गवाही / राजनारायण बोहरे

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मजिस्टेªट साहब का रवैया देख मैं हतप्रभ हो गया। वे जिस तू तड़ाक वाली भाषा में मुझसे सवाल जवाब कर रहे थे, उससे लग रहा था कि वे पहले ज़रूर किसी पुलिस थाने के दारोगा थे। न्याय की आसंदी पर विराजमान हर मजिस्ट्रेट अपने सामने हाजिर होने वाले आदमी से क्या ऐसे ही बात करते होंगे। मेै डर के मारे पसीना-पसीना था और कुछ इल्तिजा करना ही चाहता था कि गला अवरूद्ध हो गया और मैं घबरा गया फिर जाने कैसे मेरी नींद खुल गई.

फिर तो रात के तीन बज गए. मेरी आँखों से नींद ऐसी रूठी कि हाथ-पांव गीला करने से लेकर सिर पर पानी डालने और कुछ मीठा खाकर टहलने जैसे तमाम जतन किए तो भी उसके स्पर्श को तरसता रहा। श्मुझे रह-रह कर आने वाले कल का ध्यान आ रहा था। कल अदालत में गवाही थी मेरी। एक खास मुकद्दमा था ये जिस पर सारे सूबे की आँखें टिकीं थीं।

मुकद्दमे का ख्याल आते ही मुझे कंपकंपी हो आई। हर बार की तरह लगा कि काश, मैं मौका-ए-वारदात हाजिर न होता..., या फिर मैंने बहादुरी दिखाते हुऐ नीरनिधि साहब को न बचाया होता। चलो, बचा भी लिया था तो पुलिस और पत्रकारों से कुछ न कहा होता। अलबत्ता, जो कुछ हो चुका उस पर किसका वश है। दुधारी तलवार पर खड़ा हूँ मैं, इधर कुंआ तो उधर खाई है। अदालत में कल क्या कहूँगा मैं...?

...और, सारी घटना एकबार फिर मेरे जेहन में घूम जाती है।

उस दिन हम सब दफ्तर के बड़े हॉल में इकट्ठे थे कि ग्यारह बजे रोज की तरह नीरनिधि साहब अपने जूते ठकठकाते हुए आ पहंुचे थे। सामूहिक नमस्कार स्वीकारते वे अपने चैम्बर में गये तो रोज की तरह हम चुहलबाजी में लग गए. फिर उनकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और प्रेम व्यवहार के गुण की तारीफ़ करने लगे। इस तारीफ़ में हरेक के मन में एक ही भाव भी था कि काश हम ऐसे हुए होेते...! नहीं हुए सो देखने दिखाने को बढ़ाई करते थे सब के सब, हालांकि हम क्या, सारा नगर जानता था कि नीरनिधि साहब एक हीरा आदमी है। गाँव की कच्ची गलियाँ हों या नगर की गन्दी बस्ती नीरनिधि साहब हर उस जगह मौजूद मिलते थे, जहाँ हमारे महकमे के छोटे कर्मचारी काम कर रहे होते। सारा जीवन सादे ढंग से रहने और पूरी क्षमता से काम करने में ही गुजार दिया उन्होने, सो घरवालों को भी आदत-सी हो गई जमाने की हवा से विपरीत चलने वाले एक आदमी के साथ जीवन यापन करने की। हालांकि अर्दली कहते हैं कि मेम साहब भी बड़े दिल वाली हैं और अपने पति को उनकी ईमानदारी के लिए कभी उलाहना नहीं देतीं, चाहे परेशानी में गुजर करलें।

तब बारह से कुछ कम का समय था कि दफ्तर के बाहर तेज हलचल-सी दिखी। पहले लगा कि बिजली-बिल जमा करने वालोें की भीड़ है। फिर जब भीड़ में खड़े एक नेता नुमा आदमी की ऊंचे स्वरों में बातचीत सुनी तो माथा ठनका कि बात कोई अैार है। सब अपने-अपने अनुमान लगा रहे थे कि सहसा सौ एक लोग हॉल के बड़े दरवाजे से अंदर घुसते दिखे और हम चौंकते से अपनी-अपनी जगह खड़े हो गए.

