ग़ज़ल की भावभूमि में अन्विति / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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पाकिस्तान नेशनल सेंटर, इस्लामाबाद ने ‘इदारए-यादगारे-ग़ालिब’ के साथ मिलकर 20 जुलाई, 1973 को इस्लामाबाद में ‘महफ़िले-ग़ालिब’ का आयोजन किया था। इस महफ़िल में इदारे के जनरल सेक्रेटरी ने अपनी संस्था और ‘ग़ालिब-लायब्रेरी’ की सरगर्मियों का हाल सुनाया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने, जो इदारे के संस्थापक और अध्यक्ष होने के अलावा उपर्युक्त ‘महफ़िल’ के भी सभापति थे, ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल ‘मेहमां किये हुए-बज़्म चराग़ां किये हुए’ पर भाषण दिया। उस भाषण का टेप ‘ग़ालिब लायब्रेरी’ के ‘फ़ैज़ कक्ष’ में सुरक्षित कर लिया गया है। फ़ैज़ का यह लेक्चर ग़ज़ल के रचना-विन्यास की व्याख्या प्रस्तुत करता है। इस टिप्पणी का केंद्रीय सूत्र यह है कि ग़ज़ल में विषयवस्तु या भावनाओं की एकता नहीं होती बल्कि मूड की एकता या कैफ़ियत होती है।

अगर मुझे पहले से मालूम होता कि आज के इस आयोजन में मेरी और मिर्ज़ा ज़फ़रुल हसन की शिरकत महज़ अपनी ग़रज़ और मतलब के लिए है तो मैं आयोजकों से कहता कि वह कुछ प्रबंध करें ताकि यह मालूम न हो कि हम दोनों सिर्फ़़ ग़ालिब लायब्रेरी के लिए आपसे किताबें मांगने के लिए यहां आये हैं। ग़ालिब के काव्य, व्यक्तित्व और चिंतन के बहुत-से पहलुओं पर इस क़दर तफ़सील से और इतना कुछ लिखा जा चुका है कि उस पर इज़ाफ़ा शायद अब मुमकिन न हो।

ग़ज़ल पर आम एतराज़ यह है कि इसमें भावभूमि की एकता यानी यूनिटी का कोई तत्व नहीं पाया जाता। बल्कि यह विभिन्न विचारों और भावनाओं को महज़ छंद और तुक (रदीफ़ क़ाफ़िये) की रस्सी में टांकने का नाम है; और उसमें किसी क़िस्म का सिलसिला या रब्त (संबंध) नहीं होता। मैं समझता हूं कि इस तरह इसको समझना ठीक नहीं है। दूसरे या तीसरे दर्जे के ग़ज़लिया कलाम के बारे में तो यह बात कही जा सकती है, इसलिए कि उस तरह के शायर तो महज़ क़ाफ़ियाबंदी (तुकबंदी) करते हैं, लेकिन जो अच्छा और संजीदा (गंभीर, मार्मिक) ग़ज़लिया कलाम है उसके बारे में यह एतराज़ शायद सही न हो; और ग़ालिब के बारे में यक़ीनन सही नहीं है। ग़ालिब तो क़ाफ़ियाबंद नहीं थे। चुनांचे वह ख़ुद कहते हैं :

ग़ालिब न बूद शैवए-मन क़ाफ़ियाबंदी जुल्मीस्त कि बर-किल्क्-ओ वरक़ मी कुनम इमशब

वह तो किल्क-ओ वरक़ (क़लम और काग़ज़) पर यह ज़ुल्म करते थे। ज़ाहिर है कि महज़ विभिन्न विषयों को एक जगह पर ला रखना गा़लिब को अच्छा न लगा होगा। इतना ज़रूर है कि ग़ज़ल में जिस क़िस्म की इकाई पायी जाती है, वह विषयवस्तु या भावनाओं की इकाई नहीं होती बल्कि उस चीज़ की इकाई होती है जिसको आप मूड कह लें या एक कैफ़ियत (भावधारा) कह लें।

