गुरूजी का सच / कुबेर

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हमारे गाँव की प्राथमिक शाला में शेर सिंह खातू नामक एक गुरूजी पदस्थ हैं। वे हमारे गाँव में ही नहीं अपितु पूरे शिक्षा विभाग में कुख्यात हैं। उनकी कुख्याति से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। आपके मनोरंजनार्थ उनमें से एक प्रस्तुत है।

शेर सिंह खातू गुरूजी जिसे आगे सिर्फ “खातू गुरूजी” नाम से संबोधित किया जायेगा, सप्ताह में अथवा कभी-कभी महीने में दो-एक दिन सकूल आते हैं, बच्चों को पढ़ाने के लिये नहीं, केवल उपस्थिति पंजी में हस्ताक्षर करने के लिये। खातू गुरूजी जिस दिन सप्ताह मध्य सही समय पर स्कूल पहुँच जाते हैं, उस दिन अन्य गुरूजन, और गाँव वाले भी समझ जाते हैं कि कोई बड़ा अधिकारी दौरे पर आने वाला है। उनके मुखबिर विभाग में हर जगह तैनात हैं। खातू गुरूजी एक कुशल खिलाड़ी भी हैं। उनके खेल के दांव-पेच बड़े निराले हैं। वे अक्सर कहा करते हैं, “भई! जीवन तो एक खेल है, हम सब खिलाड़ी हैं, जीत उसी की होती है जो सारे दांव-पेच जानता है।”

चाहे राजनीति के दंगल में हों, चाहे सरकारी तंत्र के रंगमंच के, सारे दांव-पेच खातू गुरूजी के पास हैं।

विद्यार्थियों की विद्या की अर्थियाँ काफी पहले ही मरघट पहुँच चुके हैं। अंतिम संस्कार भी हो चुके हैं। बच्चे अपने माँ-बाप का नाम क्या खाक लिख पायेंगे, जब अपना ही नाम नहीं लिख पाते हैं। जाहिर है, पालकों के मन में असंतोष का धुआँ छाने से बेचैनी फैली हुई है। असंतोष के इस धुएँ को पीने की कोशिश के कारण गाँव में घुटन की स्थिति बनी हुई है। परंतु खातू गुरूजी के राजनीतिक पहुँच के चलते किसी की हिम्मत नहीं होती कि कोई उसे टोके। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?

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बिसंभर यादव पंद्रह साल की अवस्था से दूध बेचने का धंधा कर रहा है। रोज सुबह छः बजे वह अपने सायकिल के कैरियर के दोनों ओर दो-दो डिब्बे बड़े-बड़े और सामने, हैंडिल के दोनों ओर फिर एक-एक डिब्बा छोटे वाले लटकाए राजनांदगाँव की ओर जाने वाली सड़क पर आ जाता है। दूध के इतने सारे छोटे-बडे डिब्बे का राज उनके सिवा और कोई नहीं जानता। बहुत कुरेंदने के बाद एक दिन उसी ने मुझे बताया था - “भइया, एमा गाय के खालिस दूध हे, ए डब्बा मन म भंइस के खालिस दूध हे; बड़े-बड़े साहब मन घर जाथे। ये डब्बा के दूध मन ह बाबू-भइया मन घर जाथे; एमा थेड़ा बहुत चल जाथे। जइसे-जइसे भाव, वइसे-वइसे माल।”

गाँव से शहर लाकर दूध बेचने का काम करते हुए बिसंभर यादव को पच्चीस साल हो चुके हैं। इसी बहाने शहर के तमाम नेताओं, बाबुओं और अधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान हो हो गई है, लिहाजा गाँव में उनका बड़ा रौब है। उसका लड़का खातू गुरूजी की ही पाठशाला में कक्षा पाँच में पढ़ता है। एक दिन उसने लड़के को दूध के हिसाब-किताब के कुछ आंकड़े जोड़ने के लिये दिया। ये तो खातू गुरूजी के चेले थे, आंकड़े क्या खाक जुड़ते। बिसंभर यादव को बड़ा गुस्सा आया। बच्चे को चांटा रसीद कर वह चौपाल की ओर निकल गया।

संयोगवश खातू गुरूजी पान ठेले पर अखबार पढ़ते हुए मिल गए। देखकर बिसंभर यादव को ताव आ गया। बहुत मुश्किल से अपने गुस्से को काबू में करते हुए उसने खातू गुरूजी से कहा - “गुरूजी साहेब, परीक्षा के दिन नजीक हे, लइका मन के पढ़ाई म थोरिक धियान देतेव जी; अतकेच बिनती हे आप मन से।”

खातू गुरूजी बिसंभर यादव के तमतमाये हुए चेहरे से भांप गये कि वे गुस्से में हैं। बात बढ़ाने से क्या फायदा। व्यंग्य करते हुए उसने कहा - “आप कह रहे हैं यादव जी तो ध्यान तो देना ही पड़ेगा।”

