गाजीपुर किसान सम्मेलन / नागार्जुन

Gadya Kosh से
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एक तरफ़ स्वामी सहजानंद का रंगीन चित्र और दूसरी तरफ़ कामरेड नंबूदरीपाद का । गाजीपुर का टाउनहाल 5 रोज़ तक किसान नेताओं के बहस-मुबाहसों से गूँजता रहा । ये नेता आए थे केरल से, आँध्र से, तामिलनाडु से, कन्नड़ के इलाकों से । पंजाब और बंगाल से आये थे । आसाम और महाराष्ट्र के किसान नेता थे। बिहार और उत्तरप्रदेश के तो ख़ैर थे ही ।

टाउनहाल के पिछवाड़े का विशाल अहाता इन दिनों रात-रात भर जगमगाता रहा । सारा-सारा दिन सम्मेलन के सैकड़ों प्रतिनिधि अपने संगठन की भारी रूपरेखा के बारे में, प्रस्तावों और नीतियों के बारे में सह-चिंतन करते थे । शाम से लेकर रात को देर-देर तक सांस्कृतिक प्रोग्रामों का ताँता लगा रहता था । आगरे से राजेंद्र सिंह रघुवंशी का दल आया था । केसठ (शाहाबाद) के कलाकारों की पार्टी आई थी । फैज़ाबाद से राजबली सिंह वाला किसान अभिनेता मंडल आ पहुँचा था। बीसियों कवि थे, शायर थे । सरल और क्लासिक संगीत का प्रोग्राम रहता था। भोजपुरी और अवधी लोकगीतों की ताज़गी वातावरण पर छाई हुई थी ।

20 की शाम को उसी अहाते में किसानों-खेत मज़दूरों की खुली मीटिंग थी । ए०के० गोपालन, बंकिम मुखर्जी, भवानी सेन, डॉ. अहमद, कामरेड सरजू पांडे (एम०पी०) आदि नेताओं के भाषण हुए । लोग पचीस हज़ार से कम तो क्या रहे होंगे, कुछ अधिक ही होंगे। यह आख़िरी रात थी। दो बजे तक राजबली सिंह का नाटक चलता रहा । यह नाटक खूब जमा । पंद्रह-बीस हज़ार दर्शक अंत तक डटे रहे । नरकपुर के ज़मींदार यमराज सिंह की छत्र-छाया में जनता किस प्रकार की दुर्दशा भोगती है, कांग्रेसी एम०एल०ए० बाबू ज्वालासिंह किस तरह उसी ज़ालिम का साथ देता है और किसान और खेत मज़दूर किस तरह ज़ुल्मों का मुक़ाबला करते हैं...उत्तर प्रदेश के अवधी इलाकों में ग्रामीणों की आज जो स्थिति है, इसकी अच्छी झाँकी दर्शकों को मिली। डॉयलाग सारे के सारे गीतों के ही माध्यम से थे । ट्यूनें फ़िल्मी दुनिया की भी खुलकर अपनाई गई थीं। आधुनिक रुचि के ‘नागरिक’ साथी राजबली सिंह के इस गीति-नाट्य को शायद ही पसंद करें, मगर देहाती जनता (और हिंदी-क्षेत्रा की मज़दूर-जमात भी) इस प्रकार के नाटक को तन्मय होकर देखती है ।

साथी राजबली सिंह पहले कांग्रेसी थे, अब कम्युनिस्ट हैं । उन पर पिछले वर्षों में बार-बार मुक़दमे चले हैं। वह बार-बार जेल गए हैं, बार-बार छूट आए हैं। दो-एक केस अब भी उन पर चल रहे हैं । कुछ महीने हुए राजबली सिंह अपनी मंडली लेकर कलकत्ता पहुँचे थे । वहाँ हावड़ा-काशीपुर, का किनारा जैसे मज़दूर-क्षेत्रों में अपना यही नाटक दिखलाकर मुक़दमे की पैरवी के लिए आवश्यक रक़म जुटाई और लौट आए। सो, इस गीत-नाटक की प्रशंसा मैं कलकत्ते में ही सुन चुका था । अबकी गाजीपुर में राजबली सिंह का नाटक देखने का अवसर मिला तो बड़ी ख़ुशी हुई। यह ठीक है, विषय-वस्तु और शैली के लिहाज़ से इस गीत-नाटक में सुधार की काफ़ी गुंजाइश है, मगर सुधार की गुंजाइश भला कहाँ नहीं हुआ करती ?

आगरा और केसठवाली मंडलियों के अभिनय देखने का मौक़ा मुझे नहीं मिल सका । सुना कि उन्होंने भी अच्छा काम किया।

बाज़ार घूमते समय दीवारों पर सम्मेलन के पोस्टर दिखाई पड़े । नेताओं में नंबूदरीपाद का नाम था । अभिनेताओं में पृथ्वीराज कपूर और बलराज साहनी के नाम चमक रहे थे । शायरों में सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, शक़ील बदायूँनी के नाम जगमगा रहे थे...

