गुलामगीरी / भाग-13 / जोतीराव गोविंदराव फुले

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[तहसीलदार, कलेक्टर, रेव्हेन्यू, जज और इंजीनियरिंग विभाग के ब्राह्मण कर्मचारी आदि के संबंध में]

धोंडीराव : तात, इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण लोग मामलेदार आदि होने की वजह से अनपढ़, अज्ञानी शूद्रों को नुकसान पहुँचाते हैं?

जोतीराव : आज तक जो भी ब्राह्मण मामलेदार हुए हैं, उनमें से कई मामलेदार अपने बुरे करतूतों की वजह से सरकार की नजर में अपराधी सिद्ध हुए हैं और सजा पाने के काबिल हुए हैं। वे ब्राह्मण मामलेदार काम करते समय इतनी दुष्टता से बर्ताव करते थे और गरीब लोगों पर इतना अमानवी जुल्म ढाते थे कि उन दास्तानों का एक ग्रंथ लिखा जा सकता है। अरे, इस पूना जैसे शहर में ब्राह्मण मामलेदार कुलकर्णी से लिखवा कर लाई हुई लायकी दिखाए बगैर बड़े-बड़े साहूकारों की भी जमानत स्वीकार नहीं करते। फिर लोग लायकी का प्रमाणपत्र देते समय चक्कर चलाते होंगे कि नहीं? उसी प्रकार इस शहर की म्युनिसिपालिटी किसी मकान मालिक को उसके पुराने मकान की जगह पर नया मकान बनाने की तब तक अनुमति नहीं देती जब तक ब्राह्मण मामलेदार द्वारा उस नगर के कुलकर्णी का अभिप्राय समझ नहीं लिया जाता। अरे, उस कुलकर्णी से पास उस नगर का नक्शा होने के बावजूद नई खरीदी करनेवालों के नाम मिला करके हर साल उसकी एक नकल मामलेदार के दप्तर में लिखवा कर रखने का कोई रिवाज ही नहीं है और न कोई कारण भी। फिर उस जगह के संबंध में कुलकर्णी का अभिप्राय आवश्यक और सच है, यह कैसे मानना चाहिए? इन तमाम बातों से इस तरह की शंका पैदा होती है कि ब्राह्मण मामलेदारों ने अपनी जाति के कलम-कसाइयों का हित साधने के लिए इस व्यवस्था को बरकरार रखा होगा। इससे तुम ही सोच करके देखो कि जहाँ यूरोपियन लोगों की बस्तियों के करीब पूना जैसे शहर में ब्राह्मण मामलेदार इस प्रकार की बेपरवाही से अपनी जाति के कलम-कसाइयों की रोटी पकाते हैं, तब गाँव-खेड़ों में उनका जबर्दस्त जुल्म रहता होगा? यदि इस बात को हम लोग सच न माने तब ये जो अधिकांश देहातों के अज्ञा नी, अनपढ़ शूद्रों के समूह अपने बगल में अपने कपड़े-लत्ते दबा कर ब्राह्मण कर्मचारियों के नाम से चिल्लाते हुए घूमते दिखाई देते हैं, क्या यह सब झूठ है? इन्हीं लोगों में से कुछ लोग कहते हैं कि 'ब्राह्मण कुलकर्णी की वजह से ही ब्राह्मण मामलेदारों ने मेरा अर्ज समय पर स्वीकार नहीं किया। इसीलिए प्रतिवादी ने मेरे पक्ष के सभी गवाह बदल दिए और मेरी ही जमानत करवाई गई।' कुछ लोग कहते हैं कि 'ब्राह्मण मामलेदार ने मेरी अर्जी ले ली और कुछ समय के लिए उसने मेरी अर्जी दूसरे दिन ले कर मेरे चल रहे काम से मुझे उजाड़ दिया। और इस तरह उसने मुझे भिखारी बना दिया।' कोई कहता है कि 'ब्राह्मण मामलेदार ने, मैं जैसा बोल रहा था, उस प्रकार से लिखा ही नहीं और बाद में उसी जबानी से मेरे सारे झगड़े को इस तरह खाना खराब कर दिया कि अब मैं पागल होने की स्थिति में पहुँच गया हूँ।' कोई कहता है कि 'मेरे प्रतिवादी ने ब्राह्मण मामलेदार की सलाह पर मेरे अच्छी तरह चल रहे काम को बंद करवा दिया और उसके मेरे खेत में अपना हल जोतने का काम शुरु करते ही मैं केवल उसके हाथ में अपनी अर्जी दे दी और तुरंत चार-पाँच कदम पीछे हट गया। मैं उसके सामने अपने दोनों हाथ जोड़ कर बड़े ही दीन सुखी भाव में काँपते हुए खड़ा रहा। फिर कुछ ही देर में उस दुष्ट ने मेरी ओर ऊपर-नीचे देख कर झट से उस अर्जी को मेरी ओर फेंक दिया यह कारण दिखा कर कि मैंने कोर्ट का अपमान किया है, उसने मुझे ही दंडित किया। लेकिन उस दंड राशि को देने की मेरी क्षमता नहीं होने की वजह से मुझे कुछ दिन के लिए जेल में बंद रहना पड़ा। इधर प्रतिवादी ने बोने के लिए तैयार किए हुए मेरे खेत में अपना अनाज बो दिया और उस खेत को अपने अधिकार में ले लिया, जिसकी वजह से मैंने बाद में कलेक्टर साहब को दो तीन अर्जियाँ दीं और उनको हर बात से सूचित किया, लेकिन सभी अर्जियाँ वहाँ के ब्राह्मण क्लर्क ने कहाँ दबा करके रख दी कि कुछ पता ही नहीं चल रहा है। अब इसका क्या किया जा सकता है?' कोई कहता है कि 'ब्राह्मण क्लर्क ने मेरी अर्जी