"कौन हैं आप? क्या काम है?" बड़ेे बाबू ने दफ्तरी अकड़ के साथ पूछा तो भीड़ की अगुआई करता चुस्त सफेद कुर्ता-पैजामा और कंधे पर रंगीन गमछा डाले वह गोरा और तगड़ा युवा गुर्राया, "रूलिंग पार्टी के मैम्बरांे से बात करने की तमीज नहीं है तुझेे बुढ्ढे! मैं रूलिंग पार्टी की युवा इकाई का नगर अध्यक्ष रक्षपाल हूँ।"

क्षणाश में बड़ेे बाबू के भीतर बैठा चौकन्ना क्लर्क जाग उठा, "सॉरी भैया मैं पहचान नहीं पाया। ...कभी काम नहीं पड़ा ना!"

"येई तो! ...ये ई तो गद्दारी है हमारे पार्टी वाले हुक्मरानों की। तुम जैसे दो कौड़ी के नौकर तक हमे नहीं पहचानते। ...हम तो आज एकदम चोखा हिसाब करने आये हैं कि तुम जो रोज-रोज मनमाने ढंग से बिजली की कटौती करते रहते हो उसका जिम्मेदार कौन है? ...साले तुम्हारी कारगुजारीयों की वजह से हमारी पारटी बदनाम हो रही है।"

"आप बैठो तो सही भैया! ...आइये आप भी बैठिए" अपनी बेइज्जती पीते बड़े बाबू ने उसके साथ वाले लोगों सेे भी बैठने का इसरार किया।

"अबे चुप कर बुढ्ढे, तेरा अफसर कहाँ है? उससे बात करने आए हैं हूँ कहाँ बैठता है वह रिश्वतखोर?" बड़े बाबू की चिरौरी से नर्म होने के बजाय वह युवक उत्तेजित हो उठा था। डर से काँप उठे बड़े बाबू। नेता के पीछे खड़े लोग बड़े बाबू को खा जाने वाली निगाहों से घूर रहे थे। थरथराते बड़े बाबू ने काँपती उंगली से उस कमरे की तरफ इशारा कर दिया जिधर नीरनिधि साहब का चैम्बर था। हॉल में मौजूद सारे कर्मचारी नीची निगाह किए खड़े थे और कनखियों से उन लोगों की गतिविधि देख रहे थे। राजनीति में गुण्डागर्दी समावेश का पहला तमाशा था हमारे सामने।

लगा कि किसी बांध की दीवार ही टूट गई हो, हहाकर बहते पानी की तरह बाहर खड़े पचासेक आदमी और भीतर घुसे और वे सब के सब हुंकारी के साथ एक दूसरे को धकियाते नीरनिधि साहब के कमरे मेें घुसने लगे। उन सबकी आँखों में एक अजीब-सी हिँसा की ज्वाला थी और चेहरों पर थे दर्प के भाव। जिसे देख हम सब दहसत से भर उठे थे।

पहले बड़े बाबू ने धीरे से अलमारी लॉक की और आहिस्ता से बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ गये, फिर वर्माजी, फिर खरे-चतुर्वेदी-शर्मा वगैरह। एक-एक कर सारा स्टाफ दफ्तर से बाहर निकल गया। सिर्फ़ मैंं अकेला भकुआता-सा बैठा रह गया था इतने बड़े हॉल में जिसमें हजार से ज़्यादा आदमी समा सकते थे। ...मेरी छठी इन्द्रिय ने मुझे चेताया कि अब मुझे भी खिसक लेना चाहिये, सो बिना देर किए मैं झटके साथ उठा और टेबिलों के बीच से जगह बनाता बीच की खाली जगह मंे आया ही था कि मेरे पांव जकड़ गए, नीरनिधि साहब के कमरे में से उनकी तेज चीख सुनाई दी मुझे और लम्बी हिलकी भी। सहसा करंट-सा आ गया मुझमें और हवा के परों पर सवार मैं ताबड़तोड़ दौड़ पड़ा था नीरनिधि साहब की दिशा में।

