गुदगुदाती भाभीजी : घूंघट में यथार्थ / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
गुदगुदाती भाभीजी : घूंघट में यथार्थ
प्रकाशन तिथि :12 अक्तूबर 2015


एन्ड टीवी पर जारी हास्य सीरियल 'भाभीजी घर पर है' लगातार लोकप्रियता अर्जित कर रहा है और इसका लेखन आपको शरद जोशी के लिखे सीरियल 'ये जो जिंदगी' की याद दिलाता है। सारे प्रायवेट चैनल अपने असीमित साधनों के बाद भी दूरदर्शन के लिए बनाए गए कार्यक्रम 'ये जो है जिंदगी', 'बुनियाद,' 'हम लोग,कथा सागर,तमस' इत्यादि के स्तर के नहीं बन पाए यह सचमुच दुखद है कि जाने कैसे ये अफवाहें फैला दीं गई कि सरकार नियंत्रित उपक्रम घाटों के सौदे हैं। आज अनगिनत एफएम रेडियो चैनल भी आकाशवाणी के स्तर और गुणवत्ता को नहीं छू पाए और आकाशवाणी के खजाने में भारतीय शास्त्रीय संगीत व लोक गीतों का जो अनमोल खजाना है, उसका व्यावसायिक दोहन भी नहीं हो पाया।

बहरहाल, 'भाभीजी' ऊपरी सतह पर वह केवल हास्य सीरियल लगता है परंतु भीतरी सतह पर इसमें समाज के विरोधाभास और विसंगतियों को भी प्रस्तुत किया गया है। सूक्ष्म संकेतों को अविश्वसनीय पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है और इसी कारण इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। यह सूक्ष्म को स्थूल के द्वारा अभिव्यक्त करना वैदिक संस्कृति की विशेषता है। पहली नज़र में चारों मुख्य पात्रों की प्रशंसा हुई परंतु अन्य भूमिकाएं भी बखूबी अभिनीत की गई हैं। मसलन पुलिस वाले का अभिनय कमाल का है और उसका भाषा का प्रयोग भी प्रशंसनीय है। उसके परदे पर आते ही दर्शक ठहाका लगाते हैं और माथे पर बिखरी तेल से सनी लटें भी उस पात्र के भीतरी लचीलेपन और लिजलिजाहट की द्योतक है। नौ नन्हो के पिता का रिश्वत को निछावर के नाम पर लेने में गजब की मासूमियत जुड़ी है, जिसके कारण अवाम का खून नहीं खोलता वरन् उसकी इस विषय पर तटस्थता तथा मौन स्वीकृति कम चौंकाने वाले बात नहीं है।

एक पात्र है, जो हाथ रिक्शा चलाता है और हर परिस्थिति में वह अपने चेहरे को भावहीन बनाए रखता है और यह अभिनय क्षेत्र में विरल एवं मूल्यवान है। दरअसल, अभिनय शास्त्र में अभिव्यक्त होने से अनअभिव्यक्त भावहीनता बहुत बड़ा काम है। धन्य है वह लेखक जिसने इस गूंगे से पात्र के द्वारा कान इत्यादि जगहों से सटीक पर्चियां दिलाने के उपक्रम की कल्पना की। हर पर्ची का सटीक होना मुझे निदा फाज़ली की पंक्तियों की याद दिलाता है, 'मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार, दिल ने दिल से बात की बिन चिट्‌ठी बिन तार।' इस प्रसंग में एक और गहरा संकेत है कि सामूहिक अवचेतन समान रूप से सक्रिय रहता है। इसमें निहित एक गहरा व्यंग्य यह है कि हम सबके दिमाग ही फॉर्मूला हो चुके हैं। हमेशा एक-सी प्रतिक्रिया देने को सामाजिक सद्‌व्यवहार का जामा पहनाया गया है। भाभीजी' का एक पात्र पिटने पर कहता है, 'आई लाइक इट' और उसे बिजली के झटके लगवाने का भी शौक है। वह बासी रोटियां और सब्जियां जानकर खरीदता है। क्या यह पात्र हमारे अवाम का प्रतीक नहीं है, जो सदियों से पिटते हुए उसका इतना अभ्यस्त हो गया है कि कहता है, 'आई लाइक इट' इसी तरह अन्याय आधारित व्यवस्था के हम इतने आदी हो चुके हैं कि कोई भी शॉक हमें मारता नहीं वरन् जीने की लालसा बढ़ाता ही है। यह भी कोई छुपी हुई बात नहीं है कि पागलों की इलाज प्रक्रिया में इलेक्ट्रिक शॉक एक इलाज है अर्थात हुक्मरान अवाम को पागल समझते हैं।

'भाभीजी' की चारित्रिक बुनावट देखिए कि दोनों पड़ोसी पुरुष पात्र लम्पट हैं और एक-दूसरे की पत्नियों के दीवाने हैं परंतु दोनों 'भाभियों' की नैतिक ताकत से इसका संतुलन किया गया है। वे दोनों प्राय: आपस में मिलकर अपने पतियों को दुरुस्त भी करती हैं और उन्हें नैतिकता की राह पर लाती है। प्रारंभ में अंगूरी के लावण्य से दर्शक बंधा हुआ था परंतु विगत दिनों अनीता के अभिनय और गरिमा ने भी दर्शकों को आकर्षित किया है। अब दोनों नायिकाओं का वज़न एक-सा हो गया है। पहले यह खेल 'मधुबाला' का लग रहा था परंतु अब 'दीपिका' भी लेखक की 'टाइम मशीन' द्वारा साथ खड़ी कर दी गई है। अन्य पात्रों पर भी लिखा जा सकता है। सभी का सहयोग है। हमारे हुक्मरानों के पास कहां समय है 'भाभीजी' देखने का या अवाम के कष्टों को देखनेका।