गाँव जो उजड़ गया, शहर जो बसा नहीं / संजीव कुमार

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सब जानते हैं कि हिन्दी में गंभीर कहानी-आलोचना की शुरुआत नई कहानी के दौर में हुई. कहानी की आलोचना में 'रिगर' पहली बार तभी दिखाई पड़ा। उस दौर के आलोचकों को पढ़ें तो पता चलेगा कि तमाम असहमतियों के बावजूद एक बात पर वे सभी सहमत थे। वह यह कि कहानी आलोचना की अपनी पद्धति और भाषा का विकास होना चाहिए, यह एक छूटा हुआ कार्यभार है। नामवर सिंह लिख रहे थे: "नई कहानी को कहानी-कला की अपनी विषेषता के साथ ही संपूर्ण साहित्य के मान और मूल्यों के संदर्भ में देखने की आवष्यकता है और इसके लिए कहानी-समीक्षा की एक व्यापक और निश्चित 'भाषा' का निर्माण भी होना चाहिए. मेरी अपनी सीमा यह है कि मैं अब तक मुख्यतः काव्य का पाठक रहा हूँ। कहानियाँ मैंने कम पढ़ी हैं और उनमें अंतर्निहित सत्य को समझने और व्यक्त करने की 'भाषा' भी अब तक नहीं तय कर पाया हूँ।" (कहानी, नववर्षांक 1958)

इसी लेख में वे यह भी कह रहे थे कि कहानी शिल्प सम्बंधी आलोचनाओं ने कहानी की जीवनी शक्ति का अपहरण कर उसे निर्जीव 'शिल्प' ही नहीं बनाया है, उस शिल्प को विभिन्न अवयवों में काटकर बाँट दिया है। अवयवों में काट कर बाँटने का असर यह कि "प्रभावान्विति और एकान्विति की माला जपते हुए भी इस तरह के आलोचकों ने कहानी को अनुभूति की एक इकाई के रूप में देखना छोड़ दिया है। इस तरह उन्होंने कहानी के सत्य की ही नहीं, बल्कि कहानी के 'कहानीपन' की भी समझ खो दी।"

सन 65 में 'नई कहानी: संदर्भ और प्रकृति' का संपादन करते हुए देवीशंकर अवस्थी भी इसी बात को अपनी भूमिका में जोर देकर कह रहे थे। उनकी भी चिंता यही थी कि आचार्य शुक्ल ने काव्य-समीक्षा को तो उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया जहाँ से बहुत ज़्यादा नीचे खींच लाने की गुंजाइश नहीं है, पर कथा-समीक्षा का हाल बुरा है। रामविलास जी की प्रेमचंद वाली किताब का हवाल देकर कहते हैं कि समस्या और उसके समाधान को वे 'कच्ची पक्की रोकड़ों में खतियाते चलते हैं।' कहानियों की ओर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया, उपन्यास के रूपबंध का विश्लेषण करते हुए भी उसकी आंतरिक कलात्मक सत्ता, एकान्विति आदि के विश्लेषण की कोई चेष्टा नहीं की।

उपन्यास की आंतरिक कलात्मक सत्ता के विश्लेषण या कहानी-समीक्षा की अपनी व्यापक और निश्चित भाषा के निर्माण की माँग का मतलब क्या था? निश्चित रूप से यह कथा साहित्य के संरचनात्मक पहलुओं के प्रति सजगता की माँग थी। यह महसूस किया जा रहा था कि सिर्फ़ नैतिक, राजनीतिक और समाजशास्त्रीय पैमाने नाकाफी हैं, साथ ही, संरचना के नाम पर पाँच-छह तत्वों वाला चला आता मानदंड तो नाकाफी ही नहीं, व्यर्थ है। इस कमी को पूरा करने की दिषा में उस दौर के आलोचकों और कहानीकारों ने काम भी किया। सारे कामों का जिक्र करके इस लेख को बहुत अकादमिक-जिसका लोकप्रिय अर्थ है, उबाऊ-बनाने की ज़रूरत नहीं, पर उस दौर के एक प्रतिनिधि पाठ के रूप में नामवर सिंह की 'कहानी नई कहानी' का जिक्र ज़रूरी है।

