गिरधर के काव्य में लोक-जीवन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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'गिरधर के काव्य में लोक जीवन' विषय पर कुछ कहने से पहले 'लोक' शब्द पर विचार करना आवश्यक है। डॉ विद्यानिवास मिश्र के अनुसार–'लोक का अर्थ व्यापक मानव-व्यवहार है अथवा मूल्यबोध से प्रेरित स्वीकृत व्यवहार या चेतना है।' न शास्त्र लोक विरुद्ध हो सकते हैं न लोक शास्त्रों के विरुद्ध। लोक स्वीकृति ही शास्त्र का रूप ग्रहण करती है। इन सबके बीच में मर्यादा एक कड़ी है। कहीं वह लोक-मर्यादा के रूप में आती है, कहीं शास्त्र–मर्यादा के रूप में। चाहे वेद की ॠचाएँ हों, चाहे गीता के श्लोक, अपनी बात कहने के लिए लोक–जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

गिरधर कवि ने कुण्डलियों के माध्यम से अपने अनुभवों को समाज के समक्ष रखा है। सफल व्यक्ति बनने के लिए सफल जीवन जीने की कला आनी चाहिए. इस कला के लिए व्यापक मानव-व्यवहार का ज्ञान ज़रूरी है। धर्म, दर्शन, सामाजिक मूल्य खरे हैं या नहीं, लोक-जीवन ही इसका निर्णय करता है। 'लोकजीवन' ही वह निकष है, जिस पर हमारी आस्थाएँ, हमारी लोकनीति या व्यवहार परखे जाते हैं। हमारे चिन्तन, वचन और कर्म का सन्तुलन हमारे व्यवहार को सन्तुलित बनाता है। गिरिधर कवि के काव्य में यह लोकजीवन विभिन्न उक्तियों, अन्योक्तियों सूक्तियों एवं चिन्तन धारा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। हमारा चिन्तन हमारी आस्थाओ का प्रतिबिम्ब है, तो हमारे कार्यकलाप हमारे वचन एवं कर्म का साक्षात् रूप है। कवि ने साधु की पहचान बताते हुए कहा है-

बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय।

त्यों साधु रमता भला, दाग न लागै कोय॥

अर्थात् बहता पानी ही निर्मल है, रुका हुआ पानी गन्दा हो जाता है, उसी प्रकार विचरण करने वाला ही सच्चा साधु है। सच्चा साधु राग-द्वेष से दूर अनासक्त भाव से अपना जीवन–यापन करता है।

गिरिधर कवि मानते हैं कि पूर्व धारणाओं से ग्रस्त व्यक्ति सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें खुले दिमाग़ से चिन्तन करना पड़ेगा। जब तक दिलो-दिमाग़ किसी मज़हब के पाश में जकड़ा रहेगा, तब तक हम निष्पक्ष भाव से चिन्तन नहीं कर सकते। किसी-किसी दायरे में बँधा चिन्तन हमें आत्मज्ञान से दूर ले जाता है। आज के सन्दर्भ में गिरिधर जी का यह कथन एकदम सटीक है-

पासी जब लग मजहब की, तब लग होत न ज्ञान।

मजब-पासि टूटै जबै, पावै पद निर्वान॥

पाशबद्ध चिन्तन ही अविद्या है। यह अविद्या निरन्तर गड्ढे खोदने का काम करती है। शास्त और स्मृति ग्रन्थ पढ़ने वाले भी इन गड्ढों में गिरकर मग्न हैं। ये अन्धे बहरों की तरह आचरण करते हैं। ऐसे विवेक-शून्य लोगों के लिए कहा गया है-

गढ़े अविद्या ने रचे, हाथी डूब अनन्त।

जोइ गिरयो तिस खांत में, धँसग्यो कान प्रयन्त॥

अविद्या के गड्ढे में जो कानों तक डूब गया, उसका उबरना असम्भव है। कवि ने अविद्या से बचने का एकमात्र उपाय बताया है–ज्ञान। इस ज्ञान को प्राप्त करने के ले गुरु–कृपा अनिवार्य है, तभी चित्त स्थिर हो सकता है-

कह गिरिधर बिन ज्ञान चित्त, थिर होत न ऐसा

गुरु अनुग्रग बिना बोध, दृढ़ होत न जैसा॥

मित्रता का जीवन में बहुत महत्त्व है। साथ निभाने वाले व्यक्ति से ही मित्रता की जाए. जो व्यक्ति सुख-दु: ख सम्पत्ति-विपत्ति में साथ दे, वही सच्चा मित्र है-

