गुमशुदा दोस्त की तलाश / सुधा अरोड़ा

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एक

मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, वह कौन-सा लम्हा था जब उसने पहली बार मेरे हाथों को मजबूती से थामा और मुझे अपने होने का बहुत साफ-साफ अहसास दिलाया। पर इतना मुझे जरूर याद है कि उसकी पैदाइश मेरी डायरी के पन्नों पर हुई थी। मैंने पहली बार अपने ही अनगढ़ हाथों से उसे गढ़ा था पर वह सही लकीरों की एक मुकम्मल तस्वीर बन पड़ी थी और कागज के पन्नों में शब्दों की आकृति से बाहर निकल जब-तब मेरे रू-ब-रू खड़ी हो जाती थी। कभी बुजुर्ग बन कर मुझे डाँटती, कभी साथी बन कर मुझे तसल्ली देती, कभी मेरी गाइड बन कर मुझे जीने के रास्ते दिखाती जैसे मैंने उसे नहीं, उसने ही मुझे खड़ा किया हो। मैं जानती थी, यह सच भी था। वह मेरी ताकत थी, मेरा संबल थी, मेरे होने की वजह थी, मेरी जरूरत थी। अपने वजूद की शुरुआत से ही वह मेरे लिए 'लाइफ सेविंग ड्रग' की तरह थी। हम दोनों ने साथ-साथ छत्तीस लंबे बरस जिए। इन छत्तीस बरसों के उतार-चढ़ाव साथ-साथ देखे। पर हम दोनों की सूरत और सीरत में छत्तीस का आँकड़ा था। वह जितनी अक्खड़, तुर्श, तुनकमिजाज, बेबाक और मुंबइया भाषा में बिंदास थी, मैं उतनी ही मरगिल्ली, कमजोर, डरपोक, आलसी और मूर्खता की हद तक भावुक। मैं वह थी जो मैं थी या वैसे माहौल में जैसी होना बहुत स्वाभाविक था, पर वह वह थी जो मैं होना चाहती थी। कभी-कभी तो हैरानी होती थी कि वह मेरे इस अव्यवस्थित खोल में किस तरह सुरक्षित रह लेती थी, पर यह तो उसे भी बहुत बाद में पता चला कि वह कितनी असुरक्षित थी मेरे साथ, उसे मेरे खोल में अपने को बनाए रखने में कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी, पर उसके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था। भावुकता ने मेरे दिमाग के नट बोल्ट शुरू से ही थोड़े ढीले कर रखे थे जिन्हें वक्त-बेवक्त वह अपने पैने औजारों से दुरुस्त करती रहती थी ताकि मेरी रीढ़ की ढुलमुल हड्डी जरा सीधी रहे। मेरे प्रति उसकी सारी ईमानदारी के बावजूद मैंने उस पर कम जुल्म नहीं ढाए। मैंने उसे हमेशा निर्ममता से पीछे ढकेलने की कोशिश की। मैंने अपने भीतर के हर संभव कोने में उसे दफन करने की कोशिश की। वह जब तब मौके-बेमौके अपना सिर उठाना चाहती और मैं उससे कतराते हुए बड़ी बेरुखी से उसे नजरअंदाज कर आगे बढ़ लेती। बीच के एक लंबे अरसे तक हम दोनों के बीच अबोला भी रहा। वह अपने आप में एक लंबी गाथा है। जिंदगी के उस लंबे अध्याय की जिल्द खोलने से मैं हमेशा बचती रही। जब तक सच कहने की ताकत न हो, चुप रहना बेहतर होता है। अपने को सामने रख कर देखना और अपने बारे में लिखना जितना आसान लगता है, उतना होता नहीं। और फिर इसे लिखे बगैर भी तो जिंदगी, लेखन, सबकुछ चल ही रहा है। फिर अब इसे शब्दों में दर्ज करने का कारण? शायद यह, कि उम्र के इस मोड़ पर अपनी जिंदगी के इस 'सच' को कागज पर उतार कर अपने से अलग, अपने से बेगाना कर देना चाहती हूँ। बस, अपने बारे में लिखते हुए उस आत्ममुग्धता से बचना चाहती हूँ, जो एक लेखक की अनिवार्य कमजोरी होती है। आज डायरियों के वे बेशुमार पन्ने भी तो नहीं रहे जिन्हें ज्यों का त्यों रख देती तो कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती। एक बार अपनी सधी हुई हैंडराइटिंग में लिखे कई सालों की डायरी के सारे पन्ने मैंने फाड़ कर जला दिए थे। पूरा सच उसके साथ राख हो गया था और रह गई थीं सिर्फ उस सच के इर्द-गिर्द बुनी हुई कुछेक कहानियाँ - जो छप चुकने के बाद मेरी नहीं रह गई थीं।

'यह लड़की हर वक्त पता नहीं लिखती क्या रहती है?' अक्सर मेरी दादी, जिन्हें हम झाईजी कहते थे, खीझती रहतीं। पर माँ जानती थीं क्योंकि उन्होंने ही मेरे हाथ में डायरी थमाई थी कि इसमें रोज सोने से पहले लिखा करो कि दिन भर में क्या किया। घर में सबसे बड़ी मैं और मुझसे छोटे छह भाई बहन, सारे घर की जिम्मेदारी माँ पर। माँ के पास इतना वक्त नहीं था कि मेरे सिरहाने बैठी रहें और मैं बीमार होती, जो मैं अक्सर होती थी, तो चाहती, वे कहीं न जाएँ, बस मेरे पास बैठी रहें। सो उन्होंने जान छुड़ाने के लिए हाथ में थमा दी डायरी। और पापा ने अपने बेहद अजीज दोस्त, राजेंद्र यादव (जिन्हें मैं चाचाजी कहा करती थी और जो मन्नू दी से शादी से पहले हर रविवार को माँ के हाथ के बने गोभी या मूली के पराँठे खाने घर आया करते थे) का उपन्यास 'उखड़े हुए लोग' पढ़ने के लिए तकिए के नीचे रख दिया। पर मैं पढ़ती थी 'गुनाहों का देवता' ताकि अपनी हमनाम की त्रासदी पर आँसू बहा सकूँ। और लिखती थी महादेवी वर्मा छाप कविताएँ जो कविता कम और 'नीर भरी दुख की बदली' अधिक होती थीं। (श्री शिक्षायतन स्कूल की मेरी प्रिय टीचर कौशल्या बहन जी और जयंती गुप्ता इन कविताओं से बड़ी प्रभावित थीं और उन्हें सगर्व स्कूल की पत्रिका में प्रकाशित किया करती थीं। कॉलेज के दिनों में हिंदी ऑनर्स की प्रो. डॉ. प्रतिभा अग्रवाल, सुकीर्ति गुप्ता और किरण जैन आजकल के आम प्राध्यापकों की तरह सिर्फ पाठ्यक्रम की पुस्तकें नहीं पढ़ाती थीं, नए से नए साहित्य की उन्हें जानकारी थी और सुकीर्ति दी ने तो एक पीरियड में, जब पढ़ाने का मूड नहीं था तो बाकायदा हम सब से पैंतालिस मिनट में एक स्वरचित मौलिक कहानी लिखवाई थी। शिक्षायतन कॉलेज में कथा समारोहों के साथ-साथ छात्राओं के लिए साहित्यिक रचनात्मक प्रतियोगिताओं का आयोजन भी होता रहता था।

हाँ, तो माँ बताती थीं कि बीमार मैं इसलिए रहती थी कि बचपन से ही मुझे दूध से एलर्जी थी। हमेशा मरगिल्ली-सी रही। सबसे बड़ी होने के कारण दादा-दादी की बड़ी लाड़ली थी। दूध नहीं पीती, खाना नहीं खाती तो दादा (कहानी 'इस्पात' के मामा) तिवारी के खीरमोहन या रसगुल्ले की हँड़िया ले आते कि दूध नहीं पीना, मत पीओ, जी भर कर रसगुल्ले या खीरमोहन खाओ। रसगुल्ले खा-खा कर पेट में कीड़ों का अंबार लग जाता। दादा मुझे ले कर वैद्य-हकीमों के चक्कर काटते रहते। देखने में बिल्कुल सींक-सलाई थी। हर दस दिन बाद खाँसी, सर्दी-बुखार और साँस की तकलीफ हो जाती। तेरह साल की उम्र में वह तकलीफ तो अपने आप ठीक हो गई, पर एक अजीब-सी बीमारी शुरू हो गई। बाएँ हाथ की कुहनी सूज कर पारदर्शी गुब्बारा हो जाती और दर्द से मैं बेचैन रहती। हाथ एक ही पोजीशन में रहता। न कपड़े बदले जाते, न करवट बदली जाती। यह स्थिति पाँच-छह दिन रहती फिर ठीक हो जाती। घर का इकलौता बर्मा टीक का वह नक्काशीदार एंटीक पलंग ठीक खिड़की के पास था, जहाँ से पीपल का पेड़ दिखाई देता था। उस पर लेटे-लेटे मैं डायरी लिखती। उन दिनों मेरा प्रिय विषय था मौत। मेरी सोच का दायरा उसी रूमानी किस्म की मौत के इर्द-गिर्द घूमता। डायरी की ओट में मौत का अहसास कुछ धुँधला-सा पड़ जाता।

वह दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है - 27 मई 1964। मुझे कुहनीवाली बीमारी का अटैक हुआ था और सूजन अपने चरम पर थी। तभी पंडित नेहरू की मृत्यु का समाचार रेडियो पर आया था और सब लोग रेडियो के इर्द-गिर्द सिमट आए थे। रेडियो पर लोगों के रोने-बिलखने की आवाजों के बीच 'चाचा नेहरू अमर रहें' के नारे थे और उम्र के सत्रहवें साल में लगातार आत्महंता मनःस्थिति से गुजरते हुए सोच रही थी कि अगर मैं मर जाऊँ तो भी कहीं कोई फर्क नहीं पड़ेगा, एक पत्ता तक नहीं हिलेगा। माँ-बाप कुछ दिन रोएँगे, फिर भूल जाएँगे। मैं उस दिन जी भर कर रोई। सब समझ रहे थे कि मैं चाचा नेहरू की याद में रो रही हूँ। तभी मेरी डायरी के पन्नों पर उसने आकार लिया। वह मेरे भीतर एक जबरदस्त जिजीविषा की तरह उभरी, उसने मेरी 'डायरी' में से 'नीर भरी दुख की बदली' और तुकबंदियों को खारिज किया और डायरी तथा मौत दोनों का तर्पण कर पहली कहानी लिखी 'एक सेंटिमेंटल डायरी की मौत' जो डायरी के पन्नों में ही कुछ महीनों तक पड़ी रही, फिर एक दिन मैंने उसे 'सारिका' में भेज दिया। सारिका से, स्वीकृति के पत्र को मैंने पचासों बार हर कोण से परखा। लगभग एक साल बाद चंद्रगुप्त विद्यालंकार के संपादन में 'सारिका' : मार्च 1966 में प्रकाशित हुई। पर वह पहली प्रकाशित कहानी नहीं थी। मुझे उसने बाकायदा धमकी दे डाली थी, खबरदार, जो अब डायरी के पन्नों पर रोना-धोना किया।

मौत की निराशाजनक स्थितियाँ डायरी में से निकल कर काल्पनिक प्रेमकथाओं में स्थानांतरित होने लगीं। फिर तो यह एक सिलसिला ही बन गया। वह जब मुझे उदास देखती, मेरे हाथों से डायरी छीन 'कुछ भी' लिखने लगती और जैसा कि उस उम्र में स्वाभाविक था, व्यक्तिगत जीवन में किसी कथानायक की उपस्थिति के बिना ही उसने कुछ गढ़ी हुई प्रेम कथाएँ और कविताएँ लिखीं। उन्हीं में से एक कहानी थी 'मरी हुई चीज' जो उसकी पहली प्रकाशित कहानी थी और कलकत्ता से ही प्रकाशित पत्रिका 'ज्ञानोदय' : सितंबर 1965 में प्रकाशित हुई थी। उन दिनों उसे कहानी लेखन का क ख ग भी मालूम नहीं था पर कहानी पर मिली अप्रत्याशित प्रतिक्रियाओं ने एकाएक उसे 'लेखिका' के आसन पर बिठा दिया। एक वजह शायद यह भी रही होगी कि उस वक्त हिंदी लेखन के परिदृश्य पर लेखिकाएँ उँगलियों पर गिनी जाने लायक थीं। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा के बाद उभरती पीढ़ी में एकमात्र नाम ममता अग्रवाल और अनीता औलक का था। उसे इन उभरते नामों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का जरा भी अंदेशा नहीं था। वह तो एक जुनून की तरह लिखती थी। मौत, निराशा और अवसाद से उबरने का उसे एक आउटलेट मिल गया था। 27 मई 1964 से अगस्त 1966 तक, यानी अठारह से बीस साल की उम्र के दौरान, उसने बीसेक कहानियाँ लिख डालीं।

