गुरु नानक की दरियादिली / देवेन्द्र सत्यार्थी

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साँचा:GKCatBodhkatha गुरू नानक को कौन नहीं जानता! वह मुगल सम्राट बाबर के समय में हुए। उन्होने भारत पर बाबर के हमले को अपनी आंखों देखा था। उसमें लोगों पर जो मार पड़ी, उससे उनके दिल को कितनी चोट लगीं, उसका अनुमान उनकी कविता की इन पंक्तियों से लगता है:

"ऐसी मार पई कुर लाणे तै की दर्द न आया!"

"लोगों पर इतनी मार पड़ी कि वे बिलबिला उठे। क्या तुम्हे इसका दर्द महसूस नहीं हुआ?"

नानक ने इंसान का दिल पाया था। उसमें सबके लिए दर्द था। वह चाहते थे कि सब लोंग मिलकर भाई-भाई की तरह रहें, एक-दूसरे को प्यार करें और एक दूसरे को दु:ख दर्द में हाथ बटावें।

यह तब सम्भव हो सकता था जब लोग सादगी और परिश्रम का जीवन बितावें, कोई किसी को छोटा या बड़ा न समझे और दुनिदारी से ऊपर रहें। गुरू नानक के जीवन में ये सब गुण भरपूर थे।

एक बार वह किसी सभा में बहुत देर तक बोले। उसके बाद उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने कहा, "शुद्व जल लाओं।"

एक पैसे वाला भक्त चांदी के गिलास में पानी ले आया। गिलास लेते समय नानक की निगाह उसके हाथ पर गई। बड़ा कोमलहाथ था। नानक ने उसका कारण पूछा तो वह बोला, "महाराज, बात यह है कि मैं अपने हाथ से कोई काम नहीं करता। घर में नौकर-चाकर सारा काम करते है।"

नानक ने गंभीर होकर कहा, "जिस हाथ पर कड़ी मेहनत से एकाध चक्का नही पड़ा, वह हाथ शुद्व कैस हो सकता है? मैं तुम्हारे इस हाथ का पानी नहीं ले सकता।"

इतना कहकर नानक ने पानी का गिलास लौटा दिया

गुरू नानक घूमते रहते थे। एक मरतबा घूमते हुए वह एक गांव में ठहरे। वहां के लोगों ने उनकी खूब खातिर की, सब तरह का आराम पहुंचाया। जब वह वहां से चलने लगे तो तो गांव वालो को आर्शीवाद देते हुए उन्होने कहा, "यह गांव उजड़ जाय।"

गांव वाले यह आर्शीवाद सुनकर हैरान रह गये। सोचने लगे, क्या उनकी सेवा में कोई कसर रह गई? लेकिन उन्होने कहा कुछ नहीं।

गांव के कुछ लोग उनके साथ हो गये।

नानक दूसरे गांव में पहुंचे, वहां रुके, लेकिन वहां के लोगों ने उनकीं और ध्यान नहीं दिया। उनकी खातिरदारी तो दूर खाने-पीने के लिए भी नहीं पूछा। वहां से विदा होते समय नानक ने आर्शीवाद देते हुए कहा, "यह गांव आबाद रहे।"

पीछे के गांव के लोगों से अब नहीं रहा गया। उन्होने कहा, "गुरूजी, यह क्या बात है? जिन्होने आप की खूब सेवा की, अपको अच्छी तरह रक्खा, उन्हें आपने उजड़ जाने का आर्शीवाद दिया और जिन्होने आपको पूछा तक नहीं, उन्हें बस जाने का आर्शीवाद दिया!"

नानक ने जबाब दिया, "जहां हमारी खूब मेहमानबाजी हुई, वह गॉँव फूलो की बस्ती है। मैंने कहा, वह उजड़ जाय तो इसका मतलब था कि वहां के लोग बिखर जायं। वे जहां जायंगें, अपने साथ अपनी मोहब्बत की, अपनी सेवा की, महक ले जायंगें; लेकिन जिस गांव के लोगों ने हमारी पूछताछ नहीं की, वहां कांटों का ढेर था। हमने कहा, वह बस जांय, तो उसका मतलब था कि कांटे एक ही जगह रहें। फैल कर लोगों को दुखी न करें।"

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बचपन से ही नानक साधु-संतो के साथ रहना पसंद करते थे। अपने गांव तलवंड़ी से कुछ दूर जंगल में घूमते थे। एक बार उनके पिता ने काम-धंधा करने के लिए उन्हें कुछ रुपये दिये। संयोंग से नानक को कुछ साधु मिल गये। ये साधु कई दिन से भूखे थे।

नानक के पास जो कुछ था, खाने-पीने पर खर्च कर दिया। सोचा, भूखो को भोजन कराने से बढ़कर ज्यादा फायदे की बात भला और क्या हो सकती है। यह यह सौदा ही सच्चा सौदा है।"

ऐसे ही एक दिन वह कुंए से नहाकर लौट रहे थे तो एक साधु मिला। बड़ी बुरी हालत में था। नानक का दिल भर आया। उन्होने अपने पास का सबकुछ उसे दे डाला। फिर आगे बढ़े तो अचानक उनकी निगाह अपनी अंगूठी पर पड़ी। वह साधु के पीछे दौड़े और अंगूठी भी उसे दे आये।

बाद में नानक ने घर बार छोड़ दिया और दूर-दूर तक की यात्राएं करने लगे। बगदाद होकर वह काबुल गये। वहां बाबर उन्हें बुलाया और उनके आगे शराब का प्याला रख दिया। नानक ने कहा, "हमने तो ऐसी शराब पी रक्खी है, जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं है। वह शराब हमारे किस काम की, जिसका नशा कुछ देर बाद उतर जांय!"