'कहानी नई कहानी' आज से ठीक पचास साल पहले छपी एक शानदार किताब है जिसका सटीक यानी टीकायुक्त संस्करण इस अर्द्धशती वर्श में किसी शोधार्थी को तैयार करना चाहिए. अपने बिखराव (जो कि स्वतंत्र लेखों के रूप में लिखे जाने के कारण स्वाभाविक था) और कतिपय अंतर्विरोधों (जो कि समकालीनों के साथ चलनेवाली उठा-पटक के कारण स्वाभाविक था) के बावजूद कहानी की संरचना और उसकी सराहना की पद्धति पर इतने सारगर्भित सूत्र इस पुस्तक में मौजूद हैं कि अगर आप कहानियों पर सिर्फ़ आजकल लिखे जा रहे लेखों के ही पाठक रहे हैं तो लगभग चकित हो जाएँगे। मिसाल के लिए, नई कहानी की सांकेतिकता को पिछली कहानियों की सांकेतिकता से अलगाने का यह सूत्र देखें: "पहले की तरह आज की कहानी 'आधारभूत विचार' का केवल अंत में संकेत नहीं करती, बल्कि नई कहानी का समूचा रूप-गठन (स्ट्रक्चर) और शब्द-गठन (टेक्स्चर) ही सांकेतिक है। कहानी के दौरान लेखक जगह-जगह संकेत देता चलता है और ये सभी संकेत एक-दूसरे से इस तरह जुड़े रहते हैं कि एक संकेत प्रायः किसी पूर्ववर्ती तथा परवर्ती संकेत की ओर संकेत करता जाता है, इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर संपूर्ण कहानी के शरीर में भर उठता है, कहीं एक जगह स्थिर नहीं रहता!" जैसा कि हम हिन्दी वालों में कहने का तरीका है, नई कहानी का लक्षण-निरूपण करने की और जितनी भी कोशिशें हुईं, वे एक तरफ और यह अनुच्छेद, बल्कि इस अनुच्छेद का आखिरी वाक्य एक तरफ! एकदम अचूक! सूत्रीकरण में लगभग असंभव-सा 'परफेक्शन' , जिसे अर्जित करना किसी भी आलोचक की सबसे बड़ी तमन्ना होती है।

ऐसी अंतर्दृष्टियाँ 'कहानी नई कहानी' में इतनी हैं कि अगर हिन्दी कहानी आलोचना ने उन्हें ही ठीक से हजम कर लिया होता तो कुपोशण की समस्या कुछ हद तक दूर हो गई होती। यहाँ जीवन के टुकड़े में निहित द्वंद्व और क्राइसिस को पकड़ने के महत्त्व की चर्चा है; नाटकीय मोड़ों के औचित्य-अनौचित्य पर विचार है; टेक्स्चर, स्टोरी-टोन, संप्रेषणीयता, भाषा और वक्तव्य के अभेद, रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता-इन सबके साथ उलझे हुए सवालों का निपटान है; कारण-कार्य-सम्बंध पर आधारित ई.एम. फोर्स्टर की स्टोरी और प्लॉट सम्बंधी अवधारणा से बेहद तार्किक भिड़ंत है; बुद्धदेव बसु के प्लॉटनिर्भर और वक्तव्यनिर्भर गल्प के अंतर से बहस है; 'टिपिकल' अनुभवों के साथ दुर्लभ और विलक्षण अनुभवों की रचनात्मक अर्थवत्ता पर चर्चा है; कहानी के लिए जीवन का टुकड़ा काटते समय उसके हर रेशे को सुरक्षित रखने के नए रुझान की पहचान है; 'जीवन और यथार्थ' जैसे ' चिर-परिचित और गोल-मोल शब्दों के जरिए ही नए सूत्र तलाशने के प्रयत्न का रेखांकन है। ऐसे न जाने कितने सूत्र यह किताब बात-बात में दे जाती है। बात-बात में दे जाने का मतलब यह कि उनसे एक व्यवस्थित आलोचनात्मक ढाँचा खड़ा करने कोशिश आलोचक ने नहीं की है, पर इसी वजह से ये सूत्र व्यर्थ या महत्त्वहीन नहीं हो जाते। इनमें गहरी अंतर्दृष्टि है और ये हिन्दी में कहानी-आलोचना के स्तर को एकाएक बहुत ऊपर ले जाते हैं। जिन्होंने इन लेखों को नहीं पढ़ा है उन्हें नमूने दिखाने के लिए, जिन्होंने पढ़ रखा है उन्हें याद दिलाने के लिए और इन दोनों तरह के लोगों को पाठ-पुनःपाठ की ओर प्रेरित करने के लिए, कुछ उद्धरण:

