गिद्ध / ऋषिकेश पंडा / दिनेश कुमार माली

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ऋषिकेश पंडा का जन्म सन 1955 में भद्रक के पास गाँव नुआपाड़ा,खडियाल में हुआ। .आपकी शिक्षा एम.एस.सी (रसायन-शास्त्र) हैं और आप अपने जमाने के आईएस टॉपर थे। एक दक्ष प्रशासक होने के साथ-साथ एक अच्छे कहानीकार, उपन्यासकार और नाट्यकार भी है। आपके अब तक चार उपन्यास, सात कहानी-संग्रह एवं तीन नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। आपके कहानी-संग्रह “बहारे छिड़ा होई थीबा लोक (1982), “रेवती (1983)”, “राजपुत्र (1987)”, “साहब देवता (1989)”, “प्रोढ़ भावना(1992)”, “शून्यातर पाश्चत्यकू (1994)”, “व्यस्कंक पाई शिशु कहानी (1994)”, इत्यादि है। आप अपनी अनुभूतियों को एक अलग शैली में प्रस्तुत करते हैं। आपकी कहानियों का अनुवाद अंग्रेजी, हिंदी, तमिल, असमिया, मलयाली,बांग्ला, तेलगू, पंजाबी और कन्नड़ भाषा में हो चुका हैं। आपको भुवनेश्वर पुस्तक मेला पुरूस्कार, झंकार पुरूस्कार के साथ-साथ ओडिशा साहित्य एकादमी से भी सम्मानित किया जा चुका है।


उनके त्रिकालदर्शी चेहरों पर झलकती गंभीरता और भोजन के प्रति लोलुपता देखकर देखने वाले को गिद्ध की कहानी याद आ गई। पेट्रोलियम पौधों के विविध उपयोग जैसे इनकी खेती के द्वारा विदेश से और पेट्रोलियम का आयात नहीं करना पडेगा और अधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा भी अर्जित होगी। इसके अतिरिक्त, खनिज पेट्रोलियम की तुलना में अधिक र्इंधन क्षमता और ज्यादा आक्टेन नंबर, वायुमंडल पर अपेक्षाकृत कम प्रदूषणकारी प्रभाव, इन सारी बातों को उन्होंने कड़े-कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर इस तरह प्रस्तुत किया कि विद्वान लोग भी इस विशेष विषय पर कुछ समझ नहीं पाए। पेट्रोलियम पौधों की खेती से होने वाले फायदों को इस तरीके से समझाया कि मुख्य अतिथि महोदय काफी प्रभावित हो गए और तुरन्त अपने सचिव को वहीं से कहने लगे, “अगर पेट्रोलियम पौधों की खेती इतनी लाभकारी है तो खाद्यान्न के उत्पादन में कटौती कर सौ में से पचास भाग जमीन पेट्रोलियम खेती के लिए सुरक्षित रखी जाए। इसके लिए तुरंत एक अध्यादेश जारी करो।”

धीरे-धीरे पेट्रोलियम पौधों की यह उत्कर्ष-गाथा सरकारी दीवारों को फांदकर गैर सरकारी संस्थाओं तक जा पहुँची। समाचार पत्रों में उनके भिन्न-भिन्न अंचलों के दौरे की खबरें अलग-अलग तरीके से लगातार स्थान पाने लगी। जहाँ राज्य के एक जगह दंगा होने से कई लोगों के मरने की खबरें या रावणराज्य की खबरें समाचार पत्रों में मुख्य स्थान प्राप्त करती, वहाँ यह खबर भी दूसरी मुख्य खबर के रूप में छपती थी।

