गीताधर्म / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीता को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं और बातों पर अभी प्रकाश डालना बाकी ही है। मगर यह काम करने के पहले उसके एक बहुत ही अपूर्व पहलू पर कुछ विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। गीता की कई अपनी निजी बातों में एक यह भी है। हालाँकि जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस पर अब तक लोगों की वैसी दृष्टि नहीं पड़ी है जैसी चाहिए। यही कारण है कि यह चीज लोगों के सामने खूब सफाई के साथ आई न सकी है। उसी के सिलसिले में गीता की दो-एक और भी बातें आ जाती हैं। उनका विचार भी इसी प्रसंग में हो जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस बात का हम यहाँ विचार करने चले हैं उसका बहुत कुछ ताल्लुक, या यों कहिए कि बहुत कुछ मेलजोल, एक आधुनिक वैज्ञानिक मतवाद से भी हो जाता है - उस मतवाद से जिसकी छाप आज समस्त संसार पर पड़ी है और जिसे हम मार्क्सीवाद कहते हैं। यह कहने से हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि गीता में मार्क्ससवाद का प्रतिपादन या उसका आभास है। यह बात नहीं है। हमारे कहने का तो मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्क्सदवाद की दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें गीताधर्म से मिल जाती हैं और गीता का मार्क्स वाद के साथ विरोध नहीं हो सकता, जहाँ तक गीताधर्म की व्यावहारिकता से ताल्लुक है। यों तो गीता में ईश्वर, कर्मवाद आदि की छाप लगी हुई है। मगर उसमें भी खूबी यही है कि उसका नास्तिकवाद से विरोध नहीं है और यही है गीता की सबसे बड़ी खूबी, सबसे बड़ी महत्ता। यही कारण है कि हमें गीताधर्म को सार्वभौम धर्म - सारे संसार का धर्म - मानने और कहने में जरा भी हिचक नहीं होती।