काल्पनिक प्रेमकथाओं के परिदृश्य पर एक प्रेमी नायक का उभरना भी अनिवार्य हो गया। मैंने उसे बहुत मना किया कि अठारह साल की उम्र में इस पचड़े में मत पड़, पर वह तो जैसे प्रेम करने के लिए तैयार बैठी थी। जमाने की डरपोक मैं उसका कायापलट देख रही थी। बगैर देखे-सुने उसने खाईं में छलाँग लगाई और 'चरित्रहीन', 'एक अविवाहित पृष्ठ', 'बगैर तराशे हुए' (धर्मयुग : 12 जून 1966) जैसी अधकचरी प्रेम कहानियाँ लिखने लगी। पर यह सच है कि उसके इस प्रेम ने मेरे लिए संजीवनी का काम किया। मौत के मातमी माहौल से बाहर आ कर मैं उससे जिंदगी की बातें करने लगी। मेरे बीमार चेहरे पर उसकी मुस्कुराहट फैल रही थी। उस नक्काशीदार पलंग के कोने से उठा कर वह मुझे एक खूबसूरत रूमानी दुनिया की सैर करा रही थी जिसका पड़ाव उसके लिखने की मेज पर था। मैं तो शायद तब भी अपने घर की चहारदीवारी के किसी कोने में ('सलाखों के बीच' - शताब्दी : 1966), डरी हुई ('डर' - युयुत्सा :1966) दुबकी हुई बैठी थी पर वह मेरी आँखों की चमक बन कर चहक रही थी। कहानियाँ लिखना उसकी मरगिल्ली-सी काया में प्राण फूँक रहा था। उसे जीने का और अपनी बीमारी से लड़ने का एक कारण मिल गया था। अपने कॉलेज के हर क्षेत्र में वह अव्वल रही। बीए हिंदी ऑनर्स में वह प्रथम श्रेणी में प्रथम थी। एकेडेमिक कैरियर में (स्पोर्ट्स के अतिरिक्त, जिसमें वह बिल्कुल फिसड्डी थी) उसने बहुत-से मेडल जीते। 1965- 66 में उसने एक साल में बारह कहानियाँ लिखीं जो धर्मयुग और सारिका के अलावा श्रीपत राय संपादित 'कहानी' और अमृत राय संपादित 'नई कहानियाँ' से ले कर हैदराबाद से छपनेवाली कल्पना, लहर, शताब्दी, माध्यम, युयुत्सा, रूपांबरा, उत्कर्ष, अणिमा जैसी लघु अव्यायसायिक पत्रिकाओं में छपीं।

तब कहानियाँ लिखना उसके लिए कितना आसान था, इसका एक दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। एक दिन अपने सपनों में डूबी मैं घर से यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकली तो 2 B की जगह गलत नंबर की बस 8 B में बैठ गई जो सीधे यूनिवर्सिटी ले जाने की जगह हावड़ा स्टेशन ले गई। हावड़ा स्टेशन का भीमकाय पुल दिखा तो मेरा सपना टूटा। वह पुल जैसे मुझे निगलने को सामने बढ़ा चला आ रहा था। उतरते हुए मेरे पैर थरथरा रहे थे। मुझे काटो तो खून नहीं पर वह अपने इस नए अनुभव (एडवेंचर) पर खुश थी। घर लौटते ही वह अपनी मेज पर जम गई और एक कहानी 'बस स्टॉप पर खड़ी जिंदगी' लिख डाली जो डेढ़ साल बाद हैदराबाद से प्रकाशित बालकृष्‍ण राव संपादित 'माध्यम' के अक्टूबर 1967 में प्रकाशित हुई।

उस समय की ये रचनाएँ अब बेहद अपरिपक्व, अधकचरा लेखन लगता है, पर इस लेखन ने मुझे जीने का कारण दे दिया था। किताबों की दुनिया बड़ी खूबसूरत होती है। दादा-दादी अपनी सबसे बड़ी पोती की शादी के सपने सँजो रहे थे और मुझे अपनी पढ़ने-लिखने की दुनिया से बाहर झाँकने का जरा भी अवकाश न था। कलकत्ता विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग भी अपने ढंग का अकेला था। वहाँ कामायनीमय प्रो. कल्याणमल लोढ़ा थे और तुलसीमय आचार्य विष्णुकांत शास्त्री। पढ़ाते हुए वे तुलसीदास में बिल्कुल रम जाते थे। मैं बीमार होती तो भी शास्त्री जी की क्लास मिस नहीं करती, पर महीने में मुश्किल से पंद्रह दिन ही कॉलेज जा पाती थी। बाकी समय घर में बिस्तर पर लेटे-लेटे किस्से-कहानियाँ लिखती थी। इसके साथ ही एमए में भी मैंने टॉप किया तो दादा-दादी बहुत खुश नहीं हुए और उन्होंने अल्टीमेटम दे दिया कि बहुत हुआ, अब इसे ठिकाने से लगाओ। एक बेहद दकियानूसी मध्यवर्गीय परिवार जहाँ दादा-दादी इसलिए घर की सबसे बड़ी बेटी को पढ़ने नहीं देना चाहते थे कि फिर उनके व्यवसायी तबके में उसके लिए लड़का ढूँढ़ना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे मुश्किल वक्त में माँ उसका कवच बन कर खड़ी थीं। माँ, जो लाहौर में अपने कॉलेज की बड़ी जहीन छात्रा थीं और हिंदी में साहित्य रत्न कर रही थीं, कविताएँ लिख-लिख कर अपनी लंबी कापियों में छिपा कर रखती थीं कि कोई देख न ले क्‍योंकि उन दिनों लड़कियों का कविताएँ लिखने का मतलब था किसी के प्रेम में पड़ कर बिगड़ जाना। साहित्‍य रत्‍न करते-करते शादी हो गई और लाहौर से कलकत्‍ता आई माँ, अब अपनी सारी प्रतिभा और रचनात्‍मकता चूल्‍हे-चौके और दर्जी का खर्च बचाने के लिए, हम दोनों बहनों की झालरों और स्‍मोकिंगवाली फ्रॉक सिलने में खपा रही थीं। अब वे अपने सपने मुझमें - अपनी बेटी में - साकार होते देखना चाहती थीं। घर पर मेरी लड़ाई माँ लड़ रही थीं और बाहर वह।

इस बीच मुझे जीना सिखानेवाली मेरी उस हमकदम के साथ एक हादसा हो चुका था। वह जिसके साथ जिंदगी बिताने के सपने ले रही थी, वह शादीशुदा था और यह बात एक बड़ी साजिश के तौर पर वह छिपा गया था। इस सूचना ने उसे जड़ से हिला दिया था। यह धक्का उसके लिए आत्मघाती साबित हुआ। वह, जो सिर ऊँचा उठा कर घर से बाहर निकलती थी, मुझमें मुँह छिपाने के लिए ठौर ढूँढ़ने लगी। उसने अपनी जिंदगी को पूर्णविराम देने के लिए मुट्ठी भर नींद की गोलियाँ खा लीं। नींद की गोलियाँ खाने के बाद की उसकी हालत की मैं चश्मदीद गवाह हूँ। मैं उसे मौत की ओर बढ़ते देख रही थी। पर वह मौत को छू कर लौट आई और मैं दुबारा कुहनी की बीमारी ले कर। उस अनुभव से वह बरसों उबर नहीं पाई। अप्रैल 1966 के महीने में लिखी डायरी के पन्ने दिसंबर तक भर गए। बहुत बाद में भी यह अनुभव टुकड़ो-टुकड़ों में उसकी कई कहानियों (युद्धविराम - 1971 और बोलो, भ्रष्टाचार की जय - 1980) में आता रहा। पर इस अनुभव पर लिखी कहानी 'निर्मम' (ज्ञानोदय : अगस्त'66) छपने के बाद वह फिर मेरे खोल में सिमट गई।

उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कच्ची उम्र का वह प्रेम-प्रसंग इतना त्रासद, भयावह और जानलेवा साबित हो सकता है। यह प्रेम-संबंध मुश्किल से साल भर ही खिंचा होगा पर बाद की समूची जिंदगी पर यह संबंध गहरी काली परछाई की तरह फैला रहा। अगस्त 66 के बाद, उस शख्स से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई, पर उसके आसपास के तमाशाई लोगों ने उस संबंध को मरने नहीं दिया। वह कहीं भी जाती, उसे दाएँ-बाएँ उस नाम की फुसफुसाहट सुनाई देती और दिखाई देती लोगों की आँखों में एक वितृष्णा, जिसे झेल पाना उस उम्र में ही नहीं, बाद में भी असंभव था। एक लड़की का एक भीना-सा कोमल प्रेम-प्रसंग भी ताउम्र उसके गले की फाँस बन कर रहता है। कोई उसे भूलने को तैयार नहीं होता। उस संबंध के नाम का कीचड़ आज भी जिसका मन करता है, मेरे चेहरे पर उछाल देता है।

इस हादसे ने उसकी उम्र में दस साल का इजाफा कर दिया था। अब मेरी उससे खटक गई थी। उसका यह हश्र तो होना ही था। उसकी मुस्कुराहट, उसकी आँखों की चमक गायब थी। यूजीसी की स्कॉलरशिप पर उसने 'आधुनिक हिंदी कविता में मिथक तत्व' विषय पर पीएचडी का काम शुरू किया पर वह कोरे कागजों के साथ घंटों नेशनल लायब्रेरी में अकेले बैठी रहती और मायथोलॉजी की परिभाषा में विदेशी किताबों से पन्ने दर पन्ने रँगती रहती। मुझे समझ में आ रहा था कि वह अब कुछ नहीं कर पाएगी। आखिर थी तो मेरे ही हाथों गढ़ी हुई मूरत! बेवकूफ भावुकता से कहाँ तक बचती! उसने खुद कोरे कागजों की नई डायरी उठाई और मेरे हाथ में थमा दी। कहानियों, पत्रिकाओं और लेखकों-संपादकों-पाठकों की वाहवाही की चमकदार दुनिया से निष्कासित वह फिर मेरी डायरी के निजी पन्नों पर सिमट गई थी।

एमए हो चुका था और परिवार की सबसे बड़ी पोती होने के कारण घर में शादी के लिए दबाव बढ़ रहा था। उससे तीन साल छोटी बहन भी एमए में आ गई थी और बेहद खूबसूरत होने के कारण छोटी बहन के लिए खूब रिश्ते आते थे पर माँ-बाप चाहते थे कि पहले बड़ी ठिकाने से लग जाए। तब तक उसका पहला कहानी संग्रह आ गया था - 'बगैर तराशे हुए' (जनवरी 1968) । उस संग्रह को शायद इसलिए हाथों-हाथ लिया गया क्योंकि वह एक महिला रचनाकार का था। डॉ. बच्चन सिंह, डॉ. लक्ष्‍मीसागर वार्ष्‍णेय, डॉ. इंद्रनाथ मदान, डॉ. धनंजय, डॉ. मधुरेश, डॉ. धनंजय वर्मा, निर्मला ठाकुर की समीक्षाएँ प्रोत्साहित करनेवाली थीं, पर वह अपना उत्साह खो चुकी थी। लेखन उसके लिए अजनबी बन रहा था। कलकत्ता की वह नेशनल लाइब्रेरी, जहाँ बैठ कर उसे अपने शोध का काम पूरा करना था, उसके लिए टीसती हुई यादों की कब्रगाह बन गई थी।

माँ-पापा की परेशानी, बूढ़े दादा-दादी का दबाव और उसका मुँह छिपा कर मेरे भीतर किसी कोने में दुबके रहना! आखिर मैंने बगैर लड़का देखे शादी के लिए हामी भर दी। लड़का दिल्ली में था और उनके परिवार से दूर की रिश्तेदारी थी। घर से लायब्रेरी और लायब्रेरी से घर की मशीनी भागदौड़ के बीच शादी की तैयारियाँ चल रही थीं, तभी वह लड़का किसी काम से कलकत्ता आया। दादा-दादी अपनी लाड़ली पोती के ब्याह के नाम से ही गदगद थे। उस जमाने के दकियानूसी मध्यवर्गीय व्यवसायी परिवार में लड़की का कॉलेज पास कर लेना, शादी के बाजार के लिए एक चमकदार तमगा था और उसका अपने स्तर के किसी संस्कारशील परिवार में रिश्ता तय हो जाना गंगा नहाने जैसा था। पर विधि का विधान कुछ और ही रच रहा था। शादी की तारीख तय होने के बीच उस लड़के से बड़ी नाटकीय मुलाकात हुई। उस लड़के ने मुझे सर से पाँव तक घूर कर देखा और कहा कि वह बहुत खुश है कि वह अपने दोस्तों और उनकी बीवियों के बीच अपनी एमए पास बीवी को ले कर शान से खड़ा हो सकता है।

उसका दूसरा सवाल सीधे मुझसे मुखातिब था, 'तुम्हें पाजामा सीना आता है?'