"कहानी के लिए अब जीवन का एक कतरा काटते समय उसके हर जीवंत रेशे को भी सुरक्षित रखने की कोशिश की जाती है। इसीलिए सीधे-सीधे कहानी कहने अथवा एक विचार व्यक्त करने की अपेक्षा वास्तविकता के अधिक-से-अधिक स्तरों को उभारने की कोशिश हो रही है। इस कार्य को भली-भांति संपन्न करने के लिए कहानीकारों ने परंपरागत कार्य-कारण-बद्ध कथानक को जगह-जगह तोड़ दिया है, ताकि उनके बीच से जीवन-खंड के अन्य अनुभूति-तत्व उभर जाएँ! फिर इन टूटे हुए टुकड़ों को नए-नए रूपाकारों में सजाकर कहानी की नवीन कला-सृष्टियाँ की जाती हैं।"

"कहानी जीवन के टुकड़े में निहित 'अंतर्विरोध' , 'द्वंद्व' , 'संक्रांति' अथवा 'क्राइसिस' को पकड़ने की कोशिश करती है और ठीक ढंग से पकड़ में आ जाने पर यह खंडगत अंतर्विरोध किसी वृहद् अंतर्विरोध के किसी-न-किसी पहलू का आभास दे जाता है।"

"अंतर्विरोध को उसकी संपूर्ण तीव्रता में ग्रहण करके ही किसी कहानी को सफल और सार्थक बनाया जा सकता है। ...यदि अंतर्विरोध को कम करना सपाटता है तो उसे वास्तविकता से अधिक तीव्र करना भावुकता है या फिर दिमागी ऐय्याशी।"

"निर्मल की कहानियाँ नई कहानी के एक और तत्व की सार्थकता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं, जिसे अँग्रेजी में 'टेक्स्चर' कहते हैं। कहानी में वाक्यों की शृंखला इतनी लयबद्ध चलती है कि संपूर्ण विन्यास अनजाने ही मन को संगीत की लहरों पर आरोह-अवरोह के साथ बहाता चलता है और इस तरह हमारे अनजाने ही कहानी का यह विन्यास कथानक, चरित्र, वातावरण आदि द्वारा उत्पन्न प्रभावान्विति को समृद्ध कर जाता है। ...इन बातों से स्पष्ट है कि नई कहानी में अभीष्ट भाव या विचार की अभिव्यंजना एक साथ ही अनेक स्तरों पर होती है और उसे समग्र-रूप से प्राप्त करने के लिए पाठक को उतने स्तरों पर एक साथ संतरण कर सकने की क्षमता प्राप्त करनी होगी। नई कहानी के प्रसंग में यदि 'संप्रेषणीयता' का कोई अर्थ हो सकता है तो रस-बोध के विविध स्तरों की संप्रेषणीयता।"

"...ऐसे अनुभवों को भी कहानी में लाने की ज़रूरत महसूस होती है जो 'टिपिकल' नहीं हैं बल्कि दुर्लभ और विलक्षण होने के कारण ही वे कहानीकार का ध्यान आकृष्ट करते हैं, क्योंकि समाज में जहाँ परिपाटी से भिन्न कुछ घटित होता है, उससे भी समाज की वास्तविक स्थिति का अधिक पता चलता है। ऐसे अपवाद प्रायः परिवर्तन और संभाव्य की सूचना देते हैं। ...हो सकता है कि लीक पीटनेवाले लेखकों को इस पर एतराज हो, किंतु यह तथ्य है कि साहित्य की महान रचनाएँ प्रायः ऐसे ही तात्कालिक अपवादों को लेकर लिखी गई हैं।"