अंदर का दृश्य हर भले आदमी को शर्मसार कर सकता था, लेकिन मेरे लिए असह्य था वह। ...हमारे दफ्तर का सम्मान्य अफसर, ...बिजली विभाग का वह कर्मठ और ईमानदार इंजीनियर, ...जनता की सेवा में चौबीसों घण्टे तत्पर रहनेवाला वह जनसेवक, ...हम सब कर्मचारियों की निष्ठा का प्रतीक वह हमारा नुमाइंदा उस भीड़ से घिरा हुआ बेहद दयनीय हालत में उन दो कौड़ी के गुण्डों के हाथों में फुटबाल की तरह उछल रहा था। उसका सांवला चेहरा इस वक्त काले रंग से रंग चुका था जिसके बीच-बीच में खून की लाल लकीरें उसे अजीब-सी शक्ल प्रदान कर रही थीं। उन्मादी भीड़ के लोग उनको बेतरतीब ढंग से पीटते हुए एक भयावह अट्टहास कर रहे थे और नीरनिधि साहब गिडगिड़ाते हुए उनके हाथ जोड़ कर अपने प्राणों की भीख माँग रहे थे।

जबकि मुश्किल से पांच मिनट-बीते थे मैंने देखा कि हृष्टपुष्ट नीरनिधि साहब ष्श्लथ हो चुके थे और अब न उनके मुंह से चीख निकल रही थी न बचाने की गुहार। ठीक तभी भीड़ का शिकंजा ढीला हुआ, मुझे नीरनिधि साहब तक जाने का मौका मिल गया। जमीन पर आैंधे पड़े थे। मैंने उन्हे सीधा किया और अपने कमजोर हाथों से उन्हे उठाने का यत्न करने लगा ताकि उनकी कुर्सी पर बैठा सकूं लेकिन वे थे कि तनिक भी सहयोग नहीं कर रहे थे, लगातार मेरे हाथों से फिसले जा रहे थे। बमुश्किल तमाम मैं घसीटकर उन्हे कुर्सी पर बैठाने में सफल हुआ तो उनका सिर धड़ाम से टेबिल पर मड़े कांच में जा टकराया। उनके सिर को सीधा करते हुए कनखियों से मैंने देखा कि हाथ की अदृश्य धूल या अछूत आदमी को छूने से पैदा हुआ छूत भाव झड़ाते वे लोग हर्षध्वनि के साथ लौटने लगे थे। दशहरे में रावण के पुतले के दहन के बाद उसपर पत्थर बरसाते लोगों की तरह।

हैल्प माँगने का उपक्रम किया तो पाया कि फोन चालू नहीं था, तार सबसे पहले तोड़े थे उस भीड़ ने।

बाद के असंख्य क्षण पीड़ाप्रद थे, मेरे लिए भी और नीरनिधि साहब के लिए भी। मेरी तमाम सक्रियता के बाद भी नीरनिधि साहब बचाए न जा सके. डॉक्टरों की भीड़ ने पल भर में ही नीरनिधि साहब को मृत घोषित कर दिया। रात आठ बजे मैंने पुलिस कोतवाली में एफ आई आर दर्ज कर वाई, उस वक्त मीडिया के चमचमाते कैमरो मेरा एक-एक शब्द टेप कर रहे थे और मैं सारा घटनाक्रम थाना प्रभारी को अपनी ऊंची नींची सांसों के साथ सुना रहा था। इस बीच अस्पताल की दिर भर की भागदौड़ में मुझे पता लग चुका था कि हंगामेबाज लोगांें में नगर के वे युवा सितारे थे जो सूबे कीरूलिंग पार्टी के भीतर अपना अस्तित्व मनवाने के लिए कोई असरकारक घटना करने को व्याकुल थे। ताज्जुब कि दिन भर में हमारे दफ्तर का कोई आदमी अस्पताल के पास-पास तक न फटका। पुलिस ने मेरे प्रारंभिक बयान अगले ही दिन अदालत में करवा दिये।

अगले कई दिन मगर मच्छी आंसू बहाने के दिन थे। रूलिंग पार्टी के सदर, खिलाफी पार्टी के सदर और तमाम हुक्मरान नीरनिधि साहब घर आते रहे और उन्हे मनाते रहे कि वे खामोख्वाह पुलिस कार्यवाही में न पड़ें। इलाके में खिलाफी पार्टी के एक बड़े नेता बेहद साफ दिल के आदमी थे, उन्होने नीरनिधि साहब की पत्नी से साफ-साफ कहा, "देखो मिसिज नीरनिधि, आप हिम्मत रखिये, भले ही हमारी सरकार न हो, आपके पति की मौत से जो नुकसान हुआ हम उसकी भरपाई करायेंगे, ...आपके बेटे को हम नौकरी दिलायेंगे। ...और रहा मामला नीरनिधि साहब की मौत का सो ये तो एक हादसा था जो न चाहते हुए हो गया, ईश्वर की इच्छा थी कि नीरनिधि साहब की मौत आ गई थी, वे हमारे युवा नेता के हाथांे न मरते तो रास्ता चलते ठोकर खाते और गिर कर मर जाते। अब होनी को कौन टाल सकता है जी!"