मैं सीधे आसमान से नीचे गिरी। किसी तरह अपने को सँभाला और उसकी ओर देखे बगैर मैंने ठंडे स्वर में कहा, 'मुझे सिलाई-कढ़ाई का शौक नहीं है।' जबकि सच तो यह था कि सिलाई और कढाई में भी मैंने पहला पुरस्‍कार जीता था पर कलम हाथ में आई तो सुई-धागे में दिलचस्‍पी जाती रही।

'अच्छा, कुलचे-छोले तो बनाने आते हैं न!' उसने बड़ी रियायत देते हुए दूसरा सवाल मेरी कनपटी पर दागा।

'नहीं!' मैंने बुझे मन से कहा।

'फिर आता क्या है?' उसने जिस तरह से मेरी ओर देखा, मैं एक ही साँस में छत की सारी सीढ़ियाँ नीचे उतर गई। माँ मुझे गुमसुम देख कर कुछ भाँप तो रही थीं पर घर के बुजुर्गों का आतंक उन्हें भी विचलित कर रहा था। दादा-दादी की कभी अवज्ञा न करनेवाली माँ ने फिर एक बड़ा मोर्चा सँभाला, घर-परिवार के तमाम लोगों के आक्षेपों को अपने सिर ले लिया और मुझे उस बेमेल शादी के मंडप में झोंके जाने से बचा लिया।

दादी ने सिर पीट लिया था और मेरी सूरत देखते ही वह माँ को जो-सो बोलने लगतीं। मैंने तय कर लिया था कि अब और कुछ भी करूँ, शादी नहीं करनी है। घर में कह दिया कि छोटी के लिए आप लोग रिश्ता देखें, मेरे लिए नहीं। पर यह बात माँ-बाप के गले नहीं उतर रही थी। छोटी बहन बेहद खूबसूरत, बेहद जहीन और अंतर्मुखी थी। मैं घर से कटने लगी और अपना अधिकांश समय लाइब्रेरी में 'आधुनिक हिंदी काव्य में मिथक तत्व' विषय के शोध पर लगाने लगी। मेरा वह सबसे प्रिय हिस्सा, जो कहानियाँ लिखता था, इस शोध के विषय पर सिर धुन रहा था। उसके लिए यह शोध कार्य किसी सजा से कम नहीं था।

इस बीच श्री शिक्षायतन कॉलेज की छात्राओं की बेहद चहेती प्रोफेसर श्रीमती पुष्पलता शर्मा (पुष्पा भारती - जिन्हें सुशील की देखादेखी हम सब 'दिद्दी' पुकारते थे) कलकत्ता आईं और अपनी मुँहबोली बहन सुशील गुप्ता से उसका परिचय करवाया। सुशील की दोस्ती ने उसे सँभाला, पर सुशील, जो अपना घर छोड़ कर अकेली रहती थी, को एमए करने के लिए राजी करना और फिर उसे एमए के लिए तैयार करना मेरे जीवन का एकमात्र और सर्वोपरि ध्येय रह गया था। आखिरकार मैंने आधे-अधूरे शोध कार्य को तिलांजलि दी और सुशील को एमए करवाने के बाद कॉलेज में लेक्चररशिप ले ली ताकि छात्राओं के बीच मन लगा रहे। कलकत्ता के सुप्रसिद्ध आशुतोष कॉलेज का यह प्रातःकालीन विभाग था जो लड़कियों के लिए था। यहाँ ज्यादातर अहिंदीभाषी लड़कियाँ या बड़ी उम्र की महिलाएँ थीं जो हिंदी में अहिंदीभाषी होने के नाते मिली स्कॉलरशिप के लिए हिंदी में डिग्री कोर्स करती थीं। अधिकांश छात्राएँ उम्र में मुझसे दस से पंद्रह साल बड़ी थीं और बंगाली संस्कृति की गुरु-शिष्य परंपरा के तहत राह चलते सामना होने पर सरे बाजार पैर छूने से नहीं हिचकती थीं। इस कॉलेज का समय सुबह छह से ग्यारह था। उसके बाद का पूरा समय फिर दादा-दादी की तीखी निगाहों का सामना करना पड़ता था, मुझसे ज्यादा माँ के लिए कि और पढ़ाओ बेटी को, नौकरी करवाओ, अब जिंदगी भर कुँआरी रखना इसे क्योंकि अपनी बिरादरी में तो बीकॉम पास भी मिलने से रहा।

माँ थीं कि बेटी के इन तमाम 'कारनामों' के बीच भी एक मजबूत स्तंभ की तरह खड़ी थीं। दादा-दादी और बाहरवालों के बीच कभी जवाबदेही के लिए नहीं बुलाया, न ही सबके सामने मुझे अपमानित होने दिया। घर के इस तनावपूर्ण माहौल से बचने के लिए कलकत्‍ता के अपने ही कॉलेज श्री शिक्षायतन में पार्ट टाइम नौकरी कर ली। एक कॉलेज से निकल कर आधे घंटे के लिए घर जाती और फौरन दूसरे कॉलेज। यह सिलसिला छह महीने चला। सेहत फिर पहलेवाली स्थिति पर पहुँच गई। मजबूरन एक कॉलेज छोड़ना पड़ा।

हाँ, तो बात अगस्त 1966 की हो रही थी, जिसके बाद अचानक वह मेरा साथ छोड़ कर मेरे भीतर कहीं लुक-छिप रही थी। अपने बिखरे हुए व्यक्तित्व को समेटने में लगभग दो साल लग गए थे। तभी अमृत राय का एक बहुत आग्रहपूर्ण पत्र आया। वह बड़े-छोटे शहरों, महानगरों पर 'नई कहानियाँ' में रेखाचित्र लिखवा रहे थे। इलाहाबाद पर दूधनाथ सिंह, दिल्ली पर कमलेश्वर, बंबई पर मोहन राकेश लिख रहे थे। अमृतराय जी चाहते थे कि कलकत्ता पर वह लिखे। कलकत्ता मेरा बहुत प्रिय शहर था। मेरी पैदाइश जरूर लाहौर की थी, पर होश सँभालते ही कलकत्ता को ही अपनी रगों में रचा-बसा पाया था। अमृतराय जी के उस आग्रह ने बुझती राख में चिनगारी का काम किया और 'नगरों के अंदर कैद एक महानगर : कलकत्ता' लिख कर वह छोटा-सा बंजर अंतराल भर गया। फिर नए सिरे से कहानियों की शुरुआत हुई। बस, 1966 के बाद फिर उसने कभी कोई प्रेम-कहानी नहीं लिखी। अब वह उम्र से भी बालिग हो गई थी और दिमाग से भी।

1969-70 कलकत्ता में राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल था, उन दिनों अखबार में छपी एक छोटी-सी खबर ने उसे इतना परेशान कर दिया कि उसके इर्द-गिर्द एक लंबी कहानी बुनी गई - 'बलवा'। यह कहानी धर्मयुग में धारावाहिक छपी थी, फिर 'घर', 'विरुद्ध', 'युद्धविराम', 'तानाशाही' और 'सात सौ का कोट' भी धर्मयुग में ही छपीं। धर्मयुग में कहानियाँ छपने का अपना बहुत बड़ा सुख था। एक तो कहानी भेजने पर एक सप्ताह के भीतर ही धर्मयुग संपादक डॉ. धर्मवीर भारती की खूबसूरत हैंडराइटिंग में दो-चार पंक्तियों का जो हस्तलिखित पत्र मिलता था, उससे गजब का प्रोत्साहन मिलता था, दूसरा धर्मयुग की मार्फत पाठकों के बेशुमार खत आते थे। 'कहानी' के संपादक श्रीपत राय भी बहुत आत्मीयता से कहानियाँ मँगवाते थे, कहानी की स्वीकृति के साथ-साथ कहानी के बारे में अपनी प्रतिक्रिया भी देते थे। इन खतों से बहुत ऊर्जा मिलती थी। इन कहानियों के साथ-साथ उसका लेखन मेच्योर हो रहा था। वह अपने जीवन की बीती हुई त्रासदी से उबर रही थी और संख्या में हालाँकि कहानियाँ लिखना कम हो गया था पर यह लेखन उसकी व्यक्तिगत त्रासदी से ऊपर उठ कर उसके अपने सीमित दायरे में ही सही, पर सामाजिक सरोकारों को छू रहा था। वह ऐसा समय था जब साहित्य की पहुँच अपेक्षाकृत काफी बड़े समुदाय तक थी। 'सारिका' या 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' (जिनमें कहानियों के साथ लेखकों के पते भी छपते थे) में एक कहानी छपने पर पाठकों के खतों का अंबार लग जाता था। उन दिनों कलकत्ता में जहाँ मैं रहती थी, नीलकोठी, संकारी पारा रोड, दिन में चार बार डाक आती थी, हर डाक में खत देखने मैं दिन में चार बार नीचे उतरती थी और लेटरबॉक्स में हाथ डालते ही खतों का जत्था हथेलियों को गर्माहट से भर देता था। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित कहानी 'महानगर की मैथिली' कहानी पर करीब ढाई सौ खत आए थे। उस एक कहानी पर आए खतों की अलग फाइल बनाई गई थी। (आज सन 2013 में, यानी चालीस साल बाद, हाल यह है कि 'हंस' या 'कथादेश' में छपी एक कहानी पर अगर दस-बीस खत आ जाएँ तो लगता है, जहे नसीब, कि आपके इतने कद्रदान आज भी हैं जो कलम उठा कर पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर चंद लाइनें लिखने का वक्त निकाल लेते हैं।)

1968 में दादी की और एक साल बाद दादा की मौत हो गई। वे दोनों अपनी लाडली और नालायक पोती की शादी का सपना आँखों में लिए ही चले गए। माँ का बस एक ही सपना था, मैं लिखूँ, खूब लिखूँ और अपना लिखना कभी न छोड़ूँ। माँ यह नहीं जानती थीं कि मैं किसी भी बात से बहुत जल्दी आहत हो जाती थी और जब भी छोटा-बड़ा कोई भी हादसा होता, मैं अपने भीतर के उस नाजुक हिस्से को, जो लिखता था और जो मेरा सबसे अजीज दोस्त था, सजा देने बैठ जाती थी। माँ मेरा अतिरिक्त खयाल रखने लगी थीं। मेरे न लिखने से माँ परेशान हो जाती थीं। माँ के पेट में अनगिनत बीमारियाँ थीं। 1968 में उनका गॉल ब्लैडर, हर्निया और अपेंडिक्स का एक बड़ा ऑपरेशन होनेवाला था पर वह अगर लिखने में जुटी होती तो माँ अपनी कराहें दबा कर भी पेट पकड़ कर ग्यारह प्राणियों के लिए पीढ़े पर बमुश्किल बैठी रोटियाँ बेल रही होतीं, पर उसे कभी घर का कोई भी काम नहीं कहतीं। (माँ के घर में कभी रसोई में न घुसने का खासा खामियाजा हालाँकि शादी के बाद भुगतना पड़ा।)

यह तो उसे बहुत बहुत बाद में समझ में आया कि माँ क्यों चाहती थीं कि वह लिखे, खूब लिखे, वह सब लिखे जो हर मध्यवर्गीय औरत झेलती है, पर कभी जबान खोल कर कहती नहीं। माँ ने भी अपनी जिंदगी के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। मेरे बहुत कोंचने पर भी उनके होंठ भिंचे रहते थे, पर झुकी हुई आँखें और माथे की लकीरें बहुत कुछ कह जाती थीं और मैं कई-कई रातें जाग कर यह कयास लगाती रहती थी कि बहुत कुछ तो मुझे दिखाई भी देता है, समझ में भी आता है, पर उससे आगे और क्या कुछ खौफनाक माँ ने सहा होगा, जिसके बारे में वह इतनी सख्ती से अपने आप को जब्त किए हुए हैं। मेरे बहुत जिद करने पर उन्होंने एक बार बेहद टीसती हुई हँसी के साथ कहा था कि बहुत कुछ जिंदगी में ऐसा भी है जिसके बारे में वह कभी जबान नहीं खोल पाएँगी, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि कभी न कभी वे मेरे सामने अपना सबकुछ उड़ेल देंगी। उस दिन का मुझे इंतजार था। वह दिन कभी नहीं आया।

