भी उसे नहीं छू पाएगा! पर सौ टके का सवाल यह था क्या भूपी वह सीढ़ी बनाने का ख़्वाहिशमंद था या अपने ही अन्तर्मन के अँधेरों से जूझता भूपी आज किसी की ख़्वाहिश या आरज़ू करने की हिम्मत ही नहीं जुटाना चाहता था! यूं भी चाहतों को राहों या राहत तक पहुँचने के लिए जिस जज़्बे की, जिस इच्छाशक्ति की दरकार है वह भूपी के जीवन में नदारद है, उसने जीतने से पहले ही अपने हथियार नियति को सौंप दिये थे और चुपचाप नसीब के भंवर में खामोश बहता जा रहा था!

चारों और गहन अँधेरा है! भूपी एक रेगिस्तान में अकेला खड़ा है! दूर-दूर जहां तक नज़र जाती है, उसके मन और जीवन में मौजूद जाने-पहचाने अकेलेपन का साम्राज्य है, चुप्पी का शासन है और ख़ामोशी की सल्तनत है! इस रेगिस्तान की दहक और नीरवता क्या उसके मन की तपन से कहीं ज़्यादा थी! उन कंटीली झाड़ियों में ज़्यादा कांटे और चुभन हैं या फिर उसकी अंतरात्मा को छलनी कर देने वाले शूलों के घाव ज़्यादा हैं! एकाएक रेतीली आंधियों ने उसे घेर लिया! भूपी को दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आ रहा है! एक काला साया उसके करीब नमूदार हुआ और उसे जकड़ने लगा! भूपी घबराकर उस साये से खुद को छुड़ाना चाहता है! वह लगभग जाम हो चुके हाथ-पाँवों को झटकना चाहता है, पर बेबस है, लाचार है! वह अपनी सारी ताक़त को इकट्ठा कर पूरा ज़ोर लगाता है और साये की गिरफ्त से खुद को छुड़ा लेता है! "आह!" ये आवाज़ सोहणी की है जो बिस्तर पर उसके करीब लेटी थी! उसका एक हाथ भूपी के सीने पर था और भूपी एक झटके में उसकी बाहों से खुद को छुड़ाकर कमरे से बाहर निकल जाता है! ये उसे क्या हुआ? उसका माथा जल रहा है और कंपकपाता शरीर बुखार से तप रहा है! ओह! न जाने क्यों, जिंदगी में आज पहली बार उसे शिद्दत से सिगरेट की तलब महसूस हो रही है!

दिवाली को बीते अब महिना बीत चुका है! सोहणी 10 दिन बाद माँ के घर से लौटी है! जब गई थी तो उन दिनों भूपी की तबीयत कुछ ठीक नहीं, उसे आराम चाहिए था! इधर माँ के साथ पंजाब भी हो आई थी! 'सीज़न' के बाद भूपी के पास इन दिनों ज़्यादा काम नहीं होता! पूरा दिन या तो थोड़ी बहुत मूर्तियाँ बनाने में जाता है या फिर छत के कोने में बैठकर कागज़ पर आड़ी-तिरछी लकीरें निकालने में अपने वक़्त की रेज़गारी को बेभाव खर्च किया करता है! सीज़न की थकान और आपाधापी के बाद मिले सुकून के ये लम्हे उसे बेचैन करते हैं! उसका बस चले तो काम को कभी खत्म ही न होने दे! तभी एक कंकड़ उसके पैरों पर आकर लगा और विचारों के झंझावात का सिलसिला छन्न से टूट गया! सोहणी छत पर कपड़े सुखा रही है, न चाहते हुये भी भूपी का ध्यान उसकी ओर चला ही गया! गुलाबी पंजाबी सूट और पटियाला सलवार में कसा उसका गदराया जिस्म, चोटी में बंधे लंबे काले बालों के नीचे झूलता सुनहरी परांदा, हाथों में चमकते चूड़े का लश्कारा (चमक) , भूपी का दिल चाहा उसे ताउम्र निहारता रहे पर एकाएक उसकी नज़रें सोहणी से मिली और वह देखते ही फिक्क से हंस पड़ी! भूपी चुपचाप सिर झुकाकर पेंसिल से खेलने लगा, भूपी की चुप्पी और सोहणी की शरारतें, कभी कभी लगता है दो विपरीत प्रकृति वाले लोगों के बीच का धनात्मक और ऋणात्मक का फर्क उन्हे बार बार करीब खींचता है! दोनों ही अपने अंदर भावनाओं का अथाह समुद्र लिये होते हैं जो ऊपर से तो शांत दिखाई देता है लेकिन हलचल होने पर किसी सूनामी से कमतर नहीं होता है! सोहणी की पायल की छम-छम, चूड़े की खनखनाहट और उसकी मदहोश हंसी, होना तो यह था कि भूपी इस सूनामी में खामोश बह जाता, पर सोहणी अक्सर उसे किनारे पर शांत, उदासीन खड़े देखती! हालांकि हर रात इस शांति की आड़ में वह उस सूनामी की लहरों में कितने ही थपेड़े खाकर वापस किनारे की ओर लौट आता था ये कोई नहीं जानता था!