अगर आप ग़ालिब के कलाम पर नज़र डालें तो उनके पुख़्ता ज़माने के कलाम में देखेंगे कि हर ग़ज़ल क़रीब-क़रीब एक ही मूड की है, या एक ही कैफ़ियत लिये हुए है। न सिर्फ़ यह, बल्कि उस मूड की भी जो अलग-अलग कैफ़ियतें हैं उनमें भी एक तरतीब पायी जाती है। और उसी की एक मिसाल मैं इस वक़्त पेश करनेवाला हूं। लेकिन ज़ाहिर है कि इकाई का यह तत्व साफ़ खुला और उभरा हुआ नहीं है। बल्कि ग़ज़ल का यह सिलसिला आंतरिक होता है और जो महज़ महसूस किया जा सकता है। ज़ाहिरी तौर से इसकी दो सूरतें हैं: एक तो छंद का चुनाव, दूसरे ‘ज़मीन’ यानी क़ाफ़िया-रदीफ़¹{¹ तुकों के अन्त्यानुप्रास; मसलन ‘मेहमां किये हुए’, ‘चराग़ां किये हुए’ वाली ग़ज़ल में ‘किये हुए’ रदीफ़ और ‘मेहमां’, ‘चराग़ां’ आदि क़ाफ़िये।} (तुक-योजना) का चुनाव। यह बिल्कुल सीधी और साफ़ बात है कि आप कोई बहुत उदास मज़मून किसी चलती हुई धुन में नहीं गा सकते। उसमें वह आहंग (नाद) पैदा न होगा जो उद्दिष्ट है। छंद का चुनाव अपनी जगह पर यह तय कर देता है कि उस ग़ज़ल का मूड क्या है। या ग़ज़ल की कैफ़ियत (भावधारा) इस चीज़ का फै़सला करती है कि उसके लिए कौन-सा छंद मौज़्ाूं है। दूसरे यह कि जो ‘ज़मीन’ (या क़ाफ़िया-रदीफ़: तुक-योजना) और ख़ास तौर से ‘रदीफ़’ चुनी जाती है, उससे भी एक ख़ास लगाव होता है उस भावना या कैफ़ियत का, जिसका आधार पाकर वह ग़ज़ल मन में गूंजी है और लिखी गयी है। जिस ग़ज़ल का मैं आपसे ज़िक्र करना चाहता हूं वह संभवतः ग़ालिब की सबसे लंबी और उनकी कल्पनायोजना और तकनीक की सबसे नुमाइंदा (प्रतिनिधि) ग़ज़ल है। सत्राह शेरों की यह मशहूर ग़ज़ल आपको ज़रूर याद होगी :

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए जोशे-क़दह से बज़्म चराग़ां किये हुए

इस ग़ज़ल में शुरू से आखि़र तक एक बुनियादी मज़मून और एक बुनियादी कैफ़ियत है, बल्कि यह बिल्कुल एक राग या म्यूज़िकल कॉम्पोज़ीशन या एक फ़िल्म की तरह है। इसके विभिन्न टुकड़े और सीक्वेंस (क्रम-योजना) हैं, जिनकी अपनी जगह अलग-अलग एक तरतीब भी है और अपनी-अपनी जगह उनका एक अलग वैशिष्ट्य भी है।

मैंने इस पूरी ग़ज़ल का इस तरह विभाजन किया है। पहले तो इसका मतला(ग़ज़ल का पहला शेर) मसलन, जो अभी ऊपर दिया गया, ‘मुद्दत हुई...’है। इसे आप संगीत की परिभाषा में यों कह लें कि मतले से खरज कर सुर क़ायम किया गया है, या इससे भूमिका बांधी गयी है, उस सारी कैफ़ियत की, जो कि बाद में हुई है। या इसको ‘बुनियादी विषय’ कह लीजिए :

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए जोशे-क़दह से बज़्म चराग़ां किये हुए