11 दिसंबर 1999 की रात माँ, कलकत्ता से इतनी दूर मेरे पास आईं भी और अपनी जिंदगी के सारे राज अपने भीतर समेटे हुए बंबई शहर में डॉक्टरों की लापरवाही से अचानक 16 दिसंबर,1999 की सुबह चली गईं - हमेशा के लिए। और मैं इस पूरे एक साल उस अपराधबोध से उबर नहीं पाई। उनके चेहरे का वह आखिरी भाव, वे कस कर भिंचे हुए होंठ, सहनशीलता का वह मूर्तिमान चेहरा मुझे बार-बार यासुनारी कवाबाता की कहानी 'मौत का चेहरा' की याद दिलाता है। माँ के जाने के साथ-साथ मेरे भीतर का एक कोना खाली हो गया था। शायद उसी कोने में उसकी जगह भी थी। उस हिस्से ने भी आँखें मूँद लीं। वह जाने कहाँ गुम हो गया। अभी तो दुबारा हाथ में कलम पकड़ना शुरू ही किया था उसने। बहुत चाह कर भी मैं उसे जिंदा नहीं कर पाई। माँ को खोने के बाद ही मैंने महसूस किया कि आज के इस कदर असंवेदनशील माहौल में माँ का होना मेरे लिए क्या अर्थ रखता था। आज माँ के जाने के बारह बाद यह सब लिख कर मैं माँ को श्रद्धांजलि देते हुए अपनी उस गुमशुदा दोस्त की तलाश कर रही हूँ, जो माँ के बहुत करीब थी और तहेदिल से चाहती हूँ कि वह मुझे मिल जाए क्योंकि माँ का बहुत बड़ा कर्ज है उस पर, जिसे लिख कर और सिर्फ लिख कर ही चुकाया जा सकता है। माँ को अपनी जिंदगी के सारे सपने उसमें साकार करने थे। उसके लेखन में, उसके काम में माँ अपने आप को ढूँढ़ती थी। उसका वह साप्ताहिक कॉलम 'वामा', जो महिलाओं के मुद्दे पर वह 'जनसत्ता' में लिखती थी, माँ को उसकी कहानियों से भी ज्यादा असरदार लगता था। जब 1993 में मैंने 'हेल्प' संस्था में काम शुरू किया, जब भी मैं कलकत्ता जाती, माँ अक्सर औरतों की समस्याएँ और उनकी विस्तृत काउन्सिलिंग का ब्यौरा बहुत ध्यान से सुनतीं, हर औरत की कहानी को अपने तक ला कर उसका सामान्यीकरण करतीं और हमेशा कहतीं कि लिखना अपनी जगह है, पर इस काम को कभी छोड़ना मत!

...पर यह तो बहुत बाद की बात है - तीस साल बाद की। इस बीच तो न जाने कितना पानी सर के ऊपर से गुजर गया।

दो

जैसी कि उसकी आदत है, वह अक्सर मुझे छोड़ कर लापता हो जाया करती है। मिले तो यही कहेगी कि मैं खुद अपनी जिंदगी से उसे बाहर धकेल दिया करती हूँ, फिर झूठमूठ अपने को तसल्ली देने के लिए उसे ढूँढ़ने का नाटक करती हूँ। उसका कहना है कि मैं उसे तरतीब और तरकीब से ढूँढ़ने की कोशिश ही नहीं करती, अगर करूँ तो उसे पाने से ज्यादा आसान और कुछ हो नहीं सकता। खैर, जो भी हो, वह मुझ पर तोहमतें लगाए या मैं उस पर, हकीकत यह है कि वह जब मुझे छोड़ कर चली जाती है तो मैं बहुत बेसहारा महसूस करती हूँ, उसके साथ-साथ मैं खुद भी अपने से बाहर होती हूँ। अपने से बाहर रह कर जैसे अपने को चलते-फिरते, सारी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते हुए एक तटस्थ ठंडेपन से देखती हूँ और अपने अधूरेपन पर तरस खाती हूँ। मुझे अपने होने पर शक होने लगता है। चाहती हूँ कि उसका मेरे साथ होना मेरे लिए हर चीज से ऊपर हो। यह कह कर मैं उसके अहं को तुष्ट कर रही हूँ, यह जानते हुए भी इसे कहने का जोखिम उठा रही हूँ, क्योंकि सच्चाई यही है। शायद किसी दिन यह सच्चाई दूसरी दुनियावी सच्चाइयों से बड़ी हो जाए। उस दिन का और किसी को हो, न हो, मुझे जरूर इंतजार है।

वह मई 1968 के आखिरी सप्ताह की दुपहर थी। जब लेटरबॉक्स में हाथ डाला तो दूसरे खतों में एक खत आईआईटी के एक छात्र जितेंद्र भाटिया का था, जिनकी पहली कहानी 'ब्लेड' दिसंबर 1967 में 'धर्मयुग' में छपी थी। तारीखें मुझे कुछ ज्यादा ही याद रहती हैं। खत 25 मई 1968 का था। छह-आठ महीने 'प्रिय भाई' 'प्रिय बहन' नुमा तयशुदा संबोधनवाले बेहद औपचारिक किस्म के दो-चार लाइनों के खत 'शुभकामनाओं सहित' आते-जाते रहे। वह इस नए छात्र लेखक की एक बात से बेहद प्रभावित थी कि वह मोहन राकेश की तरह सीधे टाइपराइटर पर कहानियाँ लिखता है। मेरी मित्र सुशील गुप्ता के पास टाइपराइटर था और उसके साथ फोटो तो खिंचवा ली थी मैंने, जो कलकत्ता के साहित्यकारों पर मनमोहन ठाकौर के रिपोर्ताज के साथ 'सारिका' 1968 में छपी थी, पर टाइप करने का खट-खट स्वर मुझे कहानी लेखन और कलम के बीच का बड़ा नीरस व्यवधान लगता था। कार्बन लगा कर ही कहानियाँ लिखना ज्यादा सुविधाजनक था। जेरॉक्स की सुविधा उन दिनों नहीं थी।

उन्हीं दिनों मेरा अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था। एक मामूली-से ऑपरेशन के लिए बारह दिन नर्सिंग होम में रहना पड़ा। अस्पताल में रहते हुए एक कहानी लिखी, 'निर्वासित' जो 'कहानी' में छपी थी। घर लौटी तो जितेंद्र के कई खत इंतजार कर रहे थे और उनका कन्सर्न उसे डिस्टर्ब कर रहा था। उन्हीं दिनों 'बलवा' (70 में धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशित) कहानी लिखी थी और उसे 'फेयर' करने से पहले प्रतिक्रिया जानने के लिए 256, हॉस्टल-1, आईआईटी पवई, बंबई के पते पर भेज दिया गया। कहानी 'बलवा' जो खासी लंबी कहानी थी, बीसेक पन्नों में टाइप हो कर लौटी। फिर तो कहानी लिखने के बाद एक सिलसिला ही बन गया। उसके बाद से ही मेरी हर रचना के पहले पाठक जितेंद्र रहे हैं। (यह अलग बात है कि तब 'तानाशाही' (धर्मयुग : 1975) कहानी पर प्रतिक्रिया में बधाई का टेलीग्राम आता था और वह टेलीग्राम लिखने के लिए नई ऊर्जा से भर देता था, अब 35 साल बाद कोई भी रचना, उनकी फुर्सत की बाट जोहती मेज के इस कोने से उस कोने मुँह लटकाए शंटिंग करती रहती है।)

खत और कहानियाँ आने-जाने का सिलसिला लगभग दो-तीन साल चलता रहा। हम दोनों के परिवारों में अद्भुत समानताएँ थीं। दोनों पंजाबी होते हुए भी खालिस पंजाबी नहीं थे बल्कि मैं तो 'बंगालन' ज्यादा थी। दोनों लाहौर से विस्थापित परिवार थे, दोनों परिवारों के बुजुर्गों ने बँटवारे की त्रासदी को झेला था, दोनों परिवारों के कुछ सदस्य बँटवारे की विभीषिका की बलि चढ़ गए थे, दोनों परिवार कलकत्ता में रह चुके थे। जितेंद्र में कलकत्ता के प्रति, खासतौर पर बंगाली संस्कृति (और बंगाली लड़कियों) के प्रति एक जबरदस्त सॉफ्ट कॉर्नर था और मेरी तो रग-रग में कलकत्ता रचा-बसा था। बस, दोनों परिवारों में एक बड़ा फर्क यह था कि स्कॉटिश चर्च कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता में हमेशा प्रथम आनेवाले मेरे पिता ने दादा के कहने पर इलाहाबाद बैंक की अच्छी-खासी नौकरी छोड़ कर व्यवसाय के दाँव-पेंच जाने बगैर अपने आप को बेमन से व्यवसाय में झोंक दिया था और जितेंद्र के पिता श्री हंसराज भाटिया कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रिंसिपल रह चुके थे और मनोविज्ञान पर उनकी किताबें हमारे बीए के सामाजिक मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम में चलती थीं। बीए में हिंदी ऑनर्स के साथ मेरा अतिरिक्त विषय मनोविज्ञान था और मैंने राजकमल प्रकाशन और ओरिएन्ट लॉन्गमैन्स से छपी उनकी किताबें अपने पाठ्यक्रम में पढ़ रखी थीं।

जितेंद्र से जब मैं पहली बार 1970 में कलकत्ता में मिली और हमने शादी का निर्णय लिया, मेरे परिवार की ओर से फौरन सहर्ष सहमति मिल गई थी, पर जितेंद्र के परिवार से एक ठंडी तटस्थता और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। भाटिया परिवार किसी भी सूरत में जल्दी शादी के लिए राजी नहीं था, जब तक लड़का नौकरी कर अपने पैरों पर खड़ा न हो जाए। जितेंद्र एमटेक के बाद पीएचडी भी करना चाहते थे और उन्हें आईआईटी से सिर्फ साढ़े चार सौ रुपए स्कॉलरशिप मिलती थी, जिसमें से फीस के रुपए काट कर हाथ में सिर्फ तीन सौ बीस रुपए मिलते थे। शोध छात्रों को रहने के लिए घर भी नहीं मिलता था। हमारे लिए एक साथ एक जगह होना इन सारी असुविधाओं से ऊपर था। बेहद अव्यावहारिक तरीके से हमने इन जरूरी चीजों को पीछे धकेल रखा था। इस सारी अव्यवस्था के बीच आखिर 12 अक्टूबर 1971 को जयपुर में तमाम गैरजरूरी तामझाम के साथ हमारी ठेठ पंजाबी रीति-रिवाज गाजे-बाजे घोड़ी-बरातमय शादी हुई। शादी की हमारी तस्वीरों में हर जगह जितेंद्र का मुँह फूला हुआ है क्योंकि वह घोड़ी पर (गधे की तरह - बकौल जितेंद्र) बैठना नहीं चाहते थे और उन्हें जबरदस्ती गोटे किनारी से सजी-धजी घोड़ी पर बिठा दिया गया था।

बहरहाल, कथाकार जितेंद्र भाटिया से सुधा अरोड़ा की शादी के लगभग 30 साल बाद भी बहुत-से लोगों को मालूम नहीं था कि हम दोनों पति-पत्नी हैं। कलकत्ता में हमारे परिवार के नजदीकी संबंधी आज भी यही समझते हैं कि हमारी शादी एक तयशुदा अरेन्ज्ड मैरेज थी क्योंकि अरेन्ज्ड मैरेज की तमाम बेवकूफी भरी रस्म अदायगी रिश्तेदारों को इसी भुलावे में रखने के लिए हुई थी। यूँ भी बंबई से कलकत्ता की दूरी खासी लंबी थी और उनके लिए ये अटकलें लगाना संभव ही नहीं था कि सत्रह सौ मील की दूरी पर रहते दो इनसान बगैर एक-दूसरे को देखे या बगैर मिले साथ जिंदगी बिताने का निर्णय ले कर प्रेम विवाह कर सकते हैं।

जयपुर और कलकत्ता के शादी के समारोहों की गहमागहमी के बाद, जब मैं शादी के सारे तोहफों और भेंटों से लदी-फँदी, आईआईटी के उस एचटू क्वार्टर के एक कमरे के फलैट में पहुँची, जहाँ एक दीवान और दो कुर्सियों के साथ एक डायनिंग-कम-स्टडी टेबल था। कमरे में एक खर्र-खर्र करता हुआ बड़ा-सा पंखा और दीवारों से झूलते ढेर सारे जाले थे। चालीस घंटों की प्रथम श्रेणी की आरामदेह रेल यात्रा के बाद मुझे सबसे पहले सीधे धूल और जालों से जूझना था, उसके बाद खाना पकाने के लिए दाल चावल और मसालों का बंदोबस्त करना था।