गुरू नानक के पास प्यार का अनंत भंडार था। वे सबको प्यार देते थे और इस बात की चिंता नहीं करते थे किउनके साथ कोई कैसे बर्ताव करता है।

उनका एक साथी था भाईवाला। वह जहां जाते थे, भाईबाला को अपने साथ जाने से नहीं रोकते थे। न कभी रबाब वाले मरदाना को साथ रखने मे उन्हें हिचकिचाहट होती थी।

लेकिन कहते है, एक बार नानक ने चंद्रलोक जाने की इच्छा की। उन्होने दोनों साथियों से कहा, "आप लोग यहीं रहो। मैं अकेला ही चन्द्रलोक होकर आता हूं।"

साथियों को बड़ा बुरा लगा। वे नहीं जानते थे कि वे लोग ऐसी यात्रा से वंचित रहें। उन्होने कहा, "आप हमें साथ साथ जाने से क्यों रोक रहे है?"

नानक मुस्कुराकर बोले, "अरे भाई, यह यात्रा न तो पैदल चलकर करनी है, न किसी सवारी में बैठकर यह तो ध्यान या योग विधा के सहारे करनी है। उस विधा का आप लोगों को कोई अनुभव नहीं है।"

इस पर साथी मुस्कुराते हुए कहने लगे, "गुरूजी, ठीक है। आप जाइये और जल्दी वापस आइये। हम आपका यहीं इंतजार करेगें।"

गुरू नानक के बारे में कुछ मजेदार बातें कही जाती है कहते है, जब दुनिया में उनकी सांसो का इंकतारा टूट गया तो स्वर्ग में पंहुचे। वहां वड़े उदास रहने लगे। एक दिन भगवान ने पूछा, "आप उदास क्यों रहते है?"

नानक ने उत्तर दिया, "यह कैसी जगह है स्वर्ग? न यहां मकई की रोटी है, न सरसों का साग!"

भगवान ने पूछा, "यह मकई क्या है और सरसों का साग किसे कहतें है?"

नानक बोले, "महाराज, आपने ही तो ये चीजे बनाई है और आप ही इन्हें नही जानते!"

भगवान ने कहा, "चीजें मैंने जरुर बनाई है, पर उनके नाम तो इंसान ने रक्खे है।"

यह कहानी किसी के भी दिमाग की उपज हो; लेकिन इससे एक बात साफ है और यह कि नानक को हमेशा सादगी की जिन्दगी पसन्द रहीं।

नानक सच्चे दिल के थे, और वैसे ही दिल के लोगोंको अपने नजदीक मानते थे। उनके दो बेटे थे, पर उन्होने गुरू की गद्दी किसी को भी नहीं दी। उस गद्दी पर बिठाया उन्होने अपने एक साथी को, जिसका नाम लहणा था। वह नानक की सेवा में रहता था। पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन बड़ा ही सच्चा और दिल से सेवा करने वाला था। उसके संस्कार बड़े ऊंचे थे।

पर जाने कैसा उसका मन गुरू नानक की ओर से हट गया। वह उन्हें छोड़कर अपने गांव चला गया।

जब नानक के सामने समस्या आई कि उनके बाद गद्दी पर कौन बैठेगा तो नानक पैदल चलकर लहणा के गांव पहुंचे और उसके द्वार पर दस्तक दी। लहणा बाहर आया तो गुरू नानक ने पूछा, "तुम्हारा नाम?"

लहणा ने सोचा, यह भी खूब है! इतने दिन इनकी सेवा की और यह मुझे पहचानते तक नहीं! मेरा नाम पूछते है! फिर भी ऊपरी सद्भव दिखाते हुए वह बोला, "मेरा नाम लहणा।"

नानक मुस्कुराये। बोले, "तुम्हारा नाम लेना, मेरा नाम देना। मैं तुम्हे तुम्हारी चीज सौंपने आया हूं।"

इतना कहकर उन्होने गुरू गद्दी पर लहणा को बिठाने की विधि पूरी कर दी और उनका नाम अंगद रख दिया।

नानक ने बहुत दनिया देखी। वह पच्चीस साल पैदल घूमे। सत्तर साल की उम्र में उन्होने दुनिया से विदा ली।

नानक को हिंदू प्यार करते थे, मुसलमान मोहब्बत करते थे। उनके शरीर छोड़ने पर हिन्दुओं ने उनकी समाधि

बनाई, मुसलमानों ने उनकी कब्र बनाई। लेकिन राबी नदी एक साल बाद समाधि और उस कब्र को बहाकर ले गई। उसने यह सिद्व कर दिया कि जो प्यार की दरिया बहाता रहता है, उसकी जगह लोगों के दिलों में होती है, समाधि या कब्र में नहीं।