"जो यह कहता है कि वक्तव्य चाहे जो हो, हेमिंग्वे की भाषा सुंदर है, वह वक्तव्य तो समझता ही नहीं, उस भाषा की 'सुंदरता' को भी नहीं समझता।"

"हो सकता है कि जिसे 'आधुनिक' कहानी कहा जाता है, उसमें कारण का उल्लेख अवश्य रहा हो लेकिन आधुनिकोत्तर युग की कहानी में प्रायः कारण अनुल्लिखित रहता है या अधिक से अधिक उसकी ओर संकेत-भर कर दिया जाता है। यदि मि। फोर्स्टर की कसौटी लागू की जाय तो हेमिंग्वे की ज्यादातर कहानियाँ 'कथानक' की 'आधुनिक' मान्यता से रिक्त मिलेंगी।"

गौर कीजिए कि इस आखिरी उद्धरण में आधुनिकोत्तर युग की चर्चा है और यह जिस लेख ('फिर क्या हुआ? और मुक्तिमार्ग') का अंश है, वह सन् 60-61 में कभी 'नई कहानियाँ' में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी में उत्तर-आधुनिक की चर्चा का और कारणता सम्बंधी धारणा के आधार पर आधुनिक से उसके अंतर को चिह्नित करने के प्रयास का, यह संभवतः सबसे पहला उदाहरण है। यहाँ नामवर सिंह कारण-कार्य-सम्बंध पर आधारित कथानक की धारणा को आधुनिकता, विज्ञान और बुद्धिवादी आंदोलन से जोड़ते हैं और उसकी कई देनों को स्वीकार करते हुए भी यह रेखांकित करते हैं कि इस 'कारणवादी आरोप की भी अपनी रूढ़ियाँ बन गईं' और 'कहानी में पुनः आधुनिक युग की कारणता के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई.'

बहरहाल, ये उद्धरण सिर्फ़ इस बात की झलक देने के लिए हैं कि हिन्दी में कहानी पर गंभीर चर्चा जब पहली बार शुरू हुई तो वह किस ऊँचाई से शुरू हुई थी। वहाँ कहानी को कहानी की तरह सराहने पर जोर था, ऐसे कथ्य / संदेश के रूप में अपने फैसले का विशय बनाने पर नहीं जिसका जरिया कहानी न होकर, मिसाल के लिए, निबंध होता तब भी फैसले पर कोई फर्क नहीं पड़ना था। इसी सजगता के कारण ये सही मायने में कहानी-आलोचना के लेख हैं, सिर्फ़ कहानियों पर लिखे गए लेख नहीं। बेशक, इस पुस्तक में अंतर्विरोध भी कम नहीं हैं, पर अपन भी कौन-सा उसे नंबर देने बैठे हैं! अंतर्विरोधों को किनारे कीजिए और काम की अंतर्दृष्टियाँ निकाल लीजिए! इतने पुराने पाठ को, जिसकी समीक्षा लिखकर किसी अखबार में छपने नहीं देनी है, पढ़ने का यही तरीका है।