शादी हर लड़की को एकबारगी जिंदगी की सख्त जमीन पर ला पटकती है। इस शादी के बाद उसे (जिसे कॉलेज में टीचरी और कलम-कागज के अलावा कुछ आता ही नहीं था) बिल्कुल शाब्दिक अर्थ में 'नून-तेल-लकड़ी' और 'आटे-दाल का भाव' पता चल गया था। उन दिनों की याद में जो एक तस्वीर सबसे ज्यादा जेहन पर तारी है, वह है - हाथों में शादी का लाल-सफेद चूड़ा पहने एक बेहद मरगिल्ली-सी लड़की मोदीखाने में उँगली के इशारे से दुकानदार को समझा रही है कि पाव किलो हरी दाल, पीली दाल, लाल दाल तोल दे क्योंकि दालों के नाम उसे नहीं मालूम थे। माँ ने कहा था कि शादी के सवा महीने बाद ही अच्छा मुहूर्त देख कर शादी का लाल चूड़ा उतारना, लेकिन उसने बंबई पहुँचने के आठ दिन बाद ही वे चूड़ियाँ उठा कर ताक पर रख दीं क्योंकि वे घर के कामकाज में अच्‍छा-खासा खलल डालती थीं।

एक बार उस एचटू के क्वार्टर में जितेंद्र के फ्रेंड-फिलॉसफर-गाइड-हीरो कथाकार कमलेश्वर फूलगोभी के पराँठे खाने आए तो सुबह से चार घंटे बैठ कर मैं चाकू से महीन- महीन फूलगोभी कुतरती रही, क्योंकि मुझे यह नहीं मालूम था कि फूलगोभी को कस भी किया जा सकता है और वह पराँठे बनाने का ज्यादा आसान तरीका है। एक तो रसोई का क ख ग मुझे आता नहीं था, उस पर तुर्रा यह कि अपने दोस्तों के पूरे जत्थे में जितेंद्र एकमात्र शादीशुदा छात्र थे, सो हॉस्टलों में या सामूहिक रूप से बतौर बैचलर रहनेवाले उनके आधा दर्जन दोस्त आए दिन हॉस्टल के खाने का जायका बदलने के लिए खाना खाने हाजिर हो जाते। और यह सब तीन सौ बीस रुपए में चलाना पड़ता। कहाँ कलकत्ता का इतना बड़ा परिवार, जहाँ कॉलेज से लौट कर माँ वीआईपी ट्रीटमेंट देतीं, हर वक्त मेरी पसंद की चीजें बना खाने के लिए चिरौरी करती रहतीं और कहाँ बंबई का यह कमरा, जहाँ जितेंद्र कॉलेज से ठीक लंच टाइम पर आते, कभी अकेले, कभी अपने बैचलर कुनबे के साथ और खा कर वापस कॉलेज चले जाते। उनके जाने के बाद अक्सर मुझसे अकेले खाना खाया नहीं जाता। उसका नतीजा यह हुआ कि चार-पाँच महीनों में ही मेरे पेट में अल्‍सर हो गए।

लेकिन आईआईटी के ये फाकामस्ती के दिन यादगार दिन थे। इन्हीं दिनों में हमने मोहन राकेश का नाटक 'बहुत बड़ा सवाल' मंचित किया जिसमें जितेंद्र ने मोहन की और मैंने हिंदी सुधारनेवाली शिक्षिका की भूमिका निभाई, यहीं पर हमने लेक्चर थिएटर में इंगमार बर्गमैन, रोमन पोलांस्की, कुरोसावा, जानूसी की ढेर सारी विदेशी क्लासिक फिल्में देखीं, यहीं 'मूड इंडीगो' में मैंने शास्त्रीय संगीतकारों को सुना और यहीं कला की अनोखी दुनिया से मेरा परिचय हुआ। आईआईटी के इस छोटे-से धूल और जालों से भरे खूबसूरत कमरे में ही मैंने यह भी जाना कि मैंने हिंदी के एक कथाकार से ही शादी नहीं की है, बल्कि विज्ञान, कला, संगीत, नाटक, क्लासिक फिल्मों में अच्छा खासा दखल रखनेवाले एक जीनियस से मेरा साबका पड़ा है, जो खतों में जितना 'वोकल' था, हकीकत में उतना ही मितभाषी और चुप्पा है, जिसके भीतर की थाह पाने के लिए मुझे खासी मशक्कत करनी पड़ती थी और अंततः मैं हलकान हो जाती थी। कॉलेज और यूनिवर्सिटी में दो बार गोल्ड मेडल पा कर और कुछेक छोटी-मोटी उपलब्धियों पर जो मैं अपने को बड़ा तीसमारखाँ समझती थी, वह सारा गुमान एकबारगी झर गया था। शादी के बाद ही मुझे पता चला था कि जानने और सीखने के लिए एकेडेमिक दुनिया से आगे भी बहुत कुछ खूबसूरत है। इस खूबसूरत दुनिया से निष्कासन का फरमान पाँच महीने बाद ही जारी हो गया। आईआईटी में काम करनेवाले स्टाफ के लिए सख्त हिदायत थी कि वे अपने नाम से अलॉट किए गए घर सबलेट नहीं कर सकते। हमें पंद्रह दिन के अंदर ही घर खाली करना था। अब शुरू हुई एक अदद छत की तलाश। सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया में इश्तहार पढ़ कर हम अपना खटारा सेकेंड हैंड स्कूटर घर की तलाश में बंबई की सड़कों पर दौड़ाते और शाम को मायूस-सा चेहरा लिए लौट आते। स्कूटर की पिछली सीट पर बैठे मैं गर्दन ऊपर उठा कर ऊँची बीस मंजिला इमारतों और माचिस की डिबियानुमा घरों को बड़ी हसरत से देखती। बहरहाल, हमारे उस बजट में घर मिलना असंभव था, सो मुझे मय शादी के तोहफों और भारी-भरकम साड़ियों के, जिनकी तहें भी खोली नहीं गई थीं, वापस कलकत्ता पार्सल कर दिया गया।

इस बार कलकत्ता वह कलकत्ता नहीं था, जहाँ मैं पहले रहा करती थी। अपना एक हिस्सा मैं बंबई छोड़ आई थी और जितेंद्र के एक हिस्से को अपने साथ कलकत्ता ले आई थी। वह हिस्सा मेरे भीतर पनप रहा था। मैं बंबई वापस जाना चाहती थी, पर बंबई में रहने के लिए घर मिलने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी। लिहाजा मुझे पूरे दस महीने कलकत्ता रहना पड़ा। चाहती तो यूजीसी की स्‍कॉलरशिप की लाज रख कर अपनी अधूरी थीसिस को पूरा कर सकती थी जो बहुत मुश्किल भी नहीं था पर उसकी जगह अपने प्रेमी पति को खत लिखना मुझे ज्यादा रास आता। उन्हीं दिनों 'युद्धविराम' (धर्मयुग :1972) और 'तानाशाही' (धर्मयुग : 1975) कहानियाँ लिखीं। 3 नवंबर 1972 को बेहद नाजुक-सी साढ़े चार पाउंड की गरिमा ने जन्म लिया। उन्हीं दिनों मांडू में समांतर लेखक सम्मेलन होने वाला था। माँ ने सवा महीने की गरिमा को अपने पास रख लिया कि जब बंबई में घर का बंदोबस्त हो जाए तो इसे ले जाना और मैं जितेंद्र के साथ मांडू समांतर लेखक सम्मेलन में चली गई। उस छोटी-सी पोटली को मैं कलकत्ता छोड़ तो आई, पर ट्रेन में बैठने के बाद मेरे लिए उस पोटली के बगैर सफर करना दूभर हो गया। 'महानगर की मैथिली' के बीज उस सफर के दौरान ट्रेन में ही अंकुरित होने शुरू हो गए थे।

बंबई लौटते ही मकान की समस्या फिर मुँह बाए खड़ी थी। जितेंद्र के एक करीबी मित्र प्रो. सुरेश दीक्षित ने हमें अपने घर के एक कमरे में रहने की जगह दे दी। उनकी भी नई-नई शादी हुई थी। मीना भाभी बेहद स्‍नेहिल थीं पर वहाँ रहते हुए फिर मैं बीमार रहने लगी। एक तो अपनी बिटिया से अलग रह कर मानसिक रूप से मैं कलकत्ता और बंबई के बीच बँटी हुई थी, दूसरा जितेंद्र कॉलेज से लौट कर या तो लेखन में व्यस्त रहते या ब्रिज में। यह ब्रिज खेलने का शौक प्रो. दीक्षित का लगाया हुआ था। दोनों पति अपनी अपनी नई-नवेली पत्नियों को छोड़ कर कॉलेज के बाद अपने बैचलर कुनबे में चले जाते और रात को खाने के वक्‍त ही लौटते। क्‍या मैं इसलिए अपनी नन्‍ही-सी जान को अपने से अलग छोड़ कर अपने पति के प्रेम में इतनी दूर चली आई थी मैं। इस उपेक्षा का असर शरीर पर पड़ने लगा। माँ और बीवी का पारंपरिक द्वंद्व लगातार जारी था। तीन महीने बाद मैं फिर कलकत्ता लौट गई। इस बीच जितेंद्र अपने बैचलर मित्रों के कुनबे में फिर रहने लगे। बंबई में मकान की समस्या हर बार सारी रचनात्मकता और संवेदनशीलता को लीलने के लिए तत्पर दीखती थी। अब तो आईआईटी में शोध छात्रों को भी घर अलॉट कर दिया जाता है, तब यह सुविधा नहीं थी। तीसरी बार मैं कलकत्ता से आई तो क्यूआईपी क्वार्टर्स में बिहार के एक प्रो. जायसवाल के साथ जितेंद्र ने पेइंग गेस्ट की तरह रहने का बंदोबस्त कर रखा था। वहाँ भी दो-चार महीने बिता कर आखिरकार कमलेश्वर जी की बदौलत 'सारिका' के एक सहयोगी संपादक श्री आनंद प्रकाश सिंह के चेंबूरवाले हाउसिंग बोर्ड के मकान में ग्यारह महीने की लीज पर एक कमरे का घर मिला तो मैं कलकत्ता जा कर अपनी नन्ही-सी पोटली को साथ ले आई, जो अब सवा साल की हो गई थी। उस घर में बरसात के दिनों में दीवारें इस कदर भीगी रहती थीं कि बरसात तेज होने पर दीवारों से छींटों की बौछार आती थी और उसके बाद फर्श पर पानी बहना शुरू हो जाता था, जिसमें बाथरूम की मोरी से बेशुमार केंचुए रेंगते हुए घुस आते थे। मैं उन केंचुओं से बेतरह आक्रांत रहती। इन्‍हीं केंचुओं ने कई सालों बाद मेरी कहानी 'अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी' में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। खाना पकाते समय कड़ाही की जगह बार-बार बदलनी पड़ती थी ताकि कड़ाही के अंदर छत से पानी टपक कर न गिरे। अपने मामा और नाना के परिवार की लाड़ली गरिमा के लिए भरे-पूरे परिवार को छोड़ कर अकेले मेरे साथ सीलन भरे घर में रहना एक त्रासद अनुभव था और वह आधी-आधी रात को अचानक 'नहीं-नहीं' चीखती हुई उठ बैठती। हालाँकि जितेंद्र की बैचलर मित्र मंडली की गरिमा बेहद चहेती थी। अपने छोटे-छोटे पैरों पर वह फुदक-फुदक कर चलती थी इसलिए उसे सब 'स्प्रिंगवाली गुड़िया' कहते थे। सब उसे कंधों पर बिठाए घूमते! इस मकान में रहते हुए हमें छह महीने भी नहीं हुए थे कि एक दिन नोटिस आ गया कि महाराष्ट्र हाउसिंग बोर्ड में रहनेवालों की सख्त चेकिंग होनेवाली है। हमें भी पंद्रह दिन के अंदर घर खाली करने का नोटिस दे दिया गया। इस मकान की इकलौती सृजनात्मक उपलब्धि थी कहानी 'महानगर की मैथिली', जिसकी मैथिली में जाहिर है, यही 'स्प्रिंगवाली गुड़िया' कहीं-कहीं झाँक जाती है।

तब तक जितेंद्र की पीएचडी पूरी हो गई थी और उन्हें एक मल्टीनेशनल कंपनी में चार अंकों की मासिक तनखावाली नौकरी (फोर फिगर सैलरी) मिल गई थी। 1973 - 74 में एक हजार से ऊपर की तनखा मिलना अहम बात थी। मुझे आईआईटी का माहौल बड़ा आकर्षित करता था और मैं चाहती थी कि जितेंद्र वहीं लेक्चरशिप ले कर उसी कैंपस में बस जाएँ, पर जितेंद्र को वह रिटायर्ड किस्म की आरामदेह जिंदगी रास नहीं आती थी। यहाँ लोकल ट्रेन की भीड़भाड़ में सफर करना पड़ता था और रिसर्च सेंटर में कड़ी मेहनत थी जो जितेंद्र के टेंपरामेंट को रास आती थी। अक्सर शिफ्ट ड्यूटी होती, सुबह सात से दुपहर तीन तक और कभी-कभी दूसरी शिफ्ट का भी ओवरटाइम। सबसे अहम घटना यह थी कि हमने अँधेरी के सात बँगला इलाके में चौथे माले पर एक स्थायी घर ले लिया था, जिसने सुरक्षा का जबरदस्त अहसास दे दिया था। एक दूसरा सकारात्मक अहसास यह था कि शादी के आखिर चार साल बाद, इस घर में आते ही, एक मकान से दूसरे मकान भटकने के बीच, गुम होती जाती मेरी उस दोस्त को घर में अपना एक कोना मिल गया था, जहाँ वह एक सुरक्षित अहसास से टिकी रह सकती थी।

