गुलामगीरी / भाग-15 / जोतीराव गोविंदराव फुले

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

[सरकारी शिक्षा विभाग, म्युनिसिपालिटी, दक्षणा प्राइज कमिटी और ब्राह्मण अखबार वालों की एकता तथा शूद्रों−अछुतों के बच्चों को लिखना−पढ़ना नहीं सीखना चाहिए, इसलिए ब्राह्मणों द्वारा रचाए गए षड्यंत्र आदि के संबंध में।]

धोंडीराव : सरकारी बुनियादी शिक्षा विभाग के ब्राह्मण कर्मचारी गुलाबी बेईमानी करते हैं, इसका क्या मतलब है?

जोतीराव : फिलहाल जिस किताब की वजह से ब्राह्मणों के सभी ग्रंथों में, शास्त्रों में, साहित्य में जो बेईमानीपूर्ण बातें लिखी गई हैं, उसका रहस्य खुल जाएगा और उनके पूर्वजों का भंडाफोड़ होगा; उनकी बेइज्जती होगी, इस बात से वे लोग भयग्रस्त हो गए हैं। उन्होंने अपनी भोली−भाली सरकार से कभी−कभी अकेले में मिल कर और कभी−कभी अखबारों के द्वारा तरह−तरह की गुलाबी, रंगीन मसलनें दे कर उनके अधिकार में जितनी सरकारी पाठशालाएँ हैं, उन सभी में सरकारी बुनियादी शिक्षा विभाग से उस तरह की महत्वपूर्ण किताब को पाठ्यक्रम के निकाल बाहर किया, तब हम क्या कहें? पहले के जमाने में किन्हीं अज्ञानी अधिकारियों ने चार धर्मभ्रष्ट, पाखंडी पुरोहितों के आग्रह के खातिर उस तरह का उपदेश देनेवाले उपदेशक को सूली पर चढ़ा दिया था, इसलिए ब्राह्मण−पंडा−पुरोहितों की, बलि धर्मशास्त्रों की पोल खोलनेवाली किताब को स्कूलों के पाठ्यक्रम से बहिष्कृत करा दिया, तब हमें भी क्यों आश्वर्य लगना चाहिए?

धोंडीराव : तात, लेकिन इसमें सरकार का क्या दोष है, इसके बारे में जरा समझाए।

जोतीराव : इस बात को हम कैसे माने कि इसमें सरकार का कुछ भी दोष नहीं है? सरकार ने जिन तथाकथित प्रगतिशील ब्राह्मणों की दलील पर उस तरह के सत्य को कहनेवाली किताब को स्कूलों के पाठ्यक्रम से निकाल बाहर किया, उस किताब का विरोध करनेवाले लोगों द्वारा तैयार की हुई किताबें सरकारी शिक्षा विभाग के द्वारा स्कूलों के अभ्यासक्रमों में लगवा कर, फिर उन्हीं लोगों को ही शूद्रों के स्कूलों में शिक्षक के रूप में नियुक्त करना, क्या यह उचित है? चूँकि इसके बारे में सोच−विचार करने के बाद यह सिद्ध होता है कि कल तक उस किताब को जिन प्रतिवादियों ने सरकारी शिक्षा विभाग से बहिष्कृत करवाई, उन्हीं लोगों को ही सभी सरकारी स्कूलों में शिक्षक के रुप में नियुक्त करके उनको उस पवित्र किताब के विरुद्ध शूद्रों के मुँह से उपदेश देने का अवसर क्यों दे रही है? इसलिए हमारी भोली−भाली सरकार के लिए उस पवित्र सरकारी शिक्षा विभाग के उन सभी प्रतिभागियों को उनकी किताबों के साथ निकाल बाहर करना संभव न हो तो हमारी सरकार को कृपया सभी शिक्षा विभाग एक साथ बंद कर देना चाहिए। जिससे ये लोग अपने-अपने घरों में जा कर आराम से बैठ जाएँगे और कम−से −कम यह होगा कि हम शूद्रों पर जो करों का बोझ लदता जाता है, वह कम हो जाएगा। क्योंकि शिक्षा विभाग के एक प्रमुख ब्राह्मण कर्मचारी को हर साल कम−से−कम सात हजार रुपया तनख्याह देनी पड़ती है। अब सुलतानी रही नहीं; किंतु असमानी मेहर हुई तब बताइए कि इतनी रकम तैयार करने के लिए शूद्रोंके कितने परिवरों को एक साल तक दिन-रात खेती में जुते रहना पड़ता होगा? कम-से-कम एक हजार शूद्र परिवार इसमें जुतते ही होंगे!