पेट्रोलियम पौधों की खेती को प्रोत्साहन देने वाले राज्य में घूम-घूमकर उन पौधों की खेती के लिए स्थान ढूंढ रहे थे। सरकारी निर्देशों का पालन करते हुए उन्हें जगह-जगह सम्मानित किया जा रहा था। निर्लिप्त सरकारी कर्मचारी, कोमल हृदय वाले विद्यार्थी, लोक प्रतिनिधि, स्थानीय प्रतिनिधि और पत्रकार सभी पेट्रोलियम पौधों के विविध आर्थिक लाभ सुनकर आश्चर्यचकित हो रहे थे। कहीं-कहीं उद्योगपति, पेट्रोल पंप मालिकों ने पहले से ही इन प्रोत्साहन देने वालों के साथ इकरारनामा भी कर लिया था। पेट्रोलियम पौधों को प्रोत्साहन देने वाले प्रायः सभी दूर पश्चिम से आए थे, उन्हें इस प्रकार का सम्मान और अभ्यर्थना राजा महाराजाओं से भी बढ़कर प्राप्त हो रहा था, जिससे वे भाव-विह्वल और गदगद होकर पेट्रोलियम पौधों की खेती के लिए एकाधिकार पाने हेतु आवश्यक कार्यवाही करने के लिए विशेष क्षमता संपन्न व्यक्तियों को पहले से ही पारितोषिक रूप में कुछ न कुछ देने लगे।

बाद में वे सोनपुर नामक गांव में पहुंचे। इस गांव की जमीन अत्यधिक ऊपजाऊ थी। इस जमीन से सोना पैदा होता है, कहकर इस गांव का नाम सोनपुर दिया गया था। गांव में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था सिवाय एक लड़के के। पढ़ा लिखा वह लड़का समाज में प्रतिष्ठा पाने की लालसा में विधर्मी हो गया था और गांव से बहुत दूर स्थित एक चर्च में रखवाली का काम करता था। हालांकि गांव के सभी लोग गीत गा सकते थे, देवताओं और महापुरुषों की भाषा समझ सकते थे और आकाश को देखकर कल के मौसम के बारे में सटीक से कह सकते थे। खासकर ओझा इस विद्या में पारंगत था और दो-चार साथियों को आजकल यह विद्या सिखा रहा था। तारों की अवस्थिति, चंद्रमंडल, विभिन्न कीट-पतंगें और जंगली जानवरों के व्यवहार और जंगली लताओं के फूल, इन सभी का रुख देखकर पूरे साल का मौसम, खेती बाड़ी और गांव की आर्थिक अवस्था का ओझा बिना किसी गलती के अच्छी तरह आकलन कर सकता था। किसी भी प्रकार की विपदा आने पर पूर्वजों की आत्माएँ सपने में या जागृति में, संकेतों में अथवा स्पष्ट शब्दो में सूचना देती थी जिससे गांव के सारे लोग सहज ही भविष्य के बारे में जान लेते थे।

पेट्रोलियम पौधों के उन किसानों ने सोनापुर गांव के अंतिम छोर पर अपना डेरा डाला। सर्वप्रथम उनको एक गूंगे आदमी ने देखा। वह गूंगा आदमी बहुत समय से एक साहूकार के पास बंधुआ मजदूर के रूप में काम करता था। एक सुनसान जगह पर साहूकार की बंजर जमीन में खेती करता था और रात को मचान के ऊपर चढ़कर ढोल बजाकर जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करता था। उस जगह पर कभी कोई आदमी नहीं जाता था। केवल पशु-पक्षी और भूत-प्रेतों के सिवाय वहाँ कोई नहीं रहता था। और जब साहूकार जाता था वह केवल फसल की आमदनी लेकर लौट आता था, इसलिए सालों- साल वह आदमियों से कुछ भी बात नहीं कर पाता था। धीरे-धीरे कई चीजों, घटनाओं, अवस्थाओं या अनुभूतियों को कैसे कहा जाए, वह भूल गया था और बातचीत कुछ भी ढंग से नहीं कर पाता था। गूंगे आदमी ने विदेशियों को आया देख गांव में आकर कहा था, गांव के अंतिम छोर पर गिद्धों के झुंड बैठकर भोजन कर रहे हैं। यह कहकर वह किसी को भी अपमानित करना नहीं चाहता था, केवल मनुष्यों से बहुत समय से दूर रहने की वजह से पशु-पक्षियों के साथ उसकी आत्मीयता बढ़ गई थी। इसलिए मुंह से ऐसी बात निकली।

सोनापुर की जलवायु, प्राकृतिक दृश्य, जमीन का उपजाऊपन और लोगों की अज्ञता का अनुमान कर पेट्रोलियम पौधों के किसानों ने सोनापुर को ही अपनी परियोजना हेतु मुख्य स्थान के रूप में चयन किया। इस जगह की जलवायु शीतल और आमोदकर थी और ग्रीष्मावकाश में भ्रमण के लिए उचित पहाड़ी जगह सोचकर उनके मन में और आह्लाद पैदा कर रही थी। लोग अशिक्षित होने की वजह से जमीन आराम से कम खर्चे में मिल जाएगी, यह बात भी उन विदेशियों की व्यापारिक बुद्धि में साथ ही साथ घुस गई थी।