अब अंतर्विरोधों का एक मजेदार उदाहरण देखिए. एक जगह नामवर जी नई कहानी के बारे में किसी कहानीकार, संभवतः राजेंद्र यादव, को उद्धृत करते हैं कि "न वह हथौड़े की चोट की तरह सारे अस्तित्व को झनझनाती है, न खुले तीर की तरह टीसती है। वह तो कुहासे या चंदनगंध की तरह समस्त चेतना पर छा जाती है।" और बिना इस बात का खयाल रखे कि ऐसा ही कुछ उनका भी कहना रहा है, यकायक हमलावर हो उठते हैं, "अब इस कुहासे और चंदनगंध को लेकर किसी अच्छी कहानी का निर्णय कैसे किया जाय? इस कुहासे और चंदनगंध से पाठक को क्या दृष्टि मिल सकती है? ...फिर किसी को यदि हथौड़ा और नीमकश तीर ही पसंद हो तो कुहासे और चंदनगंध को क्यों स्वीकार करे?" याद कीजिए कि पीछे आधारभूत विचार के द्रवीभूत होकर पूरी कहानी के शरीर में भर उठने की बात नामवर जी ने ही की थी। वे ही पीछे यह भी कह आए हैं कि निर्मल ने "कहानी के रूप में एक 'पाग' की 'रचना' की है जिसमें कहानी के सभी तत्व एक-रस होकर एक अन्वित प्रभाव की सृष्टि करते हैं।" उन्होंने ही आगे जाकर उषा प्रियंवदा की 'वापसी' की तारीफ करते हुए यह कहा कि उसका "अभीष्ट प्रभाव किसी एक बिंदु पर केंद्रित नहीं है... छोटी-छोटी घटनाओं के दृश्य-चित्र सामने आते हैं और सभी चित्र कुल मिलाकर एक जीवन-मर्म का अर्थ ग्रहण कर लेते हैं।" क्या 'कुहासे' या 'चंदनगंध' वाली बात इन बातों से बहुत भिन्न है? क्या दोनों का मतलब यही नहीं है कि विवेच्य कहानियाँ नाटकीय तरीके से अपना अर्थ उद्घाटित नहीं करतीं, बल्कि ऐसी संवेदना का वहन करती हैं जो कहानी में किसी एक जगह केंद्रित न होकर व्याप्त है? पर... होगी कोई अदावत! चुकता किया जा रहा होगा कोई हिसाब! अब इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) की पीढ़ी वाले क्या जानें और क्यों जानें? इपंले तो बस इतना जानता है कि जो पाठ हिलहोड़े हुए पानी की तरह लगे, उसे थोड़ी देर अपने मन के पात्र में स्थिर होने देना चाहिए. रेतकण नीचे बैठ जाएँगे और स्वच्छ जल निथर आएगा। अब आपको प्यास न बुझानी हो बल्कि पानी को और हिलहोड़ कर उसके गंदलेपन पर ही फैसला सुनाना हो, तो बात अलग है।

आपके मन में यह सवाल होगा कि 'कहानी नई कहानी' पर इतनी बात क्यों? एक तो इसलिए कि प्रकाशन के पचास साल पूरे होने पर एक महत्त्वपूर्ण किताब को याद कर लेने में कोई बुराई नहीं है और दूसरे इसलिए कि नई कहानी दौर के इस प्रतिनिधि पाठ से आप समझ सकते हैं कि उन दिनों कहानी सम्बंधी चर्चा संरचना और कथा-युक्तियों के सवाल को कितनी संजीदगी से सम्बोधित कर रही थी। अगर उस समय के साहित्यिक माहौल में ये सवाल उपस्थित न होते तो स्तंभ के रूप में लिखे गए इन लेखों में उन पर बात भी न की गई होती। कहानी को महज एक वक्तव्य या युगीन प्रश्नों पर कहानीकार के अभिमत (स्टैंड) के रूप में पढ़ने-आँकने के इन दिनों प्रचलित सरलीकरण से वह आलोचना कोसों दूर थी। वह अगर कहानी को सामाजिक स्थितियों के दस्तावेज के रूप में पढ़ती भी थी तो दस्तावेजीकरण की कथा-प्रविधियों के प्रति पर्याप्त सजग रहते हुए. ये नहीं कि कहानी में सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के स्थूल संकेतकों को-वे चाहे जैसे भी दर्ज किये गए हों-चिह्नित किया और कहानी के यथार्थ-बोध पर वारी जाने लगे और जहाँ संकेतक पकड़ में नहीं आए, वहाँ कहानी में यथार्थ-चेतना की कमी होने का फरमान जारी कर दिया, जिसका सीधा मतलब ये कि कहानी कूड़ा है।