दूसरी बात, इस मुआवजे के प्रमाण में इस बृहस्पति (ब्राह्मण) से शूद्रों को सही में कुछ लाभ भी होता है? अरे, हर दिन चार पैसा कमानेवाले शूद्र मजदूरों को लहलहाती धूप में सूरज के निकलने के समय से ले कर सूरज के डूबने तक सड़क पर मिट्टी को टोकरियाँ सिर पर ढोनी पड़ती हैं। उस बेचारे को कही बाहर जाने के लिए एक पल की भी फुरसत नहीं मिलती और दूसरी ओर बिना काम किए, बगैर शारीरिक श्रम के हर दिन बीस रुपए मिलनेवाले ब्राह्मण कर्मचारियों को स्कूलों मे खुली जगह पर कुर्सीं में बैठने का काम करना पड़ता है। वे लोग म्युनिसिपालिटी के मेहमान बन कर हर दिन सुबह और शाम को धूप, गरमी का माहौल समाप्त हो जाने के बाद बाहर घूमने के लिए निकल पड़ते हैं। उनके बाहर घूमने के लिए निकलने का उद्देश्य उन्हें अपने सभी परिचितों से मेल-मिलाप के लिए जाना होता है। इसलिए वे लोग सज-धज के, बड़े नखरे में घोड़े की गाड़ी में सवार हो कर शहर के रास्तों पर लोगों की दहलीज−खलिहान देखते हुए अपनी अकड़ दिखाते रहते हैं। लेकिन उनको यह सब अकड़ दिखाने के लिए फुरसत कहाँ से मिल जाती है? अरे, उन्होंने शहर के लोगों को अभी तक यह नही बताया कि शिक्षा से क्या−क्या लाभ होते हैं; लेकिन घूमने में बड़ा मजा आता है, बड़ा गौरव लगता है। लेकिन फिर भी मिशनरियों का हर माह दस रुपए माहवार पानेवाला उपदेशक इन ब्राह्मण−पंडित−पुरोहितों से हजार गुना अच्छा है। ये लोग उस मिशनरी उपदेशक के पाँव की धूल की भी बराबरी करने योग्य नहीं हैं; क्योंकि जिस शहर में वह (ख्रिस्ती) मिशनरी उपदेशक रहता है, उस शहर के सभी छोटे-बड़े को यह मालूम रहता है कि वह एक धर्मोपदेशक है।किंतु यह ब्राह्मण शिक्षक जिस मकान में रहता है, उस मकान के नीचे के मकान में रहनेवाले किराएदार को भी मालूम नहीं रहता है कि कौन तिस्मारखाँ है। अरे, ब्राह्मण शिक्षक अपने ऊपरवाले यूरोपियन कर्मचारी के पास हर दिन इधर−उधर की चार गप्पें लगा कर, मन चाहे तब घंटा−दो−घंटा स्कूल में बच्चों को पढ़ा कर, उनको साल में दो−चार लिखित रिपोर्ट कर देता है। मतलब, उसका काम हो गया। और ऐसे लोगों को ही चार पढ़े लिखे लोग ईनामदार नौकर और देशभक्त कहते हैं। अरे, इन बिकाऊ ब्राह्मण नौकरों ने आज तक शिक्षा विभाग के लाखों रुपए खा लिए हैं। लेकिन सच कहता हूँ, उनके हाथ से न तो किसी अछूत को शिक्षा मिली और न शूद्रों को। उन्होंने उनमें से किसी एक को भी आज तक म्युनिसिपालिटी का सदस्य नहीं बनाया। इससे अब तुम ही सोचो कि इस शिक्षा विभाग में जितने ब्राह्मण कर्मचारी हैं, वे सभी वफादार नौकर अपने देश के अज्ञानी अछूतों के प्रति कितनी हमदर्दी दिखातें हैं। इतना ही नही, ये देशभक्त, म्युनिसिपालिटी में मुख्य अधिकारी होने पर भी, पिछले साल के पानी के अकाल में अछूतों को पीने के लिए सरकारी बावली का पानी भरने में कोई मदद नहीं की। इसलिए अछूतों का म्युनिसिपालिटी में सदस्य होना कितना आवश्यक है, इसके में अब तुम्हीं सोच सकते हो।

धोंडीराव : तात, आपका कहना एकदम सच। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। किंतु मैंने सुना है कि म्युनिसिपालिटी में फिलहाल शूद्रों में से कई सदस्य इतने विद्वान हैं कि वे अपना मत देते समय 'अरे गोविंदा'[30] कहलानेवाले यंत्र की तरह अपनी गरदन हिला कर उनकी हाँ में हाँ मिला देते हैं, क्योंकि वहाँ खुद के हस्ताक्षर करनेवालों की ही पहले कमी, फिर वहाँ शेष सभी इने−गिने पूज्य कहे जानेवाले लोग रहे। फिर शूद्र सदस्यों की कमिटी में कुरसी पर बैठ कर अपनी गरदन हिला कर हस्ताक्षर करने योग्य कुछ लोग क्या अछूतों में मिल जाएँगे?