विदेशी कौन होंगे - ईसाई धर्म प्रचारक या कारखाने बैठाने वाले सेठ, या फिर गांव को डुबाने वाले, ऐसे शकुन शुभ नहीं है - यह भय ओझा को सताने लगा। और धीरे-धीरे यह भय सारे गांव में व्याप्त हो गया और भय एक गांव से दूसरे गांव में फैलने लगा तभी अचानक सरकारी कर्मचारी जैसे रेवन्यू इंस्पेक्टर, फोरेस्टर, ग्रामसेवक, स्कूल मास्टरों के अलावा बड़े-बड़े अधिकारी गांवों में जाने लगे और गांव वालों को विदेशियों की खबर देने लगे। यहाँ तक कि, उन्हें यथोचित सम्मान देने हेतु अलंघ्य आदेश जारी किया। विदेशी क्या करने जा रहे हैं, यह बात सम्यक भाव से समझाने के लिए आस-पास के इलाकों के सारे लोगों को शाम को एक जगह हाजिर होने हेतु मौखिक फरमान भी जारी कर दिया।

शाम को विदेशी लोगों ने माइक गीत, स्लोगन, फिल्म और विडियों के माध्यम से पेट्रोलियम पौधों की खेती करने पर किस प्रकार से खनिज पेट्रोलियम जनित वस्तुओं की आवश्यकता कम होगी। जहाँ खनिज तेल सीमित मात्रा में उपलब्ध होगा और इसके खत्म होने से सभ्यता पंगु और अथर्व हो जाएगी, दूसरी तरफ पेट्रोलियम की खेती किस तरह मांडुआ, सुआं, धान, अलसी, अरहर, मक्का की खेती से अधिक लाभदायक और इसकी खेती करने से किस प्रकार अधिकाधिक विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है, जिससे भोग विलास के अनेक इलेक्ट्रोनिक सामान खरीद सकेंगे, इन सारी बातों को कठिन भाषा में प्रांजल भाव से उन्होंने समझा दिया। सिनेमा में पेट्रोलियम पौधों के पत्ते का क्लोज-अप इतना बड़ा दिखाया कि एक आदमी डर के मारे कहने लगा, “हे माँ ! इतने बड़े-बड़े पत्ते, एक- एक पत्ता तो कटहल पेड़ से कम नहीं है।”

और एक रसिक बूढ़ा कहने लगा, “यदि उस पेड़ के पत्ते का आकार कटहल पेड़ के आकार के बराबर है तो उस पेड़ का कटहल कितना बड़ा होगा, जरूर सांड जितना बड़ा होगा।" लोग जोर-जोर से हँसने लगे और इस बात के अलावा शिक्षा कार्यक्रम में लोग कुछ भी नहीं समझ पाए। गांव के सभी लोगों ने हाट में मोटरगाड़ी जरूर देखी थी, गाड़ी पेट्रोल से चलती है या चक्कों में ठूस-ठूस कर भरी हवा से, ये बातें उन्हें अच्छी तरह पता नहीं थी।

इतना भयंकर भोलापन और अनभिज्ञता ! विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत एवं सरकार द्वारा अनुमोदित प्रोजेक्ट रिपोर्ट में प्रावधान था कि वे विदेशी लोग एक कंपनी खोलेंगे और वह कंपनी सरकारी जमीन पर पेट्रोलियम की खेती करेगी। इसके अलावा, आस-पास इलाकों के पट्टाधारक किसान अपनी जमीन पर यही पौधें लगाएंगे, उनको सरकार कंपनी से चारा, विशेषज्ञों की सहायता, खाद औषध इत्यादि की सुविधा प्रदान करेगी। पट्टाधारक किसान उनके पौधों से बने पेट्रोलियम कंपनी को ही बेचेंगे। इसके लिए किसान आवश्यक स्वीकृति पत्र पहले से लिखकर दे देंगे। कंपनी को सरकार जितनी हो सकेगी अधिकाधिक रिहायत और सहायता प्रदान करेगी।

