गीला मन / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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सूखे में जो सूख गया, जो पल-पल एक-एक बूंद को तरस कर मर गया, उस रेगिस्तान के रेत के हर एक कण को पता है प्यास का मतलब कि रेत का हर कण देखता है बूंद का सपना। कोई यूं तो रेगिस्तान नहीं हो जाता, सदियों की तड़प, प्यास और प्रतीक्षा के बाद कोई सूखता है। सावन के इन्तजार की आखिरी उम्मीद टूटने पर रेगिस्तान बनता है। फिर जब कोई सावन उस सूखे को भिगोने आता है तो रेगिस्तान उस पानी से नहीं अपने आसुंओं से भीगता है।

वह जानता है सूख जाने के बाद, सावन आने का कोई अर्थ नहीं कि अब किसी घटा में वह बात नहीं जो उसे भिगो सके. सूखे में सूख कर मन से गीला हुआ रेगिस्तान।

जाले, यकीनन झाडऩ से बड़े हैं कि उन्हें मकड़ी ने अपनी सांसों से बुना है अपनी ही मौत का जैसे बहाना चुना है। बरसों से वीराने घरों की दीवारें और चौखट दम तोड़ रही हैं। कोई नहीं आता उन्हें सजाने, संवारने, जिन घरों में रिश्ते दम तोड़ते हैं न, उनकी दीवारें पहले ही कमजोर हो चुकी होती हैं। मकड़ी आखिरी दम तक जाले बुनेगी।

पहले दीवार, फिर मकड़ी गिरेगी।

हाँ, जो गुजरे वक्त में कट गए या जान-बूझकर काट दिए गए, वह अभी तक नहीं कट सके, जीवन कट गया पर वह पल नहीं कटे, वह आज भी आंखों से बहते हैं कट-कट कर, सीने को छलनी करते हैं कट-कट कर कि जुड़ जाना सिर्फ़ कट जाने का विलोम नहीं।

पानी में पानी वह भरता है जिसे समंदर से बूंदें चुराने का हुनर पता है। एक दिन समंदर नाराज हो गया। बोला, मेरी लहरें चुराते हो, क्यों ले जाते हो मुझसे मेरा पानी। आसमान मुस्काया, बोला-अरे नादान...तेरे खारे पानी को मीठा करने ले गया था। तेरी खारी बूंदों से कभी कोई तृप्त नहीं होता, मेरे भेजे पानी से नदियाँ मीठी होती हैं।

बरसात से पहले उसके मन में एक आस है कि अबकी कोई प्यासा न रहे, सूखा न रहे, हर पोखर भरे, हर मन हरा हो, जितना मेरे पास है सब उलीच दूं कि बाकि सब हरा हो। बरसात के बाद एक उदासी है, उफ...मैं फिर रिक्त हो गया। सारे मेघ लुटा दिए.

सब टूटे बर्तन पोखर हो गए, लेकिन मन नहीं भरता कि मन को मन भर पानी नहीं प्रेम की एक सच्ची बूंद की आस थी। रातभर कम्बल बरसते रहे, लेकिन पानी भीगता रहा...जीवनभर भी कम्बल बरसेंगे न फिर भी पानी को भीगने से नहीं बचा सकेंगे।

पानी को खुद में छिपाने के लिए एक प्रेमभरा आंचल ज़रूरी था बरसात भर कम्बल नहीं।