शाम को भूपी वर्माजी के यहाँ गया था! मूर्तियों का हिसाब अभी बाकी था, दूसरे व्याह में को खर्चा हुआ, उससे हाथ थोड़ा तंग हो गया था! वर्माजी बाहर गए थे पर उन्होने फोन पर रुकने की हिदायत दी! लौटते-लौटते काफी समय लग गया! नई मूर्तियों के सेंपल देखते-देखते समय कैसा बीत गया कुछ पता ही नहीं चला! जब भूपी घर लौटा तो आधी रात बीत चुकी थी, सारी बत्तियाँ बंद थी! थकहार कर सोये घरवालों को उसने जगाना उचित नहीं समझा! भूपी चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ चला! खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट की थोड़ी रोशनी के कारण कमरे में बहुत अँधेरा नहीं था! सोहणी बिस्तर पर लेटी थी, उसकी आँखें बंद थीं! भूपी कुछ देर खिड़की से उसे देखता रहा, फिर धीरे-से बिस्तर की ओर बढ़ा! उसका दिल जोरों से धडक रहा था, भूपी को लगा अगर सूखते हलक में फंस न गया होता तो शायद कलेजा बाहर आ गया होता! बिस्तर के करीब पहुँचकर वह अभी झुका ही था कि एकाएक उसकी निगाह कमरे के कोने में रखी मूर्ति पर पड़ी! उसे लगा मूर्ति के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान थी, वह खौफनाक रात उसके जेहन पर काबिज हुई और भूपी पलटा और कमरे से बाहर की ओर भागा! उस खौफनाक सूनामी की लहरों में थपेड़े खाकर आज एक बार फिर वह खाली हाथ वापस किनारे की ओर लौट आया था! इसके बाद गली के नुक्कड़ पर अलाव के किनारे हाथ सेंकते हुये, वह बची हुई रात को तल्ख यादों की कैंची से काटते हुये अलाव में कतरे-कतरे होम करता रहा! ये कैसी आहुति थी जिसमें उसका कल, आज और कल जल रहा है, ये कैसी तपिश है जिनसे ज़िंदगी को रु-ब-रु तो खड़ा कर दिया है पर उसे उसकी जिंदगी के ही करीब नहीं आने देती थी! फिर एक और मनहूस रात उसकी किस्मत के खाते में दर्ज हो गयी थी! वक़्त की झोली में ऐसी कई सर्द रातें भरी थीं जो एक-एक कर जादूगर के टोपी से परिंदों की मानिंद निकल कर स्याह आकाश में गुम होने लगी!

हरिद्वार से मूर्तियों का बड़ा ऑर्डर मिला है! लक्ष्मी बहुत खुश है आज! इस बार कितनी ख्वाहिशें सिरे लगेगी इसका हिसाब लगाना बड़ा सुखकर है! जल्दी ही नए ऑर्डर का काम शुरू करना है! अब शायद कुछ हेल्पर भी रखने पड़ें! पर भूपी इस सारे हिसाब-किताब से परे है! उसे न खुशी से सरोकार है और न ही हिसाब-किताब की दरकार! उसे तो बस रंगों में डूब जाना है!

"जी, मैं केया, त्वानु चा दे नाल कुछ चाइदा है?"

उसने गर्दन उठाई तो एकाएक घबराकर सर झुका लिया, सोहणी चाय के साथ नाश्ते की प्लेट थामे खड़ी थी! उफ़्फ़, ये लंबाई कितनी खौफ़नाक शय है!

"पकौड़े..."

सोहणी ने उसके पैर को धीरे से अपने पैर से दबा दिया! पैर खींचते भूपी ने संयत होते हुये चाय का कप थाम लिया! बढ़िया, चाय अच्छी है, एक सुड़की के बाद उसका ब्रुश तेज़ी से चलने लगा, भाभी की नज़र बचाकर सोहणी ने एक पकौड़ा उसके मुँह में ठूस दिया और प्लेट वहीं रखकर हँसते हुये वहाँ से चली गयी! दूर जाती सोहणी को एकटक निहारता भूपी उसे जाते हुये देखता रहा! फिर मुँह चलाते हुये नज़र हटाकर बिजली के तार पर बैठे पंछियों को देखने लगा, पंछी आज भी ऊंचाई पर बैठे चहचहा रहे थे, पर जाने क्यों आज पकौड़े का स्वाद उसे कसैला नहीं लगा! उसने एक और पकौड़ा उठाकर मुंह में डाला और ब्रश चलाने लगा!

