गुलामगीरी / भाग-12 / जोतीराव गोविंदराव फुले

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[इनामदार ब्राह्मण कुलकर्णी, यूरोपियन लोगों ने उपनिवेशों की आवश्यकता, शिक्षा विभाग के मुँह पर काला धब्बा, यूरोपियन कर्मचारियों का दिमाग कुंठाग्रस्त क्यों होता है, आदि के संबंध में]

धोंडीराव : तात, लेकिन आपने पहले कहा था कि ऐसा कोई विभाग नहीं है जिसमें ब्राह्मण न हो, फिर चाहे वह सरकारी विभाग हो या गैरसरकारी और इन सबमें मुखिया ब्राह्मण कौन है?

जोतीराव : ये सरकारी पटवारी (वतनदार) ब्राह्मण कुलकर्णी[26] हैं और इनकी जालसाजी के बारे में अधिकांश दयालु यूरोपियन कलेक्टरों को पूरी जानकारी है। इसलिए जब उसको अज्ञानी शूद्रों पर दया आई तो उन्होंने सरकार को रिपोर्ट के बाद रिपोर्ट भेज करके सभी कानूनों के द्वारा कुलकर्णियों के कदम-कदम पर बंधनों में बाँधने की कोशिश की। उनको कानूनों के माध्यम से नियंत्रित रख कर उनके अनियंत्रित व्यवहार को नियंत्रित किया गया। फिर भी इन कलम-कसाइयों का उनके मतलबी धर्म से शूद्रों के संबंध होने की वजह से शूद्रों पर प्रभाव था। इसलिए ये शैतान की तरह अपने स्वार्थी झूठे धर्म की छत्रछाया में खुले रूप में चौपाल में बैठ कर उस बलि राजा के विचारों की आलोचना करके बेचारें अनपढ़ शूद्रों के मन को क्या वे लोग दूषित नहीं करते होंगे? अगर ऐसा ना कहें, तो शूद्रों को तो बिलकुल ही न लिखना आता है और न पढ़ना, फिर वे किस वजह से या किस कारण सरकार से इतनी नफरत करने लगे हैं? इससे बारे में यदि तुम्हें कुछ अन्य कारण मालूम हो तो मुझे जरा समझ दो। इतना ही नहीं, तो वे लोग मौका देख कर उसी चौपाल में (चावड़ी) बैठ करके किसी गैरवाजबी सरकारी कानून को ले कर उस पर कई तरह के पैने कुतर्क नहीं देते होंगे? और शूद्रों को सरकार से नफरत करनी चाहिए, इसलिए उनको क्या चोरी-चोरी पाठ नहीं पढ़ाते होंगे? और उनका एक शब्द भी अपनी सजग सरकार के कान में डाल देने के लिए शूद्र लोग क्या कँपकँपाते [27] नहीं होंगे? चूँकि सभी ऊपरी दप्तरों के कर्मचारी ब्राह्मण जाति के हैं, इसलिए अब तो अपनी सरकार को सँभालना चाहिए। सबसे पहले हर एक गाँव में इनाम दे कर, उन्हें उपदेशकों का काम सौंप देना चाहिए, साथ में यह हिदायत भी कि वे उस उस गाँव की हकीकत के बारे में करीब-करीब साल में एक रिपोर्ट सरकार को भेजते रहें। यदि इसके अनुकूल कानून बनवा कर बंदोबस्त किया गया, तब आगे किसी समय नाना पेशवे जैसे ब्राह्मण को पुन: जब किसी पीर ने मिन्नत माँगी या उसने किसी शिवलिंग कि यात्रा करके उसके द्वारा रसीला भोजन खिलाने की बजाय चमत्कारिक ढंग से तैयार की गई रोटियाँ निश्चित समय पर गाँव-गाँव में एक साथ पहुँचा कर, वह प्रसाद अनपढ़ शूद्रों को खिला कर सरकार के विरुद्ध विद्रोह करवाने की बात सूझी तो इन पटवारी (वतनदार) कुलकर्णियों की एकता बिलकुल किसी काम नहीं आएगी। इस तरह किए बगैर सभी अनपढ़ शूद्रों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, उनके पाँव उस धरती पर नहीं टिके रहेंगे। इतना ही नहीं, जब वे यूरोपियन उपदेशक सभी शूद्रों को सही ज्ञान देंगे और इनकी आँखे खोल देंगे, तब ये लोग इन ग्रामराक्षसों के नजदीक भी खड़े नहीं रहेंगे। दूसरी बात यह है कि सरकार को अपने ग्राम कर्मचारी (नौकर), पटेल (चौधरी) से ले कर कुलकर्णियों तक के काम की परीक्षा लेनी चाहिए और इस तरह के महत्वपूर्ण कामों को एक ही जाति या विशिष्ट जाति के लोगों के हाथ नहीं सौंपना चाहिए। इसका परिणाम यह होगा कि फौज की तरह इस काम में कुछ विशेष अधिकार की बात पैदा नहीं होगी; बल्कि उसका पूरी तरह से बंदोबस्त हो जाएगा और सभी लोगों को पढ़ने-लिखने की इच्छा अपने-आप पैदा होगी। यदि आवश्यकता हो तो सारी हमारी दयालु सरकार को चाहिए कि शिक्षा विभाग का फिजूल खर्च एकदम बंद कर दे और यह सारा पैसा कलेक्टर के खाते में जमा कर देना चाहिए। फिर एक यूरोपियन कलेक्टर की ओर से, जॉरविस साहब की तरह किसी भी प्रकार का पक्षपात न करते हुए, सभी जाति के होशियार छात्रों में से कुछ छात्रों का चुनाव करके, उनको केवल रूखा-सूखा खाना और छोटे-मोटे कपड़ों की व्यवस्था करके, उनके लिए हर कलेक्टर साहब के बंगले के करीब पाठशाला चालानी चाहिए और उन छात्रों को पटेल, कुलकर्णी तथा पंतोजी' (पटवारी, पुलिस, पटेल, ग्रामसेवक आदि) के नाम की ट्रेनिंग दे कर, फिर परीक्षा ले कर, इस तरह के काम सौंप देने चाहिए। इसका परिणाम यह होगा कि ये लोग सभी (ब्राह्मण) कुलकर्णियों की एकता के लिए बदनाम नाना पेशवे जैसे ब्राह्मणों के काम नहीं आएँगे, बल्कि जो लोग अज्ञानी शूद्रों को फँसा करके उनके खेत (वतन) हड़पते होंगे और उन लोगों से हर तरह के झगड़े फसाद करवाते होंगे, उनको वैसा करने के लिए वक्त ही नहीं मिलेगा। आज तक लाखों रुपया शिक्षा विभाग के माध्यम से खर्च हुआ है, फिर भी उससे शूद्र समाज की संख्या की तुलना में उनमें विद्वानों की संख्या नहीं बढ़ सकी। इतना ही नहीं, महार, मातंग और चमार आदि जातियों में से एक भी पढ़ा लिखा कर्मचारी नहीं दिखाई दे रहा है। फिर यहाँ एम.ए. या बी.ए. पढ़े लिखे लोग दवा के लिए भी नहीं मिलेंगे। अरे-रे! अपनी इस सरकार के इतने विशाल शिक्षा विभाग के गोरे चेहरे पर इन काले मुँहवाले ब्राह्मण पंडितों ने यह कितना बड़ा काला दाग लगाया है? अरे, यह कड़वे करेले हमारी सरकार ने इतने घी में तल कर, शक्कर में घोल कर पकाए, फिर भी उन्होंने अपने जाति, स्वभाव छोड़ा नहीं और अंत में वे कड़वे करेले की तरह कड़वे ही रहे।

धोंडीराव : तात, आपका कहना सही है। लेकिन ये कुलकर्णी अनपढ़ शूद्रों की भूमि (वतन) को किस प्रकार का फाँसा डाल कर हड़पते होंगे?