बंबई जैसे महानगर में एक घर होना दूसरी सारी जरूरतों से बड़ा था। यह स्थायी घर हर वक्त जितेंद्र की मित्र मंडली से अँटा रहता था, जिसमें दूरदर्शन के टी एन मोहन और ऐनेट थे जिन्होंने दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के अंतर्गत 1976 में कहानी 'युद्धविराम' पर नाना पलसीकर और सीमा को ले कर एक आधे घंटे की टेलीफिल्म बनाई। फिर हर महीने इस 'समांतर' कार्यक्रम के अंतर्गत साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनती रहीं। जितेंद्र की कहानी 'रक्तजीवी' पर दो घंटे की दूरदर्शन की पहली फीचर फिल्म टी एन मोहन ने ही बनाई थी, जिसमें नमित किशोर कपूर और रीता भादुड़ी थे। ज्यादातर शूटिंग वर्सोवा में हुई थी इसलिए फिल्म की पूरी यूनिट रात-बिरात हमारे सी क्रेस्टवाले घर पर डटी रहती। हृदय लानी फिल्म की कंटीन्यूटी लिखते थे और कई बार आधी-आधी रात को नशे में धुत्त हमारे घर धमक कर चौथे माले से कूद कर जान देने पर उतारू हो जाते थे। ऐसी ही नौटंकी फिल्म्स डिवीजन पूना के डायरेक्टर मित्र चंद्रशेखर नायर (जिन्हें हम गुरुदत्त का अवतार कहते थे) किया करते थे। खाने-पीने के बाद वह 'प्यासा' और 'कागज के फूल' के गाने बड़े सुर में गाते थे। इनमें एक कमलेश्वर ही ऐसे थे, जो पीने के बाद अपने होशोहवास खोते नहीं थे, बस, अपनी लच्छेदार भाषा में धाराप्रवाह झूठ थोड़ा और ज्यादा बोलने लग जाते थे और हर झूठ के बाद कानों को छू कर उसे सच बताने की पंक्तिबद्ध कसमें खाया करते थे। यहीं पर दया पवार ने अपने उपन्यास 'बलुत' के अंश पढ़ कर सुनाए थे, जिन्हें वह उन दिनों लिख रहे थे। यहीं जावेद आनंद, मीरा सवारा और छाया दातार आए थे। यहीं मैंने अपनी एक प्रिय कहानी 'दमनचक्र' (सारिका : 1975) लिखी थी, जो हर बार छुट्टियों में कलकत्ता से लौटने के बाद मेरे साथ-साथ लिथड़ती कलकत्ता से बंबई तक चली आती थी। उसे लिख कर एक राहत की साँस ली थी मैंने। और एक कहानी 'सात सौ का कोट' (धर्मयुग : 1977) दिल्ली के एक पंजाबी दर्जी के चरित्र पर लिखी थी जिसे रेडियो के लिए एकालाप नाटक के रूप में प्रसारित किया गया था। सन् 1977 में कमलेश्वर संपादित 'सारिका' पाक्षिक हो चुकी थी। इसी घर में मैंने और जितेंद्र ने मिल कर 'सारिका' का एक कॉलम 'आम आदमी, जिंदा सवाल' लिखना शुरू किया था। यहीं मेरा दूसरा कहानी संग्रह 'युद्धविराम' छपा था, जिसमें सिर्फ छह कहानियाँ थीं। लेखन कम हो गया था पर जो भी थोड़ा-बहुत लिखा जाता था, वह सुकून देता था। इस कहानी संग्रह पर जब उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार मिला तो मुझे हैरानी हुई थी। मेरा तो किसी से परिचय नहीं था। मैंने कहीं किताब नहीं भेजी थी। शायद उन दिनों पुरस्कार प्रायोजित नहीं हुआ करते थे, जैसे अब हो गए हैं। 402, सी क्रेस्ट-1, सात बँगला, वर्सोवा में बिताए ये दिन हमारे सबसे अच्छे भरे-पूरे दिन थे। जिंदगी बहुत खुशनुमा और सुरक्षित चल रही थी कि 'कथायात्रा' ने एक ग्रहण की तरह हमारी सारी खुशियों पर काली चादर डाल दी।

'सारिका' के दिल्ली स्थानांतरण के बाद कमलेश्वर जी के साथ 'कथायात्रा' नाम से एक मासिक पत्रिका की एक बेहद महत्वाकांक्षी योजना बनी। जितेंद्र पेशे से इंजीनियर थे, पर लीक से हट कर एक पत्रिका निकालने का उनका बहुत पुराना सपना था। इस सपने को वह 'कथायात्रा' में साकार होता देखना चाहते थे, सो उन्होंने अपने आप को इसमें पूरी तरह झोंक दिया। घर से अपना इकलौता स्टडी टेबल और टाइपराइटर भी ले गए। सुबह सात बजे से तीन बजे की शिफ्ट की नौकरी करते, घर लौट कर आधा घंटा भी मुश्किल से रुकते और फिर भागते, जानकी कुटीर, जुहू में 'कथायात्रा' के दफ्तर। उसके बाद घर लौटने का कोई समय नहीं होता। अक्सर रात-रात भर वहीं रहते और सुबह छह बजे लौट कर नहा-धो कर एक प्याला चाय पी कर फिर अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर चले जाते। कई बार शाम को मैं अपनी साढ़े चार साल की बेटी गरिमा का हाथ थामे जितेंद्र का रात का टिफिन ले कर वर्सोवा से 255 नं की बस ले कर जुहू जाती और पत्रिका के काम में हाथ बँटाती। बस, अभी चलता हूँ, कहते-कहते वे रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे मुझसे गरिमा को वापस ले कर लौट जाने को कहते और मैं उस सुनसान इलाके में लगभग खाली बस में बिटिया के साथ वर्सोवा के अकेले घर में वापस आ जाती और रात भर बाल्कनी में टँगी रह कर आत्महंता मनःस्थिति से गुजरती। जितेंद्र को समझाने की कोशिश करती तो वह भड़क जाते और मुझे लताड़ने लगते। अपने 'गॉडफादर' के खिलाफ एक वाक्य सुनना उन्हें गवारा नहीं था। कमलेश्वर जी के फिल्मी रंग-ढंग और ऐयाशियाँ किसी से छिपी नहीं थीं। (अब तो खुद भी उन्होंने उनका खुलासा अपने संस्मरणों में किया है।) 'सारिका' से उनका फिल्मी दफ्तर शिफ्ट हो कर 'कथायात्रा' में आ गया था। हमारे मित्र मजाक करते कि 'कथायात्रा' की ओखल में जितेंद्र का सिर और कमलेश्वर का मूसल है। जितेंद्र के सिर पर पत्रिका का जुनून सवार था। इस जुनून में उनके भागीदार थे - लाजपत राय, देवेश ठाकुर, साजिद रशीद, आत्माराम और मातादीन खरवार। पत्रिका पहले अंक से ही काफी लोकप्रिय रही और सिर्फ मध्य प्रदेश में इसके सौ से ऊपर एजेंट थे। और इसके साथ ही सौ-सौ रुपए भेजनेवाले असंख्य ग्राहक। एक शाम हम वहाँ पहुँचे तो पता चला, कमलेश्वर जी ने एक ऑफिस का सेकेंड हैंड फर्नीचर चौदह हजार रुपए में खरीद लिया है। (25 साल पहले के वे चौदह हजार आज के चारेक लाख के बराबर तो होंगे ही) कहाँ हम दरी पर बैठ कर काम करने में खुश थे, कहाँ गद्दीदार रेक्सिन की रिवॉल्विंग एक्जीक्यूटिव कुर्सियाँ और काँच लगी मेजें! कुर्सी-मेज से मतभेदों की शुरुआत हुई और सामग्री तक पहुँची, जहाँ प्रधान संपादक (कमलेश्वर), संपादक (जितेंद्र भाटिया) के कंधे पर बंदूक रख गोलियाँ दाग रहे थे और अपने दोस्तों से पुराने हिसाब चुका रहे थे। फर्नीचर की खरीददारी के बाद सब लोग उन्हें 'सेठजी' कहने लगे थे। बहरहाल, जितेंद्र को अपनी नौकरी से तबादले के ऑर्डर आ गए और वह हल्दिया चले गए। उनके जाने के बाद 'कथायात्रा' का पाँचवाँ और आखिरी अलविदा अंक आ गया। अपने धराशायी सपनों को लाद कर हल्दिया से हम कलकत्ता आ गए। कलकत्ता गए अभी छह महीने भी नहीं हुए थे कि कई मित्रों ने कमलेश्वर का एक छपा हुआ सर्क्युलर, जिसमें आर्थिक पक्ष का दारोमदार जितेंद्र को ठहराया गया था , अपनी टिप्पणियों के साथ डाक से भिजवाया। कमलेश्वर की मानसिकता का पर्दाफाश करते हुए रा. शौरिराजन से ले कर लाजपत राय के खतों का पुलिंदा आज भी रखा हुआ है, जिसे एसपी सिंह और शिशिर गुप्त 'रविवार' की कवर स्टोरी में देने जा रहे थे, पर जितेंद्र ने उन्हें रोक लिया कि ओछेपन का जवाब उन्हीं के स्तर पर आ कर दिया जाए, यह जरूरी नहीं। जैसा कि जितेंद्र का स्वभाव है, वह चुप रहे। कभी किसी को सफाई देने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। पर जितेंद्र के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। वह पहले से ज्यादा खामोश हो गए थे। अपने 'गॉडफादर' के असली चेहरे ने साहित्य और साहित्यकारों, दोनों से उनका एकबारगी मोहभंग करवा दिया था। कलकत्ता जा कर हम दोनों साहित्यकारों की दुनिया से बिल्कुल कट कर अपने में सिमट गए थे। 'कथायात्रा' का वह हादसा हमारी जिंदगी में न हुआ होता तो जितेंद्र अपने इंजीनियरिंग के पेशे को छोड़ कर पूरी तरह संपादक-लेखक हो गए होते। इस हादसे ने उनके कैरियर की दिशा ही बदल दी।

'कथायात्रा' के इस एक साल ने हम दोनों की रचनात्मकता को पूरी तरह सोख लिया था। कलकत्ता पहुँच कर मैंने एक ही कहानी लिखी, 'बोलो! भ्रष्टाचार की जय!' जो साप्ताहिक हिंदुस्तान में 1982 में छपी थी। कुछेक रचनाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें लिख कर बड़ा सुकून और संतोष मिलता है। बोलो, भ्रष्टाचार की जय! ऐसी ही कहानी थी।

कलकत्ता जाने के बाद मेरी दुनिया काफी सिमट गई थी। कलकत्ता में ही वह विराट तिमंजिला घर था जहाँ मैंने अपनी जिंदगी के पच्चीस-छब्बीस साल गुजारे थे, जिसकी दीवारों में दरारें पड़ रही थीं, दीवारों का पलस्तर झर रहा था और वह घर बुरी तरह बिखर रहा था। माँ चारों तरफ से घिरी थीं और घर को बचाए रखने में पस्त हो रही थीं। मेरी इकलौती बहन, जो बेहद खूबसूरत और आत्मकेंद्रित थी, अपना मानसिक संतुलन खो कर जिंदा लाश की तरह घर भर में डोलती थी। वह या तो दमे की भयंकर तकलीफ से ग्रस्त रहती या मानसिक अस्वस्थता से उग्र हो उठती। उन्हीं दिनों एक के बाद एक कई मानसिक अस्पतालों को करीब से देखना बेहद तकलीफदेह था। परंपरा से बँधे एक मध्यवर्गीय परिवार में एक मासूम लड़की अपने भोलेपन की सजा भुगत रही थी। बहुत चाह कर भी मैं कभी उसके बारे में कलम उठा नहीं पाई क्योंकि इसके लिए जिस तटस्थता और निर्वैयक्तिकता की जरूरत थी, उसका मुझमें नितांत अभाव था। एक ही शहर में रहते हुए उस घर की परेशानियों से अपने आप को पूरी तरह काट लेना मेरे लिए असंभव था। मैं उस दर्दनाक माहौल से अपने को खींच कर बाहर निकालने में असमर्थ थी। अक्सर उसकी इस स्थिति के लिए मैं अपने को जिम्मेदार महसूस करती थी। वह जब-जब मेरे सामने आती थी, मेरा अपराधबोध उसके समानांतर मेरे सामने खड़ा होता था। माँ और पिता का पूरा ध्यान हमेशा मेरी ओर केंद्रित रहा था। इस बीच चुपचाप वह लगातार उपेक्षित होती रही और कब अपने खोल में सिमट गई, कब उसने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया (जिसमें वह पिछले तीस सालों से है।), किसी को पता ही नहीं चला। प्राइमरी कक्षाओं में हर बार डबल प्रमोशन लेनेवाली, हमेशा किताबों पर झुकी रह कर एमए करनेवाली और हिंदी में बेहद संवेदनशील कविताएँ, कहानियाँ और लेख लिखनेवाली वह बेहद जहीन लड़की अचानक एक दिन ऐसी हँसी हँसने लगी जिसमें रोने की आवाज सुनाई देती थी। जब तक उसकी इस स्थिति ने सबका ध्यान खींचा, बहुत देर हो चुकी थी।