इस शेर में सोचने की बात यह है कि... मुद्दत हुई है यार से मिले हुए, या यार से एकांत में मुलाक़ात किये हुए नहीं बल्कि यार को मेहमान किये हुए मुद्दत गुज़र चुकी है। ‘मेहमान’ का जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, उसके दो पहलू ग़ौर-तलब हैं। एक तो यह कि किसी अजनबी को या किसी ऐसे शख़्स को मेहमान नहीं रखा जाता जिससे कभी-कभार मुलाक़ात हुई हो। मेहमान तो उसी को रखा जाता है जिससे काफ़ी मेल हो, जिससे एक पुराना राबिता हो, जिससे बेतकल्लुफ़ी का एक रिश्ता हो। चुनांचे ग़ालिब महबूब से एकांत मिलन या प्रेममिलन के प्रसंग (विसाल) का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं। बल्कि, एक तो वह एक शख़्स का जिक्र कर रहे हैं जिससे हृदय का पुराना लगाव है, बेतकल्लुफ़ी है, आना-जाना है, और जिससे महज़ मुलाक़ात नहीं बल्कि जिसकी मेहमानी उद्दिष्ट है। मेहमानदारी का अपना एक लुत्फ़ है जो कि मुलाक़ात के लुत्फ़ को दोबाला करता है। दूसरा पहलू जिसकी तरफ़ मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं, यह है कि यार या महबूब की यह मेहमानदारी एकांत में नहीं है, बल्कि ‘जोशे-क़दह’ (पियालों की मादकता के जोश) से महफ़िल को ‘चराग़ां’ किये हुए है (दिवाली की-सी जगमग पैदा किये हुए है)। बात यह नहीं है कि कोई अकेला मिलने के लिए आया हुआ है; बल्कि, महफ़िल है, बज़्म है, और ग़ालिब जिस चीज़ को याद कर रहे हैं वह विसाले-यार नहीं, बल्कि महफ़िले-यारां है। उन्हें महबूब के बिछुड़ने का नहीं बल्कि महफ़िल के उजड़ने का दुख है। जिस बात के लिए गा़लिब उदास हैं और जिसे वह याद कर रहे हैं वह एक ज़ाती मुलाक़ात या किसी से उनके ज़ाती तअल्लुक़ का ज़िक्र नहीं है, बल्कि वह तो एक पूरे जीवन जीने के ढंग और उठने-बैठने, मिलने-जुलने के अंदाज़ और पूरी जीवन-व्यवस्था का रोना है, जिसको वह इस ग़ज़ल के बाद के शेरों में बयान करते हैं। यह गा़लिब की ज़ाती कैफ़ियत नहीं थी यह उस युग के समाज की सामूहिक भावना थी।

ग़ालिब एक ख़ास जीवन-व्यवस्था और जीने के तौर-तरीक़े से वाक़िफ थे। अंग्रेज़ों के आने और मुल्क के ग़ुलामी में चले जाने की वजह से वह पुरानी व्यवस्था, वह पुराने तौर-तरीक़े, वह पुराने आदाबे-महफ़िल रुख़सत हो चुके थे, और उनकी जगह कोई नयी व्यवस्था या जीवन के नये आचार-व्यवहार समाज में नहीं आये थे। चुनांचे उन्नीसवीं सदी में सन् 1857 के हंगामों से पहले और उन हंगामों के बाद का जो ज़माना है, और उस ज़माने के लोगों की जो सामाजिक, बौद्धिक और भावनात्मक कैफ़ियत है, उसे एक तरीक़े से ग़ालिब ने शेर में बयान किया है कि, मुद्दत से न वो महफ़िलें रहीं, न वो आदाब (शिष्टाचार) बाक़ी है और न वो यार-दोस्त बचे हैं, जिनकी वजह से हमारी ज़िंदगी में हरियाली थी और उमंग और आनंद के सामान।

‘बज़्म चराग़ां किये हुए’ वाली भूमिका के बाद ‘करता हूं जम्अ फिर जिगरे-लख़्त-लख़्त को’ से पहला सीक्वेंस {एक के बाद एक परस्पर-संबद्ध रूप से आने वाले पद-समूह; एक समूह, एक क्रमखंड।} शुरू होता है। यानी ‘मतले’ के बाद के सात शेरों का एक सीक्वेंस; उसके बाद दूसरा सीक्वेंस या टुकड़ा है छह शेरों का, जो ‘फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब’ से शुरू होकर ‘इक नौबहारे-नाज़’. वाले शेर तक गया है। इसके बाद ग़ज़ल के आखि़री तीन शेर हैं, जो गोया पूरी ग़ज़ल का समापन प्रस्तुत करते हैं।

