गांधी विचार की सब से बड़ी कमी / राजकिशोर

Gadya Kosh से
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बाइबल में कहा गया है : सूई की नोक से ऊँट भले ही निकल जाए, अमीर आदमी नहीं निकल सकता। यह शिक्षा सभी धर्मों में दी गई है। सिर्फ शब्द अलग-अलग हैं। जीवन में सबसे बड़ा मूल्य है धर्म और उसकी रक्षा के लिए हड़ी से बड़ी चीज का त्याग किया जा सकता है। धर्म की तुलना में भौतिक संपन्नता तो बहुत तुच्छ चीज है। जीवन के पुरुषार्थों में धन कमाना भी शामिल है, लेकिन वह धन किस काम का जिससे धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में सहायता न हो? वे हीरे-मोती ले कर क्या करोगे जो तुम से तुम्हारा खुदा ही छीन ले?

यह शिक्षा कम से कम तीन हजार वर्षों से दी जा रही है। लेकिन क्या वजह है कि किसी भी देश या समाज में यह मूल्य स्थापित न हो सका? उलटे होता यह है कि प्रत्येक धर्म प्रचारक अपने अनुयायियों को धन-दौलत की निस्सारता बताते-बताते स्वयं धनवान हो जाता है? कौन नहीं जानता कि जिसने इच्छाओं की गुलामी स्वीकार कर ली, उसने आपने आप को मटियामेट कर लिया? आधुनिक जीवन की बेचारगी और व्यर्थता का कारण यही है कि इस जीवन दर्शन में संयम के लिए कोई स्थान नहीं है। इच्छाओं और जरूरतों का घोड़ा जब एक बार सरपट दौड़ने लगा, तो फिर उसे रोका नहीं जा सकता। कहा जाता है, रुक जाना मृत्यु है, चलते जाने में जिंदगी है।

महात्मा गांधी का जीवन दर्शन इच्छाओं की उच्छृंखलता के विरुद्ध उन पर नियंत्रण तथा भौतिकता की पूजा करने के विरुद्ध आध्यात्मिक साधना का है। सत्य और अहिंसा इसके सक्षम औजार हैं। जो अपने ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, वही दुनिया पर विजय प्राप्त कर सकता है। हैरत की बात है कि तीस-चालीस वर्ष तक भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का नेत़ृत्व करते हुए और सक्रिय राजनीतिक जीवन बिताते हुए भी गांधी जी मूलत: एक नैतिक शिक्षक का काम करते रहे। सत्य और अहिंसा उन्हें इतना प्रिय थे कि उनकी कीमत पर उन्हें स्वाधीनता भी नहीं चाहिए थी। हजारों लोगों ने अपने व्यक्तिगत जीवन में गांधी जी के इस आदर्श को उतारा, लाखों लोगों ने गांधी जी की इस सीख में अपना विश्वास प्रगट किया और करोड़ों लोग गांधी जी के भक्त और प्रशंसक बने। इतिहास ने तीन-चार दशकों की इस अवधि को गांधी युग के नाम से दर्ज किया।

क्या महात्मा गांधी इससे खुश थे? हाँ, तब तक जब तक वे विश्वास करते रहे कि देश की इतनी बड़ी जनता उनके साथ चलने को तैयार है। उनका यह विश्वास उस वक्त तक बना रहा जब कांग्रेस ने स्वाधीनता के साथ भारत विभाजन स्वीकार कर लिया। गांधी जी ने बार-बार कहा था कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा। लेकिन जब उनके सभी सेनाध्यक्षों ने उनका साथ छोड़ दिया और सत्य तथा अहिंसा की राजनीति करने के बजाय सत्ता लोलुपता का शिकार बन गए, तब गांधी जी का आत्मविश्वास टूट गया और वे जिंदा लाश बन गए। उस समय आमरण अनशन कर वे अपनी जान दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया तो शायद इसीलिए कि अब भारत की राजनीतिक सत्ता की निगाह में उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं रह गया था और गांधी जी के मन में संदेह पैदा हो गया था कि देश उनका साथ देगा या नेहरू-पटेल के पीछे चलेगा। ऐसे माहौल में निर्रथक जान देने का क्या फायदा था? देश भर में जिस तरह का सांप्रदायिक वातावरण बन रहा था, उसमें गांधी जी को अपना जीना जरूरी लगा - शायद वे अपनी उपस्थिति से उस पागलपन को रोक सकें।

गांधी जी को अपने जीवन का सबसे बड़ा झटका तब लगा जब एक-दूसरे का खून बहानेवालों ने उनकी अपीलों को कोई तवज्जो नहीं दिया। गांधी देश भर में घूम-घूम कर हिंसा के विरुद्ध तथा प्रेम और भाई-चारा के पक्ष में बोल रहे थे और कोई उनकी नहीं सुन रहा था। यहाँ तक कि कांग्रेस की सरकार भी सांप्रदायिक दंगों को रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी। इस खून-खराबे को देख कर गांधी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इतने दिनों तक भारत के लोग उनके पीछे नहीं चल रहे थे, बल्कि पीछे चलने का नाटक कर रहे थे। महात्मा अपने शिष्यों से ही छला गया।