दुर्भाग्य से, आज ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है और उसकी वजह यही समझ में आती है कि 'कहानी-समीक्षा की व्यापक और निश्चित भाषा' के निर्माण की जिस ज़रूरत को नई कहानी दौर की आलोचना ने रेखांकित किया था, उसे वह तो पूरा नहीं ही कर पाई, उसके बाद के समर्थ आलोचकों ने भी नहीं किया। बाद के समर्थ आलोचक, जिनके नाम आगे अलग-अलग प्रसंगों में आते रहेंगे, वे हैं जिनके यहाँ कहानी के स्थूल दस्तावेजी स्वभाव से संतुष्ट हो जानेवाली, संरचनागत प्रश्नों के प्रति लापरवाह आलोचना नहीं मिलती। लेकिन वहाँ भी ऐसी शब्दावली विकसित करने का प्रयत्न अत्यल्प है जो इपंले जैसी औसत बुद्धि के प्रशिक्षुओं के लिए कथा-और उसी के एक रूप, कहानी-के रचना-तंत्र में उतरने का सहारा बन जाए. हम अपना कोई आख्यान-शास्त्र (नैरेटॉलजी) विकसित नहीं कर पाए और उधार लेकर काम चलाने से भी परहेज करते रहे। नतीजा यह कि कथा के रचना-तंत्र की कई बारीकियों के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। शब्द न होने के कारण वे बारीकियाँ हमारे लिए अस्तित्व ही नहीं रखतीं। कहानीकार और वाचक क्यों और क्यों कर अलग होते हैं, वाचक कितने किस्म के हो सकते हैं, घटनाओं / कार्यव्यापार को देखने के लिए कहानी हमें जो अवलोकन-बिंदु मुहैया कराती है, वह कितनी तरह का हो सकता है, वह कब-क्यों-कहाँ बदल जाता है और इससे किस तरह-साथ ही, किस तरह की-सूचनाओं को उभारा या दबाया जाता है, कहानी में प्रकट या निहित रूप में एक सम्बोध्य (नैरेटर का नैरेटी) होने के क्या मायने हैं, वे कौन-सी हिकमतें हैं जिनसे एक कहानीकार स्थान और काल की छलयोजना (मैनीपुलेशन) करता है-ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके प्रति कथा-साहित्य की आलोचना सामान्यतः सजग नहीं है। मुश्किल सिर्फ़ यह नहीं है कि वह सजग नहीं है, मुश्किल यह है कि अगर आप आलोचक के सामने ये प्रश्न रखें तो वह इन्हें अर्थ-ग्रहण की दृष्टि से व्यर्थ बताकर एक ओर बुहार देगा। वह, हो सकता है, इन्हें आपकी अध्यापकीय चिंता बता दे, बिना इसका ध्यान रखे कि कई मौकों पर ये प्रश्न एकदम राजनीतिक हो उठते हैं और पाठ के अर्थ, प्रभाव, सत्ता-संरचना के साथ उसके रिश्ते इत्यादि को समझने-समझाने में बड़ी भूमिका निभाते है। क्या 'इम्प्लिसिट नैरेटर' और 'इम्प्लिसिट नैरेटी' की पहचान किए बगैर कथाओं का स्त्रीवादी पठन संभव था? यह पहचान कि किसी कथा का लेखक ही नहीं, वाचक भी निहित रूप में श्वेत / सवर्ण पुरुष है और उसका सम्बोध्य भी निहित रूप में श्वेत / सवर्ण पुरुष है, एक बेहद बुनियादी राजनीतिक पहचान नहीं तो और क्या है? फिर यह अध्यापकीय चिंता कैसे हो गई?