हालांकि अधिकांश कृषिभूमि जो उस अंचल में पट्टाधारक किसानों के दखल में बहुत समय से थी, मगर उन किसानों के पास कोई पक्का पट्टा नहीं था। नत्थीपत्रों में ये जमीनें सरकारी जमीन के नाम लिखी हुई थीं और कई जगह झूठे दस्तखत और अंगूठे के निशानों की सहायता से सारी काश्तकार जमीन कंपनी के हाथ में चली गई। थोड़ी बहुत इधर-उधर जो पट्टा जमीन बची थी, उसे काश्तकारों ने अपनी इच्छा से पेट्रोलियम के पौधों की खेती करने के लिए कम्पनी को दे दिया।

सारी जमीन चली जाएगी और पूरा का पूरा गांव फिर से खाली हो जाएगा, यह बात जब समझ में आई, चारों तरफ हताशा के बादल छा गए। लोग और उनके पूर्वज गत तीस सालों से एक जगह से दूसरी जगह घूम-घूमकर इतने थक गए थे कि आगामी दो पुश्तों तक और कोई गांव बसाने का सामर्थ्य उनमें नहीं था। इन गांवों को छोड़कर जाएंगे कहाँ? और कोई ठिकानेवाली जगह मिलनी संभव नहीं थी, अब और कोई आश्रय स्थली भी नहीं बची थी, सारे जंगल अब कागजों के कारखानों या काजू बादाम कंपनियों या अभ्यारण्यों में बदल गए थे मानो किसी ने जंगल देवता के हाथ काट लिए हो, उसके पास में एक कंदमूल तक नहीं, पहले उपवास क्या होता है,, किसी को पता तक नहीं था। घर में दानापानी भले खत्म हो जाए, जंगल खत्म नहीं होते थे। जंगल में शहद, महूल, आम, कटहल, सलप, केंदू, बेर, कंदमूल, पालूअ और अनेकों प्रकार की बेंतें, हरेक ऋतुओं में मिलती थीं। भोजन यदि घर में न होने से, जंगल तो भरा हुआ था !

अब सभी खत्म, अब जंगल खाली, केवल देवताओं को रिझाने के लिए इधर-उधर दो-चार पेड़ बचे थे। उन पेड़ों के पत्ते, फल, फूल, चेर किसी भी काम का नहीं। पता नहीं, अब यह गांव उठ जाएगा?

सारे लोग ओझा के पास गए। ओझा कहने लगा, मैं सोच समझकर बताऊँगा - रात में तारों से पूछूँगा, सुबह सूर्य से पूछूँगा, हवा, पहाड़ों, गांव के बगीचो, जंगल, आकाश, जमीन, स्वर्ग, पाताल में मौजूद सभी देवी-देवताओ को पूछूंगा। क्या सोच रहा था यह वह ही जाने, क्या समझा, पता नहीं। किंतु आशा की एक किरण उसके चेहरे पर अवश्य दिखी। कारण, उसका चेहरा धूप की तरह चमक उठा। बाद में ओझा अकेले विदेशी लोगों के डेरे पर चला गया।

ओझा विदेशियों को कहने लगा, “तुम लोग अच्छे नहीं हो; मैं जानता हूँ तुम लोग डूमा (खराब) आत्माएँ हो। यक्ष की तरह संपत्ति खोजने तुम आए हो। कुबेर की खान नहीं मिलने तक तुम अशांत रहोगे। जो भी हो, प्रतिज्ञा करो, यदि तुम सच्चे हृदय वाले हो, तो उस सच्चे दिल को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो, अपने भगवान के सामने प्रतिज्ञा करो, यदि तुम्हारा भगवान है, मैं तुम्हें विपुल संपत्ति दिखा दूंगा, मगर तुम्हें हमारा गांव छोड़ना होगा, फिर कभी यहाँ दिखाई नहीं दोगे, एक भी जमीन यहां की नहीं लोगे। यक्ष के पास से तुम जितने चाहो धनरत्न ले लो, हम कुछ भी नहीं कहेंगे, धनरत्न हमारी इच्छा नहीं है, सारी धन-दौलत ले जाओ। जो भी हो, हमें इस गांव से मत खदेड़ो। हमारा सिर छुपाने वाली जगह को हम से मत छीनो । ”