8 मार्च 1982 को, गरिमा के लगभग दस साल बाद हमारी 'बुढ़ौती की संतान' दूसरी बेटी गुंजन पैदा हुई। सचमुच बेटी की माँ होना बहुत बड़ी नियामत है (आज मेरी दोनों बेटियाँ मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं)। गरिमा की ही तरह गुंजन भी पौने पाँच पौंड की नन्ही-सी पोटली थी और उसे ले कर जब मैं कलकत्ता के वुडलैंड्स नर्सिंग होम से बाहर निकली तो मेरा वजन अड़तीस किलो था। गुंजन को उसी तरह साँस की तकलीफ रहती, जैसे मुझे बचपन में थी। उसे ले कर मैं डॉक्टरों के चक्कर काटती रहती। लेखन पर पूरी तरह पूर्णविराम लग चुका था। गुंजन की बीमारी में साल दर साल कैसे गुजरते गए, पता ही नहीं चला। एक बेचैनी, एक छटपटाहट भीतर ही भीतर घर कर रही थी पर मैं उसे पहचान नहीं पा रही थी। कलकत्ता के उन दिनों की याद में मेरे जेहन में दो तस्वीरें उभरती हैं - एक, गुंजन के बुखार से तपते माथे पर बर्फ की पट्टियाँ रखती कमजोर दिल माँ, जिसकी जान उसकी बेटी में बसती थी। दूसरा, हर ओने-कोने से धूल- मिट्टी बुहारने और घर को भरसक व्यवस्थित और कलात्मक बनाए रखने में बझी एक औरत। इसके पीछे का मनोविज्ञान तो मैंने बहुत बाद में सिमोन द बुवा की किताब 'द सेकेंड सेक्स' में पढ़ा कि औरतें अपने अस्तित्व के शून्य को भरमाए रखने के लिए सफाई अभियान में अपने को सनकी होने की हद तक झोंक देती हैं। अब पीछे देखती हूँ तो लगता है, इस किताब को पहले पढ़ लिया होता तो कम से कम इसे पहचान लेने में समर्थ हुई होती कि इस धूल-मिट्टी के साथ-साथ मेरी वह हमदम, मेरी दोस्त भी घर से बाहर बड़ी बेमुरव्वत से धकेली जा रही है। इस बीच पड़ोसियों में 'गुंजन की ममी' और जितेंद्र के ऑफिस के सहकर्मियों और उनकी बीवियों के बीच 'मिसेज भाटिया' के रूप में मैं 'प्रतिष्ठित' हो चुकी थी। उन्हीं दिनों दूरदर्शन के लिए कुछ साक्षात्कार कार्यक्रम करने के बाद ही लोगों ने जाना कि मिसेज भाटिया का नाम 'सुधा अरोड़ा' भी है।

कलकत्ता दूरदर्शन के लिए, मेरा पहला साक्षात्कार उर्दू की तेजतर्रार और मेरी पसंदीदा कथाकार इस्मत चुगताई से था। उनसे मैंने एक सवाल पूछा था कि अंग्रेजी की एक कहावत है - 'इंजीनिअर्स मेक द बेस्ट हस्बैंड, राइटर्स द वर्स्ट' , अक्सर लेखक बुरे पति होते हैं, क्या लेखिकाएँ अच्छी बीवियाँ होती हैं तो उन्होंने ठहाका लगा कर कहा था कि लेखिकाएँ अच्छी बीवियाँ भी हो सकती हैं, पर मर्द एक बार में एक ही किरदार निभा सकता है। तब दूरदर्शन रंगीन नहीं था। ब्लैक एंड व्हाइट दूरदर्शन पर यह इस्मत आपा का पहला साक्षात्कार था। तब उनकी याददाश्त बड़ी तेज और आवाज बुलंद थी। उनका यह साक्षात्कार आर्काइव्स में रखने लायक था, पर कलकत्ता दूरदर्शन जब गोल्फ ग्रीन में शिफ्ट हुआ तो फिल्म की वे कतरनें कहीं फिंक-फिंका गईं। बाद में रंगीन टीवी पर उनका इंटरव्यू देखा था जिसमें वह काफी कमजोर दिखाई दे रही थीं और उनकी बातचीत भी बहुत साफ नहीं थी। बांग्ला की प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी से नलिनी सिंह के 'सच की परछाइयाँ' के लिए पलामू के बधुआ मजदूरों के बारे में दस मिनट का साक्षात्कार लेना था और बात करने बैठे तो अपनी टूटी-फूटी हिंदी में महाश्वेता दी बड़े मन से बोलीं। पैंतालीस मिनट का साक्षात्कार रिकार्ड किया गया, इसे आधे घंटे के कार्यक्रम में दिखाया गया था। इसके अलावा मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, भीष्म साहनी, गोविंद निहलानी मेरे प्रिय व्यक्तित्व थे, जिनका साक्षात्कार लिया। राजेंद्र जी से पुरानी पहचान थी, पर इस साक्षात्कार के बाद मन्नू जी मेरी बहुत अच्छी मित्र बन गईं। इस साक्षात्कार में उन्होंने एक बहुत अच्छी बात कही थी कि एक लेखिका पहले माँ होती है, फिर पत्नी, तीसरे नंबर पर उसका रचनाकार आता है, पर एक लेखक के लिए पहले नंबर पर उसका लेखक होता है, दूसरे नंबर पर उसके दोस्त और पत्नी का दर्जा तो उसके लिए तीसरे चौथे नंबर पर ही आता है। मैं उन दिनों पूरी तरह से अपने माँ और पत्नीवाले किरदार को ही जी रही थी।

कलकत्ता में मैंने लंबे गुमसुम अँधेरे ग्यारह साल गुजारे - घटनात्मक लेकिन रचनात्मक दृष्टि से पूरी तरह बंजर, असृजनात्मक! उन सालों को दो-चार पैराग्राफ में समेटना आसान नहीं है पर इन्हीं ग्यारह सालों में मैंने अपने 'औरत' होने को शिद्दत से महसूस किया। औरत के अलग-अलग रूपों और किस्मों को जाना। यह भी जाना कि सतह के नीचे एक खास तरह की समानता है जो हर किस्म में मौजूद है। मेरे ही इर्द-गिर्द औरतों का यह पूरा संसार मौजूद था। एक ढहता हुआ मकान था, जहाँ सहनशीलता का मूर्तिमान स्वरूप माँ थीं, सूनी आँखोंवाली दहशतजदा अर्द्धविक्षिप्त बहन थी, तलाक के कगार पर पहुँचती भाभी थी। दूसरी ओर मेरा अपना एक 'घर' था, जहाँ मैं एक 'औरत' थी - अपने नए स्वरूप को विस्फारित आँखों से पहचानने की कोशिश करती हुई। ससुर की अचानक मृत्यु के बाद मेरे पास आ कर रहती मेरी सत्तर वर्षीया सास थीं, दो ननदें थीं और थीं मेरी दो बेटियाँ, जो इस पूरे व्यूह में मेरे लिए ऑक्सीजन का काम कर रही थीं। कलम के लिए कच्चा माल इस कदर मेरे भीतर और मेरे इर्द-गिर्द पसरा पड़ा था, कलम और दिमाग का तालमेल बिठाने भर की देर थी, पर कलम दराज में पड़ी जंग खा रही थी। कलकत्ता प्रवास के इन्हीं सालों में मैंने महसूस किया कि मैंने अब तक जो भी लिखा, वह सारे शब्द नाकाफी हैं। मुझे लगता था कि मैं कितने बड़े भ्रमजाल में जी रही थी कि हमारा लेखन ऐसा हो जिसे पढ़ कर यह न लगे कि एक महिला ने लिखा है, कि महिला लेखन विशेषांक में रचना क्यों भेजी जाए, क्या हम पुरुष लेखकों से कमतर हैं, कि लेखन को महिला और पुरुष के अलग-अलग खाँचे में क्यों आँका जाए! कभी किसी प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका का पत्र आता कि महिला कथाकार विशेषांक में अपनी रचना भेजिए तो मैं कन्नी काट जाती। अपने आप को पुरुष रचनाकारों के बीच छपा देखने में और उनके नामों के बीच अपने नाम का शुमार होते देखना ज्यादा अच्छा लगता। यह सोच इन इक्कीस सालों में बदल गई थी। लगता था कि ऐसा लेखन होना चाहिए, जो पुरुष लेखक लिख ही नहीं सकता और न उन महिला रचनाकारों के बूते का है जिनके 'पाँव न फटे बिवाई' और जिन्होंने अपनी निजी जिंदगी में अपने औरत होने के दर्द को संवेदनशीलता से महसूस ही नहीं किया।

उन्हीं दिनों तीन हिस्सों में एक बड़े उपन्यास ने आकार लेना शुरू किया। 7 जून 1985 को मैंने उन नोट्स को सामने रख कर आखिरकार लिखना शुरू किया। अक्सर घर में सब के सो जाने के बाद मैं डाइनिंग टेबल पर बैठती और रात के दो-तीन बजे तक लिखती। पहले हिस्से के आठ अध्याय लिखे जा चुके थे कि अचानक हमें मकान बदलना पड़ा। कलकत्ता में यह हमारा तीसरा मकान था - अलीपुर रोड और जजेस कोर्ट रोड के चौराहे पर। सारा दिन ट्राम-बस-रिक्शे का शोर और डीजल मिश्रित काली चिकनाई युक्त धूल। यह मकान हमारी 'छुटकी' को रास नहीं आया। उसकी तबीयत खराब रहने लगी। कभी टायफायड, कभी पीलिया, कभी चिकन पॉक्स। हर वक्त डॉक्टर और नर्सिंग होम के चक्कर। जब-तब मैं उसी डायनिंग टेबल पर दुबारा अपने उपन्यास के पात्रों के साथ बैठना चाहती पर वे न जाने क्यों मुझसे दूर जा चुके थे। एक महिला की रचनात्मकता का क्षरण कितने मोर्चों पर एक साथ होता है। उस मकान में चार साल रहे। पता नहीं कैसे लेखक पहाड़ों पर और वातानुकूलित जगहों पर जा कर उपन्यास लिख लेते हैं। मुझे तो अपने पुराने घर का वही कोना चाहिए था, जहाँ कभी-कभी टेलीविजन पूरे वॉल्यूम में चल रहा होता, गरिमा अपनी सहेलियों के साथ शोर मचा रही होती, गुंजन टीवी के सामने नाच रही होती और मैं आराम से अपने उपन्यास के पात्रों के बीच इत्मीनान से बैठी होती। बहुत कोशिश की कि पुराने घर की उस सपाट सफेद दीवार को अपनी आँखों के सामने ले आऊँ और लिखूँ पर कोई तरीका कारगर होता दिखाई नहीं देता था। यह उम्मीद जरूर थी कि कभी न कभी वह छूटा हुआ सिरा फिर से हाथ में आ जाएगा। 'दरिद्र की थाती' की तरह मैं उन लिखे हुए पन्नों को बारह साल सहेजे रही। जब उसे दुबारा निकाला तो लगा, औरत की दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है और इस उपन्यास में मैंने क्या पुराना राग अलापा है। (दो साल पहले जब मुझे लगा कि अब यह कभी पूरा नहीं हो पाएगा तो मैंने उस उपन्यास के शुरुआती कई अध्याय 'सुजाता तनेजा की जिंदगी का आखिरी दिन' (कथादेश : दिसंबर 1998), 'मोहल्‍ले की लड़की जब बड़ी होती है' (पुनर्नवा) 'देह धरे का दंड' (साक्षात्‍कार) 'बेटियोंवाला घर' (उत्‍तर प्रदेश) और 'लाहौर का वह अपना जमाना' (अन्‍यथा) को कहानी की तरह प्रकाशित करवा दिया।