जहाँ ये प्रश्न राजनीतिक न लगकर शुद्ध रूप से 'टेक्नीक' सम्बंधी प्रतीत होते हैं, वहाँ भी कथा-पंरपरा में आए मोड़ों की पहचान करने में इनकी निर्णायक भूमिका हो सकती है और मोड़ों को पहचानने, चिह्नित करने के बाद ही उन मोड़ों के समाजशास्त्र पर बात करने का कोई मतलब है। यह हो सकता है कि कोई अलग-अलग रचनाओं की संरचनागत विशेषताओं पर बात करके रह जाए, लेकिन परंपरा के मोड़ों को चिह्नित न करे; यह भी हो सकता है कि कोई परंपरा में आए मोड़ों की पहचान कर ले, किंतु उसके समाजशास्त्र तक अपनी व्याख्या को न ले जाए; पर इस वजह से संरचनागत विशेषताओं की बात करना बेमानी नहीं हो जाता। कोई नींव रख दे, पर मकान न बना पाए तो इससे नींव व्यर्थ की चीज नहीं हो जाती। आगे आनेवाले मकान बना लें! आखिर जब भी मकान बनेगा, उसे नींव की ज़रूरत तो होगी ही!

तो चिंता का सबब यही है कि बिना नींव के मकान इन दिनों धड़ाधड़ बन रहे हैं। नामवर जी की पीढ़ी ने कथानक-चरित्र-कथोपकथन-देशकाल आदि वाले आलोचनात्मक ढाँचे को खत्म कर दिया-जिसे खत्म होना ही चाहिए था-लेकिन, बावजूद अपनी अविस्मरणीय अंतर्दृष्टियों के, कोई वैकल्पिक शब्दावली-संपन्न ढाँचा खड़ा नहीं किया। सो कहानी-आलोचना की हालत 'गाँव जो उजड़ गिएँ, सहर जो बसें नहीं' (संदर्भ: 'कुरु कुरु स्वाहा') वाली हो गई. अब इस उजड़े हुए गाँव और न बसे हुए शहर में आलोचक एक समाजशास्त्री या सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणीकार की तरह ही कहानी को पढ़ने पर उतारू है, जबकि सचाई यह है कि वह पेशेवर समाजशास्त्रियों, सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणीकारों के सामने कहीं ठहरता नहीं। वह भाषा और कथा-युक्तियों के एक जानकार के रूप में कहानी पर बात करना नहीं चाहता, जबकि सचाई यह है कि दूसरे इसी उम्मीद में उसका मुँह जोहते हैं। वह कहानी के यथार्थ-बोध और सामाजिक चेतना के बारे में अपना मूल्यांकन जारी कर देने की हड़बड़ी में है, जबकि इस काम को लेकर उसकी तैयारी कतई अधूरी है। वह इस बात के प्रमाणन का प्राधिकार हथियाए बैठा है कि कहानी किस समस्या से जूझती है और 'पोलिटिकली करेक्ट स्टैंड' लेती है या नहीं, जबकि इस प्रश्न का उसके पास कोई उत्तर नहीं है कि कहानी बन पाई या नहीं। वह यह तो बता सकता है कि कहानी हमारे समय के कितने बड़े सवालों से टकरा रही है, पर यह नहीं बता सकता कि इन सवालों से टकरानेवाले अधिक आँकड़ा-संपन्न, तथ्यपरक विष्लेशणों के रहते एक गल्प को क्यों पढ़ा जाए. ...नहीं, आशय यह नहीं है कि गल्प को पढ़ा नहीं जाना चाहिए. आशय सिर्फ़ इतना है कि आलोचना उसे पढ़े जाने का कारण चिह्नित कर सकने की क्षमता खो चुकी है। अगर समय के बड़े सवालों से टकरानेवाले बहुत विलक्षण तथ्यपरक विश्लेषण उपलब्ध हैं तो निश्चित रूप से उस 'फैक्ट' वाले लेखन के मुकाबले 'फिक्शन' वाले लेखन को पढ़ने का कारण उन बड़े सवालों से उसके टकराने में ही निहित नहीं होगा, कहीं उससे बाहर भी होगा-मसलन, टकराने की विधि में, कथा-युक्तियों में, भाषा के बरताव में, टकराहट की संश्लिष्टता में, जिसकी संभावना वैचारिक विधाओं की बनिस्पत 'जीवन की पुनर्रचना' वाली विधाओं में अधिक होती है। पर उस कारण पर बात तभी हो पाएगी जब रचना-तंत्र की बारीकियों के लिए हमारे पास शब्द हों, वे बारीकियाँ हमारे लिए अस्तित्वहीन न हों, हमारे पास सुंदर के सौंदर्य को चिह्नित करने की पद्धति हो और उसे चिह्नित करते हुए हम सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणीकारों के मुकाबले हेठी अनुभव न करें कि या खुदाया, जब विचारों की दुनिया में इतनी सरगर्मी है, जब अखबारों के पन्नों से लेकर न्यूज चैनलों तक में रात-दिन समाज और राजनीति पर टिप्पणी की जा रही है, तब हम यह कौन-सा ओछा काम कर रहे हैं!