जोतीराव : ऐसे शूद्र सदस्यों से भी कई गुना अच्छी तरह लिखने−बोलनेवाले कई अछूत लोग मिलेंगे। लेकिन ब्राह्मणों के स्वार्थी, नकली, पाखंडी धर्मग्रंथों, धर्मशास्त्रों की वजह से सभी अछूतों को छूना पाप समझा गया। इसकी वजह से स्वाभाविक रूप ने उन विचारों को शूद्र सदस्यों की तरह सभी लोगों में मिल−जुल कर अमीर होने की सुविधा कहाँ उपलब्ध हो सकती है! उनको आज भी गधों पर बोझ लाद कर अपना, अपने परिवार का पेट पालना पड़ रहा है।

धोंडीराव : तात, सभी जातियों का अलग−अलग संख्या प्रमाण देखने से म्युनिसिपालिटी में विशेष रूप से किस जाति के सदस्यों की संख्या ज्यादा दिखाई देती है?

जोतीराव : ब्राह्मण जाति की।

धोंडीराव : तात, इसीलिए इस म्युनिसिपालिटी में बेगरियों और भांगियों को छोड़ कर ब्राह्मण कर्मचारियों की ही संख्या ज्यादा है। इनमें से कुछ जलप्रदाय विभाग में काम करनेवाले ब्राह्मण कर्मचारी थे। वे भयंकर गरमी के दिनों में अपनी जाति के ब्राह्मणों के घरों के टंकियों में (हौद) मनचाहे पानी भरते थे और उस पानी का उपयोग वहाँ से इर्द−गिर्द के सभी पड़ोंसी ब्राह्मणों के धोती−कपड़े बर्तन आदि धोने के लिए होता था और ढेर सारा पानी व्यर्थ में ही बहता था। लेकिन जहाँ−जहाँ गरीबों की बस्तियाँ हैं जिन-जिन मोहल्लोंमें गरीब शूद्रों की बस्तियाँ हैं, उन सभी मौहल्लों की टंकियों में (हौद) दोहपर के बाद भी पानी की बूँद नहीं गिरती थी। दोहपर में राह चलते राहगीर को अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी वहाँ मिलना भी दरकिनार। फिर वहाँ के लोगों को कपड़ा−लत्त्ता धोने के लिए, बाल− बच्चों सहित नहाने के लिए पानी कहाँ मिलेगा? इसके अलावा ब्राह्मणों की बस्तियों में नई टांकियाँ कितनी गई हैं! उधर जूनागंज पेठ [31] (मंडी) आदि मोहल्लों के लोगों ने कई सालों से माँग कर रहे थे कि उनके मोहल्ले में पानी की टंकी बनवाई जाए, लेकिन म्युनिसिपालिटी ने उनकी बात पर, उनके चिल्लाने पर कोई ध्यान नहीं दिया। यहाँ ब्राह्मण सदस्यों की संख्या ज्यादा होने की वजह से उन बेचारे गरीबों की कई वर्षों तक कुछ सुनवाई ही नहीं हुई। लेकिन अंत में, मतलब, पिछले साल जब पानी का अकाल पड़ा, तब मीठगंज के महार−मातंगों ने काले हौद को छू कर वहाँ से पानी भरना शुरु कर दिया। तब कहीं उस म्युनिसिपालिटी को होश आया और उसने इन लोगों की सुधि ली। इस म्युनिसिपालिटी ने इतना बेलगामी खर्च उस काम पर किया कि वह उस म्युनिसिपालिटी के मुखिया की समझबूझ को और उसके हालात को शोभा ही नहीं देता। छोड़िए इन बातों को, लेकिन म्युनिसिपालिटी में इतनी बेबंदशाही होने पर भी उसके बारे में मराठी अखबारों के पत्रकार सरकार को क्यों आगाह नहीं कर रहे हैं?।

