गुम है... / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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वो जन्म से गूंगी नहीं थी। किसी दुर्घटना में उसकी आवाज चली गयी थी। उसके जानने वाले कहते थे कि उसकी आवाज बहुत मीठी हुआ करती थी और वह कमाल की बातें किया करती थी। उसकी बातों में रंग थे और खुशबू भी। यही नहीं जब वह बोलती तो ऐसा लगता कई रंग के ऊन के गोले एक साथ हाथों से छूट कर जमीन पर गिर गए हों और खुलते जा रहे हों। न कभी उसकी बातों के 'ओर मिले न कभी छोर' ...लेकिन जब उसकी आवाज चली गयी तो उसने अपनी बात कहने के लिए खत लिखना शुरू कर दिया। उसके भीतर बातों के हजारों फूल उगते थे, उसने जल्द ही उन फूलों की खुशबू को खतों में भरना सीख लिया था।

उसने अपने जीवन में कई हजार खत लिखे, कभी प्रेम भरे, कभी समझाइश भरे खत, कभी नाराजी भरे तो कभी उदासी में डूबे खत। बेहिसाब, बे-तरह, बेवजह और अक्सर बे-सबब भी। उसके खत गुलाबी और खुशबूदार होते थे। सफेद कागज पर वह सुन्दर गुलाबी चित्र बनाकर सजाती थी अपने खत।

उसने तुम्हें भी तो खत लिखे थे न? तुमने कभी कोई जवाब नहीं दिए उसके खत के क्यों? उसके खत सिर्फ़ तुम्हें सम्बोधित होते थे। वह इतनी संकोची थी कि लिखते वक्त हवा को भी पास नहीं आने देती। अपनी सांसों को भी रोक कर रखती थी कि मैले न हो जायें उसके खत। वह आंखें बंद करके खत लिखती थी और ईश्वर को साक्षी बनाकर खत को पोस्ट करती थी। उसके लिफाफे पर सिर्फ़ तुम्हारा पता होता था और लैटर-बॉक्स में डालकर भी वह बड़ी देर तक वहीं खड़ी रहती, मानो मन ही मन दुआ पढ़ रही हो या कि जैसे कोई मन्दिर के देवता के चरणों में फूल धर देता है धीरे से बुदबुदाता है ...बस सही पते पर पहुंच जाये उसका खत, उसकी बात।

सुनो! खत तुम भी तो लिखते थे न। लेकिन तुम्हारे लिखने और उसके लिखने में एक बड़ा फर्क था। तुम्हारे खत कविता, कहानी की शक्ल में बाज़ार में टंगे दिखते थे, ताकि उन्हें तारीफ मिले, लोग कसीदे पढें तुम्हें अपने लिखे हर शब्द से प्रेम जो था; अपनी लेखनी पर गुरुर भी, है न और तुम्हारा समय कीमती भी था। जबाव देने से बेहतर था उतने समय में कोई कविता या $गज़ल लिखी जाती, इसलिए तुमने अपने हर अहसास को, हर खत को सार्वजनिक कर दिया। उन्हें बाज़ार दिया, तारों से सजाया और चौराहों पर लटकाया। ...तुमने यकीनन उसके खतों के सुन्दर जवाब लिखे। उनमे प्रेम के रंग भरे, सांसों की ऊष्मा भी। लेकिन जिसके लिए लिखे बस...उसके पास ही तुम्हारा कोई खत कभी नहीं पहुंचा। तुम्हारे लिखे खत आज भी इश्तेहार बने कई दीवारों पर चिपके हैं। कुछ तो यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में भी रखे गए हैं, ताकि रिश्तों पर शोध कर रहे शोधार्थी उनसे लाभ उठा सकें। तुम्हें बाज़ार इतने प्रिय थे कि एक बार उत्साहित होकर तुमने उसके लिखे अत्यंत निजी खत को भी एक दीवार पर चिपका दिया था।

कितनी दुखी हुई थी वह अपनी निजता खोने पर। खैर! उसके बाद वह तुम्हें खत कम लिखने लगी थी।