विदोशियों ने ओझा के सामने प्रतिज्ञा की और वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, भूतत्वविद, कंसलटेंट, राजनेता, शोषक, उत्पीड़क सभी ओझा के पीछे चलने लगे। ओझा के बिखरे हुए बाल, पीछे चोटी, हाथ में कड़ा, कान में बाली, नाक में नथनी, मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार। गांव खत्म हो गया, जंगल आया। जंगल के भीतर चौंका देने वाले दर्रे जैसे आकाश से उतरे हो। पहाड़ पर घास का नामोनिशान नहीं, चिकने पत्थरों पर ओझा बंदर की तरह जल्दी कूदते-फांदते पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया। ऊपर से एक रस्सी को पकड़कर झुला दिया। एक- एक कर वैज्ञानिक, राजनेता, अर्थशास्त्री, शोषक, उत्पीड़क सभी के सभी ऊपर पहुँच गए। “रुक जाओ, महाप्रभु”, ओझा कहने लगा, “इस गड्ढे को देखो, इसमें यक्ष रहता है। सावधान, सिर चक्कर खाएगा और नीचे की तरफ आँख गड़ाकर देखो। धीरे-धीरे अंधेरा खत्म हो जाएगा और सबकुछ दिखने लगेगा साफ साफ।”

उसके बाद सभी के चेहरे पर मुस्कराहट, सभी हँसने लगे, हा.. हा.. हा.. हा..। यह क्या है? यह पेट्रोलियम की खान है। वैज्ञानिक गिलहरी की तरह सूंघने लगे। भूतत्वविद झुककर परीक्षा करने लगे। अर्थनीतिज्ञ हिसाब करने लगे। “कितना पेट्रोलियम यहाँ होगा? सौ वर्ष तक इस देश में हजार एकड़ जमीन पर खेती करने से जितना पेट्रोलियम मिलेगा उससे यहाँ ज्यादा होगा। वाह, वाह, ओझा महोदय, हो.. हो.. तुम तो बहुत बुद्धिमान हो। तुम्हें हम बहुत ईनाम देंगे। हमें बहुत खुशी हुई, वाह.. वाह..। बहुत ही अच्छा किया आपने हमें दिखाकर हम आपकी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे।”

ओझा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। सभी विदेशी अपने डेरे की तरफ लौटने लगे, ओझा सभी के पीछे-पीछे। हाथ जोडकर अनुनय करने लगा, “देखिए महाप्रभु, हमें बेघर नहीं करोगे, भगाओगे नहीं, इस खान से तेल ले लो, जितना लेना है उतना ले लो, जितना भी हो हमारे मांडिया खेत, धान खेत, बाजरा के खेत, हमारी नदियाँ और झरनें, ग्राम के कुल-देवता, दर्मू और दर्तनी, हमारे बुजुर्गों और पूर्वजों की आत्माओं को दुखी नहीं करोगे, तुम्हारी कलम की नोक तो सोना उगलती है, तुम क्यों इस बंजर भूमि को लेना चाहते हो। यहाँ आकाश और पवन में बहुत सारी आत्माएं जो आश्रय लेती है और हमें छाते की तरह आश्रय देती है, उन्हें व्यथित नहीं करोगे दुख नहीं दोगे।”

महाप्रभु लोग कहने लगे, “हम ने तुम्हारी सारी बातें सुन ली है ओझा महाशय, इन पर विचार करेंगे। और हमारा फैसला सुनाएंगे।”

डेरे में विदेशी लोग उत्तेजित हो गए, नाचने गाने लगे, मद्यपान और भोज करने लगे, जमीन और पैसा, शेयर, बैंक-बैलेंस और विदेशी तरुणियां सामने नजर आने लगी। एक आदमी कहने लगा “बहुत सपनें देख लिए,, अब वर्तमान में लौट आओ।”

दूसरा आदमी कहने लगा, “यह बात सही है, ज्यादा सपनें देखना ठीक नहीं है, खासकर उनके लिए जो सपने देखने के आदी नहीं हैं।”

और किसी ने कहा, “खान से तेल बाहर करने में बहुत मजा आएगा। कारण, इसमें खेतीबाड़ी की तरह बारिश-धूप में मेहनत करने का झंझट भी नहीं।”