यारी ता संग कीजिए, गहै हाथ सो हाथ।

दुख-सुख, सम्पत्ति-विपति में, छिनभर तजै न साथ। ।

कवि ने कभी काम न आने वाले मित्रो के लिए एक लोकोक्ति के माध्यम से कहा है-

जाना नहिं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम।

तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम॥

अर्थात् जिस गाँव में जाना नहीं, उस गाँव का नाम पूछने से क्या फ़ायदा। उन साथियों की क्या बात की जाए, जिनसे कोई मतलब नहीं, अर्थात् जो हमारे काम में सहायक न हों। उनसे दूर ही रहें।

जीवन में कर्म प्रधान है। निकम्मे व्यक्ति आज का काम कल पर टालते हैं। जबकि 'कल' कुछ होता ही नहीं-'घटका-घटका करके सिगरी आयु घट गई' अर्थात् घड़ी-घड़ी करके सारी आयु घटती जा रही है। इसीलिए चेतावनी देता है-'काल्ह काम करना जोऊ, सो तो कीजै आज।'

गिरधर कवि ने लोभ, रस अर्थात् जीभ का स्वाद तथा राग को जीवन के लिए अहितकर बातया है–

लोभ पाप का बीज है, रस व्याधी का बाप।

राग कैद का बीज, तज तीन सुखी हो आप॥

जीवन के एक कटु अनुभव को गिरधर कवि ने अपने काव्य में स्थान दिया है, वह है-भूख। आज के सन्दर्भ में भी कवि का यह कथन लोकजीवन के कटु यथार्थ को उद्घाटित करने में सक्षम है। इस भूख के निवारण के लिए मनुष्य को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते। भूख सारे गुमान को चकनाचूर कर देती है। इसके लिए मनुष्य बहुत कुछ अकरणीय भी कर जाता है-

भूख विधाता ने रची, सबका हरे गुमान।

क्षुधा-निवारण के अरथ, क्या नहीं करै पुमान!

जीवन के सारे सत्य हम स्वयं अनुभव करके नहीं जानते, वरन् लोक-जीवन से होकर बहती चली आई अनुभव-धारा ही हमें बहुत कुछ सिखाती है। गिरिधर कवि कहते हैं कि गुरु, विद्वान्, कवि, मित्र, पुत, पत्नी, द्वारपाल, पुरोहित, राजमन्त्री, ब्राह्मण, पड़ोसी, वद्य और रसोइया इन तेरह से कभी बैर न करें। भाई से मधुर सम्बन्ध रखने पर और भी अधिक बल दिया है-

साँई अपने भ्रात को, कबहूँ न दीजै त्रास।

पलक दूर नहीं कीजिए, सदा राखिए पास॥

उधार लेने वाले मीठे वचन बोलकर उधार तो ले लेंगे, परन्तु फिर चुकाएँगे नहीं॥ आजकल बहुत से विवाद उधार के लेन-देन से पैदा होते हैं। कवि ने इस कटु यथार्थ से सचेत किया है-

झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय

लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय॥

सचेत करने का मुख्य कारण है यह है कि यह संसार मतलब परस्त है। जब पैसा नहीं रहेगा, तब मित्र भी साथ छोड़ जाएँगे। पैसा पास होने पर ही मित्र साथ में रहते हैं-

साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार।

जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार॥

फिर भी कवि धन पर कुण्डली मारकर बैठने की सलाह नहीं देता। उदारतापूर्वक खर्च करने में ही धन की शोभा है-

पानी बाढ़ों नाव में, घर में बा। धे दाम।

दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥

अगर ऐसा नहीं करेंगे तो पानी भरने से नाव डूब जाएगी, खर्च न करने पर, दौलत भी नहीं बचेगी। इस सन्देश से पूँजीपतियों को शिक्षा लेनी चाहिए.

कवि विवेकपूर्वक कार्य करने की सलाह देता है; क्योंकि

' बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय।

काम बिगारै आपनो, जग में होत हसाय॥'

जीवन में अगर भूल हो जाए तो उसे सुधार लेना चाहिए. निराश-हताश होकर बैठे रहना, अतीत की भूलों पर आँसू बहाने से कोई फ़ायदा नहीं। गिरिधर कवि की यह उक्ति आज भी लाखों हताश–निराश लोगों में आशावादिता का संचार करती है-

बीती ताहि बिसारि दै, आगे की सुधि लेइ.

जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥

गिरिधर कवि अनपढ़-गवाँर से लेकर विद्वानों तक जुड़े हैं। इसका मुख्य कारण है–उनके काव्य का जनमानस के निकट होना। योग्य व्यक्ति उपेक्षित हो जाते हैं और अयोग्य व्यक्ति अपनी तिकड़मों से हर युग में अपना स्थान बना लेते हैं। जहाँ ऐसी अँधेरगर्दी हो, वहाँ से दूर चले जाना ही ठीक है। घोड़े बाज और गधे कौए के प्रतीक द्वार कवि ने कहा है-

साँई घोड़े अछतहीं, गदहन आयो राज्।

कौआ कीजै हाथ में, दूर कीजिए बाज॥

जहाँ ऐसी अराजकता हो वहाँ नहीं रुकना चाहिए. सुबह का इन्तज़ार किए बगैर वहाँ से साँझ को ही प्रस्थान कर देन चाहिए–

तहाँ न कीजै भोर, साँझ उठि चलिए साईं।

कवि ने अन्य स्थलों पर भी समझदार व्यक्ति को अन्योक्ति के माध्यम से सचेत किया है–

हंसा ह्याँ रहिए नहीं, सरवर गए सुखाय।

काल्हि हमारि पीठ पै, बगुला धरि हैं पाँय॥

सरोवर जब सूख जाए तो हंसों को वहाँ नहीं रहना चाहिए. सम्भव है किसी दिन बगुला ही पीठ पर सवार हो जाए. हंस और बगुले के माध्यम से अच्छे लोगों के प्रति ओछे लोगों के मन में आए अवज्ञाभाव का संकेत किया गया है।

कवि ने लोकजीवन के कुछ ऐसे सूत्र भी बताए हैं, जो युग–सत्य कहे जा सकते हैं। यथा-कृतघ्न व्यक्ति से दूर रहना, अपने मन की बात को सबके सामने प्रकट न करना। कृतघ्न व्यक्ति कभी मित्र या शत्रु में भेद नहीं करता। उसे स्वार्थ पूरा करने से मतलब है। सर्वस्व लुटाने पर भी वह कभी किसी का हो ही नहीं सकता–

कृतघन कबहुँ न मानहीं, कोटि करै जो कोय।

सर्वस आगै राखिए, तऊ न अपनो होय॥

इसीलिए कवि कहता है कि बड़े और उदार व्यक्ति से ही अपना सम्बन्ध रखना चाहिए. कायर क्रूर और कुपुत्र तो मझधार में डुबो देंगे–

प्रीति कीजिए बड़ेन सो, समया लावै पार।

कायर, कूर, कपूत हैं, बोरि देत मझधार॥

कवि ने एक व्यावहारिक सलाह और भी दी है, जो आज की परिस्थितियों में अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए–

राजा के दरबार में, जैसो समया पाय्।

साईं तहाँ न बैठिए, जहँ कोउ देय उठाय॥

कवि की दृष्टि जीवन के हर पक्ष पर गई है। वे साधारण से साधारण वस्तु में भी सार्थकता ढूँढ लेते हैं। जैसे–

' लाठी में गुन बहुत हैं, सदा राखिए संग।

गहिरि नदी नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥

सुखमय जीवन के लिए व्यवहार-कला के. गुण ही मनुष्य को लोकप्रिय बनाते हैं-

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।

जैसे कागा, कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥

गिरिधर कवि ने अपने जीवन में जो देखा, जो समाज के लिए, लोक के लिए ग्राह्य है, उसे सरल, सहज, सुबोध भाषा में पिरोकर प्रस्तुत कर दिया। गिरिधर के काव्य में कविता के शास्त्रीय गुणों की ऊँचाई भले ही न हो; परन्तु जन-मन में घर कर लेने वाली शक्ति ज़रूर है, जो आज सैंकड़ों वर्षों के बाद भी जनमानस में उनकी कुण्डलियों को जीवित किए हुए हैं। गिरिधर की ये कुण्डलियाँ उन कविताओं की तरह नहीं हैं, जो आज लिखी जाती हैं और कल मर जाती हैं। इन कुण्डलियों की जीवन्तता का एक मात्र कारण है-लोक जीवन से अन्तरंगता। शिलालेख किसी को जीवित नहीं रखते। वह शक्ति केवल जनमानस को मिली है। जनमानस में केवल वही सुरक्षित रहता है, जो शाश्वत होता है, जो समय की धारा के साथ प्रवाहित हो सकता है।