जोतीराव : अरे, सभी मराठी अखबारों के संपादक ब्राह्मण होने की वजह से उनको अपनी जाति के लोगों के विरूद्ध लिखने के लिए हाथ नहीं चल रहा है। जब यूरोपियन मुखिया था, उस समय वह इन ब्राह्मणों कि चतुराई चलने नहीं देता था! उस समय सभी ब्राह्मण संगठित हो कर उन पर यह आरोप लगाने लगते थे कि उनके ऐसा करने से सभी प्रजा का इस तरह से नुकसान हुआ है। इस प्रकार ये ब्राह्मण लोग उनके विरुद्ध इस तरह गलत−सलत अफवाएँ फैला कर उनको इतना त्रस्त कर देते थे कि उनको अपने मुखिया−पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ता था और वे आगे इस म्युनिसिपालिटी का नाम लेना भी छोड़ देते थे। लेकिन अपनी दयालु सरकार भी उन सभी ब्राह्मण अखबारों की बात सुन करके, उन खबरों को सच मान करके कह देती थी कि उस लेख में शूद्रों और अछूतों की बातें व्यक्त हो गई हैं। लेकिन ऐसा समझने में हमारी भोली−भाली सरकार की बहुत बड़ी गलती है। उसको इतना भी मालूम नहीं कि सभी ब्राह्मण अखबारवालों और शूद्र तथा अछूतों की जनम−जनम में भी ऐसे काम में मुलाकात नहीं होती। उनमें से अधिकांश अछूत ऐसे हैं जिनको यही नहीं मालूम कि आखिर अखबार किस बला का नाम है, सियाल या कुत्ता, या बंदर, यह सब कुछ भी मालूम नहीं। फिर ऐसे अपरिचित अनजान अछूतों के विचार इन सभी मांगलिक अखबारों को कहाँ से और कैसे मालूम होते हैं? उन्होंने सरकार का मजाक करके अनपढ़ लोगों के दिलो को आकर्षित करने के लिए, उनके प्रति झूठी हमदर्दी दिखा कर, अपने पेट पालने के लिए उन्होंने इस तरह का नया तरीका खोज निकाला है! यदि ऐसा न कहें, तब तमाम सरकारी विभागों में ब्राह्मण जाति के कर्मचारियों की ही भरती होने की वजह से सभी शूद्रों और अछूतों का भयंकर नुकसान हो रहा है। लेकिन उनको इसके बारे में जाँच−पड़ताल करने की फुरसत ही नहीं मिल रही है, इस बात को क्या हम सच मान सकते हैं? नहीं। क्योंकि सात समुद्र पार लंदन शहर की रानी सरकार के मुख्य प्रधान अपने सपने में हिंदुस्थान के बारे में किस-किस प्रकार की बातें बरगलाते रहे हैं, इस संबंध में छोटी−मोटी खबरें अखबारों में छ्पती रहती हैं। हमारा कहने का मतलब यह है कि यह सब कहने के लिए उनको कहाँ से फुरसत मिलती है! छोड़िए इन बातों को भी फिर भी किसी मराठी ईसाई अखबारवालों ने यह लिखा कि म्युनिसिपालिटी में गरीबों को दाद नहीं दी जाती, उनकी वहाँ कोई सुनवाई नहीं होती। इस तरह की खबर खबर छ्पने के बाद सभी मराठी अखबारों की इस तरह की खबरें सारांश रूप में अंगेजी में अनुवाद करके सरकार को दिखाने का काम म्युनिसिपालिटी के ही किसी एक ब्राह्मण सदस्य को सौंप दिया गया है। लेकिन वे लोग इस तरह की रिपोर्ट को म्युनिसिपालिटी में अपने कंधे−से−कंधा मिला कर बैठनेवाले जाति भाइयों की परवाह न करते हुए उनके (अपनी जाति के लोगों के‌‌) विरूद्ध सरकार के सामने क्या रख पाएँगे?

धोंडीराव : तात, इस चारों ओर सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व, बहुलता होने की वजह से ही शेष सभी जाति कि लोगों का नुकसान हो रहा है। इसलिए यदि आप इस संबंध में एक छोटी−सी किताब लिख कर 'दक्षणाप्राइज' कमिटी को पेश कर दीजिए। मतलब, उस किताब की वजह से सरकार की बंद आँखें खुल जाएँगी।

जोतीराव : ब्राह्मण−पंडा−पुरोहित (जोशी) अपने मतलब, धर्म के गपोड़े से अज्ञानी शूद्रों कि किस−किस तरह बहकावे में ला कर, फुसला करके खाते−पीते हैं और ईसाई मिशनरी अपने निस्वार्थ धर्म की सहायता से अज्ञानी शूद्रों सही ज्ञान दे कर उनको किस प्रकार से सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं, आदि तमाम बातों के बारे में मैंने एक छोटा−सा नाटक लिखा है। वह नाटक सन 1855 में 'दक्षणा प्राइज' कमिटी को भेजा था; लेकिन वहाँ भी इसी प्रकार के जिद्दी ब्राह्मण सदस्यों के दुराग्रह की वजह से यूरोपियन सदस्यों की एक भी न चल सकी। तब उस कमिटी ने मेरे इस नाटक को नापसंद किया। अरे, इस 'दक्षणा−प्राइज' कमिटी को म्युनिसिपालिटी की ही छोटी बहन कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। उस 'दक्षिणा−प्राइज' कमिटी को शूद्रों को प्रेरित करना चाहिए था। शूद्रों को लिखने की प्रेरणा मिले इसलिए कितनी जगह पर सहयोग दिया, यह खोजने के लिए आप चिराग ले कर भी जाएँ तो कुछ मिलनेवाला नहीं है। अंत में मैंने उस किताब को अलग रख दिया और कुछ साल बीत जाने के बाद दूसरी छोटी−सी किताब में मैंने ब्राह्मणों की चालाकी के संबंध में लिखा था और मैंने स्वयं के पैसों से ही उस किताब को छपवा कर प्रसिद्ध किया था। उस समय पूना के मेरे एक मित्र ने अधिकारियों को, उस पुस्तक की खरीद के लिए, सूचना पत्र के साथ भिजवाई; लेकिन उनमें से किसी एक भी अधिकारी ने ब्राह्मण−पंडितों के डर की वजह से एक भी किताब खरीद कर अपने नाम को किसी भी प्रकार दोषारोपण नहीं लगने दिया।

