गांधी पर विकसित बाजार / जयप्रकाश चौकसे

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गांधी पर विकसित बाजार
प्रकाशन तिथि : 02 अक्तूबर 2019


महात्मा गांधी 1931 में गोलमेज वार्ता के लिए लंदन गए थे। चार्ली चैपलिन महात्मा गांधी से मिलने गए और अंग्रेज होते हुए भी चार्ली चैपलिन ने भारत के स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन किया। उन्होंने एक सार्वजनिक बयान भी जारी किया। चार्ली चैपलिन ने महात्मा गांधी से यह जानना चाहा कि वे मशीन का विरोध क्यों करते हैं? मशीन तो मनुष्य के परिश्रम को कम करते हुए उसे फुर्सत का समय देती है, जिसमें वह पढ़कर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। महात्मा गांधी ने स्पष्ट किया कि मशीनों पर पूंजीपतियों का अधिकार है और पूंजीपति अवाम का शोषण करते हैं। इस वार्तालाप में समय की बचत और उस बचत के माध्यम से व्यक्तित्व के विकास की बात की गई थी परंतु आज हम देखते हैं कि मशीन के उपयोग से बचे समय में व्यक्तित्व का विकास नहीं हो रहा है वरन् अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी की जा रही है। अफवाह फैलाना लोकप्रिय शगल बनता जा रहा है।

बहरहाल, महात्मा गांधी से प्रभावित और प्रेरित होकर चार्ली चैपलिन ने अपनी फिल्म 'मॉडर्न टाइम्स' में एक विलक्षण दृश्य रचा। कारखाने का एक कामगार मशीन के बड़े चक्र की सफाई कर रहा है। एक कर्मचारी मशीन चालू करता है तो आभास होता है मानो वह सफाई कर्मचारी उस वृहत चक्र का एक पुर्जा हो। समय को प्राय: चक्र कहा जाता है, घड़ी के कांटे भी गोल घूमते हैं। जिसे हम उम्र बढ़ना कहते हैं दरअसल, वह जीवन का कम होना है। हम प्रतिपल अपनी मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहे हैं। गुलामी के दौर में फिल्म की सेंसरशिप केवल इस बात का ध्यान रखती थी कि किसी तरह का स्वतंत्रता का संदेश फिल्म में नहीं दिया जा सकेगा परंतु चतुर फिल्मकार मायथोलॉजी से प्रेरित फिल्मों के माध्यम से संदेश देने में सफल होते थे। मसलन फिल्मकार द्वारकादास सम्पत ने 1920 में 'महात्मा विदुर' नामक फिल्म में विदुर पात्र को महात्मा गांधी की तरह प्रस्तुत किया। विदुर चश्मा भी पहने हैं और हाथ में लाठी हैं। पात्र की चाल-ढाल भी गांधीजी के अनुसरण करने की तरह है।

गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए देवकी बोस ने एमए की परीक्षा का बहिष्कार किया और कालांतर में वे महान फिल्मकार बने। देवकी बोस की फिल्म 'चंडीदास' के प्रारंभिक दृश्य में नदी के घाट पर बामन और एक धोबन अपने-अपने कपड़े धोने के लिए आए हैं। नदी के जल में उनकी छायाएं दिखाई देती है और एक लहर के चलते ही छायाएं आपस में गड्‌डमड्‌ड हो जाती है। इसी दृश्य से उनकी प्रेम कहानी का प्रारंभ होता है। 'चंडीदास' भी गांधीवादी फिल्म है, क्योंकि गांधीजी ऊंच-नीच और जाति प्रथा का विरोध करते थे।

गांधीजी का सिनेमा में सबसे बड़ा योगदान यह है कि काशी विश्वविद्यालय के शुभारंभ के समय उन्होंने अपने भाषण में कहा कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि हम भयमुक्त हो जाएं। उसी सभा में एक अंग्रेज अफसर मौजूद थे, जिनकी सुरक्षा के लिए काशी में एक बटालियन नियुक्त की गई थी। महात्मा गांधी ने उस अफसर से पूछा कि आपकी अपनी हुकूमत में आपको भय किससे लगता है कि आपने अपनी सुरक्षा के लिए एक पूरी बटालियन को तैनात किया है। बाबूराव पेंटर ने अपनी महाभारत से प्रेरित फिल्म में कीचक की भूमिका एक अंग्रेज से अभिनीत कराई। गांधीजी के भयमुक्ति के संदेश से प्रभावित होकर दर्शक रात के शो देखने जाने लगे। इस तरह गांधीजी फिल्मों को दर्शक भी दिए।

जर्मनी में जन्मे अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एरिक एरिकसन ने 'गांधीज़ ट्रुथ' नामक किताब गुजश्ता सदी के सातवें दशक में लिखी। किताब में वे लिखते हैं कि भारत में आजादी प्राप्त करने के लिए आंदोलन 1857 से प्रांरभ हुए। सारे प्रयास एक सीमित क्षेत्र में कम संख्या के लोगों ने किए। उनके उद्देश्य महान थे और बलिदान भी महान ही थे परंतु उनमें देश का अवाम शामिल नहीं था। ज्ञातव्य है कि किसी भी कालखंड में तीस हजार से अधिक अंग्रेज भारत में नहीं रहते थे परंतु उन्होंने ऐसी व्यवस्था रची थी कि भारत के लोगों की मदद से ही भारत पर राज किया। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से पूरा अवाम जुड़ा था। यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्ति 'जयहिन्द' भी सही उच्चारित नहीं कर पाते।

जब अंग्रेजों ने यह महसूस किया कि इस देश पर हुकूमत नहीं की जा सकती तब उन्होंने भारत छोड़ने का विचार किया। गांधीजी ने जानबूझकर अवाम की तरह वस्त्र पहने और उन्हीं की भाषा में संदेश दिए।

1914 से 1946 तक अंग्रेजों द्वारा संचालित फिल्म्स डिवीजन में गांधीजी के आंदोलनों पर इतने वृत्तचित्र बने हैं कि उनको सिलसिलेवार देखने पर संग्राम का पूरा इतिहास आंखों के सामने आ जाता है। गांधीजी के आदर्श पर अनगिनत फिल्में बनी हैं। शांताराम की 'दो आंखें बारह हाथ' भी गांधीवादी फिल्म है और बिमल राय की 'सुजाता' भी गांधीजी के आदर्श प्रस्तुत करती है। यह गौरतलब है कि अंग्रेज सर रिचर्ड एटनबरो ने 'गांधी' नामक महान फिल्म की रचना की। यह दुख:द है कि सर रिचर्ड एटनबरो के अंतिम वर्ष एक वृद्धाश्रम में बीते। हाल ही में एक फिल्म में एक वृद्ध को डॉक्टर ने चश्मा पहनने को कहा परंतु उसके पास पैसे नहीं है। उसका छोटा पुत्र शहर के चौराहे पर लगी गांधीजी की प्रतिमा से उनका चश्मा चुरा लाता है। डॉक्टर कहता है कि इस चश्मे में लेन्स नहीं है। यही हमारे अवाम ने किया है कि गांधीजी के नज़रिये को नज़रअंदाज कर दिया है। हर शहर और कस्बे में एक गांधी मार्ग है, जिस पर बाजार विकसित हुआ है। शराब की दुकानें हैं और अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी की जा रही है। हमारे असीम टुच्चेपन की हद है कि हमने गांधीजी के आदर्श भुला दिए हैं।