गुलमोहर / सुरेन्द्र मोहंती / दिनेश कुमार माली

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सुरेन्द्र मोहंती (1922-1990) हमारे देश की आजादी के बाद के ओडिया आधुनिक कहानियों के किम्वदंती पुरुष माने जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज जिस विकास -विनाश, परिवर्तन - ठहराव, वैश्वीकरण - क्षेत्रीयता के द्वन्द से गुजर रहा है, उस द्वन्द की रचनात्मक अभिव्यक्ति श्री मोहंती की कहानियों में झलकती है। ओडिशा साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके इन वरिष्ठ कहानीकार ने कई अख़बारों का सम्पादन भी किया हैं। 'कृष्ण-चूड़ा(1953)', 'रूटी ओ चन्द्र', ' महानगरीर रात्रि(1950)', ‘साबुज पत्र ओ धूसर गोलप (1958)’ 'मरालर मृत्यु(1962)', 'यदुवंश ओ अन्यान्य गल्प(1983)' तथा 'राजधानी ओ अन्यान्य गल्प(1985) उनके कई चर्चित कहानी-संग्रहों के नाम हैं। प्रस्तुत अनुदित रचना उनकी बहुचर्चित 'कृष्ण-चूड़ा',कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है. कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने उपन्यास और निबंध संग्रह मिलाकर 50 पुस्तकों से ज्यादा की रचना की हैं। इस महान लेखक के उपन्यास 'अंध दिगंत' का हिंदी रूपांतर केंद्रीय साहित्य अकादमी,दिल्ली द्वारा किया गया हैं।


अखबार के कार्यालय का नाम “संग्राम”। सदानंद प्रूफ देख रहा था। बहुत पुरानी एक कोठी। बारिश होने से भरे हुए गडढे। फर्श के तल से पानी का रिसाव हो रहा था। एक तरफ की दीवार पर शैवाल और काई का नीला आवरण जम गया था।

बाहर आषाढ़ के पहले की लगातार होने वाली बारिश कुछ थम गई थी। थककर और अवसाद ग्रस्त होकर सदानंद ने कागज के प्रूफ टेबल पर एक तरफ धकेल दिए थे। कई सालों से प्रूफ देखते-देखते वह अस्वाभाविक रूप से निराशावादी और सीमित सा हो गया था। जीवन के आरंभ से अंत तक सब जगह भूल ही भूल।

अखबार बाहर निकलने में चार पेज बचे थे अर्थात् सोलह कॉलम बाकी थे। ये सोलह कॉलम उसे फिर से करने पडेंगे। थकान और विरक्ति की वजह से सदानंद अपनी जेब से सिगेरट निकाल कर पीने लगा। सदानंद सब कुछ था। वह खुद ही प्रूफ रीडर भी था और संपादक भी था। वह सब कुछ था। उसके साथ एक आदमी और था। लेकिन वह केवल बाहरी मामलों को देखता था।

सदानंद पता नहीं क्यों, बिना किसी कारण के पीछे मुड़कर खुली खिड़की से बाहरी दुनिया को देखने लगा। कई दिनों से उसने भूल से भी एक बार खिड़की नहीं खोली थी। बहुत दिनों से वह नहीं जानता था, लेकिन वहाँ पर खिड़की से सटकर बहुत पुराना गुलमोहर का पेड़ था। कोमल गुलमोहर के पेड़ का श्यामल शीर्ष भाग उसके छविल आवरण के नीचे दिखाई नहीं दे रहा था। केवल सुंदर बोलने से नहीं, सुंदर कहने मात्र से ही कई बातें असंपूर्ण रह जाएगी। सुंदर,कोमल, कांत, मधुर और कमनीय गुलमोहर के लाल वर्ण का विकास।

आषाढ़ महीने के हांडी की तरह काले बादल मानो मिट्टी को छू रहे हो। और बादलों की गोद में गुलमोहर। वैष्णव साधकों ने अपने काले घने बालों में अभी-अभी खिला हुआ गुलमोहर लगाया हो।