सोहणी भाभी के पास बैठी हन्नी के साथ गिट्टे खेल रही है! अचानक गिट्टे उछालना छोड़कर वह भाभी से पूछती है,

"भाभी, ए कुछ बोलते नहीं! बहुत चुप-चुप रहते हैं! क्या हमेशा से..."

भाभी बोलती रही और सोहणी जैसे कोई पेंसिल थामे शब्दों को मन के कैनवास पर उतारती रही! जब वह तस्वीर मुकम्मल हुई तो सोहणी ने पाया, वह बचपन से अपने अकेलेपन से जूझते हुये उदास भूपी का रंगहीन चेहरा था, जिसमें सोहणी को जीवन और प्रेम के रंग भरने थे! वह जान गई थी खामोशी भूपी की ढाल थी और एकांत उसका सहारा, और सोहणी ने सबसे पहले इन्ही पर निशाना साधना था! वह उसके एकांत के व्यूह में प्रवेश द्वार ढूंढकर उसकी खामोशी को भंग करने का अरमान रखती थी और इसका कोई मौका छोडना उसे गवारा नहीं था! उसने तय कर लिया था वह उसके मन पर सातों तालों को तोड़कर भी उसके दिल में अपना आशियाँ बनाएगी! उसके शर्मीलेपन, सादगी और उसकी मासूमियत ने सोहणी के दिल में घर बना लिया! जिस तरह उसने सोहणी का हाथ थाम कर उसे अपनाया है, उसकी माँ के चेहरे पर संतोष और सुख के सतरंगी रंग उस चितेरे की बदौलत ही तो हैं जिसने उसे बरसों की खोयी नींद से मिला दिया!

काके अब रोज़ रात में ऑटो चलाता है और दिन में अपने कमरे में पड़ा ख़र्राटे भरता है! शराब को अब छूता भी नहीं और पर बीजी ने उसके यार-दोस्तों की ऐसी क्लास ली कि वे ऐसे गायब हुये मानों गधे के सिर से सींग! जस्सो मासी अब रसोई में नहीं सोती! रोज बड़ी बहू और बच्चों के पास ही अपनी मँजी लगा लेती है! सोहणी चपल, चंचल, उद्दाम वेग से बहती हुई एक अल्हड़ पहाड़ी नदी है जो सारे बांध तोड़कर बह निकलना चाहती है! वहीं भूपी वह शांत और गंभीर सागर है, जिसमें समा जाने में ही नदी अपने जीवन की सार्थकता देखती है! जिस अनदेखे, अनचाहे मीत पर जवानी की सौगात लुटा देने के सपनों ने बीसवें साल में हजारों तमन्नायेँ की थी उसका चेहरा अब धुंधला नहीं है! सारी धुंध छंट गयी है! अब वह जानती है उसे, पहचानती भी है, उसे लगता है जैसे वही उसका जन्मों से मीत है, जिसका साथ ही उसके लिए जन्नत है! प्रेम जब आत्मा का स्पर्श करता है तो पुरुष अधिकार चाहता है और स्त्री प्रेम में समर्पित होना चाहती है! सोहणी अपनी मोहब्बत के लिबास पर चाहतों के सलमे-सितारे टांकना चाहती है, आग के दरिया में डूबकर पार होना चाहती है! अपनी मोहब्बत के साये में सुकून से ज़िंदगी बिताने का अरमान ही उसकी आरज़ू था और यही उसका ख्वाब भी बन गया था!