अभी मैं अर्ज़ कर चुका हूं कि महफ़िल के बरहम हो जाने (उखड़ जाने) की वजह से ग़ालिब ग़मगीन हैं, उदास हैं। क्योंकि इन ही से ग़ालिब की ज़िंदगी में रौनक़ थी। पहला सीक्वेंस ‘करता हूं जम्अ फिर जिगरे-लख़्त-लख़्त को’ वाले शेर से शुरू होकर ‘पिंदार का सनमकदा वीरां किये हुए’ वाले शेर पर ख़त्म होता है।

करता हूं जम्अ फिर जिगरे-लख़्त-लख़्त को अर्सा हुआ है दावते-मिज़गां किये हुए

जब वह बिखरी हुई महफ़िल ग़ालिब को याद आती है तो उनका जी चाहता है कि वह कैफ़ियत जो कि महफ़िल के ज़माने में उनके दिलो-दिमाग़ पर छायी हुई थी और वह पुराना मूड और भावना का संसार फिर किसी तरीक़े़ से दुबारा ज़िंदा किया जाये, ताकि उसके अपने-आप पर दुबारा छा जाने से शायद वह पुरानी महफ़िल किसी तरह वापस आ जाये।

इस सीक्वेंस के बाक़ी शेर इसी मज़मून पर हैं कि वह शौक़, वह हसरत, वह तलब और वह हवस जो पुरानी महफ़िल के अंग और अंश थे उन्हें अपने-आप पर दुबारा एक फ़जा बनकर छाने दिया जाये। चुनांचे :

करता हूं जम्अ फिर जिगरे-लख़्त-लख़्त को अर्सा हुआ है दावते-मिज़गां किये हुए

अलग-अलग टुकड़ा तो कोई चीज़ महसूस नहीं करता, इसलिए पहले तो जिगर के उन अलग-अलग टुकड़ों को इकट्ठा करें, ताकि उसमें दर्द की कोई टीस उठे और उसकी वजह से आंखें नम हों और जब आंखें नम हों तो फिर वह महफ़िल कम-अज़-कम याद ही में ताज़ा हो जाये। इसके बाद का शेर:

फिर वज़ए-एहतियात से रुकने लगा है दम बरसों हुए हैं चाक गिरेबां किये हुए

कहते हैं: एक ज़माने से सब्र और एहतियात का दामन हमने पकड़ रखा है। अब यह दामन किसी तरीक़े से छोड़ें, और फिर अपना गिरेबां चाक करें, ताकि जुनून, विभोरता और तल्लीनता की जो कैफ़ियत उस महफ़िल में होती थी वह लौट आये। इस शेर पर ग़ौर फ़रमाइये

फिर गर्मे-नालाहा-ए-शररबार है नफ़स मुद्दत हुई है सैरे-चराग़ां किये हुए

यानी अपने अधरों से शब्दों के बजाय शोले बरसने लगें, ताकि उन शोलों से उस भावना और शौक़ की कैफ़ियत पैदा हो जो कि उस महफ़िल से जुड़ी हुई थी। यह शेर भी आपका ध्यान खींचना चाहेगा

फिर पुरसिशे-जराहते-दिल को चला है इश्क़ सामाने-सदहज़ारे-नमकदां किये हुए!

यहां ग़ालिब कहते हैं: फिर दिल के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कें और उससे इतना दर्द हो कि पुरानी कैफ़ियत पैदा हो जो कि उस महफ़िल से जुड़ी हुई थी। इसी तरह के ये तीन शेर भी हैं

फिर भर रहा हूं ख़ामए-मिज़गां ब-ख़ूने-दिल साज़े-चमनतराज़िए-दामां किये हुए बाहमदिगर हुए हैं दिलो-दीदा फिर रक़ीब नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल का सामां किये हुए दिल फिर तवाफ़े-कू-ए-मलामत को जाये है पिंदार का सनमकदा वीरां किये हुए