धोंडीराव : तात, सच बात यह है कि आपको अपने लिए लोगों के आगे−पीछे करने की आदत है नहीं, इसलिए आपकी किताबें बिकतीं नहीं।

जोतीराव : अरे, मेरे बाप, अच्छे काम को सफल बनाने के लिए बुरे इलाज नहीं खोजने चाहिए, वरना इस काम के अच्छेपन को ही धब्बा लग जाता है। उन्होनें मेरी एक किताब नहीं खरीदी, इसलिए क्या उससे मेरा बहुत कुछ नुकसान हुआ है? नहीं, लेकिन अब इसके बाद मैं इस तरह के घटिया लोगों के सामने किसी भी प्रकार की अर्जी करना पसंद नहीं करूँगा। मैं उनका निषेध करूँगा। मैंने पढ़ा है कि तरह से हमें अपने उत्पन्नकर्ता पिता पर निर्भर रहना चाहिए। इसलिए मैं उसका तीन बार धन्यवाद करता हूँ।

धोंडीराव : तात, आपने जब ब्राह्मण जाति की लड़कियों के स्कूल की स्थापना की थी, उस समय सरकार ने मेहरबान हो कर आपको बड़े सत्कार के साथ एक शॉल भेंट की थी। बाद में उसी तरह आपने अछूतों के लिए भी स्कूल की स्थापना करके उसके लिए कई ब्राह्मणों की सहायता ली थी। और उन सभी स्कूलों में बड़े जोर-शोर के साथ पढ़ाई−लिखाई शुरु हो गई थी। लेकिन बीच में ही वह अचानक बंद हो गया। कुछ साल बीत जाने के बाद आपने यूरोपियन लोगों के घर में आना−जाना भी एक तरह से बंद जैसा ही कर दिया था। इसकी वजह क्या हो सकती है?

जोतीराव : ब्राह्मण जाति की लड़कियों के लिए स्कूल शुरु कर देने की वजह से सरकार को बड़ा आनंद हुआ और उसने मुझे एक शॉल भेंट की, यह बात बिलकुल सच है, लेकिन मुझे जब अछूतों के लड़के लड़कियों के लिए स्कूल शुरु करने की आवश्यकता महसूस हुई, तब मैंने उस काम के लिए कई ब्राह्मणों को सदस्य बनाया और वे सभी स्कूल ब्राह्मणों के हाथों में सौंप दिए। जब मैंने अछूतों के लड़के−लड़कियों के लिए स्कूल शुरु किए, उस समय सभी यूरोपियन गृहस्थों में रेव्हेन्यू कमिशनर रीव्हज् साहब ने जो अर्थ-सहायता की, उसको मैं कभी भी भूल नहीं सकता। उन उदार गृहस्थों ने मुझे सिर्फ अर्थ की सहायता ही की है, ऐसी भी बात नहीं; बल्कि वे अपना महत्वपूर्ण धंधा सँभालतें हुए भी उन अछूतों के स्कूल में बार-बार आ कर इस बारे में बार-बार पूछ्ताछ करते थे कि छात्रों ने पढाई-लिखाई में कितनी तरक्की की है। उसी प्रकार छात्रों को पढ़नेकेलिए प्रेरित करने की वे बड़ी कोशिश करते थे। इसलिए उनके उपकार अछूतों के छात्रों के रग-रग में समाए हुए हैं। उनके इन उपकारों से मुक्त होने के लिए यदि वे अपने चमड़े की जूतियाँ बना कर भी उनके पाँव में पहनाएँ, तब भी वे उनके उपकारों से मुक्त नहीं हो सकते।