स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी खिड़की से कमरे के भीतर आ रही है और पूनम की वह खूबसूरत रात मानों एक दुल्हन की तरह आई है, जिसके मखमली दुशाले पर जड़े हुये अनगिनत सितारे कायनात को रोशन कर रहे हैं! अपनी जवानी पर इठलाता चाँद उसका महबूब है, जो पल-पल उसे निहारकर खुशी से किरणों की बारिश कर रहा है! गली नंबर 2 उस रात में भी उतनी ही रोशन और जगमग है जितनी सोहणी के मन में हिलौरे लेती कामनाएँ हैं! सोहणी इस घर के कण-कण को अपना रही है, अपनी जड़ों से उखड़ा वह कोमल पौधा, इस अजनबी मिट्टी में अपनी जड़ें जमा रहा है! उसे भूपी से ही नहीं उससे जुड़ी हर बात से प्यार है, वह सचमुच उसकी संगिनी बनना चाहती है! आज उसने भी दिन भर भाभी से रंग करना सीखा है! भूपी के ब्रश को हाथ में लेते हुये जिस सिहरन को उसने तन-बदन में महसूस किया, वह उस सिहरन की ही सहेली मालूम हुई थी जो सोहणी ने उसे पहली बार छूकर महसूस की थी! भूपी आज दिन भर उसके करीब था, उन्होने साथ खाना खाया और आज उसने पहली बार भूपी की आँखों में प्यार का वह उमड़ता सागर देखा जिसकी एक झलक देखने की आस उसे बेचैन किए हुये थी! उसके स्पर्श को यादकर अपने सुख में मग्न सोहणी कहाँ जानती थी, ये सिहरन जैसे उसकी तन की नहीं मन की भी सिहरन थी, जिसने अवसाद की सौ परतों के नीचे दफ्न उस सुसुप्त आत्मा को भी सहला दिया था जो जाने कब से पत्थर की मूर्तियों के बीच रहते-रहते रफ्ता-रफ्ता एक बेजान मूर्ति में बदल रही थी! यह बरसों से बंद पड़े आशाओं के उस द्वार पर हुई एक बहुप्रतीक्षित किन्तु अप्रत्याशित आहट थी जिस पर जाने कब से निराशा का जंग खाया ताला झूल रहा था! उस द्वार की चरमराहट से भूपी कब तक अंजान बना रहेगा, ये रात की भी चिंता का विषय था और गली नंबर 2 की भी!

भूपी दीवार से सर टिकाये हुये चाँद को देख रहा है, तभी नीचे के कमरे की खिड़की से दीवार पर पड़ रही रोशनी में दो साये एकाकार होते दिख रहे हैं! भूपी को अजीब-सी बेचैनी महसूस हो रही है! उसने नज़रें वहाँ से हटा लीं! शायद आज काके देर से काम पर निकलेगा! भूपी चुपचाप कमरे में आकर लेट गया है! उसका चित्त शांत नहीं है और नींद आँखों से दूर, बहुत दूर सैर पर निकली है! ये चाँद और आँखें, दोनों की साजिश खूब रंग ला रही थी!

"चिट्टा कुकड़ बनेरे ते, काशनी दुपट्टे वालिये, मुंडा सदके तेरे ते..."

अपने काशनी (बैंगनी) दुपट्टे को लहराती, गुनगुनाती उस चंचल, चपल हिरनी ने जब कमरे में प्रवेश किया!

वह नहीं जानती कि भूपी सो रहा है या जाग रहा है! हाँ, पर वह जाग रही है, चाँद जाग रहा है, रोशनी में नहाई गली जाग रही है और जाग रही हैं उसकी तमाम उद्दात कामनाएँ! नदी का सागर के प्रति समर्पण उसका स्वभाव है और उस भाव की सुखद परिणिती उसका ध्येय! इसके लिए रास्ते में आने वाली हर बाधा, बांध को तोड़कर भी वह बढ़ती जाती है, निरंतर, गतिशील! तो पूरे चाँद की उस एक रात में सब अपने लक्ष्य की बढ़ रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता! नदी बेखौफ़ बढ़ रही थी कि उसे सागर से मिलना था, वहीं सागर चाँद के आकर्षण में समस्त गुरुत्वाकर्षण को समेटे हर पल उस आसेब से लड़ रहा था जो लगातार उसे अपने और खींच रहा था! सोहणी ने उसके करीब जाकर धीरे से उसे छुआ! अब वह भूपी के बेहद करीब थी, उन दोनों के बीच पसरी वह सर्द, अनजान रात धीमे-धीमे एक सुंदर सवेरे की तलाश में अपने मुसलसल सफर पर थी! धीरे-धीरे रात पिघलने लगी थी, जिस्म की गर्मी की तपन के आगे धधकते शोले भी शीतल झोंके मालूम होते हैं! इसके बाद उनके बीच उस रात के लिए भी कोई जगह नहीं रही, पिघलती रात उनके जिस्म में समा गयी थी और वे दोनों एक दूसरे में! सोहणी के प्यार और समर्पण की कशिश ने सम्मोहन के टूटने का कोई भी मौका पास नहीं आने दिया और आखिरकार वही हुआ जिसके होने के विषय में लगाए जा रहे गली नंबर 2 के सारे अनुमान अपने शिखर पर थे, जिसका होना कल तक सुगबुगाहटों में बुना जाता था, जाने कब से नियति की तारीखों में दर्ज किया जा चुका था! इससे पहले कि रात उस चमकदार, धवल सवेरे की गोद में बेसुध होती, चंचल नदी का पानी सारे बांध तोड़कर सागर की ओर बह निकला, वहीं सागर ने भी स्वयं को ज्वार के हाथों सौंप दिया! समर्पण के रंग ने उस रुपहली रात को एक नए रंग में रंग दिया यकीनन यह पहले प्यार का रंग था जो इस दुनिया में मौजूद हर रंग से कहीं ज़्यादा दिलकश और पुरअसर था!

