गाँधी जी से वार्तालाप / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मुझे खूब याद है, मैं पटना में ही था।गाँधी जी, मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि के साथ सन 1920 ई. के दिसंबर में खिलाफत और पंजाब कांड की बात को ले कर देश को असहयोग के लिए तैयार करने के विचार से दौरा करते हुए पटना पधारे थे। वहीं से बिहार का दौरा होने को था। मौलाना मजहरुल्हक के मकान पर वे सभी ठहरे थे। मैंने उन लोगों की स्पीचें भी 3 या 4 दिसंबर को सुनी थीं। मुझे उस समय मौलाना आजाद का भाषण सबसे अच्छा लगा। इसलिए नहीं कि उसमें गरमी या जोश ज्यादा था, या जानकारी की बातें अधिक थीं। यह बातें तो सभी भाषणों में थीं। मेरे लिए तो खास कर ऐसी बातें अधिक इसलिए थीं कि मैं राजनीति जानता ही क्या था?

असल में मैंने देखा कि मौलाना मुहम्मद अली आदि जो कुछ बोले उसमें मुल्क और देश की बात थी सही। पर, इसी के साथ उन्होंने बार-बार इस्लाम का नाम लिया। यह बात मुझे न जानें क्यों खटकी। इसमें मुझे खतरा नजर आया। मेरे दिल ने बताया कि जब देश में सभी धर्म संप्रदाय के लोग हैं और सभी को ले कर लड़ना है, तो एक धर्म का नाम लेने से बाकी लोग कहीं खटक न जाए। या इस्लाम की माँग पूरी हो जाने पर ये मौलाना लोग और उनके साथ ही सभी मुसलमान लोग लड़ाई के बीच में ही कहीं भाग न जाए। राजनीति में विशेष प्रवेश न होने पर भी न जाने यह ख्याल मुझे क्यों हो आया। इसीलिए मैंने मौलाना आजाद का भाषण पसंद किया। क्योंकि मैंने बड़े गौर से सुना और देखा कि शुरू से अंत तक उन्होंने एक बार भी इस्लाम का नाम न ले कर केवल देश और उसके प्रश्नों का ही बार-बार उल्लेख किया। हालाँकि घंटों बोलते रहे। इसीलिए गाँधी जी से बातचीत के समय मैंने यह प्रश्न उनसे किए कि ये मौलाना लोग बीच में ही छोड़ भागेंगे तो नहीं।

स्पीचों के बाद मेरे दिल में आया कि जरा गाँधी जी से बातें तो करूँ। सिर्फ कौतूहल और जानकारी के ही लिहाज से मैंने बातें करने को सोचा। न कि सपने में भी ख्याल था कि उनके फलस्वरूप मैं राजनीति में कूद ही पड़ूँगा। मित्रों से पूछा तो उन्होंने भी सम्मति जाहिर की। बस, फौरन गाँधी जी को पत्र लिख कर समय माँगा। उत्तर मिला कि 5 दिसंबर को सुबह दस बजे। मैं ठीक समय पर उनके डेरे पर पहुँच गया। खबर देने पर भीतर बुलाहट हुई। वे दूध में भिगा कर पावरोटी के टुकड़े खा रहे थे। खाट पर बैठे थे। सामने कुर्सी रखी थी। उन्होंने इशारा किया कि मैं उस पर बैठूँ। मगर मैंने नीचे बिछी फर्श पर ही बैठना पसंद किया।

फिर मेरी बातें उनसे शुरू हुईं जो घंटे भर चलती रहीं। मैंने उनसे बहुत से प्रश्न किए। संन्यासी का क्या धर्म है यह भी पूछा। उन्होंने कहा कि जिसमें घृणा, राग, द्वेष की गुंजाईश न हो वही संन्यासी हैं। इस पर मैंने नैयायिकों की तरह दलील शुरू करते हुए कहा कि जिस बुराई को अपने में से हटाना है उससे घृणा न हो तो वह हटे कैसे? और संन्यासी में भी तो बुराइयाँ हो सकती हैं। इस पर उनने कहा कि मैं उस घृणा को घृणा मानता ही नहीं। तब मेरा प्रश्न हुआ कि आखिर कैसे पता लगे कि कौन-सी घृणा घृणा है और कौन नहीं। जिससे संन्यासी के लक्षण का पता लग जाए? इस पर वे बोले, मैं दलीलें नहीं करता। मैं भी चुप हो गया।