म्ुाझे ताज्जुब हुआ कि इस हादसे की जाँच बीस दिन में हो गई और महीना बीतते न बीतते अदालत में चालान भी पेश हो गया। गवाहान तलब हुए. गवाहों में सबसे अव्वल नाम मेरा था। एक तरह से चश्मदर्शी गवाह।

मेरी गवाही पर सारे मीडिया की निगाहें थीं। ...वैसे इस प्रकरण के प्रति हर आदमी का अलग नजरिया था। पुलिस के लिए फालतू का लफडा, नामजद हुए लोगेंा की आगामी पॉलिटिक्स को आर-पार का मुद्दा, नीरनिधि साहब के परिवार की डूब गई नौका को उबारने का यत्किंचित सहारा और मेरे लिए जीवन मरण का प्रश्न!

मुझे लगता है फालतू के लफड़े में नीरनिधि साहब की जान गई. लफड़ा था बिजली कटौती का, जिसमें न नीरनिधि साहब कुछ कर सकते थे न विद्युत मंडल। बिजली का रोना अपनी जगह, लेकिन किसी की जान पर बन आये ऐसा करतब कहाँ तक जायज है, सो मैने कमर कस ली थी कि हर हालत में मुलजिमों को सजा दिलवाऊंगा। हालांकि इतना सरल न था सजा दिलवाना, क्योंकि एक पूरी राजनीतिक पार्टी जिन मुल्जिमों के पीछे खड़ी हो किसकी मजाल जो उनके खिलाफ गवाही दे।

उनके खिलाफ गवाही देने वालों मंे सबसे पहला नाम मेरा है और पुलिस व मीडिया के सामने मैंने ही सारा किस्सा बयान किया है, सो मुल्जिमों का पहला निशाना मैं ही हूँ। हादसे के अगले दिन से ही मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा पीछा किया जाता है, अजनबी किस्म के गुण्डे मेरे आसपास घूमते रहते हैं। अचानक रात को मेरा फोन बज उठता है और घर का जो सदस्य रिसीव्हर उठाता है, उसे गंदी गालियों के साथ धमकी दी जाती है कि अगर अदालत में मैंने मुंह खोला तो मेरी और मेरे परिजनों की खैर नहीं। रोज-रोज के फोन से तंग आकर मेरी पत्नी आँचल पसार कर मुझसे अपने सुहाग की भीख माँगती है तो मेरे बच्चे अपने बाप की ज़िन्दगी।

...लेकिन मैं सोचता हूँ कि इस तरह अपने बच्चों की खातिर सच से मुंह मोड़ लेनां तो अन्याय होगा! अन्याय, उस समस्त न्यायिक प्रक्रिया के साथ जो आदि काल से मानव की सभ्यता के विकास के साथ विकसित हुई. अन्याय, उस परिवार के साथ जो नीरनिधि साहब के बिना अनाथ हो गया और जिनकी आशा का बहुत बड़ा स्रोत मैं हूँ। अन्याय, उन लाखोंलाख सरकारी मुलाजिमों के साथ जो निर्पेक्ष भाव से अपना कर्तव्य निवाहते हुये बिना कुसूर और अकारण पिट रहे हैं और उनके पक्ष में कोई खड़ा नहीं हो रहा-न शासन, न प्रशासन, न जनता और न ही चौथे स्तंभ का ढोल पीटता मीडिया।

...तो? ...तो क्या करूं मैं!