खातू गुरूजी बिसंभर यादव को कनखियों से देखते हुए स्कूल की ओर चले गये, जैसे कह रहे हों - “चींटियों के भी पर निकल आये हैं, कतरना तो पड़ेगा ही।”

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दूसरे दिन बिसंभर यादव अपनी सायकिल पर दूध के डिब्बे लटकाये जैसे ही नगर निगम की सीमा में पहुँचा, यमराज सा दिखने वाला एक तोंदियल आदमी एकाएक न जाने कहाँ से प्रगट हो गया। उसने बिसंभर की सवारी रोक ली। उसके साथ यमदूत सा दिखने वाले दो चपरासी भी थे। बिसंभर के होश उड़ गये, सोचा - “यह तो अब जान लेकर ही छोड़ेगा।”

ये सज्जन दूध की शुद्धता जाँचने वाले विभाग के जाँच अधिकारी थे। बिसंभर यादव थरथर काँपने लगा। आखिर बिना पानी दूध तो होता नहीं। जैसे-जैसे अधिकारी की सख्ती बढ़ता जा रहा था, बिसंभर यादव मुलायम पड़ता जा रहा था। मुलायम पड़ते-पड़ते अंततः बिसंभर यादव पिलपिले हो गये; माने अब रो ही पड़ेंगे। उनकी आँखों के आगे जेल की सींखचें नाचने लगी। तभी अचानक खातू गुरूजी प्रगट हो गये। बिसंभर यादव को लंबे हाथों का सलाम ठोकते हुए उसने कहा - “राम, राम हो यादव जी। क्या बात है, घबराये से लगते हो?”

बिसंभर से कुछ कहते न बना। कातर भाव से उन्होंने हाथ जोड़कर खातू गुरूजी के अभिवादन का जवाब दिया।

बिसंभर यादव की रोनी सूरत देखकर खातू गुरूजी के मन में लड्डू फूट रहे थे, परंतु चेहरे पर अखबारी कागज का अवसादी मुखौटा लगाकर उन्होंने कहा - “ओ हो ....हो। तो ये बात है। का हो मनभावे साहब, अपने लोगों को जरा पहचान लिया करो भाई।” अधिकारी को संबोधित करते हुए उसने कहा।

“सर, सर ...... नमस्कार।” कहते हुए मनभावे साहब ने खातू गुरूजी से बड़े अदब से हाथ मिलाया। कहा - “गुरूदेव, क्षमा कीजियेगा, धोखा हो गया।” फिर उसने बिसंभर को तनिक प्यार से झिड़कते-पुचकारते हुए कहा - “भइ, यादव जी, बड़े मूरख हो तुम भी। गुरूजी के आदमी हो, क्यों नहीं बताया तुमने। चलो भागो यहाँ से। और हाँ, सुनो। अब से रोज गुरूजी के यहाँ सुबो-शाम आधा-आधा सेर दूध डाल दिया करो।”

बिसंभर यादव को समझते देर नहीं लगा कि यह सब खातू गुरूजी का ही नाटक था। अच्छा बदला लिया था उसने। पर क्या करे, जान बची लाखों पाय। मनभावे साहब और खातू गुरूजी को नमस्कार करके वह आगे बड़ गया।

उस दिन से बिसंभर यादव खातू गुरूजी के आदमी हो गये। खातू गुरूजी को छेड़ने की हिम्मत अब किसी में न रही।

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कुछ दिन यूँ ही चलता रहा। एक दिन खातू गुरूजी पकड़े गये। पोखरण में बम तो फूटा पर सी. आई. ए. वालों को खबर न हो पाई। पंद्रह दिन से गायब थे। ऊँट पहाड़ के नीचे आ चुका था।

खातू गुरूजी निलंबित किये गए। छः महीने निलंबित रहे। काफी दौड़-भाग और हाथ-पाँव मारने के बाद बहाल हुए।

बहाली के बाद वे स्कूल आये। सहकर्मियों और छात्र-छात्राओं द्वारा खातू गुरूजी के स्वागत के लिये स्कूल में विशेष सभा का आयोजन किया गया था। खातू गुरूजीका फूल मालाओं से स्वागत किया गया। स्वागत करने वालों में बिसंभर यादव सबसे आगे था।

खातू गुरूजी ने बड़े भावविह्वल होकर भाषण दिया। बच्चों को संबोधित करते हुए वे कह रहे थे - “प्रिय बच्चों, हमेशा ईमानदारी और सत्य के रास्ते पर ही चलना चाहिये। सत्य और ईमान की ही जीत होती है। सत्य और ईमान की ही जीत हुई है और इसी वजह से मैं फिर आप लोगों के बीच हूँ।”