फिर राजनीतिक बातें शुरू हुईं। मैंने पूछा कि कहीं ऐसा तो न होगा कि बीच में ही खिलाफत का प्रश्न हल हो जाने पर ये मौलाना लोग लड़ाई से हट जाएँगे और हिंदुओं की अकेले ही लड़ना पड़ेगा? मैंने उनसे साफ कहा कि मुझे मुसलिम जनता की फिक्र नहीं है। उसके बारे में शक भी नहीं है, मगर ये उसके लीडर और मौलाना ऐसा कर सकते हैं यह डर मुझे है जरूर। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि ऐसा नहीं हो सकता। ये लोग भले और रईस हैं, ऐसा मैंने समझा है। भलेमानस की बात पर विश्वास करना चाहिए। वह पक्की होती है और ये लोग ऐसा ही विश्वास दिलाते हैं। इस पर उन्होंने दलीलें देनी चाहीं तो मैंने साफ कहा कि बस मैं आपका अनुभव इस मामले में जानना चाहता हूँ। दलीलें नहीं चाहता। उनने कहा कि मेरा अनुभव और विश्वास है कि ये लोग धोखा न देंगे हर्गिज हर्गिज।

फिर मैंने कहा कि आपकी बातें मान तो लेता हूँ। लेकिन यदि हिंदुओं की मदद से इन्होंने अपना काम निकाल लिया और पीछे मजबूत हो कर न सिर्फ साथ ही छोड़ा, प्रत्युत हिंदुओं पर हमले शुरू किए, तो क्या होगा? उनका इस पर यही उत्तर हुआ कि मुझे हिंदुओं की गीता पर विश्वास है। जब तक वह है हिंदू धर्म का कोई कुछ कर नहीं सकता। और अगर गीता भी सच्ची नहीं, तब तो ऐसे कच्चे हिंदू धर्म को जल्द मिट जाना ही चाहिए। इसके बाद मेरी बात पूरी हो गई। और मैं चला आया। पूरी बातचीत ज्यों की त्यों प्रश्नोत्तर के रूप में 6 या 7 दिसंबर सन 1920 ई. के पाटलिपुत्र में लिख कर मैंने छपवा दी थी।

बातचीत के बाद मेरे दिल पर यही प्रभाव पड़ा कि मुझे राजनीति में फौरन कूद पड़ना चाहिए। इसलिए नहीं कि देश का उपकार होगा। बल्कि इसलिए कि तभी मैं सच्चा संन्यासी बन सकूँगा। अभी तो कच्चा हूँ। साथियों से भी सलाह की। खास कर मुंगेर जिले के दुर्गापुर (खगड़िया) के श्री उमेश्वर बाबू और कन्हैयाचक के श्री सूर्यनारायण बाबू आदि से। सबों की यही राय ठहरी। यह भी तय पाया कि इसी दिसंबर में नागपुर में होनेवाली कांग्रेस में भी जरूर शामिल होना चाहिए। उमेश्वर बाबू से यह भी तय पाया कि नागपुर से लौट कर खगड़िया इलाके में ही रह के काम करूँगा।

यहाँ एक बात और कह देनी है। जब खिलाफत की समस्या सुलझ गई और सन 1925-1926 में मौलाना आजाद और डाँ. अंसारी जैसे दो-एक को छोड़ सभी मुसलिम लीडर और मौलाना बड़ी तेजी से तबलीग और तंजीब में पड़ गए, यहाँ तक कि हकीम अजमल खाँ भी उधर कुछ झुकते दिखे, तो मैंने गाँधी जी को एक पत्र अंग्रेजी में उलाहने के तौर पर लिखा कि आप तो पूरे अनुभवी आदमी है। फिर आपने क्यों धोखा खाया और मुझसे 1920 की 5 दिसंबर को कहा कि मौलाना मुहम्मद अली वगैरह कभी धोखा न देंगे? ये तो धोखा दे रहे हैं। सभी के सभी तंजीम में जी-जान से पड़े हैं। वह मेरा भय तो सही सिद्ध हुआ।

मैंने यह जो कुछ लिखा सिर्फ मुसलिम लीडरों के ही बारे में। क्योंकि पटना मे प्रश्न भी मैंने उन्हीं के बारे में किया था। मुसलिम जनता को तो वही गुमराह कर देते हैं, जैसा कि हिंदू लीडर हिंदू जनता को। जनता तो सब की सब भीतर से साफ और निर्दोष है। लेकिन गाँधी जी ने जो उत्तर दिया वह बिलकुल ही निराला और चालाकी से भरा था, जिसकी मैंने उन जैसे साफ कहनेवालों से आशा की थी नहीं! उन्होंने इस बारे में एक ही वाक्य लिख कर खत्म किया कि “मुसलमानों के बारे में उस समय मैंने जो अंदाज लगाया था उसके लिए मुझे आज कोई पश्चात्ताप नहीं है” “I donot repent my estemate of mohammadans" भला क्या यह मेरे प्रश्न का उत्तर कहा जा सकता है? मैंने मुसलमानों के बारे में कब पूछा था? मेरा प्रश्न तो केवल कुछ मौलानाओं और नेताओं के बारे में था। तो क्या उसका उचित उत्तर यही है? इससे मेरे दिल पर गाँधी जी के संबंध में पहला धक्का लगा। मगर इसका कुछ विशेष फल न हुआ। असल में उस धक्के को मैं समझ भी न सका। पहला ही जो था।