कन्सलटेंट का मन दुखी हो गया, पेट्रोलियम की खेती के लिए इतनी बड़ी प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का सारा परिश्रम बेकार हो गया। उसे कमीशन के रूप में जो शेयर मिलता, अब वह नहीं मिल पाएगा ! कन्सलटेट कहने लगा, “किसी भी तरह खान तो सरकार ले लेगी, हमारी कंपनी को क्या मिलेगा? ”

पेट्रोलियम पौधों का मुख्य प्रोत्साहक कहने लगा, “इसे छोडिए, जरा सोचिए, इतनी सारी जमीन, जितने भी पैसे कमाने से भी हम इस जमीन के मालिक तो कभी नहीं हो पाएंगे। यदि पौधों की खेती नहीं कर पाएंगे तो।”

सभी का मन दुखी हो गया, खान मिलने के बाद यदि सरकार के हाथों में चली गई और यहाँ की जमीन कौड़ियों के भाव में मिल रही थी वह भी हाथ से निकल जाएगी। इन पौधों का आविष्कार करने वाला वैज्ञानिक कहने लगा, “ बेचैन मत होओ, खान का काम भी चलेगा, खान को हम छुपाकर रखेंगे, उसमें से निकलने वाला पेट्रोलियम को हम पौधों से उत्पादित होने वाले पेट्रोलियम के रूप में दिखा देंगे।”

शोषक कहने लगा, “यह होने से बहुत अच्छा होगा, जमीन हमारे हाथ से भी नहीं निकलेगी।”

लंपट उत्पीड़क कहने लगा, “अच्छा होगा, बहुत सारी स्त्रियां तो काम करेगी" और हंसने लगा।

अर्थशास्त्री कहने लगा, “ऐसा होने से तो ओवरहेड आधा हो जाएगा, लाभ डेढ़गुणा बढ़ जाएगा।”

मुख्य अंशधारक राजनेता जोर- जोर से हँसने लगा, और उसकी हँसी पहाड़ी हवा की तरह, बारिश के जल से भरी हुई उपत्यका की तरह, सर्दी की रात में चंद्रमा के प्रकाश की तरह चारों तरफ फैल गई। हँसते-हँसते सभी लोट-पोट हो गए। बाहर में आग लगाकर ठंडी हवा में तरुणियां नाच रही थीं। विदेशियों के खून में गरमी बढ़ने लगी।

किसी ने याद करवा दिया कि बाहर एक मुर्गा बैठा हुआ है - एकदम जंगली मुर्गा। एक आदमी कहने लगा, “मुझे बहुत भूख लग रही है जो मेरे पेट में कामुक औरत की तरह कूद रही है।”

और दूसरा कहने लगा, “धत्, मुर्गा-वुर्गा कुछ नहीं, वह तो ओझा है।”

सभी कहने लगे “वाह, वाह, क्या सुंदर आइडिया !”

दूसरा साथी कहने लगा, “सोच रहा हूँ ओझा कहीं यह यक्ष वाली बात और किसी प्रतिद्वन्दी कंपनी को तो नहीं कह देगा।”

“इतना मूर्ख, खान को यक्ष कह रहा है।” और जोर-जोर से हँसने लगा।

और अन्य आदमी कहने लगा, “कितना कोमल..... आकर्षक दिख रहा है यह ओझा मुर्गे की तरह” और खीं-खीं कर हँसने लगा।

एक आदमी कहने लगा, “वाह, वाह, तुम तो बहुत बड़े कवि हो, बहुत ही सुंदर कविता बनाते हो !” ओझा वहाँ जैसे का तैसे खडा होकर महाप्रभु लोगों के आदेश का इंतजार करने लगा। वह गर्व अनुभव करने लगा,अपने सभी देवी-देवताओं और पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञता जताते।