जोतीराव : जिन शूद्रों को पढ़ना लिखना बिलकुल ही नहीं आता, ऐसे अनपढ़ शूद्रों को ये कुलकर्णी खोजते रहते हैं और फिर स्वयं उनके साहूकार हो कर वे उनसे जब गिरवी खाता लिखवा लेते हैं, उस समय वे अपनी जाति के अर्जनवीस से मेल-मिलाप करके उनमें एक तरह की शर्तें लिखवा लेते है जो उन शूद्र किसानों के खिलाफ हों और इस कुलकर्णी साहूकार के फायदे की हों। फिर जो शर्तें लिखी जाती हैं, उनको न पढ़ने हुए गलती-सलती बातें पढ़ कर सुनाई जाती हैं। फिर उस कागज पर उनके हाथ के अगूंठे के निशान लगा कर अपना वही खाता पूरा कर लेते हैं। फिर कुछ दिनों के बाद जालसाजी से उन शूद्रों की जमीन-जायजाद लिखी गई शर्तों के अनुसार हड़पते होंगे कि नहीं?

धोंडीराव : तात, आपका कहना बिलकुल सही है। ये लोग जाति से ही कलम-कसाई हैं। लेकिन ये लोग अनपढ़ शूद्रों में किस प्रकार के झगड़े पैदा करते होंगे?

जोतीराव : खेती-बाड़ी, जमीन-जायदाद आदि के संबंध में, सन-त्योहार, पोला आदि में और होली के दिन होली के बाँस को पहले पूरी आदि कौन बाँधेगा, इस संबंध में शूद्रों के आपस में जो झगड़े-फसाद होते हैं, इनमें ब्राह्मण कुलकर्णियों का हाथ नहीं होता हैं, वे लोग इन झगड़े-फसादों को करवाने में जिम्मेदार नहीं होते, इस तरह के कुछ उदाहरण तुम वास्तव में दिखा पाओगे?

धोंडीराव : तात, आपकी बात से मैं इनकार नहीं कर सकता, लेकिन शूद्रों के आपस में इस तरह के झगड़े-फसाद करवाने में इन ब्राह्मण कुलकर्णी आदि कलम-कसाइयों को क्या मिलता होगा?

जोतीराव : अरे, जब कई घरंदाज अनपढ़ शूद्रों के घराने मन-ही-मन द्वेष की अग्नि में जल कर आपस में एक दूसरे से लड़ते होंगे, तब अंदर ही अंदर से इन कलम-कसाइयों सहित अन्य ब्राह्मणों कर्मचारियों के घर इस आग में तपते-तपते जल कर क्या नष्ट नहीं हुए होंगे? अरे, इन कलम-कसाइयों के नारदशाही की वजह से स्थानीय (मुल्की) फौजदारी और दिवाणी विभाग (खाता) का खर्च बेहद बढ़ गया है और वहाँ के अधिकांश कर्मचारी, मामलेदार से ले कर ग्रामसेवक तक, सभी अपने 'तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमाहि धियो यो न: प्रचोदयात' इस असली गायंत्री मंत्र से बेईमानी करते हैं। इसके संबंध में 'चिरी मिरी देव, चिरी मिरी देव' इस यवनी (विदेशी) गायत्री का उपदेश उन पवित्र पुरोहितों के अपनाने की वजह से ब्राह्मण वकीलों की दलाली काफी बढ़ गयी है। फिर यह बताओ कि कि वे बड़ी-बड़ी कोर्ट-कचहरियों में बैठ कर जोर-जोर से हँसी के फव्वारे छोड़ते हुए घूमते है कि नहीं? इसके अलावा मुंसिफ नवाब के सरंजाम कितने बड़े हैं, इसका हिसाब दो। इतना बंदोबस्त होने के बावजूद भी गरीब लोगों को न्याय सस्ता और आसानी से मिलता भी या नहीं? इसी वजह से गाँव-खेड़ों के सभी लोगों को मिला कर एक कहावत प्रसिद्ध हुई है। वह कहावत यह है कि 'सरकारी विभागों से अपना काम करवाना हो तो काम करनेवाले ब्राह्मणों कर्मचारियों के हाथ में अमुक-तमुक दिए बगैर वे हम जैसे गरीबों के काम हाथ ही नहीं लगाते। उनकी झोली में डालने के लिए घर से कुछ न कुछ साथ में ले लो, तब कहीं काम के लिए बाहर निकलो।'