कलेक्टर को पढ़ कर दिखाते समय वहाँ की मुख्य बातों को हटा करके, ब्राह्मण मामलेदार द्वारा दी गई अर्जी निकाल कर वहाँ जस का तस रखवा दिया।' कोई कहता है कि 'मेरी अर्जी के आधार पर कलेक्टर ने मौखिक रुप में जो बातें लिखने के लिए उस ब्राह्मण क्लर्क को कहा था, उसने कलेक्टर के बताए आदेश के विरुद्ध आर्डर लिखा। लेकिन उस आर्डर को कलेक्टर के सामने पढ़ते समय उसने कलेक्टर के बताए अनुसार ही बराबर पढ़ कर सुना दिया और फिर उस निकालपत्र पर उसके हस्ताक्षर ले कर, वह निकालपत्र जब मुझे मामलेदार के द्बारा प्राप्त हुआ, तब उस पत्र को देख कर मैं अपने माथे को पीटता ही रह गया और मैंने मन-ही-मन में कहा कि हे ब्राह्मण कर्मचारी,तुम लोग अपना लक्ष्य पूरा किए बगैर चुप नहीं रह सकते।' कोई कहता है कि 'जब मेरी कलेक्टर साहब के पास कुछ भी सुनवाई नहीं हुई, तब मैंने रेव्हेन्यू साहब को दो-तीन अर्जियाँ भेज दीं। लेकिन मेरी वे सभी अर्जियाँ वहाँ के ब्राह्मण क्लर्क लोगों ने कोशिश करके फिर उस साहब कि ओर से पुन: कलेक्टर के ही अभिप्राय के लिए लौटा दीं। बाद में कलेक्टर के ब्राह्मण कर्मचारियों ने मेरी सभी कागजात घुमा-फिरा कर कलेक्टर साहब को पढ़ कर सुना दिए और यह कह कर कि मैं बड़ा शिकायतखोर आदमी हूँ, उन्होंने मेरी अर्जी के पिछले पन्ने पर उस कलेक्टर से अभिप्राय लिखवा कर रेव्हेन्यू साहब को गलत जानकारी दी। अब तुम ही बताओ, ऐसे करनेवालों के साथ क्या करना चाहिए?' कोई कहता है कि 'मेरा केस शुरु होते ही, अर्टनी द्वारा बीच में ही मुँह मारने की वजह से जज साहब कहने लगे, 'चुप रहो बीच में मत बोलो'। बाद में उन्होंने स्वयं ही मेरे सभी कागजात पढ़ लिए। लेकिन कागजातों को वह बेचारे क्या करेंगे? क्योंकि पहले कि कलेक्टर कचहरी के सभी ब्राह्मण कर्मचारियों ने कुलकर्णियों की सूचना के अनुसार मेरे पूरे केस का स्वरुप ही बदल दिया था।' कोई कहता है कि 'आज तक सभी ब्राह्मण कर्मचारियों के देवपूजा के कमरे के मंत्रोच्चारों के अनुसार उनके घर भरते-भरते हमारे घर उजड़ गए, हम बर्बाद हो गए। हमारे खेत नीलाम किए गए। हमारी जमीन-जायजाद चली गई। हमारा अनाज गया, हमारा अनाज से भरा बारदाना लूट गया। हमारे घर की हर चीज लूट ली गई और हमारे बीवी-बच्चों के बदन पर सोने का फुटा भी नहीं बचा। अंत में हम सब लोग भूख और प्यास से मरने लगे। तब मेरे छोटे भाइयों ने मिट्टी-गाड़े का काम खोजा और हम सभी सड़क के काम पर जा कर हाजिरी देते थे। बाद में किसी घटिया मराठी अखबार में अंग्रेज सरकार या उसके धर्म की यदि आलोचना, नुक्ताचीनी की गई हो, तो उसका मतलब जाते-जाते हम अज्ञानी, अनपढ़ शूद्र मजदूरों को समझाया करते और बाद में अपने घर लौट जाते थे। और सरकार भी ऐसे घटिया लोगों कि मेहनत करनेवाले मजदूरों से भी ज्यादा, डबल तनख्याह देती है, फिर भी मजदूर ने तनख्याह (मजदूरी) लेने के बाद उस ब्राह्मण कर्मचारी के हाथ पर कुछ रुपया-पैसा रख दिया, तब तो कोई बात नहीं, यदि उसने उसके हाथ पर कुछ भी रुपया पैसा न छोड़ा तो उसकी खैर नहीं। वह ब्राह्मण कर्मचारी दूसरे दिन से ही अपने से बड़े साहब को उस मजदूर के बारे में गलत-सलत बातें बता करके उस मजदूर के नाँगे लगाए जाते हैं। इतना ही नहीं, कोई ब्राह्मण कर्मचारी उस मजदूर से कहता है कि, तू सरकारी काम करने के बाद पत्रालियों के लिए बड़े और पलस के पान या पान की डालियाँ शाम को घर लौटते समय ला कर मेरे घर पर डाल देना । कोई ब्राह्मण कर्मचारी कहता है कि आम डालियाँ शाम को मेरे घर डाल देना। कोई कहता है कि मुझे पत्ते ला कर देना। कोई कहता है कि आज रात को मैं गाँव में उस लेन−देन करनेवाली विधवा के घर में नाश्ता-पानी करने के लिए जानेवाला हूँ। इसलिए, तू खाना खा कर मेरे निवास पर आ कर मेरे परिवार के साथ सारी रात रह कर, वहीं सो जाना; लेकिन दूसरे दिन काम पर जाने के लिए भूलना नहीं; क्योंकि कल शाम को ही बड़े इंजीनियर साहब यहाँ अपना काम देखने के लिए आनेवाले हैं, इस प्रकार का इत्तिला राव साहब ने लिख कर भेजा है।' इस तरह से ब्राह्मणों द्वारा अंदर-ही-अंदर जो परेशनियाँ भोगनी पड़ती हैं, उससे बारे में मुझे मेरे भाई मेरे घर आ कर बताते रहते हैं और आँखों में आँसू बहाते रहते हैं।