इसी प्रकार अन्य कुछ यूरोपियन गृहस्थों ने मुझे इस काम के लिए काफी सहायता की है, इसलिए मैं उनका आभारी हूँ। उस समय उस काम में मुझे ब्राह्मण सदस्यों को लेने की जरूरत महसूस हुई। इसके अंदर की बात किसी समय मैं जरुर बताऊँगा। लेकिन बाद में जब मैंने उन स्कूलों में ब्राह्मणों के पूर्वजों के बनावटी धर्मशास्त्रों में लिखी गई धूर्ततापूर्ण बातों के संबंध में उन छात्रों को पढ़ाना−समझाना शुरु कर दिया, तब उन ब्राह्मणों और मेरे अंदर−ही−अंदर बोलचाल में रुखापन बढ़ता गया। उनके कहने का रुख इस तरह दिखाई दिया कि उन अछूतों के बच्चों को बिलकुल ही नहीं पढ़ना−लिखना−सिखाना चाहिए। लेकिन यदि उनको पढ़ना−लिखना−सिखाना जरूरी है तब उनको केवल अक्षरों का ज्ञान हो, बस! इतना ही पढ़ना−लिखना−सिखाना चाहिए, इससे ज्यादा बिलकुल नहीं। लेकिन मेरा कहना यह था कि उन अछूत बच्चों को अच्छे दर्जे तक पढ़ना−लिखना−सिखा कर उनमें क्षमता पैदा कर देनी चाहिए कि वे अपना हित अहित स्वयं जान सके। अब अछूतों को पढ़ना−लिखना नहीं सिखाना चाहिए, यह कहने में उनका स्वार्थ क्या हो सकता है? उनके मन की बात को निश्चित रुप से समझ लेना आसान नहीं है। लेकिन यह हो सकता है कि ये लोग पढ़−लिख कर बुद्धिमान बनेंगे, ऐसा उनको लगता होगा। और यह भी लगता होगा कि 'हमारी तरह ही इनको भी पढ़ने−लिखने का मौका मिला, सही ज्ञान प्राप्त हुआ, और उनको सच और झूठ में फरक समझ में आया तब वे लोग हमारा निषेध करेंगे। और सरकार के वफादार अनुयाई बन कर हमारे पूर्वजों ने उन पर और उनके पूर्वजों पर जो जुल्म किए, जो ज्यातियाँ की हैं, उस इतिहास के पन्ने पढ़ कर हमारा पूरी तरह से निषेध करेंगे।' यही उनकी भावना हो सकती है। इस तरह जब उनके और मेरे विचारों में फर्क पड़ने लगा तब मैंने उन ब्राह्मण−पंडितों के नकली, स्वार्थी स्वरुप को पहचान लिया और उन दोनों संस्थाओं से एक ओर हट गया। इसी दरम्यान ब्राह्मण पांडे (मंग़ल पांडे, 1857 का विद्रोह) का विद्रोह शुरु हो गया। उसी समय से सभी यूरोपियन सभ्य लोग मेरे साथ पहले की तरह खुल कर बातचीत नहीं करते; बल्कि मुझे देखते ही उनके चेहरे पर मायूसी छाने लगती। तब से मैंने भी एक तरह से उनके घर पर आना−जाना एकदम बंद कर दिया।

धोंडीराव : तात, ब्राह्मण पांडे ही बदमस्ती की वजह से उन यूरोपियन लोगों ने हम जैसे निरपराधियों को नजरअंदाज किया हैं और वे लोग हमको देखते ही अपने चेहरे पर मायूसी लाने लगे हैं। यह उनकी उदारवादी दृष्टि और उनकी बुद्धिमानी को शोभा नहीं देता। उसी प्रकार हमें ब्राह्मणों की विधवा नारियों के गर्भपात आदि जघन्य अपराधी कृत्य नहीं करना चाहिए। उन ब्राह्मण विधवा गर्भधारिनी नारियों को गुप्त से पसूत होना चाहिए, इसके लिए हमने अपने घर में ही पूरी व्यवस्था की है और उस काम के लिए हमने अपनी सरकार से किसी भी प्रकार की सहायता नहीं माँगी। उस काम में नाममात्र के लिए भी ब्राह्मण सदस्यों से कुछ न लेते हुए, यह कार्य हमने अपने स्वयं के खर्चे से चलाया है।

जोतीराव : अपनी सरकार के बारे में कहा जा सकता है कि जिधर दम, उधर हम। क्योंकि अछूतों को छूने का अधिकार नहीं होने की वजह से स्वाभाविक रुप से ही उनके सभी प्रकार के काम−धंधों करने के दरवाजे बंद हो गए हैं और उसी की वजह से उसके सामने पेट की आग को बुझाने के लिए चोरी−डकैती आदि अवैध कामों को करने की नौबत आती है। लेकिन उन्हें चोरी डकैती आदि अवैध काम नही करने चाहिए, इसलिए हमारी सरकार ने उनको नजदीक के पुलिस थाने में जा कर हाजिरी लगाने का दस्तूर शुरु किया है, यह अच्छा काम किया है। लेकिन ब्राह्मणों की अनाथ, निराधार विधवा स्त्रियों को दूसरा विवाह करने की मनाही होने की वजह से उन ब्राह्मण स्त्रियों को व्यभिचार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसका परिणाम कभी−कभी यह भी होता है कि गर्भपात और भ्रूणहत्या (बालहत्या) भी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इन तमाम बातों को हमारी न्यायी सरकार अपने खुली आँखों से देखती रहती है। फिर भी मातंग−रामोशियों की तरह उन पर निगरानी नहीं रख रही है, यह कितना बड़ा आश्वर्य है! क्या यह अन्याय नहीं है? हमारी सरकार गर्भपात और भ्रूणहत्या करनेवाली विधवा स्त्रियों की अपेक्षा चोरी−डकैती करनेवाले मातंग़−महार लोग ज्यादा दोषी दिखाई देते हैं। दूसरी बात यह कि ब्राह्मणों की 'काम कम और बकवास ज्यादा' रहती है। अरे, जो लोग समझदार हो कर अपनी छोटी नासामझ बहन की हजामत करनेवाले हज्जाम के हाथ को रोकने के लिए अपना हाथ आगे नही बढ़ा सकते, बुजदिल लोगों को ऐसे रोकने के लिए सदस्य बना करके क्या फल होगा?