ग्यारह साल कलकत्ता प्रवास के बाद फिर बंबई। नौकरीपेशा लोगों के साथ यह बहुत बड़ी समस्या होती है। 1971 में शादी के बाद यह हमारा नौवाँ मकान था। बड़ी बेटी गरिमा बंबई आईआईटी के हॉस्टल में रहने चली गई थी। अब मेरे पास सिर्फ छुई-मुई-सी गुंजन थी और अपना बचा-खुचा आधा-अधूरा अस्तित्व। अपनी कलम को वापस पाने के लिए मैं बहुत छटपटा रही थी। बारह सालों में मैंने साहित्य की दुनिया से अपने आप को निष्कासित कर लिया था। किसी पत्रिका में एक खत तक नहीं लिखा था। मेरा वह अधूरा उपन्यास मेरे लिए, मराठी में जिसे कहते हैं 'पनवती' (यानी अशुभ - इसका हिंदी अनुवाद बड़ा मुश्किल है) सिद्ध हो रहा था। वह मेरी दुखती रग बन गया था। न वह आगे बढ़ता था, न मुझे आगे बढ़ने देता था।

बंबई आने के बाद मैं कुछ करने के लिए बहुत छटपटा रही थी। हाथ में कलम पकड़ती तो लगता, मुझे लेखन का क ख ग भी नहीं आता है। लेखन के नाम पर मैं सिर्फ डायरी लिखती थी। मित्रों से मैं मजाक में कहती कि मुझे अंबाला छावनी के कहानी लेखन महाविद्यालय से कहानी लेखन फिर से सीखना चाहिए पर भीतर एक खोखलापन घर करता जा रहा था, जहाँ हर वक्त कुछ पछाड़ खा कर दम तोड़ता था और आधी-आधी रात को अचानक मैं उठ कर चीखने लगती। इस स्थिति की कोई पहचान नहीं थी। न मैं किसी से इसे बाँट सकती थी। कलम के साथ का छूट जाना मेरे लिए किसी बीमार की साँसों से ऑक्सीजन खींच लेने जैसा था। तभी 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मसजिद का ध्वंस हुआ। हम बांद्रा के माउंट मेरी रोड के जिस इलाके में रहते थे, वहाँ से बाहर माउंट मेरी की विख्यात सीढ़ियों से नीचे आते ही दाऊदी वोहरा मुस्लिम का जमातखाना और उनकी सात बहुमंजिला इमारतें 'युवान अपार्टमेंट्स' थीं। टीवी पर खबर आने और दुकानों के शटर धड़ाधड़ बंद होने के साथ मैं और गुंजन सड़क का जायजा लेने सीढ़ियों से नीचे उतरे। वहाँ जगह-जगह झुंड बना कर जवान लड़के, आदमी खड़े थे। पूरे इलाके में जानलेवा तनाव था। कहीं कोई एक भी महिला नहीं थी। जवान लड़कों की आँखों में खून उतर आया था। एकबारगी हम दोनों को लगा, हम घिर गए हैं। उल्टे कदम हम नीची निगाहें किए घर की ओर लौट आए। अपने दादा-दादी से सुनी बँटवारे की त्रासदी दिमाग में ताजा हो रही थी जिसे मैं अपने उपन्यास के एक अध्याय में लिख चुकी थी। दिसंबर, जनवरी और फिर 6 फरवरी को हर महीने बंबई के इलाकों में खून-खराबा दोहराया जाता। तभी जनवादी लेखक संघ ने उर्दू-हिंदी लेखकों की एक संयुक्त मीटिंग बुलवाई थी। मुझे भी कुछ बोलने के लिए कहा गया था। मैंने छोटा-सा एक आलेख लिखा - 'इस जुनून का अंत कब होगा'। वहाँ मैंने इस आलेख को पढ़ा और साथ ही शौकत आपा की दी हुई उर्दू के मशहूर शायर कैफी आजमी साहब की ताजा नज्म 'राम का बनवास' पढ़ कर सुनाई। इसके बाद 12 मार्च 1993 को बंबई का बम विस्फोट, जब मैं घर से बाहर थी और जलते हुए शहर के बीच से होती हुई घर पहुँची थी। वह अनुभव चेतना को झकझोर देनेवाला था। कई दिन वह झुलसा हुआ शहर दिमाग पर वजन की तरह रहा। आखिर मैंने उसे रिपोर्ताज के रूप में लिख डाला। यह तीन साल मेरी डायरी में बंद पड़ा रहा। फिर मैंने इसे कहानी के फॉर्म में लिखा। यह कहानी 'काला शुक्रवार' हंस के दिसंबर 1996 अंक में प्रकाशित हुई थी। 6 दिसंबर की इस त्रासदी ने अनजाने ही मेरे हाथ में दुबारा कलम पकड़ा दी थी। 1992 के बाद के हिंदू-मुस्लिम दंगों में कुछ स्वैच्छिक संगठनों के बीच राहत कार्य करते हुए अजीब-से अनुभवों से गुजरना हुआ। दंगों की विभीषिका पर ही एक और कहानी 'जानकीनामा' भी उन्हीं दिनों लिखी, जो नासिरा शर्मा द्वारा संपादित 'वर्तमान साहित्य' के महिला कथा लेखन विशेषांक (1995) में छपी थी।

1992 - 93 के बंबई के दंगों के बाद किए राहत कार्य के दौरान मेरी पहचान बिमल रॉय की बेटी और बासु भट्टाचार्य की पत्नी रिंकी भट्टाचार्य और उनकी संस्था 'हेल्प' से हुई। रिंकी दी और 'हेल्प' से परिचय मेरे बंबई आने के बाद की मेरे लिए सबसे अहम घटना थी। यहाँ जया, यास्मीन, कृष्णा सर्वाधिकारी, प्रमिला तनेजा और कुमकुम गुप्ता थीं और थीं ढेर सारी महिलाएँ अपनी-अपनी समस्याओं के साथ। यहाँ जिस तरह का काम किया जाता था, मुझे लगता था, वह लिखने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेखन शायद किसी को मानसिक संतोष या राहत देता होगा, शायद कभी अपनी समस्याओं से जूझने निकलने का रास्ता भी दिखाता होगा लेकिन यहाँ आत्महंता मनःस्थिति के कगार पर पहुँची हुई वे महिलाएँ ही आती थीं, जो जिंदगी के सारे दरवाजे बंद देख कर आखिरी छटपटाहट में या जीने की आखिरी उम्मीद लिए अपनी बरसों से बंद जबान को खोलती थीं और हम अनजान महिलाओं के सामने अपने आप को उड़ेल देती थीं। उन्हें समस्याओं के चक्रव्यूह से बाहर निकालना कई बार बहुत मुश्किल होता था। अक्सर महिलाएँ इस हद तक झेलने और प्रताड़ित होने की आदी हो चुकी होती थीं कि अपनी बात कह चुकने के बाद की राहत ही उन्हें अपने लिए 'अल्टीमेट' लगती थी। यहाँ औरतों के अलग-अलग शेड्स थे। ऐसा नहीं था कि हर बार औरत सही ही होती थी। पर कई बार उसे गलती का अहसास कराना भी टेढ़ी खीर साबित होता था। हरेक औरत की अपनी कूवत के अनुसार ही रास्ते खुलते थे। कुछेक सिटिंग्स के बाद और फिर कुछेक महीनों बाद ऐसी मुरझाई हुई औरतों के बदले हुद रूप एक अनकहे आत्मसंतोष से भर देते थे। बुझी हुई आँखों में एकबारगी जीने की ललक हमारे हौसले बढ़ा देती थी। कई बार दूसरी औरतों की जिंदगी के मसले सुलझाते हुए खुद हमारे अपने मसले बड़ी सहजता से समाधान पा लेते थे। शुरू में औरतों की समस्याओं से रूबरू होना एक डिप्रेशन या फिर नाराजगी से भर देता था। धीरे-धीरे मैंने उनसे एक दूरी बनाना सीख लिया था और तभी मैं लिख पाई औरतों की समस्याओं पर कहानियों की एक शृंखला, जिसकी शुरुआत हुई थी 'रहोगी तुम वही' से जो हंस : जून 1994 के अंक में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद 'सत्ता संवाद' (सबरंग : दीपावली विशेषांक, 1996) 'यह रास्ता उसी अस्पताल को जाता है' (सबरंग दीपावली विशेषांक : 1995) 'अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी' (वागर्थ : अगस्त 1996) 'सुजाता तनेजा की जिंदगी का आखिरी दिन' (कथादेश : दिसंबर 1998 ) 'आधी आबादी', 'वर्चस्व', 'ताराबाई चॉल : कमरा नं. एक सौ पैंतीस', 'यथास्थिति' (सभी 'हंस' : 1996-97) और बहुत-सी अधूरी कहानियों के नोट्स जो डायरी के पन्नों में दर्ज हैं।

इसमें संदेह नहीं कि अगर 'हेल्प' की दुनिया से मेरा परिचय न हुआ होता और मैंने दुबारा लिखना न शुरू किया होता तो मैं आम घरेलू गृहिणी की तरह, शादी की सालगिरह की तारीख अक्सर भूल जानेवाले एक सफल अफसर पति के घर की चहारदीवारी में कैद, बेहद कुंठित, बात-बात में झल्लानेवाली, बाहर की दुनिया से मुँह छिपानेवाली, एक शिजोफ्रेनिक पत्नी होती जो अपने पति के सरनेम से ही जानी जाती। मेरे लेखन की दूसरी पारी में 'हेल्प' का बहुत सकारात्मक योगदान है।

इसी के साथ शुरू हुआ बंबई के दैनिक 'जनसत्ता' का साप्ताहिक कॉलम 'वामा' जो हर बुधवार को सुबह के अखबार में छपता था और अखबार के दफ्तर से फोन नंबर ले कर आते अनजान महिलाओं के फोन कि उनकी बात मैंने कह दी है। यह साप्ताहिक कॉलम एक साल तक चला, शायद और भी आगे चलता कि पुरुष संपादकों-उपसंपादकों की मिलीभगत ने डॉ. धर्मवीर भारती पर लिखी मेरी श्रद्धांजलिवाले आलेख को पूरा काट-छाँट कर, सिर्फ एक पैराग्राफ को हाईलाइट कर, शीर्षक बदल कर, अंतिम पंक्तियाँ काट कर इस तरह छापा कि उस पर अच्छा-खासा विवाद खड़ा हो गया, जिसने एक बार फिर पुरुषवर्चस्ववादी समाज और पीत पत्रकारिता पर अपनी मुहर लगा दी। पर जैसा कि हर हादसे के साथ होता है कि वह एक सबक तो छोड़ जाता ही है, परेशानी के वक्त अपने दोस्तों-दुश्मनों के चेहरे जरूर बेनकाब कर देता है और इसके साथ ही आपकी सच बोलने की ताकत को कुछ और बढ़ा देता है। इस विवाद ने भी कुछेक दोस्त दिखनेवालों के चेहरों का मुलम्मा उतार दिया, जो शायद सामान्य स्थितियों में कभी न हो पाता और कुछेक दोस्तों को अपने साथ खड़ा पाया जिनमे कमलेश बख्शी, कुमकुम गुप्ता, अरुणा बुरटे, हंसाबेन थीं - हर आड़े वक्त में अपना हाथ आगे बढ़ाती हुई।

मेरे शुभचिंतक मित्र अक्सर कहते हैं कि मुझे सेकेंड थॉट दे कर बोलना चाहिए, कि खालिस पंजाबी न होते हुए भी मुझमें पंजाबी अक्खड़पन है जो किसी को भी नाराज कर देता है, कि मुझे कड़वा सच बोलने की पुरानी आदत से थोड़ा परहेज करना चाहिए। इस 'आमने-सामने' में मैंने कड़वा सच बोलने से भरसक परहेज किया है। इसके बावजूद अगर कहीं किसी को अखरता है तो इसकी जिम्मेदार मैं नहीं हूँ, इसकी जिम्मेदार मेरी वह गुमशुदा दोस्त है जो डेढ़ बरस फिर से गुम होने के बाद मुझे मिल गई है और अब मेरे साथ है और उसे बोलने की छूट मैंने दी है।... और अब मैं किसी भी कीमत पर इसे खोना नहीं चाहती क्योंकि इसे खो कर खासा खमियाजा मैं भुगत चुकी हूँ। उस समय कोई मेरे साथ नहीं होता इसलिए आप भी मेरे लिए दुआ करें कि वह, मेरी दोस्त, हमेशा मेरे साथ रहे जिसे आज भी यह लगता है कि इतने सालों में उसने कुछ भी तो नहीं लिखा, कि वास्तव में लिखना तो उसे अब शुरू करना है। उसकी इस शुरुआत का मुझे भी बेसब्री से इंतजार है। आमीन!