धोंडीराव : तात, यदि ऐसा ही होता हो, तब तो गाँव-खेड़ों के तमाम शूद्र लोगों को यूरोपियन कलेक्टरों से अकेले में मिल कर उनको अपनी शिकायतें क्यों नहीं बतानी चाहिए?

जोतीराव : अरे, जिनको बेर की गांड़ किधर होती है, यह मालूम नहीं, ऐसे डरपोक खिलौनों को ऐसे महान कर्मचारियों के सामने खड़े होने की हिम्मत कैसे होगी? और ये लोग अपनी शिकायत सही ढंग से उनके सामने क्या बता पाएँगे? ऐसी हालत में किसी लँगोट बहादुर ने बड़ी हिम्मत से, किसी बुटलेर की मदद से, यूरोपियन कलेक्टर से अकेले में मिल कर और उनके सामने खड़े हो कर यह कहे कि 'ब्राह्मण कर्मचारियों के सामने हमारी कोई सुनवाई नहीं होतीं', तब इतने चार शब्द कहने की इन कलम-कसाइयों को भनक भी लग गई तो समझ लो, हो गया इसका काम तमाम। फिर उस अभागे आदमी के नसीब ही फूट गए, समझ लेना चाहिए, क्योंकि वे लोग कलेक्टर, कचहरी के अपनी जाति के ब्राह्मण कर्मचारी (बाबू) से ले कर रेव्हेन्यू के या जज के ब्राह्मण कर्मचारी तक सभी के सभी अंदर ही अंदर उस यवनी गायत्री की वरदी घुमा देते हैं, फिर आधे कलम-कसाई तुरंत हर तरह के दस्तावेजों के साथ पुरावे ले कर वादी के (साक्षीदार) गवाहदार बन जाते हैं। ये लोग उनके झगड़े में इतनी उलझन पैदा कर देते हैं कि उसमें सत्य क्या है, यह पहचान पाना भी मुश्किल हो जाता है। इस सत्य-असत्य को खोज निकालने के लिए बड़े-बड़े विद्वान यूरोपियन कलेक्टर और जज लोग अपनी सारी अक्ल खर्च कर देते हैं, फिर भी उनको छिपे हुए रहस्य का कुछ भी पता नहीं चलता, और न ही कुछ हाथ लगता है; बल्कि वे उस शिकायत करनेवाले लँगोटीधारी को यह कहने में लज्जा का अनुभव नहीं करते कि 'तू ही बड़ा शरारती है'। और अंत में उसके हाथ में नारियल कि खाली टोकरी दे कर उसको फजीहत होने के लिए घर पर भेज देते होंगे कि नहीं? अंत में ब्राह्मण कर्मचारियों की इसी प्रकार की प्रवृत्ति की वजह से कई गरीब किसान शूद्रों के मन में यह बात आती होगी कि यहाँ हमारे किसी शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं है। इनमें से कई लोगों ने डाकू और लुटेरों का जीवन अपनाया होगा और अपनी ही जान को तबाह किया होगा कि नहीं? इनमें से कइयों के दिलो दिमाग में असंतोष की भावना भड़क उठी होगी और फिर वे पागलपन के शिकार बन गए होंगे कि नहीं? और इनमें से कइयों ने अपनी दाढ़ी-मूँछे बढ़ाई होंगी और अधपगले हो कर रास्ते में जो भी कोई मिल जाए उसको अपनी शिकायत सुनाते कहते फिरते होंगे कि नहीं?