याद है तुम्हें? तुमने तो कभी उससे उसका 'पता' भी नहीं पूछा। नाम भी नहीं ...कौन है? कहाँ रहती है? कहाँ से आई या कहाँ जाने वाली है।

तुमने पूछा नहीं तो उसने बताया भी नहीं इसीलिए वह हमेशा कहती मेरे खतों के जवाब मत देना। ज़रूरत नहीं है और इन खतों में कोई सवाल भी तो नहीं है। बस पढ़ लेना और संभाल लेना इन्हें, जबकि उसे उन दिनों तुम्हारे जवाबों की सख्त ज़रूरत थी। खैर ...

सच कहूँ? जब तक वह तुम्हारे पास थी। तुम उसके और उसके खतों के प्रति लापरवाह ही बने रहे। तुम उसे देखते ही ऐसे रिएक्ट करते मानो महीने के आखिरी दिनों में कोई मेहमान गले पड़ गया।

मेहमान से याद आया। वह हमेशा कहती थी ये हंसी, ये मुस्कान, ये पल, ये मुलाकातें और ये बातें सब मेहमान हैं। मैं रहूँ न रहूँ बस मेरे खत संभाल कर रखना। तुमने कभी उसकी कोई बात नहीं मानी, लेकिन ये बात ज़रूर मान ली थी। ठीक वैसे ही जैसे कोई नास्तिक किसी मंदिर के पुजारी के दिए हुए प्रसाद को ग्रहण तो नहीं करता पर रख लेता है पास...न जाने क्या सोच कर।

आज जब वह तुम्हारे पास नहीं तो क्यों उसके खत सौ-सौ बार पढ़ रहे हो? क्यों याद करते हो हर बात? क्यों याद आता है पिछली सर्दी में बुना हुआ उसका स्वेटर? आज अमावस की स्याह रात में तुम उन खतों के जुगनुओं को एक_ा करके रोशनी बना रहे हो न?

याद है? पिछली सर्दियों में उसने अपनी सांसों की सिलाइयों पर मुस्कानों की ऊन से तुम्हारे लिए स्वेटर बुना था। रात-रात भर जागी थी वो। उसकी सांसों की गर्माहट होगी अभी तक उस पुराने स्वेटर में और तुमने उसे ये कहकर लेने से इनकार कर दिया कि ये गले में फंसता है तुम्हारे (तुमने नाप भी तो नहीं लेने दिया था उसे) और तुम्हें ये चटख रंग भी नहीं पसंद। तुम स्वेटर में नुक्स ही निकालते रहे। उसकी गर्माहट को नजरअंदाज कर रंगों और नाप में ही उलझे रहे। वह स्वेटर आज भी अनछुआ पड़ा है बक्से में।

देखो, इस साल कैसे वक्त बदल गया न। उसकी सांसों की सिलाइयाँ टूट-फूट गयीं। उसकी आंखों की रोशनी जाती रही। अब वह चाहकर भी कोई स्वेटर नहीं बुन पाती। कोशिश कर रही थी उस दिन, लेकिन रिश्तों के वह रंगीन ऊन के गोले उसके हाथों से फिसल पड़े और ढलान से लुढ़क गए और खुलते गए, खुलते गए, खुलते गए।

वो उनके पीछे बेतहाशा भागी थी, लेकिन थक कर रुक गयी, देखा सब हाथ से छूट चुका था। पहुंच से परे और आंखों से ओझल था सब।

वो ऊन के रंगीन गोले अब उलझे धागों में तब्दील हो चुके थे। वह लाल, हरे नीले और पीले गोले इतनी बुरी तरह उलझ गए थे कि अब उनसे कभी कोई स्वेटर नहीं बुना जा सकता था।

हताशा और दु: ख से वह उन्हें बदसूरत होते देख रही थी।

उसने सांसों की टूटी-फूटी सिलाइयों को गुस्से में उठाकर फेंक दिया। एक सिलाई पेड़ पर अटकी है और दूसरी उस चांद पर लटकी है अब तक।