धोंडीराव : तात, कोई बात नहीं। लेकिन आपने पहले कहा था कि सभी सरकारी शिक्षा विभागों में कुछ अव्यवस्था फैली हुई है, उसका क्या मतलब है?

जोतीराव : इन सरकारी शिक्षा आदि विभागों में जो हर तरह की अव्यवस्था है, उसके बारे में यदि लिखा जाए, तब उसकी एक स्वतंत्र किताब ही हो जाएगी। इसी डर की वजह से उसमें से एक-दो बातें उदाहरण स्वरुप यहाँ ले रहा हूँ। पहली बात यह है कि शूद्र और अछूतों के बच्चों के स्कूलों के लिए शिक्षक तैयार करने की कोई दिलचस्पी नहीं है, उनको इस काम में पूरी अनास्था है।

धोंडीराव : तात, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? सरकार ने सभी जाति के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक (पंडित) प्रशिक्षित करने के लिए एक स्वतंत्र प्रशिक्षण स्कूल शुरु किया है। सरकार के मन में कोई भेदभाव की भावना नहीं दिखाई देती।

जोतीराव : यदि तुम ऐसा कहते हो, तब यह बताओ कि आज तक उन प्रशिक्षित शिक्षकों ने (पंडित) अछूतों के कितने बच्चों को पढ़ना−लिखना−सिखाया है? अब तुम नीचे क्यों देख रहे हो? इसका मुझे जबाब दो।

धोंडीराव : तात, सभी ब्राह्मण पंडित लोग ऐसा कहते हैं कि अछूत के बच्चों को स्कूल में दाखिल करते ही, हिंदुस्थान में बड़ी अव्यवस्था पैदा होगी। बड़ा असंतोष पैदा होगा। इसलिए सरकार घबराती है।

जोतीराव : अरे, सरकार अपनी फौज में सभी जाति के लोगों को भरती करती है। फिर हिंदुस्थान के लोग क्यों अव्यवस्था पैदा नहीं कर रहे हैं? यह सब सरकार फिर की लापरवाही है। क्योंकि सभी जाति के लोगों को फौज में भरती करते समय सरकार उस काम को स्वयं कर लेती है और शिक्षक (पंडित) प्रशिक्षित करने का काम उस फालतू किसी हरामी गोबरगणेश को सौंप देती है, और यदि उसको इस काम की कुछ भी जानकारी होती, तब उसने सबसे पहले अछूतों के बच्चों को शिक्षक के रूप में तैयार (प्रशिक्षित) करने का काम किसी भी प्रकार से आनाकानी न की होती। उसी प्रकार उन स्कूलों में केवल ब्राह्मणों के बच्चों की ही इतनी फालतू भरती न की होती।

धोंडीराव : तात, फिर सरकार को इसके लिए क्या करना चाहिए?