कदाचित अदालत में मैंने वही बयान दिया जो पहलेपहल दिया था तो संभवतः अपनी जान से हाथ धोना पड़े मुझे, पत्नी के साथ कोई अनहोनी, या किसी बच्चे का अपहरण। सुरक्षा की गारंटी देती पुलिस मुझे और परिवार को कहाँ-कहाँ बचायेगी? जब एक प्रधानमंत्री को नहीं बचा सकी? मेरे दुश्मन कोई निर्बल और असहाय नहीं है, हजार सिर और सहस्त्र्र बाहुओं वाले शत्रु हैं मेरे। प्रजातंत्र में क्यों बन जाता है कोई राजनैतिज्ञ इतना ताकतवर, इस प्रश्न का जवाब नहीं मिलता मुझे।

वैसे अदालत में अपने कहे हुए से पलट जाना उतना आसान भी तो नहीं है, जितना पहले कभी हुआ करता था। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, गुजरात के बेस्ट बेकरी कांड की गवाह जाहिरा शेख अदालत में अपने बयान से पलटी तो देश की सबसे बड़ी अदालत ने सजा दे दी उसे, फिर वह मामला भी ज़्यादा पुराना कहाँ है जब दिल्ली का जेसिकालाल हत्याकांड चर्चा में आया और अदालत में पलट जाने वाले उसके गवाहाँे को अदालत ने जिस तरह से सजा तजबीज की। उसके बाद मेरे जैसे आदमी में साहस ही कहाँ बचा है अपने कहे से पलटने का। फिर अदालत में पलट जाने भर से इज्जत बच जायेगी क्या मेरी! कल जब बाज़ार में जाऊंगा, किसी गली से निकलूंगा तो लोग कटाक्ष करेंगे मुझ पर। दुनिया भर में थू-थू होगी मेरी। नीरनिधि साहब की बीबी को क्या मुंह दिखाऊंगा मै, जिन्हे पहली रात ढांढस बंधाते हुए मैंने कहा था कि जब तक नीरनिधि साहब के हत्यारों को सजा नहीं मिल जाती, तब तक नींद नहीं आयेगी मुझे। अपनी यूनियन के सामने क्या कहूँगा मैं? जहाँ खूब डींगे हाँकता रहा अब तक।

...तो? क्या करूंगा मै?

अदालत में क्या कहना है यह बयान वकील ही तैयार करायेगा-सरकारी वकील! बाद में मुलजिमों का वकील जिरह करेगा मुझसे। हालांकि इस मामले में क्या सरकारी और क्या बचाब पक्ष का वकील-सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। क्या कहूँगा मैं। यह कह सकूंगा कि मैंने देखा है इन, ...इन और इनको अपनी आँखों से नीरनिधि साहब को पीटते।

कल पत्नी कह रही थी कि तुम चिन्ता काहे करते हो, उन लोगों का वकील पहले ही बता देगा आपको कि कैसे क्या कहना है! मैंने बात कर ली है वकील से, आपको ऐसी गोलमाल बात करनी है कि पुराने बयान से पलटना भी न लगे और उन लोगों का शिनाख्त भी न करना पड़े आपको। वैसे ऐसी कोशिश चल रही है कि अदालत में आपका बयान न कराया जाय।

मैं अचंभित था कि मेरी घर-घुस्सा निहायत घरेलू हाउस वाइफ बीबी को ऐसी दुनियादारी कहाँ से आ गई कि रास्ता निकाल लिया उसने मेरे धर्मसंकट से उबरने का।

सुबह हो रही थी, आसमान मंे सोने-सा पीला उजाला फैलने लगा था। मै। उठा और दैनिक कर्म में लग गया। जल्दी से निवृत्त हो लूं ताकि वकील के द्वारा बताये गये संवाद ऐसे लूं और अदालत में उन्हें हू ब हू दोहरा सकंू। ...कि फोन की घण्टी बजी, मैंने लपक कर उठाया तो पाया कि उधर से नीरनिधि साहब की पत्नी की आवाज थी। वे कह रहीं थीं, 'भैया, जिसे जाना था वह चला गया, आप आज पेशी में ऐसा कुछ मत कहना कि आपके परिवार पर संकट आ जाये। अब मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता न, हम लोग भी अब सजा दिलाने पर ज़्यादा जोर नहीं डालेंगे।'

सुना तो मैं स्तब्ध रह गया-बल्कि भयभीत होकर जड़-सा रह गया कहना ज़्यादा उचित होगा।

मन में घुमड़ रहे द्वंद्व के घनेरे बादल छंटते लग रहे थे, लेकिन जाने क्यों बाहर के वातावरण में एक अजीब-सी घुटन और उमस बहुत तेजी के साथ बढ़ती-सी लग रही थी।