आज जब वह नहीं है तो समझ आता है उन खतों का मनोविज्ञान।

दरअसल, खत लिखकर वह खुद को मरने से बचाती थी और तुम्हें भी जिन्दा रखती थी। वह लिख-लिख कर सांसें भेजती थी तुम पढ़-पढ़कर सांसें लेते थे। तुम दोनों के बीच खतों का एक पुल बन गया था। जिस पर चलकर मोहब्बत ज़िन्दगी का लिबास पहने रोज शाम आ जाती थी। तुम कभी खत भेज नहीं सके और वह कभी खत रोक न सकी। उसने तुम्हारी हर खुशी, हर दु: ख में खत लिखे, अपने सुख-दु: ख खूंटी पर टांग कर...शायद तुम्हें अहसास भी नहीं।

कभी-कभी तो मुझे लगता है कि वह एक फूल बेचने वाली मालिन ही थी, जिसकी बगिया में हर किस्म का फूल था। जिसकी जैसी ज़रूरत होती वह उसे वैसा गुलदस्ता बनाकर पेश कर देती।

हाँ, प्रेम का शहद और मुस्कानों का चन्दन वह अपनी मर्जी से छिड़कती थी।

तुम्हें याद है? तुम्हारे अवसादों के दौर में, पीड़ाओं दुखों के वक्त में, कितने खुशबूदार गुलदस्ते भेजती थी वह खतों की शक्ल में, जबकि उस वक्त उसके हाथ काटों से लहूलुहान थे, लेकिन उसने खून का कोई छींटा तुम्हारे गुलदस्ते पर यानी खत पर नहीं लगने दिया। तुम जिस खत को गुलाबी समझ बैठे थे न, दरअसल वह उसके खून और उसके आंसुओं के सफेद नमक से बना गुलाबी रंग था, खैर...

तुम दुनिया के झमेलों में इस कदर उलझे थे कि तुमने उस वक्त उन गुलदस्तों को लापरवाही से कोने में पटक दिया, उन खतों को भी।

इन दिनों, तुम्हें देखा, तुम उन सूखे फूलों में से सुगंध खोजते हो? उन बदरंग खतों को बार-बार पढ़ते हो? तुम उसके लिखे उन खतों पर जिन्दा हो न? रोज चुपके-चुपके उन्हें पढ़कर खुद के जिन्दा होने की तसल्ली करते हो न? आज भी तुम उसके लिखे खतों में उसे महसूस करते हो जबकि वह अब कहीं नहीं है। कैसे होगी? वह जा चुकी है अब।

तुम उस मासूम बच्चे की तरह थे, जो ऊन के रंगीन गोलों को रबर की गेंद की तरह उछाल देता है। ये सोचकर कि ये अभी वापस आ जाएगी लेकिन वह प्लास्टिक या रबर नहीं थी। वह तो ऊन का रंगीन बातूनी गोला थी जो तुम्हारी ऊंची हवेली से गिरकर ढलान से फिसलती हुई लुढ़कती रही, खुलती रही और बिखर कर खत्म हो गयी। गुम हो गयी।

सच कहूँ?

आज भी तुम्हें उसकी नहीं अपनी फिक्र है। उसके गुम हो जाने से ज़्यादा खुद के गुम न हो जाने की। तुम बार-बार उसे याद करने की कोशिश कर रहे हो, जबकि तुमने उसे भूल जाने के सौ जतन किये हैं।

सुनो। जब वह तुम्हारे पास थी तब तुम उसका होना स्वीकार नहीं कर पाए और यूं अचानक से आना भी; और आज उसका न होना, स्वीकार नहीं कर पा रहे हो और बता कर जाना भी।

तुम अपनी गलती मान क्यों नहीं लेते, स्वीकार कर लो अब आज इस बात को, तुमने उसे खो दिया।

...तुमने यकीनन उसके खत संभाले, पर उन खत लिखने वाले हाथों को खो दिया न। खो दिया उन खुशबू भरी बातों को, उन मीठी यादों को, उन मासूम वादों को, सब...हाँ सब।

गुम कर दिया न...अब मान लो ये बात...जान भी लो।

वो गुम है, गुम है, गुम है।