सोचते-सोचते सदानंद की सिगेरट खत्म हो गई। उस जलते हुए टुकड़े को सदानंद ने बाहर फेंक दिया और अभी भी सोलह कॉलम का काम बाकी था।

सदानंद ने गुस्से में खिड़की को बंद कर दिया। एक गुलाम मानो गुलामी की दुनिया में जिंदगी जीना एक अर्थहीन हो। गुलामी की दुनिया। इस दुनिया के हरेक निवासियों की अस्थिमज्ज से जैसे किसी ने आनंद सोख लिया हो और छोड़ दिया है दासत्व के लिए।

बस्ती में रहने वाले कुलियों और सदानंद के भीतर क्या अंतर है? वह कुली कारखाने में काम करता है, जबकि गुलाम और आदर्शवादी सदानंद एक आदर्श के लिए गुलाम बन चुका है। देखा जाए तो कुली की जिंदगी में पूर्णता का स्वाद है। सप्ताह में एक बार मजदूरी मिलने के बाद अंततः पानी मिले हुए शराब के दो घूंट पीकर वह शांति से जीवन जीता है। परन्तु सदानंद को वह भी नसीब नहीं। जीवन के प्रारंभ से अभी तक सिर्फ एक अतृप्ति ही है। आदर्श की पूर्णता कहाँ है? हवा के एक झोंके से खिड़की खुल गई थी। एक गुलाम के असहनीय जीवन के प्रति यह गुलमोहर जैसे जीवन का प्रतीक नहीं है, एक उपहास है। एक रंगीन उपहास है।

इस दौरान कई साल गुजर चुके थे। कभी तमसा के जूड़े में स्वयं ने गुलमोहर का गुच्छा लगा दिया था। बहुत दिन पहले की बात है, जिस दिन तमसा नववधू बनकर उनके घर आई थी। वह दिन भी आषाढ़ का आलसी मध्यान्ह था और बारिश की झड़ी लगी हुई थी। आज हाथों में वह चंचलता नहीं थी। अभी सोलह कॉलम लिखने बाकी थे। सदानंद फिर से आकर टेबल के पास बैठ गया। मगर क्या लिखकर वह पूर्ण कर पाएगा वे सोलह कॉलम, विलायत की दलाली? रुस की जमींदारी प्रथा? अमेरिका की बनिया गिरी? भारत का मानसिक दारिद्रय? वह सब लिखने के लिए सदानंद के पास और धैर्य नहीं था।

अच्छा, इस गुलमोहर की बात अखबार में लिखी नहीं जाएगी। यह रंगीन गुलमोहर जिसके रक्तिम विलास ने आषाढ़ की नीरव मध्यान्ह को भी चंचल कर लिया है।

नहीं, संपादक की दुनिया में गुलमोहर एक निरर्थक वस्तु है। सारा संसार उपहास करेगा, गुलमोहर का वर्णन अखबार में देखकर।

परंतु ऐसी राजनीति की क्या कल्पना नहीं की जा सकती, जहाँ जीवन का अर्थ सिर्फ जिंदा रहना नहीं, लक्ष्य सिर्फ साम्राज्य नहीं, आधिपत्य नहीं, क्षमता नहीं, दूसरों का शोषण करके खुद की अभिवृद्धि नहीं और जहाँ गुलमोहर जैसे जीवन का स्थान नहीं है अखबार में।

सदानंद फिर से आकर प्रूफ बंडल के पास बैठ गया। परंतु संकरे कोने लिखने के लिए उसका मन विद्रोह कर उठता है? और उस विद्रोह की गेरुआ पताका उड़ाकर रखी है गुलमोहर ने।

सदानंद कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया। वह जैसे सम्मोहित होकर आफिस छोड़कर बाहर चला आया हो। बारिश बंद हो गई थी। सदानंद आकर गुलमोहर पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। नीचे हरे रंग के घास का बिस्तर, ऊपर हवा के झोंके आ रहे थे। गुलमोहर के फूलों की पंखुडियां इधर-उधर बिखर गई थी।