महाप्रभुओं ने इशारे से ओझा को बुलाया और ओझा को एक बार फिर गुहार लगाने का अवसर मिल गया। हाथ जोड़कर धरती पर सिर नवाकर प्रणाम किया। सभी महाप्रभुओं के पाँवों की धूल अपने सिर पर लगाई और भाव-विह्वल होकर गले में गमछा डालकर कहने लगा, “महाप्रभु, हमारे मांडिया खेतों पर घोडे नहीं दौड़ाओगे, मांडिया गिर जाएगा। झरनों को गंदा नही करेंगे। सारे सलप के पेड़ एक-एक जिंदगी की तरह, माँ के स्तन से दूध जैसे सलप पेड़ का रस। हमारे बुजुर्गों को प्रताड़ित नहीं करोगे। भगवान के आशीर्वाद से वे बैठे हुए हैं हमारे भले के लिए, महापुरुषों के देश को भी नहीं जा रहे हैं। पहाड़ी को ध्वंस नहीं करोगे। उन पहाड़ियों में बहुत सारी आत्माएँ घनघोर अंधेरे में अकेले-अकेले घूमती हैं, अनेक दिनों से उनका जीवन तिलमिला गया है। इधर-उधर होने के अभ्यास की वजह से सभी तेतीस करोड़ देवी-देवता अब अघोरी हो गए हैं। किसी को भी थोड़ी-सी जगह नहीं मिल रही है।”

पेट्रोलियम खेती को बढ़ावा देने वालों ने कुछ भी नहीं सुना। उनके आगे नजर आने लगी करोड़ों की धनराशि, बेशुमार आनंद, अमाप क्षमता। हालांकि कितनी करुणा झलकती थी उनके चेहरों पर।

वे ओझा की ओर लपक पड़े। करबद्ध ओझा उनके सामने अनुकंपा की भीख मांगने लगा।

सारे गांव, सारे समाज की रक्षा का दायित्व था उसका। थर्राता हुआ हाथ जोड़ कर खड़ा था ओझा।

पेट्रोलियम वाले विदेशी किसान त्रिकालदर्शी ओझा को समझाने के लिए आगे आए। ओझा को लगने लगा, इस समय यह आग बुझ जाएगी, नाच गाना बन्द हो जाएगा। फिर अंधेरा हो जाएगा, समाज पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। फिर भी किसी सचोट आशा ने उसे बांधकर रखा था।

मुस्करा रहा था वह पागल भोला ओझा, शायद उसी खुशी में जो- जो करना था सब तो उसने कर दिया।

जो आदेश हुआ था देवताओं का उनका पालन किया और उनके फल की अब उसे आशा नहीं थी, वे सभी देवता और उनके उत्तराधिकारी अगर सुख-दुख में होंगे तो पूर्वज समझेंगे। विदेशियों के हाथ विषैले साँप की तरह लंबे होने लगे। देखते-देखते ओझा के हाथ, पैर, नाक, कान, गला, जांघ, लिंग और हृदय को कसकर मरोड दिया। ओझा की गर्दन मुडगई, उसकी चोटी खुल गई, मुँह के एक तरफ से खून निकलने लगा। हड्डियाँ चूर-चूर हो गई, दाँतों के बीच में मुर्गे की हड्डी की तरह ओझा का निर्जीव शरीर लुढक गया जैसे बलि चढ़ाई हो किसी मुर्गे की। मरे हुए शरीर के चारों तरफ नाच गाना अनवरत जारी रहा। उसकी आत्मा अकेले अनंत गगन में समा गई। बहुत ही अकेली उसकी आत्मा, सुख की तलाश में लेकिन नहीं, सुख नहीं मिला। खुद की बलि लगी, यह बात तो सही है, मगर अपनी जाति की रक्षा नहीं कर सका। इसलिए ओझा की अतृप्त आत्मा आकाश में विचरण करने लगी, अपनी जाति के लोगों की रक्षा करने में बिल्कुल असमर्थ, केवल घोर दुखी होकर घनघोर काले अंधेरे में भटकने लगी।

अब सोनापुर गांव में भयंकर कोलाहल। क्योंकि अब सोनापुर गाँव नहीं रहा, वह अत्याधुनिक सभ्य शहर बन गया, देश के लिए आदर्श और देश की आर्थिक क्रांति में सर्वोपरि, एक महान आदर्श अविकसित अंचलों के लिए !

देख सकते हो इस अविकसित जंगल में कितनी महान स्वाधीनता, कितना सभ्य यह अंचल, गाड़ी-घोड़े , अट्टालिकाएं, बिजली और पानी के नलों की व्यवस्था तथा सेवरेज लाइनें, कंपनी की कॉलोनियों में सुंदर सजे हुए घर, व्यस्त शिक्षित और अर्थपिपासु लोगों की भीड़। बहुत ही अच्छी, बहुत ही अच्छी, बहुत ही अच्छी है यह सभ्यता धनवान गिद्धों के देश में।