गुरुजी (कहानी) / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

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बहुत दिन पहले की बात है। लालू और मैं छोटे-छोटे थे। हमारी उम्र होगी करीब 10-11 साल। हम अपने गांव की पाठशाला में साथ-साथ पढ़ते थे। लालू बहुत शरारती था। उसे दूसरे को परेशान करने और डराने में मजा आता था। एक बार तो उसने अपनी मां को भी डरा दिया था। उसने यह किया कि एक रबड़ का साँप ले आया। वह सांप उसने मां को दिखाया। सांप देखकर मां बहुत डर गईं। वे घबराकर दौड़ीं । दौड़ने में बेचारी मां के पांव में मोच आ गई। मोच की वजह से उन्हें सात दिनों तक लंगड़ाकर चलना पड़ा।

वे लालू की शौतानियों से बहुत तंग आ गई थीं। उन्होंने एक दिन लालू के पिताजी से कहा, ‘‘इसके लिए मास्टर रख दें। जब रोजाना शाम तक पढ़ने बैठेगा, तब इसे पता चलेगा। सारी शैतानी भूल जाएगा।’’

पिताजी बोले, ‘‘नहीं। जब मैं छोटा था, तब मेरे लिए मास्टर नहीं रखा गया था। मैं तो अपने आप पढ़ा। खूब मेहनत की। पढ़-लिखकर आज वकील हूं। मेरी इच्छा है कि लालू भी अपने आप खूब पढ़े-लिखे। अच्छा आदमी बने। हां, इतना कर सकता हूं कि जिस साल वह अपनी कक्षा में प्रथम नहीं आएगा, उस साल हम उसके लिए घर पर पढ़ाने वाला मास्टर रख देंगे।’’

सुनकर लालू ने चैन की सांस ली। लेकिन उसे मां पर बहुत गुस्सा आया। लालू मास्टर को पुलिस जैसा मानता था। जो बात-बात पर पिटाई करता है। जो मनमर्जी नहीं करने देता।

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