भूपी ने आँखें खोलकर सोहणी के चेहरे की ओर देखा, वह अब भी उसकी बाहों में थी, जीती-जागती, मुस्कुराती, लजाती और अपने सुख को महसूसती सोहणी! एक पल को उसे लगा मानो चाँद में सीढ़ियाँ लग गयी और खिड़की से दूधिया चाँदनी उसकी बाहों में उतर आई है! पर ये क्या, ठीक उसी पल उसने घबराकर कमरे में मौजूद मूर्ति की और देखा, कमरे के भीतर पसरी दूधिया सफेदी में मूर्ति हमेशा की अब भी उसी कोने में रखी थी और छत भी वहीं मौजूद थी जहां उसे होना चाहिए था! कहीं कुछ न बदला था, सब वैसे ही था जैसे पहले कभी न हुआ था, जैसा होना चाहिए था! सोहणी ने उसके सीने पर आहिस्ता से अपना सिर टिका दिया और ठीक उसी क्षण भूपी के मन में तना बरसों पुराना वह ठूंठ जैसे लरज़ गया था, दरक गया था, चटक गया, और ये क्या, आज उसकी ऊँचाई इतनी अधिक नहीं कि भूपी भय से उसके कदमों में अपना सर झुका दे! जिंदगी में पहली बार आज भूपी को ठूंठ से कोई डर नहीं लगा! फिर नींद ने उसे अपने आगोश में यूं ले लिया था जैसे माँ थपककर किसी बच्चे को सुला देती है!

सुबह हो चुकी है! रात अकेली नहीं गयी, अपने साथ जाने कितने बरसों के दुख, अवसाद, अकेलेपन और अंधेरे को समेटे विदा हुई है! सूरज की आहट से अभी-अभी जागी गली नंबर 2 ने अंगड़ाई लेकर अपनी आँखें खोल दी हैं! आज का दिन सबके लिए कुछ खास है और ये सवेरा सबके लिए कोई न कोई सौगात लेकर आया है! परिवार का जल्द ही मूर्तियों की फ़ैक्टरी शुरू करने का विचार है, जस्सो मासी आज से अपनी फ़ैक्टरी जाना छोड़ रही है, आखिर उसके कमाऊ पूत अब अपनी अपनी गृहस्थी संभालने लायक हो गए हैं और वह अब चैन से धूप में मँजी डालकर मासड़ (अपने पति) से बतियाते हुये, अलसाते हुये अमरूद और मूँगफलियाँ खाते हुये, उनके बच्चे खिलाना चाहती है! क्या कहने! इस सुख पर तो सात स्वर्ग भी सदके! काके की लोन की अर्ज़ी मंजूर हो गई है! आज घर में अपना ऑटो आएगा, मुस्कुराहटें बिखेरती लक्ष्मी पूजा की थाली सजा रही है! खिड़की के बाहर सोहणी तुलसी को पानी दे रही है, हर बूंद के साथ रिस रहा है भूपी के मन का डर, तिरोहित होती जा रही हैं वे तमाम काली भयानक रातें जो सालों से उसे कैद किए हुये थीं! एकाएक उसे महसूस हुआ कि रफ्ता-रफ्ता अपनी ऊंचाई खो चुका वह ठूंठ पिघल रहा है! ऐसा सवेरा उसके जीवन में पहले कभी नहीं आया था और उस सुबह उगते सूरज ने उदास चाँद से जुड़े उसके सभी मनहूस रिश्तों की कालिख को अपनी सुनहरी किरणों के रंग से धो दिया था! भूपी ने आँखें बंद की तो पाया ठूंठ नहीं उसकी जगह लहराता हुआ एक हरा पौधा है, जिसमें नन्ही-नन्ही कई कौंपले उग आई हैं! नन्ही-नन्ही कौपलें, हरी-हरी कौपलें, उसके और सोहणी के अरमानों से सजी कौपलें! सचमुच, उन सबके जीवन में सुबह हो चुकी है!