गीता-सप्तश्लोकी / गीता हृदय / सहजानन्द सरस्वती

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प्राचीन लोगों ने अपने-अपने खयाल के अनुसार गीता के सात श्लोकों को चुनकर एक या कई सप्तश्लोकियाँ मानी हैं। वैसा ही प्रचार भी हुआ है। गीता-हृदय लिखने के समय इस बार भी ध्‍यान दिया गया है। फलत: 'हृदय' ने जिसे सप्तश्लोकी स्वीकार किया है वह कुछ दूसरी ही है। उसका स्वरूप यह है :

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ 2 । 47 ॥

योगस्थ: कुरुकर्माणि संगं त्यक्त्वा ध नंज य।
सिद्ध यसि द्ध यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ 2 । 48 ॥

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ 3 । 17 ॥

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ 6 । 3 ॥

स त्त्वा नुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धा मयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्र द्ध : स एव स:॥ 17 । 3 ॥

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं कुरुतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सा त्त्वि को मत:॥18।9॥

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अह त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥18।66॥