काश, इनमें से कोई भी आया होता !

आम लोग बार-बार पूछते थे-- नंबूदरीपाद कहाँ हैं ? वे जो नाटे कद के लुंगीवाले ऊपरी सीढ़ी पर खड़े-खड़े बातें कर रहे हैं, नंबूदरीपाद वही हैं न ।... वो कौन बोल रहा है अँग्रेज़ी में ? नंबूदरी हैं का ?...

एक साहब लाल दरवाज़े की ओर से आए । कलाई में गज़रा लपेट रखा था, उंगलियों में इत्र का फाहा थामे हुए थे । रिक्शे से उतरे और पाने वाले की तरफ़ हाथ बढ़ाया ।

तीन-चार कालेजियट छोकरे बीच सड़क पर भीड़ किए हुए थे । उनमें से एक तपाक से बोल उठा-- वो देखो, शक़ील बदायूँनी !

दूसरे ने अकचकाकर देखा ।

तीसरे ने कहा-- धत् ! वो तो कल आएँगे बंबई-मेल से...

इसी तरह बलराज साहनी और पृथ्वीराज के बारे में नौजवान बार-बार पूछते थे और मुझे स्वागत समितिवाले साथियों पर गुस्सा आता था बार-बार ! नाहक पोस्टर पर इतने नाम छापने की भला क्या ज़रूरत थी ?

० ० ०

गीतकार दो-तीन ही आए थे, इसी से कवि सम्मेलन (18 मई की रात) फीका रहा । फिर भी श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ (जौनपुर), शीलजी (कानपुर), हरिहर ओझा (बलिया), विमल वर्मा (कलकत्ता) ने श्रोताओं की भीड़ को हताश होने से बख़ूबी बचा लिया ।

मुशायरा अपेक्षाकृत अच्छा रहा (19 की रात को)-- हैदराबाद के प्रख्यात क्रांतिकारी कवि मख़दूम मोहियुद्दीन आ गए थे ।

इलाहाबाद, जौनपुर, बलिया के कई एक शायर मौजूद थे। कलकत्ते के एक शायर ने तो समां ही बांध दिया। मख़दूम और राही (गाजीपुर) ने स्फूर्ति और प्रगतिशीलता के लिहाज़ से ही नहीं, बल्कि शब्दशिल्प के भी लिहाज़ से उन पांच-सात हज़ार श्रोताओं को बेहद प्रभावित किया।

मुशायरे की सदारत की सज्जाद ज़हीर ने और कवि-सम्मेलन की नागार्जुन ने। ० ० ० गाजीपुर की जनता को संबोधित करते हुए मख़दूम ने ठीक ही कहा था-- ‘आपकी रात रात फूलों की आपका साथ साथ फूलों का आपकी बात बात फूलों की...’

कभी यह शहर गुलाब, बेला, चमेलियों, जुहियों, केवड़ों की अपनी खेती के लिए मशहूर था। इत्र-अर्क, तेल और शर्बत के लिए मशहूर था। लेकिन आज गाजीपुर का वह पुराना धंधा चौपट हो चुका है। पुरानी बस्ती के खंडहर भाँय-भाँय कर रहे हैं आज । ढाई-तीन मील लंबी, पतली, संकरी सड़क के दोनों तरफ़ टुटपुंजिया दूकानों की मनहूस कतारें... छोटे बनियों के उदास चेहरे, पिछले युगों के ध्वंसावशेष... पतली गंगा की मनहूस कछारें... यही है आज का शहर गाजीपुर !

शहर के मज़दूरों में, ग़रीब और ईमानदार मध्यवर्ग में और देहात की खेतिहर जनता में इधर चेतना आ रही है ।

टाउन हाल के दरवाज़े से आगे बढ़ते ही किसान-मज़दूर की एक विशाल प्रतिमा खड़ी थी। वह तलवार को तोड़ने की मुद्रा में थी... नीचे लिखा था ‘तलवार नहीं, हल चाहिए ।’

यह स्थानीय कलाकार की ही कृति थी। दर्शक इस वीरात्मा को देखते अघाते नहीं थे। खेद है कि मैं उस कलाकार का नाम भूल गया हूँ ।

जनसंघी गुंडों ने घृणित ढंग से पर्चेबाजी की थी, मीटिंग में खुराफ़ात मचाना चाहा था, लेकिन हमारे बहादुर साथियों की मुस्तैदी के आगे उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम थी...

कामरेड सरजू पांडे, कामरेड राजनाथ सिंह, कामरेड पव्वर राम आदि को दिन-रात बाहरी साथियों और आमंत्रित व्यक्तियों के आराम की चिंता लगी थी। विभिन्न राज्यों से आए हुए प्रतिनिधियों के लिए अलग-अलग रुचियों का खाना तैयार रहता था । नाश्ता, चाय और लस्सी-शर्बत । कितना ध्यान रखते थे वे हमारा !

सोचता हूँ और उनके उस नेह-छोह की याद में तबीयत भर आती है ।

(जनशक्ति, 5 जून 1960)