वे कहते है कि 'तात, हम क्या करें! ये सभी ब्राह्मण अठारह जाति के गुरु हैं। ये लोग अपने-आपको सभी वर्णों के गुरु समझते हैं। इसलिए ये जैसा भी बर्ताव करें, हम शूद्रों को उनको एक भी शब्द नहीं कहना चाहिए। शूद्रों को उनकी नुक्ताचीनी नहीं करनी चाहिए। यह अधिकार उनको नहीं है, यही उनके धर्मशास्त्रों का कहना है। धर्मशास्त्र कुछ भी कहे, लेकिन हमारे पास इस मर्ज का कोई इलाज नहीं है। यदि मैं अंग्रेजी बोलना सीख गया होता तो मैं ब्राह्मणों से सभी कारनामें, करतूतें, लफ्फाजी ठगी आदि सभी बातें अंग्रेज साहब के लोगों को बोल दिया होता और उनके द्वारा इन लोगों को मजा चखाया होता।'

इसके अलावा इंजीनियर विभाग के सभी ब्राह्मण कर्मचारियों की लुच्चागीरी के बारे में ठेकेदार लोग इतना कुछ बताते है कि उस पर एक स्वतंत्र किताब लिखी जा सकती है। इसलिए इस बात को मैं यहीं समाप्त कर देता हूँ।

तात्पर्य, ऊपर लिखी गई तमाम दलीलों में जो भी आपको सच लगे, उसके बारे में गंभीर रुप से सोचना चाहिए और उसका पूरी तरह से बंदोबस्त भी करना चाहिए तथा उन तमाम कुरीतियों को जड़-मूल से, सामाजिक जीवन से समाप्त कर देना चाहिए, यही हमारी सरकार का धर्म है।