आखि़री शेर की शब्दावली पर ज़रा ध्यान दें; जिसमें ‘कू-ए-मलामत’ के ‘तवाफ़’ (परिक्रमा) और ‘पिंदार’ (अहमन्यता, दंभ) के ‘सनमकदे’ (मंदिर, मूर्तिगृह) का ज़िक्र है। ‘कू-ए-मलामत’ का संकेत है कू-ए-यार, यार की गली। और उस कू-ए-यार को तो का’बा ठहराया है जिसकी परिक्रमा करने को जी चाहता है, और अपने ‘पिंदार’ (दंभ और अहं) को ‘सनमकदा’ (मूर्ति-गृह, सनम का घर) माना है। कू-ए-यार, इश्क़े-यार तो हक़ीक़त (यथार्थ सत्ता) है, और अपने-आप पर जो घमंड है, और अपना जो पिंदार है वह सनम (मूर्ति) की तरह मिथ्यालोक की वस्तु है। आशिक़ी हक़ीक़त है सत्यमूल यथार्थ है; और ख़ुदपसंदी (आत्मप्रशंसा) असत्य। एक काबा है, दूसरा सनकमदा। शब्दों के प्रयोग में जो अलंकार और व्यंजना है, वह देखने के क़ाबिल है। इस शेर पर पहला सीक्वेंस ख़त्म होता है। इसके बाद ‘सीक्वेंस’ इस शेर से शुरू होता है :

फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब अर्ज़े-मता-ए-अक़्लो-दिलो-जां किये हुए

अक़्ल, दिल और जान को वार के शौक़ चाहता है कि अब कोई ऐसा ख़रीदार पैदा हो जिस पर वो सब कैफ़ियतें छा जायें जो पहले बयान की गयी हैं। यानी, तलब इस बात की, कि जिगर के टुकड़े-टुकड़े एक जगह हों। तलब इस बात की, कि सब्र को छोड़कर जुनून इख़्तियार कर लें। इस बात की तलब कि शब्दों से शोले भड़कने लगें। इस बात की तलब कि ज़ख़्मे-दिल पर नमक छिड़का जाये। इस बात की तलब कि आंखें ख़ून से भर जायें। इस बात की तलब कि नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल में दिल और आंखें एक-दूसरे का मुक़ाबिला करने लगें, और अपनी ज़ात के सनमकदे को वीरान करके (मिथ्या अहं की पूजा को त्यागकर) अपने महबूब के कूचे की परिक्रमा के लिए दुबारा जायें।

इस तलब का नतीजा क्या है? दूसरा सीक्वेंस इस सारे शौक़ और तलब का नतीजा है; इसलिए कि, वही दृश्य जिसको वह महफ़िले-यार का रूपक बनाते हैं, उसी तलब के जवाब में बयान करते हैं। यह सीक्वेंस या मंज़रनामा (दृश्यावली का रूपक) इतना कसा हुआ, अपने सिलसिले में बंधा हुआ है कि अगर आप किसी शेर की जगह बदल दें, यानी ऊपर का नीचे या नीचे का शेर ऊपर कर दें तो क्रम टूट जायेगा, मंज़रनामा बिगड़ जायेगा; और सीक्वेंस ग़लत हो जायेगा। न सिर्फ़ ग़ालिब की इस ग़ज़ल में, बल्कि हर सीक्वेंस के शेरों में एक क्रम और सुसंबद्धता है। चुनांचे:

दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल सद गुल्सितां निगाह का सामां किये हुए

यह तो पृष्ठभूमि है बैकग्राउंड। इसमें ग़ालिब बताते हैं: दुनिया एक गुलिस्तां है। हर तरफ़ फूल लिखे हुए हैं और हर फूल निहायत हसीन और ख़ूबसूरत है। यह पृष्ठभूमि है उस भावभूमि की घटना की, जिसका ज़िक्र वह बाद के शेरों में करते हैं। उस गुलिस्तां में क्या होता है? कहते हैं:

फिर चाहता हूं नामए-दिलदार खोलना जां नज़्रे-दिलफ़रेबिए-उनवां किये हुए

आगे ज़ाती कैफ़ियत शुरू होती है जो कि इस अर्थ में ज़ाती नहीं है कि यही कैफ़ियत बहुत पहले से और आज तक लोगों पर गुज़रती आयी है। इस कैफ़ियत (भावस्थिति) की पहली मंज़िल तो यह है कि महबूब न सामने है और न कहीं आसपास, बल्कि नज़र से दूर और ग़ायब है। इसलिए ग़ालिब ‘ख़त’ का ज़िक्र करते हैं। ‘नामए-दिलदार’ आता है। चूंकि नाम-ए-दिलदार में ‘उन्वान’ (शीर्षक) महबूब के हाथ का लिखा हुआ है, इसलिए प्रेयसी के सौंदर्य और उसके परम आकर्षण की निशानी मात्रा एक है, और वह ‘नामए-दिलदार’ का ‘उन्वान’ और सरनामा है। यह उन्वान अपनी जगह पर स्वयं इतना मोहक है कि ग़ालिब का इसी पर जान छिड़कने का जी चाहता है। न महबूब का नैकट्य, न उसका दीदार और न उसका विसान (मिलन): सिर्फ़ उसका ख़त आया है! अब दूसरी मंज़िल की तरफ़ चलिए :

मांगे है फिर किसी को लबे-बाम पर हवस ज़्ाुल्फ़े-सियाह रुख़ पे परीशां किये हुए

महबूब है तो सही, मगर बाम पर है। आस-पास नहीं, दूर बाम पर है। और जब बाम पर है, तो वहां से सिर्फ़ उसकी ज़्ाुल्फ़े-सियाह ही नज़र आ सकती है। बाक़ी नख-शिख पर नज़र नहीं पहुंच सकती। ज़्ाुल्फ़े-सियाह का सिर्फ़ एक साया-सा नज़र आता है। महबूब के चेहरे की अन्य तफ़सीलें नज़र से ओझल हैं। पहली मंज़िल में दिलदार के ख़त का जिक्र और दूसरी मंज़िल में दूर से दीदारे-यार का। अब तीसरी मंज़िल या तीसरा मोड़ यों बयान होता है :

चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरजू सुर्मे से तेज़ दश्नए-मिज़गां किये हुए

महबूब अब बाम से उतरकर सामने आ गया है। मुक़ाबिल में है। अगर मुक़ाबिल में है तो जिस तरह बाम पर सबसे नुमायां चीज़ ज़ुल्फ़ें-सियाह थी, उसी तरह अपने सामने होने पर सबसे नुमायां चीज़, ज़ाहिर है, कि ‘दश्नए मिज़गां’ (पलकों की कटार) है। चेहरे के नक़्शे में सबसे आकर्षक और मोहक महबूब की आंखें ही हो सकती हैं। इसके बाद मुलाक़ात का बयान है। यह चौथी मंज़िल है :

इक नौबहारे-नाज़ को ताके है फिर निगाह चेहरा फ़रोग़े-मय से गुलिस्तां किये हुए

ख़त के बाद दीदार। दीदार के बाद हमनशीनी (पास-पास बैठना)। हमनशीनी के बाद हमपियालगी (साथ-साथ मधुपान)। यानी बेतकल्लुफ़ी की यह सूरत है कि अब चेहरा फ़रोगे-मय से गुलिस्तां किये हुए है।

आमने-सामने होने और मुलाक़ात के बाद महफ़िल का सजना और यारों के साथ हमनशीनी की तरफ़ इशारा है। इस ग़ज़ल का मतला अगर आप फिर एक बार याद कर लें तो महसूस करेंगे कि जोशे-क़दह के बाद अब किसी क़िस्म का संदेह या धुंधलका बाक़ी नहीं रहता। अगर संगीत की परिभाषा का प्रयोग किया जाये तो कहेंगे कि इस दूसरे सीक्वेंस के सारे शेर चढ़ते हुए सुर हैं। ‘सीक्वेंस’ ऊपर की तरफ़ जा रहा है।

अब आखि़री ‘सीक्वेंस’ शुरू होता है; जिसके अशआर उतरते हुए सुर हैं। यहां पहुंचकर ग़ालिब को यकायक ख़याल आता है कि ये सब बेकार बातें हैं। क्योंकि, न तो महबूब आयेगा, न गिरेबां चाक करेंगे और न शौक़ का वह आलम ही हम पर तारी होगा जिसके लिए हम भटकते फिरते हैं। बल्कि ग़ालिब अंत में हार ही कु़बूल कर रहे हैं। इस सीक्सवेंस में तीन शेर हैं :

फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें सर ज़ेरे-बारे-मिन्नते-दरबां किये हुए

न महबूब बाम पर आयेगा, न उसका ख़त आयेगा, न कु़रबत (नैकट्य) प्राप्त होगी, न महफ़िल सजेगी, न यार-दोस्त जमा होंगे। इसलिए कम-से-कम इतना तो हो कि सर ज़ेरे-बारे-मिन्नते-दरबां किये हुए हम यार के दर पर पड़े रहें। इस शेर में कहीं कोई इशारा नहीं है कि दर के अंदर जाने के लिए ख़्वाहिश है। शौक़ का वलवला, और सारी बेचैनी और बेकारी ख़त्म हो चुकी है। इसलिए अब सिर्फ़ इतनी इजाज़त मिल जाये कि हम उसके दर पर पड़े रहें ताकि महबूब से कुछ-न-कुछ लगाव और तअल्लुक़ क़ायम रहे। अगर यह भी नहीं हो सकता तो :

जी ढूंडता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन बैठे रहें तसव्वुरे-जानां किये हुए

अगर दरे-जानां भी मुयस्सर नहीं हो तो फिर इतना हो तो, और इतनी फ़ुर्सत तो मिले कि हम तसव्वुरे-जानां ही किये बैठे रहें (महबूब के कल्पनासुख में ही लीन रहें) उससे लौ लगाये रखें। ग़ौर फ़रमायें कि दर पर पड़े रहनेवाला शेर बाद में, और तसव्वुरे-जानां वाला शेर पहले लिख दिया जाये या वर्णन किया जाये तो न सिर्फ़ उसके सही सिलसिले में बल्कि सारी कैफ़ियत (भावधारा) और भावभूमि पर घटनेवाली ‘वारदात’ (वास्तविक अनुभूति) में फ़र्क़ आ जायेगा। और आखि़र में ‘ग़ालिब’ नतीजा यह निकालते हैं :

‘ग़ालिब’ हमें न छेड़ कि फिर जोशे-अश्क से बैठे हैं हम तहैय्यए-तूफ़ां किये हुए

ग़ालिब, ये सब फु़ज़ूल बातें हैं। क्यों ये क़िस्से छेड़ते हो? क्यों महबूब की याद दिलाते हो? क्यों महिफ़ल का ज़िक्र करते हो? जाने दो इन तमाम बातों को। अब इसके सिवा कोई चारा नहीं कि हम तहैय्यए-तूफ़ां कर लें (एक तूफ़ान उठाने का संकल्प ही कर लें), रोना-धोना कर लें; दिल का बुख़ार हल्क़ा कर लें। अब कुछ होना-हुआना नहीं है। इसलिए, ग़ालिब, बेहतर यही है कि इन सारी बातों के आलाप से बचो. ..ताकि यह तूफ़ान थम जाये, ख़त्म हो जाये।

मैंने बहुत-सी बातें और टीका-टिप्पणियां विस्तार के भय से नज़र-अंदाज़ करते हुए एक संक्षिप्त-सा जायज़ा आपके विचारार्थ पेश किया है। मेरी बयान की हुई क्रमबद्धता के दृष्टिकोण से ग़ालिब की किसी भी मशहूर ग़ज़ल को पढ़िए, उसमें आपको इसी क़िस्म का कोई-न-कोई सिलसिला मिलेगा, और वह सिलसिला एक कैफ़ियत (भावधारा) का, या एक कैफ़ियत के विभिन्न अंगों या उसके विभिन्न पक्षों का मिलेगा और एक से अधिक रूपों में मिलेगा। इस दृष्टिकोण से अगर आप कलामे-ग़ालिब का दुबारा अध्ययन और मूल्यांकन करें तो बहुत-से नुकते, जो पहले शायद आपके जे़हन में न आये हों, अध्ययन करने के बाद साफ़ और स्पष्ट रूप में नज़र आयेंगे।

अनुवाद : शमशेर बहादुर सिंह