तो क्या कहानियों पर सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से विचार किया ही नहीं जाए?

पूरा खतरा है कि आज का आलोचक उक्त बातों का यही मतलब निकाल लेगा और इस पूरे लेख को एक निंदनीय प्रस्ताव बताते हुए इसके खिलाफ निंदा-प्रस्ताव ले आएगा। अस्सी फीसद संभावना इस बात की है कि वह ऐसा आलोचक होगा जिसकी सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता कहानी पर लिखे गए पन्नों के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देती होगी। वह कभी किसी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा नहीं बनता होगा, कहानियों के संदर्भ से बाहर किसी सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर लिखता-बोलता नहीं होगा, किसी लेखक-संगठन में शामिल होकर उसके लिए दरी बिछाने से लेकर भाषण देने तक का काम नहीं करता होगा, अपने झोले या गाड़ी की डिक्की में डालकर कम कीमत की पुस्तिकाएँ बेचता नहीं चलता होगा, पर जैसे ही कहानी पर लिखने बैठते होगा, उनके सिर पर सामाजिक चेतना का भूत-और वह भी बहुत मोटी-मोटी बातें समझने वाला भूत-सवार हो जाता होगा। ...उस आलोचक के लिए इपंले की यही सलाह है कि वह न तो कहानियों के बारे में बहुत सरल निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी दिखाए, न ही इस टिप्पणी के बारे में। अगर उससे यह बताने की उम्मीद की जाती है कि कहानी बन पाई या नहीं, तो इसमें ये कहाँ से आ गया कि वह कहानी के दृष्टिकोण के प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी, जनवादी या गैर-जनवादी, स्त्रीवादी या स्त्रीविरोधी, दलितवादी या दलित-विरोधी इत्यादि होने पर टिप्पणी नहीं कर सकता? विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे प्रतिबद्ध आलोचक जब 'निरंध्र कथा-विन्यास' पर बल देते हैं, या ज्ञानरंजन को 'कलावादी नहीं' लेकिन 'कला-कुशल कहानीकार' बताते हैं, या रवींद्र कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी' के संदर्भ में 'भाषाई चुहल' का विश्लेषण करते हैं, तो क्या वे कहानी के दृष्टिकोण पर अपनी राय देने के अधिकार का विसर्जन कर देते हैं? और मामला सिर्फ़ कला को रेखांकित करने का नहीं है, इसका भी है कि बिना इन पर गौर फरमाए कहानी के दृष्टिकोण को निर्भ्रांत रूप में समझ लेने का दावा ही ग़लत है।

असल में, हर तरह की जटिलताओं से आलोचना के देह चुराने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि आप किसी भी कोण से बहस खड़ी करना चाहें, आलोचक अपने किसी चिरपरिचत कोण को उस पर 'सुपर-इंपोज' करके ही उसे ग्रहण करता है और फिर स्वयं को एक पुराने पक्ष और आपको एक पुराने प्रतिपक्ष का पुनर्जन्म मानकर पिछले जन्म के सारे सवालों को दुहराने लगता है।

बहरहाल, बिना संरचनात्मक पहलुओं पर गौर फरमाए कहानी के दृष्टिकोण को निर्भ्रांत रूप में समझ लेने का दावा कैसे ग़लत है, इसे हम अगली किस्तों में अलग-अलग कहानियों की चर्चा के क्रम में समझ पाएँगे। ...और अगर न समझ पाए तो दावे के ग़लत होने का दावा ग़लत साबित होगा! और क्या!