गाँधी जी खड़े बाज़ार में / अमरेन्द्र कुमार / पृष्ठ 4

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गाँधी जी खड़े बाज़ार में

कहानी संग्रह की प्रथम कहानी इस पुस्तक की शीर्षक कहानी है: "गाँधी जी खड़े बाज़ार में"। सच कहूँ तो यहाँ "जी" शब्द का होना भी अपने आप में एक सुखद आश्चर्य है। जहाँ आज के लोग अपने रिश्तेदारों को आदर से बुलाना अपना अपमान समझते हैं, जहाँ गाँधीवादी विचारधारा के आलोचकों से "काँग्रेसी" का बिल्ला लगाये जाने का डर होता है वहाँ सहज भाव से, अपने से बड़ों को "जी" लगा कर बात करने की मानसिकता के चलते अमरेंद्र ने अपनी इस कहानी और कहानी संग्रह के शीर्षक में जी लगा दिया है। इस कहानी में व्यंग्य भी यही है कि गाँधीजी अब प्रदर्शन और पैसे कमाने का एक साधन हैं, आदर और श्रद्दा का नहीं। एक वृद्द आदमी को गाँधीजी की वेश-भूषा में दुकान के बाहर खड़ा कर के दुकानवाला गाँधी जयंती के दिन अपनी आमदनी बढ़ा रहा है, लोग देखते हैं, मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते हैं, वह वृद्द अपनी टेढ़ी कमर को सीधा करने का अधिकार नहीं रखता, गर्मी में पसीना बहाते हुए, बिना पानी पिये वह धूप में खड़ा रहता है, ज़रा सा हिलने पर उसे मैनेजर से और दुकान के बेयरे से डाँट खानी पड़्ती है और इस तरह गाँधी के नाम पर यह अमानवीय काम होता है। कहानी का व्यंग्य और भी तीखा तब हो जाता है जब एक महिला अपने बच्चे को डाँटते हुए "गाँधी" बने वृद्ध से दूर ले जाती है कि अजनबियों से बात नहीं करते, वह बच्चा कहता भी है कि यह तो गाँधीजी हैं पर माँ कहती है कि "तुम्हें कैसे मालूम?" यह बातचीत अँग्रेज़ी में होती है। हिन्दी भाषी बापू के जन्मदिन पर इस बात से बड़ा व्यंग्य क्या होगा कि ना उन के प्रति लोगों में श्रद्दा है, न ही लोगों को उन की पहचान है और न ही उनकी मान्यताओं और मूल्यों का कोई महत्व है। आज के ज़माने में बापू की स्थिति और बाज़ारवाद पर तीखा व्यंग्य करने में अमरेंद्र को इस कहानी में पूरी सफलता मिली है।


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