जोतीराव : इसका एक ही पर्याय है कि सरकार मेहरबान हो कर इस काम को सभी यूरोपियन कलेक्टरों के हाथ में सौंप दे। तब ही यह शिक्षा के प्रचार का कार्य सफल होगा, वरना नहीं। क्योंकि इन्हीं लोगों का शूद्र और अछूतों से निकट का संबंध होने की वजह से ब्राह्मण कर्मचारियों पर किसी भी प्रकार का भरोसा नहीं करना चाहिए। उन्हें हर गाँव−खेड़ों में एक−एक बार जा कर वहाँ यह समझाना चाहिए कि कुलकर्णियों की बिना मदद से गाँव के सभी बुजुर्ग−बाल−बच्चों को पढ़ना−लिखना सिखाने से क्या−क्या लाभ होते हैं। उनके इस तरह से समझाने से गाँव−खेड़े के लोग अपने सभी होशियार बच्चों को पढ़ना−लिखना सिखाने के लिए बहुत ही खुशी से कलेक्टर साहब के हवाले कर देंगे। इस तरह यूरोपियन कलेक्टरों के कहने से शिक्षा से प्रचार प्रसार का काम जितना सफल होगा, उस तरह ऐसे नासमझ (ब्राह्मण पंडित) कर्मचारियों से न सफल हुआ और न होगा, यही हमारी धारणा है। इस संबंध में एक कहावत है कि 'जेनो काम तेनो थाय, बिजा करे तो गोता खाय'। इससे अब तुम्हीं सोचो कि शूद्र और अछूत जाति के पढ़े−लिखे लोगों की आज कितनी जरूरत है। क्योंकि जब उस जाति के लोग पढ़−लिख कर तैयार होंगे, तब उनको अपनी जाति का अभिमान होगा और वे लोग अपनी−अपनी जाति के बच्चों को पढ़ना−लिखना सिखाएँगे, उनको पढ़ने−लिखने के लिए प्रेरित करेंगे। वे लोग अपनी−अपनी जाति के बच्चों को हाथ में डंडा ले कर जानवरों को हाँकते हुए उनके पीछे−पीछे जाने से पहले, शिक्षा के प्रति उनके मन में इतना प्रेम पैदा करेंगे कि जब वे बच्चे बड़े हो जाएँगे तब वे अपने में से एक बच्चे को बारी-बारी खेत पर जानवरों को सँभालने के लिए रखेंगे और शेष सभी लड़कों को गाँव के मैदान पर गिल्ली−डंडा खेलने से रोकेंगे। उनको गाँव में ला कर, अध्यापक के पास बैठा कर पढ़ना−लिखना सीखने के लिए, कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। दुनिया में सबसे प्रगतिशील राष्ट्र अमेरिका के लोगों में आधे से ज्यादा लोगों ने अपने वर्ण के बंधुओं के विरोध में तीन साल तक लगातार जंग करने के बाद अपने हाथ के गुलामों को छोड़ दिया था। तब ऐसे मुर्ख ब्राह्मण स्कूलों में शूद्रादि अछूतों को सही ज्ञान पढ़ा कर उनको अपनी गुलामी से मुक्त होने की प्रेरणा कैसे दे सकेंगे? अरे, जिस एक ब्राह्मण प्रोफेसर की तनख्याह में छ: शूद्र या नौ अछूत प्रोफेसर कम तनख्वाह में प्राप्त होने की पूरी संभावना होने पर भी अपनी सरकार इस काम के लिए ब्राह्मणों के पीछे लगी हुई है और अपने अज्ञानी भाइयों की कमाई का रुपया−पैसा इस तरह बेहिसाबी खर्च कर रही है। इसलिए यदि हमने अपने सरकार को भरी नींद से जगाया नहीं, तब तो इस अनर्थ का दोष हमारे माथे पर लगेगा। इसी प्रकार चौधरियों की हवेलियों के रसोईघरों में अछूतों के कितने बच्चे काम करते हैं, इसके संबंध में जरा कुछ बताइए।

धोंडीराव : तात, जहाँ शूद्रों के बच्चों को ही कोई देखने सँभालनेवाला नहीं है, वहाँ अछूतों के बच्चों की बात ही दरकिनार।

जोतीराव : आखिर ऐसा क्यों? तुम ही कहते हो न कि, सरकार भेदभाव नहीं करती, फिर यह जो कुछ हो रहा है, इसकी वजह क्या है?

धोंडीराव : इसका कारण वहाँ सभी ब्राह्मण कर्मचारियों का होना ही प्रतीत होता है। आपने एक बात मुझे एक दिन प्रत्यक्ष रूप से बताई थी। वह बात यह थी कि जो ब्राह्मण व्यक्ति पहले आपके पास नौकरी के लिए था, वह अछूतों के स्कूल में आ कर किसी भी प्रकार का छुआछूत नहीं मानता था और स्कूल के सभी छात्रों को अच्छी तरह पढ़ना−लिखना सिखाता था। लेकिन वही ब्राह्मण जब रसोइया बना, तब वह इतना छुआछूत मानता था कि उसने एक गरीब सुनार को चौराहे पर खींच ले आया था; क्योंकि उस सुनार ने गरमी के दिनों मे उस टंकी से पानी निकाल कर पिया था और अपनी प्यास बुझाई थी।

जोतीराव : अरे, इन महामूर्ख ब्राह्मणों द्वारा रचे गए गीतों को आज भी सभी नए समाजों मे गाया जाता है, और उन्होंने अब तक अपने मतलबी धर्म के अनुसार पत्थरों के भगवान को पूजना छोड़ा नहीं है। वही ब्राह्मण अपने घर की टंकी को शूद्रों को नहीं छुना चाहिए इसलिए उसे ढाँक कर काशी जा कर वहीं स्थायी होने की बात कर रहा है। लेकिन हमारे निष्पक्ष म्युनिसिपालिटी में ब्राह्मण सदस्यों की संख्या सबसे ज्यादा होने की वजह से उन्होंने उस टंकी के इर्द−गिर्द के घेरे को वैसे ही कायम रखा है। लेकिन उन्होंने बिना सोच−विचार किए ही शुक्रवारी के दर्जी की टंकी के घेरे को एकदम गिरा दिया। वहाँ के कई ब्राह्मणों ने सिर्फ अपने उपयोग के लिए उस टंकी के ऊपरी भाग में और उससे लगा कर एक छोटी−सी चोर टंकी बाँध दी है और उसका पानी अपने स्नान के लिए, अपने पापों को धोने के लिए मनमानी खर्च करते हैं। ब्राह्मण जाति में जन्म ले कर इस तरह की पाखंडी हरकतें न करें, तब उस जाति की कीमत ही क्या है?