सदानंद के शरीर की सारी धमनियों में यौवन की चंचलता मानो छा गई हो। उसका मन हो रहा था पेड़ पर चढ़कर खूब सारे गुलमोहर के फूल तोड़ ले।

लेकिन वह साहस नहीं जुटा पा रहा था। सदानंद उम्र के इस पड़ाव में पेड़ पर चढ़कर गुलमोहर तोड़ रहा है- यह बात जो कोई भी सुनेगा, उपहास करने लगेगा। सदानंद ने चारों तरफ एक दृष्टि डाली। चारों तरफ आदमी ही आदमी दिखाई देने लगे थे. फिर चारों तरफ सिर्फ घृण्य कुत्सित अनगिनत दोपाए पशु ही पशु।

इधर रमेश आ रहा है। कुछ नई समस्या को बतलाने के लिए।

रमेश ने कहा- "प्रेस बंद है। और आप यहाँ घूम रहे हैं, कल कम्पोजर लोगों को कैसे वेतन मिलेगा? बताइए।"

सदानंद - "मालूम नहीं।"

रेमेश - "मतलब? "

सदानंद - "मैं नहीं जानता हूँ। तुम जाओ, रमेश। मुझे परेशान मत करो।"

रमेश वहाँ से चला गया था। कुछ समय के बाद सदानंद भी वापस भीतर आ गया था, चारों तरफ सिर्फ आदमी ही आदमी। पेड़ पर चढ़कर गुलमोहर के फूल तोड़ना इतना आसान नहीं था।

रात काफी हो चुकी थी। बादल छँट चुके थे। और कृष्ण पक्ष में आकाश में चन्द्रमा दिखाई देने लगा था। उस मद्धिम रोशनी की एक तिरछी किरण उसकी तमसा के चेहरे पर पड़ रही थी।

सदानंद की आँखों से नींद गायब थी। दोनों आँखों में जैसे गुलमोहर के फूल खिल रहे हों। कभी पास में सोई हुई तमसा के बालों में उसने गुलमोहर का एक फूल लगाया था? नहीं यह तमसा वह नई नवेली तमसा नहीं है जिसके बालों में गुलमोहर का उसने कभी फूल लगाया था। जाने-अनजाने आदमी मर जाता है। बाद में जो जिंदगी बची रहती है, वह सिर्फ एक गुलाम की जिंदगी। वह तमसा कबसे मर चुकी थी और सदानंद भी। सदानंद बिस्तर छोड़कर धीरे-धीरे घर से बाहर निकल पड़ा था। उस गुलमोहर पेड़ के पास।

सोई हुई धरती की सेज पर गुलमोहर का चँवर जैसे कोई हिला रहा था। सदानंद पेड़ के नीचे खड़ा हो गया और अपनी धोती को बाँध कर पेड़ पर चढ़ने लगा। परंतु उसे लग रहा था मानो उसका शरीर पंगु और अथर्व हो गया हो। पहले जैसी चंचलता उसके शरीर में नहीं थी फिर भी वह चढ़ने लगा। पीछे से अचानक किसी ने आवाज दी, "कौन है? " रात की ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल था। गले से पैर तक बरसाती पहने हुए तथा हाथ में लाठी, होठों पर सुलगी हुई बीड़ी थी। सदानंद पेड़ से उतर आया।

कांस्टेबल टॉर्च जलाकर सदानंद की तरफ देखने लगा। "अरे ! आप इतनी रात को? "

सदानंद पूरी तरह से संकुचित हो गया।

"नहीं, ऐसे ही। कुछ नहीं है।"

कांस्टेबल के कुछ और पूछने से पहले ही सदानंद तेजी से वहाँ से चला गया। उसे लगने लगा उसके लिए यह दुनिया खत्म हो गई है। सदानंद खुद भी मर गया है। गुलमोहर केवल अतीत जीवन की एक स्मृति बनकर रह गया है।