प्रश्न किया जा सकता है कि गांधी जी की इस विफलता का उनके जीवन दर्शन से क्या संबंध है? संबंध यह है कि सत्य और अहिंसा का पालन करने की ईमानदार कोशिश वही कर सकता है जो सभी को अपना भाई-बहन मानता हो और जो किसी को वंचित कर अपना घर भरने के लालच से मुक्त हो। खादी इसी जीवन दर्शन का प्रतिनिधित्व करती है। सांप्रदायिक हिंसा के तांडव ने गांधी जी को यह साक्षात्कार कराया कि उन्हें माननेवालों के भीतर कितनी हिंसा भरी हुई थी। यह हिंसा कहाँ से आई थी?

हिंसा के मूल स्रोत को जानने के लिए यह रेखांकित करना आवश्यक लगता है कि आजादी के बाद भारत ने आर्थिक क्षेत्र में संयम और सादगी का रास्ता चुनने के बजाय संपन्नता और शाहखर्ची का रास्ता चुना। बराबरी के बजाय विषमता को बढ़ाने की नीति बनाई। चूँकि समस्त देश को एकबारगी रहन-सहन का ऊँचा स्तर नहीं दिया जा सकता था, इसलिए सभी राष्ट्रीय प्रयत्नों कोके केंद्र में मुट्ठी भर लोगों की सुख-सुविधा बढ़ाने और बाकी सभी लोगों को उनकी किस्मत पर छोड़ देने की क्रूर राजनीति थी। वही अर्थनीति आज तक जारी है। पहले समाजवाद का नाटक था. अब सुधारों का तमाशा है।

सवाल है, ऐसा क्योंकर हुआ? जिन्होंने भारत के लिए स्वार्थ और विषमता का रास्ता चुना, वे इतने बुरे आदमी तो नहीं थे। वे स्वतंत्रता संघर्ष की आँच में तपे हुए लोग थे और एक विशाल आंदोलन से निकल कर आए थे। यहीं मुझे लगता है कि गांधी विचार में ही कोई बुनियादी कमी है जिस वजह से उसकी प्रशंसा तो बहुत की जाती है, लेकिन उसके अनुसार जीना बहुत ही - बहुत ही - मुश्किल है। गांधी विचार की तारीफ करना वैसे ही है जैसे उपनिषद काल के ऋषियों, गौतम बुद्ध, महावीर और ईसा मसीह के उपदेशों की तारीफ करना। कहने की जरूरत नहीं कि गांधी जी को इसी परंपरा में रख कर देखा भी जाता है। वे राजनीतिज्ञ से ज्यादा संत थे। इसीलिए उन्हें 'महात्मा' की पदवी भी मिली। सवाल यह है कि दुनिया में कितने लोग महात्मा का अनुसरण कर जिंदगी बिता सकते हैं? झोंपड़ी में रहना कितने लोगों को कबूल होगा? इच्छाओं को दबाने में आनंद होगा, पर इच्छाओं को पूरा करने में सुख जरूर है। सामान्य दिमाग आनंद नहीं, सुख खोजता है। दुनिया में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोग सामान्य दिमाग के ही होते हैं। इसलिए बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह आदि की पूजा जारी रहती है और उसके समानांतर भोग की संस्कृति पुष्ट होती जाती है।

मेरे खयाल से, यह द्वंद्वात्मकता ही जीवन की मूल समस्या है। हम जानते हैं, जैसा कि महात्मा जी ने कहा था, धरती के पास इतना है कि वह सब की जरूरतें पूरी कर सके, पर इतना नहीं कि एक आदमी के भी लालच को संतुष्ट कर सके। फिर भी, लालच हमसे छूटता नहीं और समाज में भौतिक उपलब्धियों की प्रतिद्वंद्विता जारी रहती है। 'पहले हम' - यह मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।

गांधी जी जिस ग्राम स्वराज की बात करते हैं, उसमें सुख-सुविधाओं को कम करने की बात है न कि उनका निरंतर विस्तार करने की। पर ऐसा जीवन उबाऊ नहीं होगा? आखिर इस स्थिर जीवन की ऊब को पीछे छोड़ते हुए ही तो हम यहाँ तक पहुँचे हैं। औद्योगिक क्रांति ने एक तरह से परम आज्ञाकारी तथा पलक झपकते ही सब कुछ ला हाजिर करनेवाला जिन्न हमें सौंप दिया है। इस जिन्न को लात मार कर कृषि सभ्यता की ओर लौटना कौन चाहेगा?

कोई विचार समाज की आत्मा में बस जाए, उसके लिए उसे मानव प्रकृति की कसौटी पर व्यावहारिक भी होना चाहिए।